गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

हिंदी का ज्ञान कांड

 


आधुनिक हिंदी का जन्म और विकास भारतीय नवजागरण की कोख से हुआ। काव्य और कथा की कृतियों से पूर्व आधुनिक हिंदी वैचारिक और सामाजिक-सांस्कृतिक लेखन का माध्यम बन चुकी थी। ब्रजभाषा की सुकुमार कलाई जिन विचारों का भार वहन करने में लचक जाती थी, उसे आधुनिक हिंदी ने संभाल लिया।  आधार भाषा के रूप में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खड़ी बोली के ताने-बाने पर रची यह भाषा बंगाल से पंजाब और हिमाचल से विदर्भ तक उत्तर-मध्य भारत के समूचे वितान पर मधुमालती की तरफ फैल गई। इसका बड़ा कारण उसकी यह क्षमता ही थी। उस समय के प्रत्येक व्यक्ति, समाज सुधारक, दार्शनिक,  संस्कृति कर्मी की पहली चाहत थी एक ऐसी भाषा जो समूचे भारत को एक स्वर में संबोधित कर सके। जिसका स्वर भारत की चेतना को पुनर्गठित कर एकता दे सके। यह काम न तो तत्कालीन क्षेत्रीय भाषाएं,  आंचलिक बोलियाँ और न पुरानी सरकारी जुबान फारसी या नई सरकारी गवर्निंग लैंग्वेज अंग्रेजी ही कर पा रही थी। इस अपेक्षा को पूरी करने के लिए हिंदी का वर्तमान मानक रूप अपेक्षा और दायित्व के छेनी और हथौडी से ही तराशा गया। मध्यकालीन संत कवियों के बाद भाषा को लेकर पहली बार इतनी छटपटाहट इस दौर में दिखाई देती है। कबीर और उनके समकालीन संत कवियों के समय में अरबी या फारसी इतनी सशक्त नहीं हुई थी, इसलिए भाषा को लेकर कबीर आदि कि बेचैनी का कारण मुख्यतः अभिव्यक्ति थी जबकि नवजागरण के दौर के बौद्धिकों के समकक्ष अंग्रेजी का सर्वग्रासी रूप मुँह बाए खडा था और उनकी भाषा सम्बंधी चिंता अपनी अस्मिता को बचाए रखने की चिंता थी। अपनी एक मुकरी में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अँग्रेजी और अंग्रेजियत की ‘तारीफ’ इन शब्दों में की है:


सब गुरुजन को बुरो बतावै ।

अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।

भीतर तत्व न झूठी तेजी ।

क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।


यह उस भारतीय मेधा के लिए सांस्कृतिक क्षरण के पूर्वाभास की तरह था, जिसकी परंपरा का आदर्श यह रहा हो :


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।


भारतेंदु ने जब यह लिखा कि ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल’ तो उनका अभिप्राय भाषा-ज्ञान के साथ ही साथ भाषा में ज्ञान भी था । इसका प्रमाण उनकी रामायण sका समय, काशी, मणिकर्णिका (पुरातत्त्व), कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण, उदयपुरोदय (इतिहास), संगीत सार और जातीय संगीत (संगीत), तदीय सर्वस्व, वैष्णवता और भारत वर्ष (धर्म) आदि रचनाएँ हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना का मकसद भी यही था और महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती के अंक भी  इसके साक्षी हैं |  दयानंद सरस्वती,  भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, माधवराव सप्रे,  चंद्र शर्मा ‘गुलेरी’ अध्यापक पूर्ण सिंह पद्म सिंह शर्मा, डॉ. मोती चंद, काशी प्रसाद जायसवाल, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,  गणेश शंकर विद्यार्थी प्रभृत लेखकों के संपूर्ण लेखन का यदि एक साथ संग्रह कर उसका विश्लेषण किया जाए तो कोई संदेह नहीं रह जाता कि ‘निज भाषा’ या हिंदी को लेकर उसका उनका ‘विजन’ आज के हिंदी लेखन से कहीं ज्यादा व्यापक था । ऐसा करते हुए यह बार-बार दोहराए जाने की जरूरत होगी कि उनके लिए हिंदी ज्ञान, विचार और विमर्श की भाषा थी; केवल साहित्य भाषा नहीं। जिस निजता अथवा स्वत्व की गूँज यहाँ सुनाई पड़ती है, उसका संदर्भ अपनी भाषा के मार्ग पर खडे होकर ज्ञान-चक्षु खोलने से ही है ।  


