बुधवार, 27 सितंबर 2023

हिंदी एक औघड़ भाषा

हिंदी एक औघड़ भाषा है। इसीलिए इसको लोक में जो अहमियत मिली वह सत्ता या संस्थानों में नहीं मिली। बिना सत्ता सहयोग के आधुनिक हिंदी के सौ साल उसके राजभाषा बनाने के 75 सालों से ज्यादा समृद्ध हैं। उसके गठन और गढ़न से लेकर साहित्य - संस्कार तक की दृष्टि से जितना तेज उस एक शताब्दी में रहा, वह इधर के वर्षों में नहीं दिखता। हिंदी के प्रचार प्रसार में लगी पुरानी संस्थाएं मरणासन्न हैं नई तो जन्मजात पक्षपात/पक्षाघात का शिकार हो गईं हैं। जब तक इन संस्थाओं में लोक की भूमिका या सहायोग रहा प्राणवान रहीं, बाद  में सरकारी अनुदानों का दीमक इन्हें चाटता गया। बाद की सस्थाएँ तो खड़ी ही दीमकों की बांबी पर हुईं सो उन्होंने उन्हें जड़ जमाने या हरियराने ही नहीं दिया। उसकी संकल्पनाओं और भूमिकाओं के बीच नियुक्त अधिकारियों के स्वार्थ, लोलुपता और संस्थागत भ्रष्टाचार की तिहरी दीवारें खड़ी हो गईं। दुर्भाग्य का आलम यह है कि हिन्दी की संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे अधिकारी हिंदी में सहज संवाद में भी अक्षम हैं। विवशता में बचकाना तोतलेपन में बोले गए उनके वाक्य सरकारी हिंदी की समृद्धि का नमूना है। यदि बंगाल में हिंदी पढ़ाने वाले के लिए बंगला, उड़ीसा में उड़िया, गुजरात में गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य है तो हिंदी की केंद्रीय और महत्वपूर्ण संस्थाओं में नियुक्ति के लिए हिंदी की दक्षता का परीक्षण अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता है या नियुक्ति के साथ कार्यकारी दक्षता हासिल करने की समय सीमा अनिवार्य क्यों नहीं की जाती? यह सही है कि सरकारी तंत्र से हिंदी के लिए आंदोलन की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन कम से कम राजभाषा के नाम पर मसखरेबाजी तो नहीं की जानी चहिए। हिंदी केवल रोजी रोटी की भाषा नहीं भारतीय भाषाओं की लोकतांत्रिक प्रतिनिधि है। राजनीतिक कारणों से राजभाषा के रुप में इसके प्रयोग का विरोध कुछ क्षेत्रों में भले होता रहा हो, उन क्षेत्रों क्षेत्रों में भी हिंदी का प्रयोग का चलन इधर तेजी से बढ़ा है।

रविवार, 17 सितंबर 2023

वासुदेव शरण अग्रवाल : चयन और मूल्यांकन की दो दृष्टियाँ

वासुदेव शरण अग्रवाल मेरे प्रिय लेखकों में एक हैं। भारतीय संस्कृति की मेरी थोड़ी बहुत समझ जिन लेखकों को पढ़कर बनी है, वे उनमें से प्रमुख हैं। दुर्भाग्यवश साहित्य के अंचल में उनकी चर्चा थोड़ी कम होती है। इसका और कोई कारण हो या न हो एक कारण यह जरूर है कि साहित्य की चर्चाएँ प्रायः कविता और कथा की देहरी पर आकर ठिठक जाती है। इनकी सरस और सम्मोहिनी भंगिमा के आकर्षण में बंध आगे निबंध, आलोचना और कथेतर गद्यविधाओं तक पहुँच ही नहीं पाती हैं, अवश्य ही अचार्य शुक्ल और अचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे अक्खड़ और फक्कड़ निबंधकर इसके अपवाद हैं। फिर,  कला और इतिहास के अध्येता होने के कारण उन्हें साहित्येतर खाते में खतियाने की पर्याप्त छूट भी मिल जाती है।
 साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी द्वार लिखित विनिबंध, 2012 में साहित्य अकादमी द्वारा ही प्रकाशित कपिला वात्स्यायन जी द्वारा संकलित - संपादित 'वासुदेवशरण अग्रवाल: रचना-संचयन' के बाद महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पुस्तक विशिष्ट लगी। कपिला जी ने अपने सम्पादित संचयन में आचार्य अग्रवाल के प्रति शिष्या भाव से श्रद्धांजलि तथा उनकी समग्र झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नए पाठक को अग्रवाल जी के साहित्य और उनके लेखन की विविधता से अधिक से अधिक परिचित कराने की चाह के कारण पुस्तक का आकर संचयन की दृष्टि से समृद्ध हो गया है। 
'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पूर्व संचयन की तुलना में संक्षिप्त है।
यहां निबंधों के चयन में प्रतिनिधित्व की तुलना में संपादक की अंतर्दृष्टि प्रभावी है, जिसका संकेत बहुत दूर तक पुस्तक के शीर्षक और फिर उसकी भूमिका में बहुत स्पष्ट मिल जाता है। भूमिका का समापन इन पंक्तियों के साथ होता है: ' भारत राष्ट्र का निर्माण और संस्कृति की भित्ति पर हुआ है। इसलिए इस संचयन का नाम 'राष्ट्र धर्म और संस्कृति' रखा गया है। इसमें द्वीपांतर से लेकर ईरान और मध्य एशिया तक तथा असेतुहिमाचल मृण्मय भारत और चिन्मय भारत से संबद्ध वासुदेव जी के लेख संकलित हैं। चिन्मय भारत सहस्र - सहस्र वर्षों से प्रवाहित अजस्र धारा का सनातन प्रवाह है, यही इन निबंधों की टेक है; प्रतिपाद्य है।"

