रविवार, 10 नवंबर 2024

कुबेरनाथ राय का सहित्य -चिंतन

 

कुबेरनाथ राय ने भारतीय साहित्य पर दो दृष्टियों से विचार किया है µ मूल्यपरक और नृतात्त्विक। मूल्य की दृष्टि से साहित्य में दो प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखना आवश्यक है µ रस और भूमा। रस को उन्होंने अपने में डूब जाने µ समाधिस्थ हो जाने की स्थिति का कारण माना है। वे रसविज्ञानियों द्वारा निर्मित रस से आनंद के संबंध µ' रसोवैसः' µ को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आनन्द का ही एक रूप मोक्ष है। इसे वे भारत की चिन्मय सत्ता का प्रतीक मानते हैं। मोक्ष और निर्वाण की अलग-अलग व्याख्याएँ दी गई हैं। उनके अनुसार इसके लिए मृत्यु का रहस्य नहीं है। यह इसी जीवन और इस लोक में भी किया जा सकता है। नृत्य , गीत , कला आदि के माध्यम से। वे इसके प्रमाण में 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' के एक अंश 'अहोल्ब्ध उत्सव निर्वाणम्' का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यहाँ उत्सव निर्वाण का अर्थ आखों का विनाश नहीं होना चाहिए। यहां इसका अर्थ है चरम सुख या महासुख की प्राप्ति। इसका आधार लौकिक है- शकुंतला का रूप। दूसरा तत्व भूमा का अर्थ वे विस्तृत होने की इच्छा मानते हैं। उन्हें साहित्य के लिए आत्मविभोरता और भूमा का विस्तार दोनों का रस आवश्यक लगता है। वे इन दोनों से समन्वित साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य मानते हैं। उन्होंने कहा कि एकता को समन्वय का आधार माना जाता है। इस रूप में वे )ळिप्रधान कहते हैं।

कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य की तीन कोटियाँ हैं µ रसप्रधान , ) ळी तथा रसप्रधान और )ळीप्रधान। बिहारी और गालिब को पहली बार कोटि में रखा गया है। उनके अनुसार ये दोनों ही रस प्रधान कवि हैं। दूसरी कोटि में उन्होंने व्यास वाल्मिकी , सुर कबीर और तुलसी को धारण किया है। ये रस , भूमा और शील से समन्वित)ळिप्रधान कवि हैं। वे इस वर्ग के सिद्धांत को राष्ट्रीय शील के प्रशिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं। तीसरी कोटि में वे कालिदास , सूरदास और रवीन्द्र नाथ टैगोर शामिल हैं। ये रस और )ळी दोनों तत्त्व की एक साथ उपस्थिति हैं। उन्होंने इस सूची में कहा है कि कवि के छोटे से बड़े कलाकार के अस्तित्व का आधार न जीवित कवि की प्रकृति की पहचान का आधार माना जाता है। उन्होंने वाल्मिकी , व्यास , कालिदास , भवभूति , जयदेव , तुलसी से लेकर आधुनिक विद्वानों में प्रेमचंद , दिनकर और मुक्तिबोध तक के साहित्य पर विचार किया है, शंकरदेव और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे हिन्दी से लेकर अन्य विद्वानों ने भी अलग-अलग सिद्धांतों पर विचार किया है। है.