आजाद भारत में सत्ता के रंगमंच पर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजीयत दोनों धमक एक बडा कारण था,  जिसने हिंदी को ज्ञान का माध्यम बनने से रोका;  लेकिन यह एक मात्र कारण नहीं था। हिंदी लेखकों की अन्य ज्ञानानुशासनों के प्रति उदासीनता और सहित्येतर लेखन को हिंदी के विमर्श और आलोचना से काट देना भी एक बडा कारण था। इसने हिंदी ही नहीं स्वत्व और निजता के बोध से जुडे एक बडे आंदोलन को भी क्षीण किया। आज हिंदी अपने प्रयोक्ताओं के बल पर मीडिया मनोरंजन और बाजार में अपनी बाँह पुजवाने की स्थिति में है। कुछ वर्षों के विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण के अपने अनुभव से यह कहा जा सकता है कि दुनिया में इसकी बढती माँग का कारण उसकी यह ताकत ही है । दूसरी ओर हिंदीभाषी विद्यार्थियों के लिए हिंदी के विद्यालयीय शिक्षण का वर्तमान अनुभव यह कहता है कि उक्त ताकत के बावजूद हिंदी की गत बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। अंग्रेजी माध्यम केवल दबाव और स्टेटस सिम्बल से आगे जरूरत बन गया है। ऐसा नहीं कि आजादी के पहले या आजादी के बाद हिंदी में ज्ञान का साहित्य रचा ही नहीं गया। हिंदी लेखकों के बीच उन्हें अपेक्षित मान और अकादेमिक दुनिया में समुचित प्रोत्साहन नहीं मिला। हिंदी की पत्रिकाएँ सम सामयिक-राजनैतिक पत्रिकाएँ  बन गई या विशुद्ध साहित्यिक जिनमें  कविता-कहानी को ही अधिक अधिक प्रोत्सहन मिला। आलोचना और अकादेमिक परिचर्चाओं की भी यही स्थिति रही।

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

बहुरुपिया

प्रकृति भी हमारी तरह बहुरुपिया हो चली है। हर सुबह एक नए रंग रूप में सामने आ खड़ी होती है और कहती है मुझे पहचानो।हमने सब कुछ इसी से सीखा है। यह केवल हमें सत्यं वद धर्म चर की शिक्षा नहीं देती बल्कि इसे तरह तरह की छलनाएँ भी आती हैं। यह सहज है तो इससे अधिक मायावी भी कोई नहीं। हम तो इसमें केवल सात रंग ही देख पाए, पर यह अपनी हर झलक में यह नए रंग और नई कला के साथ झांक जाती है। हमारी कल्पना की सारी संभावनाएं इस एक के भीतर मौजूद है। इसलिए मनुष्य ने इस जीवन के अलग-अलग संबंधों से जोड़कर महसूस किया है। किसी को इसामें मां का रुप दिखा तो किसी को प्रेयसी का। ये ही हमारे जीवन-राग के दो चरम रुप हैं। ममता और रति। स्नेह, दुलार और अपनत्व का चरम रुप है मां और सहाचर्य -प्रेम का प्रेयसी। मानव-मन शायद इससे आगे महसूस नहीं कर पाता। और बुद्धि? यह निठल्ली तो यहां तक भी नहीं पहुंच पाती। उसके लिए या तो यह पदार्थ/भूत (भौतिकबाद) है या फिर माया (आदर्शवाद)। जो भी हो यह समूची सृष्टि में अनूठी है। हो भी क्यों न हमारी सारी तर्क -शक्ति यहीं आकर अटक जाती है। चेतना 'नेति-नेति' कहकर नत-मस्तक हो जाती है, पर बेचारा 'अहम्' भला कैसे तुष्ट हो? वह चल देता है नाप-तोल करने । 'भूत'और 'माया' के सूखे लट्ठ इसके कोमल गात पर आ पड़ते हैं और सदियों सहस्राब्दियों तक इसके अघात प्रति आघात सहती यह कभी कराहती कभी मुस्कुराती कभी अठखेलियां करती हमारे साथ चलती रहती है...

रविवार, 14 जनवरी 2024

संक्राति भारतीय विविधता का प्रतिरूप

 संक्रांति या खिचड़ी एक उत्सव नहीं उत्सवों का पूरा पैकेज है। खिचड़ी, लोहड़ी, पोंगल बिहू...

हम पुरबिया रसवादी हैं। जिह्वा के स्वाद और व्यंजन से इसे पहचानते हैं। इसलिए मकर संक्रांति न कहकर इसे 'खिचड़ी' कहते हैं और वैशाख वाली मेष संक्रांति को 'सतुआन'। धर्म-कर्म अपनी जगह जिह्वा अपनी जगह। ढूंढा, ढूंढी, तिलवा, तिलकुट से सजी हुई डाली और थाली में दही गुड़ चिउड़ा के साथ आलू गोभी की सब्जी जितनी सरस लगती है उतनी पूरे साल में किसी और दिन नहीं लगती। खिचड़ी जैसा साधु और सात्विक आहार भी इतना चटक हो सकता है यह आज ही पता चलता है। 'खिचड़ी के हैं चार यार चटनी चोखा घी आचार'। सो खिचड़ी इन चारों चटकार यारों की सोहबत में चटकार क्यों न हो ?
सुबह के धुंधलके में गांव से भजन गाती गंगा की ओर जाती झुंड की झुंड स्त्रियां-बच्चे-पुरुष और तिझरिया चने-मटर-गेहूं-सरसों की झूमती पंगत, हरे-भरे खेतों का चटक चोला पहने गाँव का सीवन और उसमें झुककर रंग बिरंगे वस्त्रों में सज साग खोंटती युवतियां-युवक-बच्चे मेरे बचपन के गांव की स्मृतियों में इस खिचड़ी के स्वाद से कम चटक और रसर नहीं दिखते। चक्षु, श्रवण और जिह्वा तीनों का रसपान का भी एक पूरा पैकेज ही है, जो खिचड़ी पर ही सुलभ है।
गांव के ये दृश्य अब मेरे ही नहीं गांव में रहने वालों के लिए भी बहुत कुछ स्मृति का विषय बन गए हैं। यांत्रिकता और संचार क्रांति ने शहर और गांव दोनों के बोध, संस्कार और मनोभाव तेजी से बदले हैं।

