मंगलवार, 27 अगस्त 2024

हान कांग: मानवता की जटिलताओं को उकेरती लेखिका

हान कांग, दक्षिण कोरिया की प्रमुख साहित्यकार, अपनी गहन और संवेदनशील रचनाओं के लिए विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान रखती हैं। उनके लेखन का केंद्र मानवीय जटिलताएँ, ऐतिहासिक आघात, और समाज की विडंबनाएँ हैं। 2024 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हान कांग ने न केवल दक्षिण कोरिया के साहित्य को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई, बल्कि मानव जीवन की गहराई को भी एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।


प्रारंभिक जीवन और प्रेरणाएँ

हान कांग का जन्म 27 नवंबर 1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू शहर में हुआ। उनका परिवार 1980 में ग्वांगजू विद्रोह से ठीक पहले सियोल स्थानांतरित हो गया। यह विद्रोह दक्षिण कोरिया के इतिहास का एक हिंसक अध्याय था, जिसने उनके लेखन को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने इसे "बचावकर्ता के अपराध" की भावना के रूप में वर्णित किया है।

हान का बचपन किताबों के बीच गुजरा। उनके पिता, जो एक शिक्षक और उपन्यासकार थे, ने उन्हें साहित्य से परिचित कराया। छोटी उम्र में ही उन्होंने किताबों को "जीवित चीज़ें" मानना शुरू कर दिया। एस्ट्रिड लिंडग्रेन की द ब्रदर्स लायनहार्ट और रूसी लेखकों जैसे फ्योडोर दोस्तोयेव्स्की और बोरिस पास्टर्नक ने उनके लेखन को प्रारंभिक रूप से प्रभावित किया।


साहित्यिक यात्रा

हान ने सियोल की योनसेई यूनिवर्सिटी से कोरियाई भाषा और साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1993 में उनकी पहली कविताएँ प्रकाशित हुईं, और 1995 में उनकी पहली लघु कहानियों का संग्रह येओसु सामने आया। उनका पहला उपन्यास, ब्लैक डियर (1998), उनके साहित्यिक प्रयोगों की शुरुआत थी।

उनकी रचनाओं की विशेषता उनके गहन रूपक, प्रयोगात्मक शैली, और मानवीय हिंसा व पीड़ा की पड़ताल है। उन्होंने 2016 में द व्हाइट रिव्यू को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, "मानवता का व्यापक स्पेक्ट्रम—जो उदात्त से लेकर क्रूर तक फैला हुआ है—बचपन से ही मेरे लिए एक कठिन पहेली रहा है।"


प्रमुख कृतियाँ और विषय

1. द वेजिटेरियन (2007)

हान कांग का यह उपन्यास एक महिला की कहानी है, जो मांस खाना छोड़ देती है और सामाजिक दमन का सामना करती है। यह उपन्यास मानसिक बीमारी, शरीर पर नियंत्रण, और सामाजिक पितृसत्ता की आलोचना करता है। इसने 2016 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान बनाई।

2. ह्यूमन एक्ट्स (2014)

यह उपन्यास ग्वांगजू विद्रोह की स्मृतियों को उजागर करता है। यह मानवीय हिंसा, पीड़ा और संघर्षों का दार्शनिक और संवेदनशील चित्रण है।

3. द व्हाइट बुक (2016)

यह पुस्तक उनकी मृत नवजात बहन को समर्पित है। इसमें जीवन और मृत्यु की सीमाओं की पड़ताल की गई है। इस पुस्तक को 2018 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था।

4. ग्रीक लेसन्स (2011)

हान की इस पुस्तक में दुःख और भाषा के बीच संबंध की पड़ताल की गई है। इसमें एक महिला, जो अपनी आवाज खो चुकी है, और एक पुरुष, जो अपनी दृष्टि खो रहा है, के माध्यम से मानवीय संघर्ष को दिखाया गया है।


