बुधवार, 25 सितंबर 2024

2024 की नोबेल पुरस्कार विजेता हान कांग का साक्षात्कार



"मैं बहुत आश्चर्यचकित और सम्मानित महसूस कर रही हूँ"

2024 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाली पहली दक्षिण कोरियाई लेखिका हान कांग ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर अपनी भावनाएं और विचार साझा किए। यह पुरस्कार उनकी गहन, काव्यात्मक लेखनी और मानव अनुभवों की जटिलताओं को उकेरने की कला का सम्मान है।

साक्षात्कार की मुख्य बातें:


खबर मिलने का क्षण:
सियोल स्थित अपने घर में अपने बेटे के साथ डिनर के बाद, हान को जब यह खबर मिली, तो वे और उनका बेटा हैरान रह गए।

उन्होंने बताया,
"मैं बहुत आश्चर्यचकित और सम्मानित महसूस कर रही हूं। यह मेरे लिए और दक्षिण कोरियाई साहित्य के लिए एक बहुत बड़ा सम्मान है।"


दक्षिण कोरियाई साहित्य के प्रति कृतज्ञता:
हान ने जोर देकर कहा कि यह पुरस्कार केवल उनका नहीं, बल्कि पूरे कोरियाई साहित्य और उन लेखकों का सम्मान है, जिन्होंने अपने लेखन से उन्हें प्रेरित किया।

"सभी लेखकों के सामूहिक प्रयास और संघर्ष मेरे लिए प्रेरणा रहे हैं। यह पुरस्कार उनके योगदान का भी सम्मान है।"


प्रेरणा के स्रोत:
बचपन में हान ने स्वीडिश लेखिका एस्ट्रिड लिंडग्रेन की लायनहार्ट ब्रदर्स से गहरी प्रेरणा ली। उन्होंने कहा,
"जब मैंने वह किताब पढ़ी, तो मैंने इसे जीवन और मृत्यु जैसे गहरे सवालों से जोड़ा। यह मेरी सोच को दिशा देने वाली पुस्तकों में से एक थी।"

हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी प्रेरणा केवल एक या दो लेखकों तक सीमित नहीं है। उनके शब्दों में,
"हर वह लेखक, जिसने जीवन के अर्थ को खोजने का प्रयास किया है, मेरी प्रेरणा रहा है।"


नए पाठकों को कहाँ से शुरुआत करनी चाहिए?
हान ने अपनी नवीनतम पुस्तक वी डू नॉट पार्ट को सबसे उपयुक्त शुरुआत बताया। उन्होंने इसे ह्यूमन एक्ट्स और द व्हाइट बुक से जोड़ा, जो उनके लिए अत्यधिक व्यक्तिगत और आत्मकथात्मक हैं।

उन्होंने कहा,
"मेरी हाल की किताबें मेरी सोच और कला की दिशा को दर्शाती हैं।"

इसी के साथ उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों के लिए द वेजिटेरियन को भी सुझाया, जो उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है।


द वेजिटेरियन के बारे में:
द वेजिटेरियन के बारे में बात करते हुए हान ने इसे अपने जीवन के एक कठिन दौर से जोड़ा। उन्होंने बताया,
"इस उपन्यास को लिखने में तीन साल लगे। वे साल मेरे लिए चुनौतीपूर्ण थे, लेकिन मैं अपने पात्रों और उनकी दुनिया को पूरी तरह जीवंत बनाने के लिए संघर्षरत रही।"


नोबेल पुरस्कार का जश्न:
जब उनसे पूछा गया कि वह इस उपलब्धि का जश्न कैसे मनाएंगी, तो हान ने सादगी भरा जवाब दिया।
"मैं अपने बेटे के साथ शांति से चाय पीते हुए इस पल का आनंद लूंगी। यह एक साधारण लेकिन मेरे लिए बहुत खास जश्न होगा।"


हान कांग की लेखनी और प्रभाव:
हान कांग का लेखन उनकी गहराई, संवेदनशीलता और मानवीय अनुभवों को बारीकी से चित्रित करने के लिए पहचाना जाता है। उनका काम न केवल दक्षिण कोरियाई साहित्य को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि साहित्य में सीमाओं को तोड़ने और दिलों को जोड़ने की शक्ति होती है।

हान कांग का नोबेल पुरस्कार इस शक्ति का प्रमाण है और एक ऐसा प्रेरणास्रोत है, जो साहित्य के प्रति नई पीढ़ियों के समर्पण को और मजबूत करेगा।



मूल साक्षत्कार :

https://www.nobelprize.org/prizes/literature/2024/han/interview/

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

प्रकृति: भारतीय दृष्टि


 भारतीय परंपरा सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का निवास मानती है । समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव ।  दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए । लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है । गांधी ने लोभ के विषय में लिखा है,जो लिखा है उसे पढ़कर यह मान्यता अधिक पुष्ट ही होती है । उन्होंने हिंद स्वराज में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी उसकी भूख होती थी । लेकिन, अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह मनुष्य के भीतर बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी । गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है । गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और  मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है । सच कहा जाए तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है । हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी;बल्कि संभव है, उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें । इसलिए हमें अपनी उस लोभ-वृत्ति और हिंसा-वृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंस लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव भी इसके भीतर समाहित रहता है ।