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

बिरसा की धरती के वासी


बिरसा की धरती के वासी 
भारत के हम वीर निवासी
राष्ट्र धर्म पर प्राण गंवा कर
देश प्रेम का पाठ पढ़ा कर
गया स्वर्ग था जो वनवासी
हम उसकी धरती के वासी

स्वतंत्रता का वीर दूत वह
भारत माता का सपूत वह
जंगल धरती नदियां परती
सब में उसकी सांसें बसती
देव रूप था जो वन वासी
हम उसकी धरती के वासी



अट्ठारह सौ पचहत्तर में 
झारखंड के वन प्रांतर में 
भारत के जनगण का नेता
करमी और सुगना का बेटा
जन्मा राष्ट्र-मुक्ति-संन्यासी 
हम उसकी धरती के वासी 

उम्र महज चौबीस साल की 
अंग्रेज़ी फौजें विशाल थीं 
पंचमुखी तेरी हुंकृति ने 
वन-जन में तब प्राण डाल दी
भगवन बिरसा हे बलराशि 
हम तेरी धरती के वासी

क्रांति बीज धर कर अंतर में
उतर गए थे महासमर मे
अंग्रेज़ों को धूल चटा कर
प्राण दिये थे जिसने छल में 
कीर्ति शेष हे! तुम अविनाशी
हम तेरी धरती के वासी 

धरती आबा नाम तुम्हारा
उलगुलान पहचान तुम्हारा
जल जंगल जमीन के रक्षक
करता है अभिमान तुम्हारा 
भारत का हर एक निवासी
बिरसा की धरती का वासी

बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

महात्मा गांधी

 महात्मा गांधी पिछली सदी में दुनिया की सर्वाधिक चर्चित हस्तियों में से एक रहे। वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल दार्शनिक और सच्चे जननेता थे। वे अपने सच्चेअर्थों में 'वैष्णव जन' और भारतीय किसान की मनोयात्रा के सहयात्री भी थे। वैष्णवता और किसान दोनों ही पूरक तथा भारतीय मन की शाश्वत धुरी हैं और दोनों ही अपनी मूल वृत्ति में अहिंसक हैं। इसलिए 'अहिंसा' उनके लिए राजनीतिक हाथियार से अधिक जीवन-व्यवाहार रही।

'हिंद स्वराज' के गांधी उन अर्थों में राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, जैसे वे दक्षिण-अफ्रीका से लौटने के बाद थे। फिर भी उनके उठाए गए सवाल और उसके उत्तर खांटी भारतीय वैष्णव जन के उहापोह की ही उपज हैं। वे वहां वकील, डॉक्टर या रेल की भूमिका को लेकर जो बातें करते हैं, उसमें 'अहिंसा' का सीधा जिक्र भले न हो, पर अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी अलोचना के संदर्भ अहिंसा से ही जुड़े हैं।
वे पिछली सदी के अकेले चिंतक रहे जो भारतीय चित्त और मानस से पूर्ण तादात्म्य कर सके। वे बीसवीं शताब्दी में तर्क और आस्था दोनों के संतुलन कसौटी हैं। इसीलिए भारतीय जन मानस का जितना कुशल राजनितिक उपयोग वे कर सके दूसरा कोई भी आजादी का सिपाही वैसा नहीं कर सका।
वे ईश्वर या अवतार नहीं थे। न उन्होंने कभी इसका दावा किया और न उनके अनुयायियों ने। इसलिए उन्हें निर्विवाद या निष्कलंक मानना या उनसे किसी दैवीय चमत्कार की अपेक्षा करना गलत होगा और अंध आलोचनाएं एक स्वस्थ बौद्धिक समाज के लिए खतरनाक। यह खतरा मूर्तिपूजक और मूर्तिभंजक दोनों विचारधाराओं की ओर से है। दोनों के लिए ही स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी उपस्थिति की तलाश में वे खड़ी पाई की तरह अड़े दिखाई देते हैं। इसलिए आवश्यक है कि खड़ी पाई से अटक कर समय नष्ट करने या उसे काट-पिट कर आगे वाक्य-विस्तर कर करने की ऊल जुलूल कोशिश के बजाय पूर्व-वाक्य के 'गैप' (यदि कोई लगता है) को पूरा करते हुए अगला नया वाक्य रचा जाय।