शनिवार, 2 सितंबर 2023

अमृत-क्रांति-संतान : मंगल पांडेय

 

हे भारत के प्रथम पूज्य ! हे  वीर पुत्र धरती के !

प्राण वायु तुम, महाकाय इस भारत की संस्कृति के ।

सुप्त धरा में जीवन-रस के संचारक, हे स्वातंत्र्य प्रणेता !

नव भारत के भाग्य-विधाता प्रथम क्रांति के नेता ।

 

धर्म-राष्ट्र-संस्कृति के रक्षक प्रथम पूज्य वलिदानी !

महाकाव्य से विशद चरित की कैसे कहूँ कहानी ?

रज कण की या कहूँ वृंत की या हिमवान-सरित की

किस-किस की भाषा में विरचित तेरे वीर चरित की ?

 

भारत के कण-कण से मुखरित त्तेरी सुरभित गाथा

सुन हिमवान द्रवित होता मृगराज झुकाते माथा ।

क्रांति, तेज, जय की यह आरोहित त्रिगुण पताका

लहराती नभंडल में हो भले दिवस या राका ।

 

मंगल यश के उद्गाता तुम जननी के शृंगार

कुसुम नहीं जीवन का तुमने चढा दिया था हार

बैरकपुर की चिनगारी तुम बने अग्नि विकराल

मंगल पांडेय नाम तुम्हारा अंग्रेजों के काल ।

 

राजा की संतान नहीं तुम नहीं मुगल की शान

तुममें बसती सोंधी माटी खेती और किसान

सेना के तुम वीर सिपाही भारत माँ की आन

अट्ठारह सौ सत्तावन के अमृत-क्रांति-संतान ।

 

तीस वर्ष की अल्प वयस में होकर तुम कुर्बान

पराधीनता महातिमिर के बने मध्य दिनमान

राष्ट्र प्रेम से जग-मग जीवन भारत-भाग्य-विहान

कोटि-कोटि भारत-जन के हित तुमने किया प्रयाण ।

 

सुन ललकार तुम्हारी रण की जाग उठा था जन-जन

गूँज उठी भारत की धरती तलवारों से झन-झन

अवध और पंजाब उठे थे बाँधे सिर पर काल

गांव-गांव में डगर-डगर में जला क्रंति का ज्वाल ।

 

वीर कुँवर सिंह तत्या नाना जागी सब में आन

क्रांतिगीत जब तुमने गाया देकर के बलिदान

मेरठ झांसी और कानपुर गए सभी थे जाग

कांप रहा था ईस्ट इंडिया भडकाई जो आग ।

 

शाह जफर को ललकारा जब गा कुर्बानी गीत

तख्त हिला था लाल किला का जन-जन की थी जीत

यमुना का पानी खौला था धँसक गई थी भीत

जनता के शासन की आई तब भारत में रीत ।

 