नोबेल पुरस्कार और वैश्विक पहचान

2024 में, हान कांग को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नोबेल समिति ने उन्हें "ऐतिहासिक आघातों का सामना करने वाली और मानव जीवन की नाजुकता को उजागर करने वाली उनकी गहन काव्यात्मक गद्य" के लिए सराहा। यह पुरस्कार उन्हें दक्षिण कोरिया की पहली नोबेल विजेता लेखिका बनाता है।


हान कांग का योगदान

हान कांग का साहित्य न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक अनुभवों का दस्तावेज़ है। उनका लेखन हमें यह याद दिलाता है कि मानवता अपने उदात्त और क्रूर दोनों रूपों में कितनी अद्भुत और जटिल है।

उनकी कहानियाँ केवल कोरियाई समाज तक सीमित नहीं हैं; वे वैश्विक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करती हैं। उनके लेखन का हर पृष्ठ हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि दर्द और करुणा के बीच मानवता कैसे जीवित रहती है।


निष्कर्ष

हान कांग की लेखनी उनके समय की गवाही है। वह केवल एक लेखिका नहीं हैं; वह इतिहास, दर्द, और मानवता की आवाज़ हैं। उनकी रचनाएँ हमें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती हैं और यह याद दिलाती हैं कि साहित्य वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने समय के सत्य को समझ सकते हैं।

उनकी रचनाओं की गहराई और संवेदनशीलता ने उन्हें न केवल दक्षिण कोरिया बल्कि वैश्विक साहित्य का अमूल्य हिस्सा बना दिया है।

सोमवार, 26 अगस्त 2024

कृष्ण जन्माष्टिमी : रावरे रूप की रीति अनूप

 


कृष्ण धीर ललित नायक हैं। सम्मोहन कला में प्रवीण। उनकी बाल और शृंगार लीलाएं समूची भारतीय साहित्य परंपरा में अनूठी हैं।  मथुरा और वृंदावन की धरती के कान्हा, गोपाल और नंदलाल। उनकी ये छवियां भारतीय लोक मानस के स्नेह और ममत्व की अद्भुत उपलब्धि हैं। पता नहीं दुनिया के किसी दूसरे धर्म या साहित्य में ऐसा कोई रूप हमें क्यों नहीं दिखता, जबकि यह मानवीय संवेदना का सबसे जीवंत पक्ष है ।

आज का आनंदोत्सव उसी कन्हैया लाल को समर्पित है। 

उनकी एक छवि लोक नायक की भी है जो वैदिक देवता पर्जन्य के अहम को खंडित कर गोवर्धन पर्वत की पूजा को प्रचलित करता है। यहां वे प्रकृति और मनुष्य के सनातन साहचर्य-साधर्म्य को शास्त्रीय जड़ता से मुक्त कर लोक सामान्य की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। वे धर्म की गतिशील संकल्पना में विश्वास करते हैं स्थिर या रूढ़िवादी नहीं और यह गतिशील लोक का आधार लेकर ही हो सकता है। इसी लिए लोक विमुख धर्म उन्हें स्वीकार्य नहीं। महाभारत में भीष्म, विदुर, बालराम, धृतराष्ट्र और दुर्योधन सभी धर्माज्ञ थे | महाभारत का सब्से खल पात्र दुर्योधन भी यह स्वीकार करता है : 


जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति-र्जानामि पापं न च मे निवृत्तिः ।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ 

युधिष्ठिर तो धर्मावतार ही थे, किन्तु कृष्ण धर्म संस्थापक के रूप में सामने आते हैं क्योंकि उनके जैसी लोक संपृक्ति किसी और में न थी। ग्वाल-चरवाहा रूप में उन्होंने जिस लोकायत को जिया था, उसे उन्होंने अपने धर्म-कर्म-पथ का आधार बना लिया। 

