गांधी आधुनिक भारतीय की रीढ हैं। आधुनिकता का प्रस्थान-विन्दु आप जहां से निकले और अपने आधुनिकता के ऑइकन की तलाश में हैं , बिना गांधी के आधुनिक भारतीय विचारधारा की चर्चा संभव नहीं है। उनके दर्शन का फलक किसी भी अन्य समकालीन चिंतक से बहुत अधिक विस्तृत और बहुसंख्यक था। भारत में आधुनिक विश्व और विशेषकर तीसरी दुनिया में भी आधुनिकता की चर्चा नहीं हो सकती। दुनिया में अधुनिकता के अलग-अलग रूप रह रहे हैं। यूरोप में जिस आधुनिकता का जन्म हुआ वह यूरोप के कई देशों में भी आधुनिकता का अनुवाद नहीं किया गया था , ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में यूनानी और इडो-अर्बिक विचारधारा की ' ग्राफ़्टिंग ' कर एक नई पौध तैयार की गई और उसे यूरोप की विचारधारा में बदल दिया गया। तैयार कर दुनिया को शामिल किया गया। कलम स्याही जिस भी उपाय की हो अबोहवा और मिट्टी उसपर अपनी छाप छोड़ती है , यह बात यूरोपियन आधुनिकता पर भी लागू हुई। अन्य लोकतंत्र , मानववाद और विश्वबन्धुत्व का जयकारा संविधान मिले भी अपने वे बर्बर और दमिश्ल चरित्र से मुक्त नहीं हो सके। दुनिया भर में औपनिवेशिक शासन और उसकी बर्बरता के दस्तावेज इसके गवाह हैं।
महात्मा गांधी के राजनीति व्यक्तित्व की अहिंसा, एकता और सत्य की टेक यूरोपियन आधुनिकता के इस चरित्र की सीख ही देन थी। पश्चिमी आधुनिकता के सम्मुख इन नीतियों को चुनौती के रूप में खड़ा कर देना दुनिया के सामने भारत की सांस्कृतिक संस्कृति को उद्घाटित करना था। स्वामी विवेकानंद जिस भारतीय शास्त्र को नए संदर्भ में ज्ञान-मार्ग से उद्घाटित कर रहे थे ,
गांधी कर्म-पथ पर उसी का सक्रिय भाष्य रच रहे थे।
लोकतंत्र और अहिंसा की दुहाई देने वाले सभ्यता की बात करने वाले और ज्ञान में स्वयं को श्रेष्ठ करने की घोषणा करने वाले बर्बर औपनिवेशिक शासन का प्रतिवाद अहिंसा और तर्क के रास्ते से करते हुए गांधी ने अपनी निर्ममता , असभ्यता और जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि की फुहदता दी को ही नहीं देखा गया , बल्कि भारतीय जीवन दृष्टि और विश्व-दृष्टि की श्रेष्ठता को मूर्ति के रूप में पूरी दुनिया के सामने स्थापित किया गया।
गांधी देश आधुनिकता के लोक-चिंतक थे। उनका अभिहित व्यवहार प्रसूत था। उन्हों ने शस्त्रों के साथ-साथ भारत-जन के मनोभावों को भी गहराई से समझाया और उनके सिद्धांतों और वैचारिक सिद्धांतों को समझाया। उनके लेखन और संयोजन शैली शास्त्रीय या पंडितौ न संवाद परक था। संवादपरकता दुनिया की सबसे प्राचीन और लोकप्रिय शैली है। हिंदुस्वराज जो अपनी प्रारंभिक रचना है , वह प्रमाणित है।
भारतीय परंपरा सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का निवास है। इस वैज्ञानिक सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस ईश्वरीय सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव। दूसरे शब्दों में , यह सृष्टि ही ईश्वर है। इसलिए उसे प्रत्येक तत्व के प्रति हमें सम्मान का भाव रखना चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है , इसलिए उसका निषेध है। गांधी जी ने लोभ के विषय में जो लिखा है , उसे यह सिद्धांत और भी अधिक पुष्टि देता है। उन्होंने ' हिंद स्वराज ' में डॉक्टरी मंथन पर विचार करते हुए कहा कि डॉक्टर के सामने इंसान के संयम का असर पड़ा , पहले इंसान का ही खाता था , जितनी उसकी भूख होती थी। परंतु , अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक उद्यम भी करने की चिंता से मुक्त रहता है ; क्योंकि वह डॉक्टर की दवा की प्रतिकृति है। मुख्यतः यह मनुष्य के भीतर प्रबल लोभ-प्रवृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी है। गांधी अहिंसा के बारे में वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के बीच अभेद संबंध है। गांधी जी ने यह बात मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध को स्पष्ट रूप से समझाया था , लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध तक सीमित नहीं है ; उनकी रचनाकार मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाती है। प्राकृतिक का अनियमित दोहन , वनों की अबाध कटाई , मानव अधिवासों का असीमित