भारत भर में बजा हुआ था दुंदुभियों का साज

हुँकारों में बदल गई थी जनता की आवज

काँप उठा सुन लंदन पेरिस वर्लिन रोमन राज

सहम गया क्रांति-विगुल सुन विक्टोरिया ताज ।

शनिवार, 8 जुलाई 2023

रोहिणी

 रोहिणी बीत गई . कल मृगशिरा का अगमन हो गया . भयंकर ताप से तपने वाली नक्षत्र . बाबा कहते थे इसका तपना अच्छा है यह जितना तपेगी उतना ही अगली फसल के लिए अच्छा होगा. पर हमारी पीढी तो बस इतना जानती है ' उफ्फ इतनी गर्मी! इतनी तपन!" टीवी और मोबाइल के स्क्रीन पर चमकता तापमान देखकर कुछ एसी का तापमान एक प्वाइंट और कम कर लेते हैं तो कुछ कोल्ड ड्रिक या आइस्क्रीम की दो नई बोतल या बार के जुगाड में लग जाते हैं. नक्षत्रों के चक्कर में हमें क्यों उलझना? महानगर की सुविधा सम्पन्न जिंदगी में क्या हमारे लिए मृगशिरा क्या अर्द्रा ? सब बराबर .

याद भी कहाँ रहती हैं ये सारी. सत्ताइसों नक्षत्रों का नाम याद रखने वाली पीढी शायद अब गांव-गिरांव में भी कम बची होगी . किसानी भी पहले सी कहाँ रही ? हम सिंचाई की सुविधाओं से लैस, नई-नई तकनीक ग्रीन हाऊस और पोलीहाउस की खेती की ओर बढते हुए जमाने के लोग हम लोग भला क्या जानें इन नक्षत्रों का मोल . घाघ और भड्डरी का हम नई पीढी वालों को क्या पता ? आखिर योग के योगा और ध्यान के मेडिटेशन संस्करण की तरह इनका कोई विदेशी संस्करण भी तो नहीं आया अब तक. आता तो लोग योगा ट्रेनर की तरह नक्षत्रा ट्रेनर लगा लेते . वह नक्षत्र के अनुसार हेल्दी डाइट चर्ट, ड्रिंक और वर्काउट चार्ट बना कर देता . पर अफसोस पश्चिम वाले इधर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं .
सच कहूँ तो मुझे भी नक्षत्र दो-चार ही याद रहती हैं . एक रोहिणी, दूसरी आर्द्रा और तीसरी हस्ति .
रोहिणी इसलिए कि इस नक्षत्र में हमारे बगीचे का सबसे सुस्वादु आम रोहिनियवा की पीतम्बरी आभा पेड के श्याम-हरित गात को ढंक लेती थी. मुझे लगता है बिहारी जरूर कभी ऐसे ही किसी आम के पेड के नीचे से गुजरे होंगे और तभी उनके मुँह से बरबस यह दोहा फूट पडा होगा:
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ |
जा तन की झाईं परे, स्याम हरित-दुति होई ||
बाबा की समहुत की थाली में दधि, अक्षत और गुड के साथ इस आम की उपस्थिति अनिवार्य थी. रोली का काम खेत की मिट्टी करती थी . ग्रीष्म के ताप से तपी हुई मिट्टी से ज्यादा शुभ, शुद्ध या सात्विक दूसरा क्या होगा भला ?

अर्द्रा में भींगा मन

 आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:

आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पर अपने पूर्वांचल के गंगा मैदान में तो उनके कदम अक्सर आर्द्रा में ही पड़ते हैं। मृगशिरा के ताप से ताई हुई धरती पर वर्षा की पहली बूंदें अक्सर आर्द्रा में ही पड़ती हैं और उसकी सोंधी महक चारों ओर बिखर जाती है। समूची प्रकृति जीवन गंध से मह महा उठाती है और धरती की कुक्षी में सोए हुए बीज सहसा उसकी गोद में मुस्कुराने लगते हैं। यह मृगशिरा की लपटों से धरती के उद्धार की नक्षत्र है, जो प्रकृति में जीवन रस का संचार करती है। यह तृण-तरु सबको जीवन देती है, सबको आनंद और सुख बांटती है चाहे अपनी अकड़ में तना हुआ ताड़ हो या कहीं भी पसर जाने वाली लथेर दूब। अपन भी इस दूसरी कोटि में आते हैं सो हम भी जी भरकर पसरने का आनंद लूटते हैं।
इस के प्रिय होने का मेरे लिए एक अन्य कारण भी है। इस ऋतु का स्वागत हमारे घरों में खीर से होता है और विदाई पकवानों से। पुराने समय में बेटियों को अपने मायके से तीज की तरह ही आर्द्रा की बहँगी की भी प्रतीक्षा रहती थी। मुझ जैसे पेटू और रस लोभी व्यक्ति के लिए और क्या चाहिए? पावस और पायस की इतनी अच्छी संगति भला और कहां मिलेगी ? शायद इसी लिए नियति ने मुझे जन्म भी इसी अवधि में दिया। फिर पेटूपन और रसलोलुप होने में मेरा क्या दोष?