इन सबसे आगे और अधिक उल्लेख्य उनका कर्म योगी रूप है। यह उन्हें लोक नायक से महानायक बनाता है। युद्ध भूमि में खड़े होकर धर्म को परिभाषित करना तथा ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिक में उसे समन्वित करना भी उनकी विलक्षणता ही है। यहां यह स्थापित होता है कि कर्म शून्य ज्ञान और भक्ति निरर्थक हैं। स्वयं उनका जन्म भक्ति और ज्ञान के प्रसार के लिए नहीं धर्म की रक्षा और उसकी पुनर्प्रतिष्ठा के लिए हुआ । यह एक कर्म-पथ से संभव है निष्क्रियता से नहीं है। इसलिए कृष्ण कर्म योगी हैं। उनके इस रूप के बिना उनकी चर्चा,  उनका स्मरण या उनकी उपासना अधूरी है। कृष्णोपासना के विभिन्न पंथों ने उनकी ललित छवि पर तो ध्यान दिया पर उनकी कर्मयोगी छवि पीछे छूट गई । कृष्णोपासना के लिए केवल भक्ति नहीं उनके लोक धर्म और कर्मयोग की प्रेरणा भी आवश्यक है। जन्माष्टमी की कृष्ण की झांकियों में केवल बाल रूप पर्याप्त नहीं, उनका कर्म योगी रूप भी दिखाना चाहिए। 

बाकी तो उनके बारे में घनंद की इस उक्ति के सहारे ही कुछ कहा जा सकता है:


रावरे रूप की रीति अनूप, नयो-नयो लागत ज्यौं-ज्यौं निहारियै। 

त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै॥

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति।’

समूचा भारतीय साहित्य मानव-प्रकृति-साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति। यह देवस्यकाव्यं है क्या ?प्रकृति— उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिए हैं । यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती है । चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट,तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास,सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल । सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं; आखिर इनके युग भी तो अलग हैं । और, हर युग की अलग संवेदना होती है । यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है । वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजनक नहीं लगती कि कविता आदिम मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है । आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं । उसमें जटिलता बढ़ी है और सहजता का धीरे-धीरे लोप होता चला गया है । इसी के साथ रागात्मकता, लयात्मकता और और अन्विति धीरे-धीरे दूर होती जा रही है ।
राम का वन-गमन : राम का रामत्व प्रकृति के सहचर्य में विकसित हुआ
                हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है । यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से  में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं । आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है ।  उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा । आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए  शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात की है— संगीत और व्यायाम । व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो,लेकिन सार्थक होने के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादाश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता मनुष्य की सहजात वृत्ति है और यह प्रकृति के साहचर्य में उपजी है । मनुष्य प्रकृति से जितना दूर होगा, उसके जीवन से लयात्मकता का लोप हो जाएगा और वह कृत्रिम होता जाएगा।

कला और सहित्य : अंतर्सम्बंध


 कला मानवीय चेतना के उदात्त्ततम और उदारतम रूप की अभिव्यक्ति है . मनुष्य जो भी श्रेष्ठ और सनातन मूल्य अर्जित करता है उन्हें वह अपने विभिन्न कला रूपों में संग्रहित, संरक्षित और अपने वंशजों की ओर प्रवृत्त करता है.  इसी अर्थ में कला संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण और सुंदरतम घटक है, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, विद्या, संगीत, नृत्य तथा जीवनोपयोगी कौशल आदि मनुष्य द्वारा अर्जित उपादान, उसकी संस्कृति को आकार देते हैं और कला उसी संस्कृति का परिष्कृत और अभिव्यक्त रूप है. इसीलिए भारतीय ज्ञान परंपरा इसे आत्मसंस्कार का माध्यम मानती है: आत्मसंस्कृतिर्वावशिल्पानि. छंदोमयं वा. इतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते. (अर्थात्, छंद और शिल्प यानि काव्य और कला आत्मसंस्कार का माध्यम है). 