विस्तार , कूड़ा - कचरा और अपशिष्ट गैसों का उपयोग यह सब कुछ मनुष्य की समान-प्रवृत्ति की उपजाति और मनुष्य की प्रकृति या पर्यावरण पर तीव्र प्रभाव है। सच कहा जाए तो यह एकमात्र प्रकृति के प्रति मनुष्य की ओर से की जा रही हिंसा नहीं है , बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के सिद्धांतों और आने वाली साध्य के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी गई उपभोक्ता गैसें उन्हें अपंग और बीमार बना देंगी ; बल्कि संभव है, उनके शव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें बताएं कि लोभ-प्रवृत्ति और हिंसा-प्रवृत्ति को लाभ होगा, हमारे द्वारा बताए गए पर्यावरण को नृत्य करने को अमादा है। और , इसका एकमात्र उपाय है त्याग और अहिंसा। अतः ही , अपने सीमित अर्थ में नहीं ; उस व्यापक अर्थ में , जिसमें एकता सम्मान और साहित्य के प्रति स्वीकृति का भाव भी सम्मिलित है।
अनायास ही भारतीय मानस में अहिंसा की दुंदुभी बजाता है, विश्व में निजी की प्रचार-यात्रा पर कोई नाममात्र नहीं है , बल्कि बल है , भारतीय मानस में प्रकृति-मानुष्य के प्रति गहन स्वीकृति-भाव से। प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकृति-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता , रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है। डी. डी. कोसंबी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही है कि वे किस कारण से थे कि विश्व के मित्र राष्ट्रों की भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ? उनका ध्यान सहज ही आ अटका है , भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कहलाते हैं कि ' यहां अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियां नहीं कीं , बल्कि यह भूमि पर विरासत क्रांतियां कायम हैं । ' एक बात वे कहते हैं कि भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रांति का न होना अन्न-जल की बर्बादी का कारण ही नहीं हुआ , बल्कि इस सरस भूमि के सरस अनूठे के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया। विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही फल नहीं है , बल्कि भारत के प्राकृतिक वातावरण ने उसे अपनी कुक्षी में धारण कर अनंत काल तक विकसित और संवर्धित किया। यूनान की महान सभ्यता को याद किया जाए तो उसके विनाश के बीज में उसकी उदात्त वीरता निहित थी , अभिव्यक्ति होमर की कविता में सहज-लब्ध है। पर , भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसकी मधुरता की मांद है। हमारे यहां अकेले-अकेले वीरता मापन है , उद्दंड है , ठीक है। दुर्योधन , बाली , हिरण्याक्ष , मेघनाद कोई भी ग्रीक काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है , पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान दिया। क्यों ? चूँकि , उनमें माधुर्य न था ; करुणा न थी , प्रेम न था , दया न थी। अपनी तितिक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद भी वह मन न पा सके। भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला , अर्जुन को मिला , कृष्ण को मिला। अब आपका आदर्श चरित्र प्रकृति से क्या वास्तु है ? जी हां , है । ज़रूर प्रकृति से वास्ता है। ऐसा हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे। उन्हें मंगोलिया , अरब या जर्मनी की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था। उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थे , कोमल थे और इसलिए उनके मन में उतरने वाले भाव भी कोमल थे। हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की अनदेखी नहीं , बल्कि सम्मान है। लेकिन , करुणा और प्रेम का सन्निवेश अप्राप्य है।
मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिष्ठा के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया गया है- "सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।" आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वान ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़ा है , प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही विद्यमान है।