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

दीपावली : मिट्टी का त्यौहार

दीपावली मुझे चंदेव बाबा के आंगन में पहुंचा देती है। जहां घुरली, घंटी, भोंभा, जाँत और तरह तरह के खिलौनों से भरी एक दूसरी ही दुनिया होती थी। दिवाली पर जब किसी मुहल्ले में भोंभे की आवाज सुन पड़ती तो हम अपने दरवाजे पर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगते। स्कूल से आने के बाद आस पास के घरों में ताक झांक कर आते कि अभी तक उनके घर दिए आए या नहीं। एकाध बार गांव में कहीं मिल जाने पर उनसे भी जल्दी अपने घर आने की गुजारिश कर आते। जब वे दरवाजे पर आते तो अपना ध्यान उनकी टोकरी के बजाय उनके साथ वाले की टोकरी पर होता। वे जब तक दिवाली का दिया और गोधन की घुरली गिनकर देते तब तक अपना ध्यान उसी ओर लगा रहता। अंत में इन खिलौनों की बारी आती। तब गांवों के किसान परिवार में आतिशबाजी का चलन उतना नहीं था। कुछ बनिए और सुनारों के घरों में जरुर खूब पटाखे चलते थे। मिट्टी के खिलौने, मिठाइययों के अलावा दिवाली पर जो नयी बात होती, वह नए धान का चिउड़ा। उसकी मिठास और सोंधापन पैकेट बंद पोहे और मशीन से कूटे गए चिउड़ा में भला कहां। तब चिउड़ा कूटना, धान कूटना, जांत पीसना सामूहिक और समाजिक क्रियाएं होती थीं। उसी तरह गोवर्धन पूजा और पिंडिया जैसे दीपावली से जुड़े त्यौहार भी। शहरों में सामाजिकता प्रदर्शन की चीज रही है और गांवों में जरूरत। जैसे-जैसे जरूरत बदल रही है गांवों की सामाजिकता भी बदल रही है। चाक मिट्टी के बर्तन और उनसे जुड़े लोगों की अगली पीढ़ियों के हाथों में हुनर नहीं तसला और फावड़ा है, वे शहर के किसी मोड़ पर दिहाड़ी के लिए जुटे हैं। गुजर तब भी मुश्किल थी और अब भी मुश्किल है। तब कम से कम उनके पास हुनर तो था, अब तो वे भी भीड़ का हिस्सा हैं।
'उत्तम खेती मद्धम बान अधम चाकरी भीख निदान' वाली उस पीढ़ी की जीवन शैली को जी पाना हमारी पीढ़ी के लिए असंभव है। अभावों और सीमित संसाधनों के बावजूद आत्मनिर्भरता की जो ठसक उनके पास थी, वह रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकने वाले हम प्रवासियों को कहां नसीब ? गांव की नई पीढ़ी के हाथ से तो मिट्टी के खिलौने ही छुटे यहां तो मिट्टी ही छूट गई। आसमान में त्रिशंकु बने जी रहे हैं।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

विवेकी राय के निबंधों भारत-बोध

 


विवेकी राय का भारत ग्रामीण भारत है और उनकी भारतीयता का वास इसी ग्राम्य जीवन के भीतर है। गाँव भारतीय समाज संस्कृति और अर्थव्यवस्था तीनों की रीढ है।  भारतीय समाज व्यवस्था की कमजोरियाँ और ताकत दोनों के बीज इसी के बीतर मौजूद हैं। ग्रामीण समाज की व्यवस्था के भीतर ऊँच नीच का जैसा घटाटोप इस व्यवस्था के भीतर है
, वैसा नगर जीवन-क्रम नहीं । सामूहिकता और साहचर्य का रूप हमें ग्राम्य जीवन में दिखाई देता है, वह भी अन्यत्र दुर्लभ है।  विवेकी राय के निबंधों में इन दोनों ही रूपों के दर्शन होते होते हैं। फिर बैतलवा डाल पर निबंध संग्रह के सोने की लूट निबंध में किसान (गिरहत्त) और कामगार (प्रजा) के पारंपरिक संबंधों के दर्शन के साथ-साथ ग्रामीण जाति व्यवस्था के संबंध में उनके विचारों का परिचय भी मिलता है “दरवाजे पर आया तो हलवाहा हल बैल के साथ तैयार मिला। बोला आज विजयादशमी है न । उसका तात्पर्य यह स्पष्ट था । उसे पैसा चाहिए। मिठाई आज वह भी खायेगा। धन्य हैं वह राम जिनके प्रताप से एक दिन के लिए ही इन्हें भी मिठाई खाने को मिल जाती है। दुनिया के सर्व प्रकार के सुस्वाद भोज्य पदार्थों से पूर्णतया वंचित संसार के सबसे महत्वपूर्ण जीव ! मार्क्स-युग के पूज्य-पुरोहित और गाँधी-युग के हरिजन।

विवेकी राय के लेखन से अपरिचित होने पर इस उद्धरण के अंतिम पंक्तियाँ लेखक की सामंती मानसिकता अथवा गांधीवाद और मार्क्स्वाद की विरोधि लग सकती हैं, लेकिन लेखक यहाँ भारतीय समाज की विडंबना और भारतीय राजनीति के कड़वे यथार्थ दोनों को एक साथ व्यक्त करना चाहता है। समाज का वह अंत्यज वर्ग, जो अस्पृश्यता के दंश को सदियों से झेलता रहा है, वह केवल महिमामंडन और राजनीतिक नारों से ऊपर नहीं उठ सकता। उसे ऊपर उठाने के लिए आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता की जरूरत है। गाँधीवाद और मार्क्सवाद समेत भारतीय राजनीति के तमाम आंदोलन से आगे बढ़ा पाने में असफल रहे हैं। वे प्रायः उनकी स्थिति का राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे। विवेकी राय ये पक्टियाँ ठीक उसी समय लिख रहे थे जब धूमिल अपनी लम्बी कविता पटकथा और मोची रामलिख रहे थे। भारतीय राजनीति पर उनकी टिप्पणियों की तुलना में विवेकी राय की ये टिप्पणियाँ अधिक सभ्य और शालीन हैं।