    यदि प्राचीन वैदिक शब्दावली का आधार लें तो संस्कृति को हम ऋत और कला को धर्म कह सकते हैं. जिस तरह ऋत, धर्म और आध्यात्म अव्यक्त सत्य के त्रिगुणात्मक रूप हैं, उसी तरह संस्कृति की प्रत्यक्ष अनुभूति साहित्य, कला और संगीत के त्रिक के रूप में होती है. जो अनृत् है, धर्म विरुद्ध है या आत्मा का परिस्कार नहीं करता वह असत्य है. उसी तरह जो साहित्य कला और संगीत से हीन है, वह असंकृत है; पशुवत है: 

     साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।

                      तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

साहित्य, कला और संगीत को भारतीय मानस एक साथ रखता आया है और उन्हें ही मनुष्य की मनुष्यता के मूल्यांकन का मानदंड मानता है. चित्रकला, वास्तुकला, संगीत कला, नृत्य कला, अभिनय कला, काव्य कला आदि के रुप में विभिन्न विशेषणों के साथ प्रयुक्त 'कला' अपने विशेषीकृत रूप और अपनी व्याप्ति दोनों को व्यक्त करती है.  इसकी व्याप्ति जीवन के संपूर्ण कार्य व्यापार में है मानवीय क्रियाकलाप का कोई भी प्रत्यक्ष या मानवीय चेतना का कोई भी अमूर्त रूप बिना कला के अधूरा है. सृष्टि में जो भी व्यक्त-अव्यक्त अथवा  गोचर-अरगोचर है, वह कला का विषय है. जीवन व्यापार के लिए आवश्यक शिल्प हों या दर्शन और अध्यात्म. कला की गति इन सभी में समान है.

वैशाख नंदन का एकालाप


 बैशाख फिर आ गया। यह जब भी आता है तो मेरे लिए अपनी झोली में उल्लास भर लाता है। बैशाख और उल्लास ! अजीब बात है न। दुनिया जहाँ को तो सारा राग-रंग, सारा उल्लास फागुन-चैत की अंजुरी से मिलता है और मुझे बैशाख की झोली से। क्या कहूँ ?   मेरा मन बैशाखनंदन जो ठहरा। जहाँ कवियों-रसिकों को रस नहीं मिलता, वहाँ भी यह रस खोज लेता है। जब चैती की कटिया-दँवरी के बाद सारा सिवान बियाबान पडा हो और धूप किसी क्रुद्ध अवधूत की तरह पूरे ब्रह्मांड को अपनी धुनी में झोंक देने पर आमादा हो तो भला रस का संधान कहाँ संभव?  लेकिन यह अर्द्ध सत्य है। ताप का भी अपना एक स्वाद होता है। इसका आस्वाद रसना नहीं मन से होता है। वैसे भी रसना तो आस्वाद का माध्यम भर है, उसका असल भोक्ता तो मन ही है। अगर मन को न रुचे तो मेवा-मिश्री मिश्रित मक्खन में भी उबकाई आने लगे और रुचे तो बाजरे की हथरोटिया भी नमक तेल प्याज की संगत में मैक्डॉनल के पीज्जा को मात दे दे। दुनिया का सारा व्यापार मन का है— एनेदं भूतं भुवनं भविस्यत् परिग्रहीतममृतेन सर्वं। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु। आत्मा तो निर्लिप्त है, देह कर्ता है और मन भोक्ता। बिना भोग के जीवन भला कैसे चले ? प्राण की पुष्टि भला कैसे हो ? ऋषि, मुनि महत्माओं का जीवन भोग के बिना चल जाता होगा, पर हम तो ठहरे दुनियादार—भोगी। हमने तो अपने देवतओं के भोग भी अपने स्वाद के अनुरूप ही तय किये हैं। जो हमारे मन को भावे वही हमरे ईश्वर को भी भाएगा क्योंकि भक्ति भाव आश्रित है— “भाव भगति हित बोहिया सद्गुरु खेवनहार।“ ईश्वर का भोग तो भाव ही है, चाहे वह हनुमान जी के आगे लड्डू बन कर प्रस्तुत हो जाय या श्री कृष्ण के आगे माखन-मिश्री या फिर शिव जी के सम्मुख भाँग धतूरा। उन्हें इनके स्वाद से क्या ? वे ईश्वर हैं— विदेह हैं। 