                अनायास ही भारतीय चिंतन अहिंसा की दुंदुभी बजाता हुआ विश्व में चेतना की प्रसार-यात्रा पर नहीं निकलता है, बल्कि उसको बल मिलता है, भारतीय मानस में प्रकृति-मनुष्य के साहचर्य के प्रति गहरे स्वीकार-भाव से । प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकार-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता, रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है । डी. डी. कोसम्बी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही उठता है कि वे कौन से कारण थे कि दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ?  उनका ध्यान सहज ही आ अटकता है, भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कह उठाते हैं कि यहाँ अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियाँ नहीं कीं, बल्कि इस भूमि पर बौद्धिक क्रांतियाँ हुईं। एक बात वे कहना भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रान्ति का न होना अन्न-जल की अपर्याप्तता के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि इस सरस भूमि की सरस चेतना के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया । विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही नहीं फैले, बल्कि भारत के प्राकृतिक परिवेश ने उसे अपनी कुक्षि में धारण कर अनंत काल तक विकसित और पुष्ट भी किया ।  यूनान की महान सभ्यता को याद करें तो उसके विनाश के बीज उसकी उदात्त वीरता के भीतर निहित थे, जिसकी अभिव्यक्ति होमर के काव्य में सहज-लब्ध है । पर, भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसके माधुर्य की देन है । हमारे यहाँ अकेले-अकेले वीरता अनैतिक है, उद्दंड है, अस्वीकार्य है । दुर्योधन, बालि, हिरण्याक्ष,मेघनाद कोई भी यूनानी काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है, पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान न दिया । क्यों ? क्योंकि, उनमें माधुर्य न था;करुणा न थी, प्रेम न था, दया न थी । अपनी तितीक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद युधिष्ठिर भी वह मान न पा सके । भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला, अर्जुन को मिला, कृष्ण को मिला । अब आप कहेंगे भला इसका प्रकृति से क्या वास्ता ? जी हाँ, है । जरूर वास्ता है प्रकृति से । ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे । उन्हें मंगोलिया, अरब या जर्मनी मनुष्यों  की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था । उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थी, कोमल थी और इसलिए उनके मन में पलने वाले भाव भी कोमल थे । हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की उपेक्षा नहीं, बल्कि सम्मान है । लेकिन, उसमें करुणा और प्रेम का सन्निवेश अपरिहार्य है ।  मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिगामिता के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया है— “सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम ।” आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वानों ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़कर किया है, जिनकी प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही मौजूद है । 

कदंब और कृष्ण


कृष्ण स्वयं माधुर्य रुप हैं। उनका सौंदर्य और सम्मोहन अद्वितीय है, लेकिन उनकी की सौन्दर्य दृष्टि उससे भी अनूठी है। कहां कृष्ण का कोमल मधुर व्यक्तित्व और कहां कदंब के वृक्ष पर वंशी बजाना, करील के वन में विहार और कुब्जा का वरण। तीनों ही उनके व्यक्तित्व से बेमेल जान पड़ते हैं, लेकिन यह मेल बिठा लेना ही कृष्णत्व है। उनका पूरा व्यक्तित्व ही विरुद्धों का अद्भुत सामंजस्य है। राम आदर्श या मर्यादा की लीक से रंच मात्र नहीं डुलते लेकिन कृष्ण अपनी मर्यादाएं और प्रतिमान स्वयं गढ़ते हैं और उसे समाज के लिए प्रतिमान बना देते हैं । सहज इतने की भारतीय देव समूह में अकेले शिव ही इनके गोतिया नजर आते हैं। 
    यह महूए, आम और जामुन के निझा जाने के बाद कदंब के फलने की ऋतु है। प्रकृति की रीति भी अद्भुत है। महुए की मादक मिठास के बाद आम की कुछ खट्टेपन वाली मिठास,जामुन की कसैली मिठास से होते हुए कदम के कसैलेपन पर आ टिकती है। जीवन की यात्रा भी भला इससे अलग कहां है? मेरे बचपन में गांव में केवल एक कदम्ब का पेड़ था। विद्यालय के दिनों स्कूल बंक करने वाले या एकाध कालांशों के लिए कक्षा से गायब होने वाले विद्यार्थियों का आरामगाह। वहां से लौटते हुए वे कदंब के फल ले आते और एक पुड़िया स्याही के भाव में हमें बेच देते। यही उनका 'बिजनेस ब्लास्टर' था। 
बड़े होकर कदंब की कृष्ण से यारी का पता विद्यापति के मार्फत चला । तबसे कदंब की याद आते ही कृष्ण और विद्यापति दोनों स्मृति में एक साथ कौंध उठते हैं: 
नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।