विवेकी राय गँवई लेखक हैं। वे बडे-बडे नारों. स्लोगनों या ग्राम्यजीवन से अपरिचित उपमानों का प्रयोग प्रायः नहीं करते। इसी लिए ग्रामीण कामगार वर्ग की बदहाली का चित्र खींचते हुए उसी वर्ग के सुपरिचित मिथकों को उपमान बनाते हैं, ”यहाँ तो भूख का रावण, गरीबी का मेघनाद और मूर्खता का कुंभकरण पूरे ज़ोर पर है। रामराज्य दूर है।  श्रमिक देवता खून दे-देकर एक क्षीण-प्राण हो रहे हैं। पूरी दुनिया लंका हो गई है। एक ओर सोने का संसार है, दूसरी ओर दानवी चक्र में पीसी गरीब प्रजा के आंसुओं का समुद्र है। कहाँ है मानवता? कहाँ है धर्म ? कहाँ है मानवीय गुण?”



शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

मधुवन तुम कत रहत हरे


ताजे चुए हुए महुए से सुंदर मुझे कोई फूल नहीं लगता
; जूही रातरानी या हर्सिंगार का झरना भी नहीं । महुआ रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श पाँचों से से लबा-लब भरा है । किसी प्रेमी के सरस हृदय की तरह यह सहज ही निचुड जाता है और अपनी पोर-पोर, बल्कि  अपने रूपाकार को भी घुला देता है।  महुआ स्वभावतः मधुर ही नहीं मदिर भी है।  इसके बाग से गुजरते हुए गंध यदि माथे में चढ जाय तो नशा-सा तारी हो जाता है। बसंत की खुमारी का सारा कारोबार महुए के फूलों और आम की बौर ने सम्भाल रखा है। हो भी क्यों न मधुमास का जिम्मा मधूक न ले तो भला और कौन लेगा? महुए के फूल चैत्र-बैशाख में खिलते और टपकते हैं। यह वातावरण में अपूर्व मिठास का समय है। पूरा बाग ही मिठास से चिट-चिटा उठता है। आम की बौर और महुए की संगति में माधुर्य में मत्त बाग से गुजरते हुए मन अपने पुरनियों की तरह स्वतः बोल उठता है :

आपस्तस्तंभिरे चास्य समुद्र मभियास्यतः।

पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्।।

अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्धन्त्यन्नानि चिंतया।

सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु।।

          आज नागर जीवन जीते हुए यह अनुमान भी लगभग असम्भव है कि आम की बौर और पत्तों पर जमी हुई मधुआकी मिठास से बच्चों की जीभ किसी जमने में कितनी परिचित थी। अब तो आम-महुए के बागों में दिन-दिन भर भटकने वाली पीढी लगभग दुनिया से बिदा हो गई और साथ ही वे बाग भी जिनकी सघन छाया में गर्मियों की दोपहर गांव के बडे-बुढे बछे आसरा पाते थे। उसी पीढी के एक भोजपुरी गीत में नायिका के लाल-लाल होठों से टपकते माधुर्य से आम्र मंजरी से ट्पकते हुए रस की तुलना की गई है[1] लोकगीत ही क्यों शिष्ट काव्य भी इसपर मुग्ध है । यहाँ तक कि दरबारी कहा जाने वाला रीति काव्य भी  इसके माधुर्य को अनदेखा नहीं कर सका है । और तो और आलोचकों से कठिन काव्य के  प्रेत और हृदय हीन कवि की उपाधि प्राप्त केशव दास भी इससे अछूते नहीं। सखी नयिका से कहती है कि जब से नायक तेरे होठों का किसी प्रकार धृष्टता करके थोड़ा सा रस ले गए हैं तब से छुहारा, अनार, अंगूर नहीं खाते । मक्खन की चाह भी छोड़ दी है। ऊख और शहद की भी निंदा करते हैं ।  उन्होंने तो उसी दिन से पृथ्वी के मीठे पदार्थों को छोड़ दिया है। सुधा को भी उन्होंने मधुरों की श्रेणी से हटा दिया है ।[2] बिहारी और देव के यहाँ तो कई प्रसंग मिलते हैं। लेकिन जितना सुंदर चित्रण गाथा सप्तशतीमें हाल ने किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है: अग्घाइ छिवइ चुम्बइ ठेवइ हिअअम्मि जणिअ रोमंचो ।

जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअ पुफ्फं ॥



[1] लाले लाले ओठवा से चूए ला ललैया हो कि रस चुए ला

जैसे अमवा के मोजरा से रस चुए ला

[2] खारिक खात न दारयौंइ दाख न माखनहूँ सहुँ मेटी इठाई ।

केसव ऊख महूखहु दूखत आई हों तो पहँ छाँडि जिठाई

तो रदनच्छद को रस रंचक चाखि गए करि केहूँ ढिठाई ।

ता दिन तें उन राखी उठाइ समेत सुधा बसुधा की मिठाई ॥

 

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

मित्रता

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जयंती पर विशेष)


ब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता निर्भर हो जाती है; क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते है जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे-चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऎसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऎसे लोगों का साथ करना और बुरा है जो हमारी ही बात को ऊपर रखते है; क्योकिं ऎसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरूषों को प्राय: विवेक से कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरूष प्राय: विवेक से कम काम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण-दोषों को कितना परख लेते है, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रक्रति आदि का कुछ भी विचार और अनुसन्धान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते है। हम लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या हैं, तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नही सूझती कि यह ऎसा साधन है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है- "विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।" विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुण्ता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमतला होती है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरूष को करना चाहिए।
 
          छात्रावास में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता ह्रदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बन्धन होते हैं, उसमें न तो उतनी उमंग रह्ती हैं, न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मनन करने वाला आनन्द होता है, जो ह्रदय को बेधने वाली ईर्ष्या होती है, वह और कहां? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। ह्रदय के कैसे-कैसे उदगार निकलते है। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखायी पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएं मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। 'सहपाठी की मित्रता' इस उक्ति में ह्रदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरूष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से द्रढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूं कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटो में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रक्रति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है। पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बाते चाहिए। मित्र केवल उसे नही कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करे, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें. जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जायें, पर भीतर-ही-भीतर घ्रणा करते रहे? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभुति होनी चाहिए- ऎसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नही है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रूचि के हो। इसी प्रकार प्रक्रति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रक्रति के मनुष्यों मेम बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रक्रति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी. पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नही हैं कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते है, जो गुण हममें नहीं है हम चाह्ते है कि कोई ऎसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफ़ुल्लित चित्त का साथ ढूंढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुंह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।
 
        मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है-"उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का काम कर जाओ।" यह कर्त्तव्य उस से पूरा होगा जो द्रढ़-चित और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऎसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए। जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध ह्रदय के हो। म्रदुल और पुरूषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।


 
         जो बात ऊपर मित्रों के सम्बनध में कही गयी है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऎसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हो, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करनें मे कुछ सहायता दे सकते हो, यद्यपि उतनी नही जितनी गहरे गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख, और ग हमारे लिए कुछ कर सकते है, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते है, न सहानुभुति द्वारा हमें ढाढ़ास बंधा सकते है, हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखें। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियां सजाना सजाना नही है। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नही है। कोई भी युवा पुरूष ऎसे अनेक युवा पुरूषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में आयेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऎसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवंश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों मेम से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, गलियों में ठठ्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़आते चलते हैं। ऎसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर है। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति बाले कवि हुए हैं और न संसार में सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए है। उनके लिए न तो बड़े-बड़े बीर अदभुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऎसे विचार छोड़ गये हैं जिनसे मनुष्य जाति के ह्रदय में सात्विकता की उमंगे उठती हैं। उनके लिए फ़ूल-पत्तियों मेम कोई सौन्दर्य नहीं। झरनोम के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त साहर तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरूषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य से सच्ची प्रीति का सुख और कोमल ह्रदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका ह्रदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऎसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऎसा होगा जो तरस न खायेगा? उसे ऎसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।
 
मकदूनिया का बादशाह डमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच इसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुंचा तब डेमेट्रियस ने कहा-ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।" पिता ने कहा-'हां! ठीक है वह दरवाजे पर मुझे मिला था।'
 
         कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सदव्रत्ति का ही नाश नही करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी।
 
            इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहां वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऎसे होते हैं जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऎसी-ऎसी बातें कही जाती है जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऎसे प्रभाव पड़ते है जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते है, कि भद्दे व फ़ूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं. उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नही एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते वे बार-बार ह्रदय में उठती हैं और बेधती है। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऎसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फ़ूहड़ बातों से तुम्हें हंसाना चाहे। सावधान रहो ऎसा ना हो कि पहले-पहले तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऎसा हुआ, फ़िर ऎसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऎसा प्रभाव पड़ेगा कि ऎसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे। नहीं, ऎसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है। तब फ़िर यह नहीं देखता कि वह कहां और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभयस्त होते-होते तुम्हारी घ्रणा कम हो जायेगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़्ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायेगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: ह्रदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-
 
काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की, लागिहै, पै लागिहै।'