हमें तो अपने मन के रुचने से मतलब है। जो रुचेगा इंद्रियों को स्वाद भी उसी में आएगा। मन उसी में रमेगा। जो नहीं रुचेगा लाख जतन कर लें मन उचट ही जएगा और अपनी रुचि के अनुरूप आस्वाद की तलाश में भटकने लगेगा। बचपन में एक कहानी सुनी थी, एक कृपण की। अतिसम्पन्न होते हुए भी जो अपना धन बचाने के लिए वह अपने मन को मार देता था। एक दिन मन ने उससे विद्रोह कर दिया। वह सपने में उडकर आम के पेड पर जा बैठा और उसकी आम न खाने की शपथ भंग कर दी। उसकी कृपणता हार गई और मन जीत गया। मन ही जीवन का अधार है। मन मर गया तो देह जीवित रहकर भी क्या करेगी? सो हमने अपने संयम की वल्गाएँ छोड रखी हैं, और मन को खुला हाँक दिया है । वह निर्द्वंद्व हो गाँव, गाँव, खेत खेत घूम रहा है और मन उसके काँधे चढ साथ साथ डोल रह है। सबेरे से दुपहरिया तक सिवान के इस छोर से उस छोर तक चरते टूँगते वह जब गाँव की किसी सघन बँसवारी में आ खडा होता है तो गला फाड कर अपना गर्दभ तान छेड देता है। जिह्वा का स्वाद भले दब जाय मन का आस्वाद भला कहाँ दबने का ? धूप के आतंक से दबे-सहमे लोग अचानक सक-पका कर नींद से जाग पडते हैं। कभी द्रुत कभी सम और कभी विलम्बित। संगीत के जितने भी सुर और ताल हैं सबकी समन्वित तान उस बँसवारी से फूट पडती है। संगीत के सारे सुर-ताल एक साथ मिल जो प्रभाव पैदा करते हैं उसे ही अबुधजन रेंकना कहते हैं। सूर्य की बहुरंगी किरणों का समंवित प्रभाव यदि स्वेत हो सकता है तो सभी ध्वनियों का सम्मिष्रण गर्दभ गान क्यों नहीं? सूर्य हमारे लिए उपयोगी है। इसलिए उसपर शोध कर लिया लेकिन बेचारा गधा ! उसे कौन पूछे ? वह ठहरा निरीह प्राणी। आज के मशीनी युग में निरर्थक। विज्ञान भला उसकी ध्वनि पर शोध क्यों करे। जो उपयोगी है वह विज्ञान का विषय है, लेकिन मन का क्या ? उसे उपयोग से क्या लेना-लादना? वह तो भाव का भूखा है? उसे यदि गधे से भाव मिल जाय तो गधा ही सही। यदि फूहड गद्यात्मक ‘रैप’ हमारे मन को रुच सकता है और हमारा जमाना शस्त्रीय संगीत का-सा सम्मान दे सकता है, तो भला गर्दभ-गान में क्या कमी ? कम से कम उसमें सुर ताल तो होता ही है।