मेरा मन भले गंगातीरी हो पर तन तो अब अपना भी यमुना तीरी हो चला है। राधा की तरह की अनुरक्ति या निष्ठा अपने भीतर नहीं और न हमारी यमुना ही कृष्ण की यमुना है जो इसका तीर देख उनकी सहज याद आ जाय। कभी-कभी लगता है कालिया नाग कृष्ण से पराजित हो खांडव वन में अपने मित्र तक्षक के यहां आ बसा था। सो अपने हिस्से की यमुना कुछ वैसी ही है काली और विषाक्त। पांडवों ने भले ही खांडवप्रस्थ का नाम बदल कर इंद्रप्रस्थ कर डाला हो लेकिन गुण अभी भी यथावत है। राज्य और नगर का नाम बदलने से प्रजा थोड़े बदल जाती है, वह तो पूरे गुण-धर्म के साथ वैसी ही रह जाती है। फिर आजादी के बाद तो देश की जनता ने चुन-चुन कर सारे तक्षक, सारे कालिया, सारे वासुकि इस खांडवप्रस्थ में भेज दिए हैं। विडंबना यह है कि अब न कृष्ण हैं न अर्जुन और न जन्मेजय। इनसे मुक्ति कैसे मिले?

रविवार, 15 सितंबर 2024

हिंदी की जय जय


आओ बच्चों सुनो कहानी 
बात नहीं है बहुत पुरानी l
अंग्रेजों का बड़ा तमाशा 
गिट फिट गिट पिट उनकी भाषा ll

बात-बात पर हमें डराते 
अंग्रेजी का धौंस जमाते 
काले गोरे का भेद बताते 
हम सबको नीचा दिखलाते  ll

जाग गई जनता दीवानी 
लिख कर रख दी नई कहानी 
जन जन में जब क्रांति जगाया 
अंग्रेजों को मार भगाया ll

अब तो भाषा की थी बारी 
हिंदी बनी उसकी अधिकारी 
सैंतालिस आजादी पाई
फिर उनचास में हिंदी आई ll

बंटा  रेवाड़ी और बताशा 
खड़ा हुआ फिर नया तमाशा 
दासी निकली बड़ी सयानी 
 खड़ी रह गई फिर से रानी l

हिंदी को वनवास दिलाई 
अंग्रेजी ने चाबी पाई 
रानी बनी रही अंग्रेजी 
देखो भाई उसकी तेजी ll 

जनता की फिर शामत आई 
शुरू हो गई जेब भराई 
लूट-लूट कर हो गए लाल 
अंग्रेजी के सभी दलाल l

सत्ता मद में चूर हो गए 
न्याय नीति से दूर हो गए 
ये काले अंग्रेज देश के 
गोरों से भी क्रूर हो हो गए l

लंबी गाड़ी ऊंचा बंगला 
अध्यक्ष है देखो अगला 
हिंदी की दुकान से सजाकर
बैठा है वह पान चबा कर l
हिंदी को गाली दे देकर 
पढ़ता अंग्रेजी में पेपर
योगदान अपना गिनवाकर
मना रहा फॉटीन सितंबर l

विद्वत्ता की धाक जमाई
ताली सबने खूब बजाई l
काट रहे हैं खूब मलाई 
हिंदी की जय -जय है भाई l

शनिवार, 14 सितंबर 2024

का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ

हिंदी दिवस पर हिंदी के संवैधानिक अधिकार, अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्वीकृति-अस्वीकृति के साथ अंग्रेजी के पैरोकारों की चर्चा खूब होती है। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद पैदा किए गए सवाल हैं। हिंदी का संघर्ष और इसका विरोध उससे अधिक पुराना है। आजादी के बाद हिंदी हिंदुस्तानी का झगड़ा और इससे भी पहले भारतेंदु के दौर के हिंदी-उर्दू का विवाद भी बहु उल्लिखित है। लेकिन सूफी कवि नूर मोहम्मद की चर्चा थोड़ी कम होती है, जिन्होंने हिंदी में सूफी काव्य को समृद्ध किया। उनके सहधर्मियों ने उनके हिंदी प्रेम को हिंदू हो जाने के रुप में प्रचारित किया और उन्होंने जवाब दिया:

जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

नूर मुहम्मद किसके सवालों से अपना बचाव कर रहे थे और किसके दबाव में 'अनुराग बांसुरी' में ऐसी बातें लिख रहे थे कि 

निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात। 
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥

सांप्रदायिकता हमारे देश में अभी नई नई नवेली आयी है और हमारे देश की गंगा जमुनी तहजीब को नष्ट कर रही है। आज से ठीक 200 साल पहले नूर मुहम्मद के सामने जो खडे थे या जो नूर मुहम्मद यहां स्वयं लिख रहे थे तो वे कौन थे? 

बात हिंदी की स्थिति और संघर्ष की हो तो भारतेंदु और आजादी की ही नहीं उनसे पहले के संघर्ष को भी याद करना चाहिए। इसके सांप्रदायिकता विरोधी चरित्र को भी याद करना चाहिए। हिंदी का महत्व राजभाषा घोषित होने में नहीं, उसके जनभाषा के रुप में कई सदियों से भारतीयों के मन मस्तिष्क पर राज करने वाली भाषा होने में है। यह अपने आरंभ से ही सत्ता नहीं संघर्ष की भाषा रही है। इसका महत्व ऑफिस में बैठा वेतन जीवी कर्मचारी न कभी समझ सका है और न समझ सकेगा।