गोपियों ने ऊद्धव से कहा कि ‘ऊधो मन न होत दस-बीस / एक हुतो सो गयो स्याम रंग को आराधे ईस।“ अपने पास भी एक ही मन है और वह बैशाख में रमता है। वैशाख मतलब गर्मी की छुट्टियों के आने की खुशी। मैं ठहरा आजन्म प्रवासी। जन्म घर से दूर हुआ। पला बढा भी गाँव-घर से दूर ही। फिर पढाई-लिखाई और बेरोजगारी के भटकाव और अंत में यह नौकरी। सब घर से दूर-दूर ही रही। इसलिए छुट्टी-छपाटी में गांव जाना अपने आप में किसी आनंदोत्सव से कम न था। समुद्र मंथन में देवताओं ने शयद अमृत की उतनी प्रतीक्षा न की हो जितनी बेकली से हम गर्मी की छुट्टियों की प्रतीक्षा करते हैं। छुट्टियाँ शुरू होते ही मन और अधीर हो उठता। कभी बैशाख के नाम से ही महुए की मादक गंध नथूने भर जाती और टिकोरों की खट्टे स्वाद से जीभ लार-लाए हो उठती। अब वे बाग न रहे। उसे या तो हमरी जरूरतों ने लील लिया या मौसम के बदलते चक्र ने। अब तो कहीं कहीं खुँटवारी-बँसवारी ही बची है। वह भी कच्चे मकानों और छन-छाप्पर की बिदाई के बाद एक गैरजरूरी वस्तु की तरह। दूर-दूर तक सिवान में कोई नीम-बबूल तक नहीं, पीपल बरगद की कौन कहे? अब हम भी उतना छतनार कहाँ रहे जो किसी को छया दे सकें या खुद किसी से छाँव की चाह रखें? लेकिन मन का क्या वह तो अब भी कभी पुरनका पोखरा के पाकड के नीचे जा कर अटक जाता है तो कभी नयका पोखरा के गूलर के नीचे और कभी दमोदर बाबा के बरगद की कोई डाल पकड लटक जाता है या बूढे बट दादा की लम्बी-लम्बी दाढियों को पकड झूलने लगता है। मन निर्बंध है। वह कोई बंधन नहीं मानता। गोपियों का शरीर उसे नहीं बाँध सका न उनकी पारिवारिक-सामाजिक मर्यादाएँ। वे तो योगेश्वर की सहचरी थीं और उन्हें योग शिक्षा देने भी उनके प्रिय सखा उद्धव गए थे, फिर हम तो माया-जीव ठहरे तो भटक जाना और भटक-भटक कर पुरानी स्मृतियों में जा उलझना कोई विचित्र बात नहीं। 

कल अचानक मुहल्ले के पार्क में खडे नए-नवेले पीपल ने बाँह थाम ली। मैंने चौंक कर उसे देखा तो बच्चे की तरह ताली बजा खिल-खिला पडा। वह शहर की भीड-भाड में धक्का खाते भी अचानक बस में देख कर भी खिडकी पर खडा खिल-खिला पाडता है । कही कभी जब किसी फुर्सत के पल में मिल जाता है तो गलबहियाँ डाल पूछ बैठता है, वह घेघरा का पुराना ठूँठ याद है? मैं उसी की संतान हूँ। तुम्हारा गोतिया तुम्हारा भाई सहोदर्। जिस मिट्टी की खाद-पानी में तुम पले-बढे, उसी में मैं भी जन्मा, तुम्हारे पुरनियों की तरह ही हमारे पुरनियों को भी तुम्हारे ही गाँव की हवा पानी मिली । तुम ठहरे मनुष्य और मैं वृक्ष। मेरा शरीर तुमसे स्थूल है, पर मन तुम्हारी ही तरह कोमल्। वह भी इस शहरी आबोहवा से ऊब गया है और कभी गाँव की खुली हवा में साँस लेना चाह्ता है। अपने उन वंधुओं से मिल आना चाहता है, जिन्हें गाँव में अकेला छोड आया था, उनकी नियति के हवाले। 

वह जब अपनी बाँहें फैला मुझे घेर लेता है तब मेरे भीतर उसी की तरह की शाखएँ-प्रशाखाएँ फूटने लगती हैं। उसकी जडें मेरे मन में उतरने लगती हैं । मैं उसी की तरह शतभुज और सहस्रबाहु हो उठता हूँ। मेरी धमनियों और शिराओं में उसकी ऊर्जा उसका रस उसकी प्रण्वायु और चेतना उतर आती है। मेरे होठों से स्वतः ही फूट पडता है, “अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां।” मऐं सभी वृक्षों में ‘अश्वत्थ’ हूँ। मैं विराट हूँ। मेरा अस्तित्व इस सृष्टि के आदि और अनादि से मुक्त है। प्रलयकाल में जल-विहार करते हुए नारायण की आधार-शय्या अश्वत्थ-पत्र मैं ही हूँ। उस चैतन्य परब्रह्म की चिति ही मेरा मूल है और शखाओं-प्रशाखओं में फूटता संपूर्ण ब्रह्मांड ही देह है। मैं ही कल्प वृक्ष हूं। मैं ही वासुदेव हूं और मैं ही ऋषि-प्रत्यक्ष वह अश्वत्थ वृक्ष मैं ही हूँ— ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । । (कठोपनिषद्-2.3.1)  तब यह महसूस कर पाता हूँ कि कृष्ण ने अर्जुन से गीता में स्वयँ को अश्वत्थ क्यों कहा होगा? विराटता का दूसरा रूपक भला हो भी क्या सकता था? जितना विशाल आकार उतनी ही सहज भार हीन गति। थोडी सी हवा चली नहीं कि सारे पत्ते सह्ज ही डोल गए। अपनी उपस्थिति का आभास और अपनी उपादेयता का अंश सबको बिना भेद-भाव के बाँट आए। इस वायु-रुद्ध दुपहरिया में पसीने से लथ-पथ सृष्टि को अपने स्पर्श से सहला दे। क्या-छोटा क्या बडा ? क्या मानव क्या मानवेतर? सबको प्राणवायु बाँट आए। 

गोसाईं जी ने मानस के अयोध्याकांड में कैकेयी के वर मांगने से विचलित पिता से मिलने पहुँचे राम और उनके सम्मुख दशरथ की मनः स्थिति को व्यक्त करने के लिए ‘पीपर पात’ की ही उपमा दी है— “अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥/ रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।” यह केवल राजा की मानसिक विकलता को व्यक्त नहीं करता, अश्वत्थ की तरह उनके विराट व्यक्तित्व और स्थिर चरित्र के सम्मुख उनकी प्रेम विवश दुविधा को व्यक्त करता है। एक ओर राम के प्रति प्रेम की पुरवाई है तो दूसरी ओर कैकेयी से किए गए प्रण की पछुआ। राम के प्रति प्रेम का वेग अधिक है, परंतु कैकेई से किए गए प्रेम और प्रण और लोक मर्यादा की रक्षा का दबाव भी कम नहीं था। राम इस आवेग का अनुभव कर रहे थे और इसीलिए मातु अनुमानी के आधार पर ही आज्ञा लेकर चल पडे। पर वेग भला कहाँ रुकता ? दशरथ रूपी विशाल-वृक्ष राम के प्रति स्नेह के आवेग में धराशायी हो गया। ‘पीपर पात’ की व्यंजना केवल ‘मन की विकलता’ नहीं है, दशरथ के व्यक्तित्व से उसकी संगति भी इसका हेतु है। जब दशों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला या दशों दिशाओं पर राज करने वाला राजा उसके आवेग के सम्मुख न टिक सका तो अपना क्या ? हम जैसों के लिए विचलित हो जाना कोई बडी बात नहीं। मैं न तो प्रतपी राजा हूँ और न इंद्रीयजयी। फिर उस सनतन सहचर, उस अत्मीय मित्र, उस अश्वत्थ के राग में रंग जाने उसके प्रेम के आवेग में बह जाने या तादात्म्यीकृत हो जाने से भला खुद को कैसे रोक पाता ? अनजाने ही मैं उसकी विराटता के सम्मुख समर्पित हो जाता हूं— मैं ही तो /तेरी गोद बैठा मोद भरा बालक हूं/, ओ तरु तात सँभाल मुझे, मेरी हर किलक/ पुलक में डूब जाए:/ मैं सुनूँ/गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ/ तेरे अनुभव का एक एक अंतः स्वर/ तेरे दोलन की लोरी पर मैं झूमूँ तन्मय—गा तू:./तेरी लय पर मेरी साँसे भरे, पुरें, रीतें विश्रांति पाएँ।“  (असाध्य वीणा/अज्ञेय) और मेरा लघु मानस स्वतः ही उस परम मानस में लीन हो जाता है। मैं अपनी तथता भूल विदेह हो जाता हूँ । फिर तो गाँव की वह बँसवार भी नंदन वन ही है और बैशाख भी वसंत ही है।