‘साहित्य का स्वधर्म’ डॉ. विश्वनाथप्रसाद तिवारी के निबंधों और कुछ विशिष्ट व्याख्यानों का संकलन है। इसमें मुख्यतः दो तरह के निबंध संकलित हैं। पहले, साहित्य और उसके बुनियादी प्रश्नों से जुड़े अवधारणात्मक और आलोचनात्मक निबंध तथा दूसरे, विशुद्ध वैचारिक निबंध । दूसरी कोटि के निबंध पहली कोटि के निबंधों की पूर्व-पीठिका प्रस्तुत करते हैं और लेखक के विचार-जगत और उसकी बनावट और बुनावट को आरेखित करते हैं, लेकिन पुस्तक का लक्ष्य मुख्यतः ‘साहित्य का पाठक’ और प्रतिपाद्य विषय ‘साहित्य का स्वधर्म’ है, इसलिए लेखक ने इन्हें पुस्तक के परवर्ती हिस्से में स्थान दिया है। इन निबंधों में पर्याप्त विषय-वैविध्य है । इनके लेखन-काल में भी अधिक अंतराल है । इस कारण पाठक पहली नज़र में पुस्तक के ‘संकलन’ होने को ही रेखांकित कर पाता है, लेकिन जब वह निबंधों के अध्ययन में प्रवृत्त होता है तो इनकी पारस्परिक अन्विति उसे आकर्षित करती है। उसे आभास होता है कि वह एक खास अंतर्दृष्टि से परिचित हो रहा है, जो प्रत्येक निबंध में विषय की बहुरूपता के कारण और अधिक स्पष्ट होती जा रही है। रचना-समय के अंतराल के कारण इन निबंधों के भीतर ही इस अंतर्दृष्टि को क्रमशः विकसित और पुष्ट होते हुए भी देखा जा सकता है। इसलिए इन निबंधों में एक जैविक रिश्ता-सा है और सभी निबंध इस पुस्तक के भीतर अंग-उपांग रूप में समन्वित हैं।
डॉ. तिवारी ने पुस्तक का आरंभ एक सवाल के साथ किया है , “साहित्य का अपना धर्म या उसकी विशिष्टता क्या है?” यहाँ स्व-‘धर्म’ पद का प्रयोग सुविचारित है। एक ओर जहाँ यह भारतीय साहित्य चिंतन की पूर्व-परिचित शब्दावली है, वहीं मूल्य, प्रतिमान, निकष या अन्य किसी भी आधुनिक पद की तुलना में अधिक अर्थवान भी। ‘मूल्य’ के साथ कहीं न कहीं उपयोगिता, प्रतिमान में कृत्रिमता और निकष में तुलना का अर्थ ध्वनित होता है, और ये तीनों ही बाहरी या आरोपित तत्त्व हैं। ‘धर्म’ इनसे अलग है। वह सहज-वृत्ति है। उन्होंने इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए ही ‘स्वधर्म’ और कहीं-कहीं ‘स्वभाव’ भी कहा है। वे यह मानते हैं कि ‘अन्य ज्ञानानुशासनों के लेखक की दृष्टि विषय के साथ बँधी होती है’, जबकि साहित्यकार की दृष्टि इस बंधन को नहीं मानती। वह इससे परे भी जाती है। उसमें यथार्थ तो होता है, पर रागदीप्त संवेदना के साथ— “साहित्य सर्जक की दृष्टि तथ्यों, तिथियों और घटनाओं पर नहीं, विभिन्न चरित्रों की भावनाओं और उनकी मनोवृत्तियों पर केन्द्रित होती है। उन्हीं के माध्यम से वह यथार्थ को संवेद्य बनाता है।” उसके लिए इतिहास के साथ ही लोकचित्त भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए तुलसी के ‘रामचरित मानस’ या ‘जायसी’ के ‘पद्मावत’ के पात्र इतिहास-सम्मत भले न हों, एक सर्जक के लिए उनका महत्त्व है। साहित्यकार रागदीप्त सत्य को प्रकट करता है और यही साहित्य की विशिष्टता का वास्तविक कारण है— “ रचनात्मक साहित्य ज्ञान के अन्य उपकरणों की तुलना में इसलिए विशिष्ट होता है कि वह भावदीप्त सत्य को प्रकट करता है। यथार्थ को राग से पकड़ना, उसे अनुभूति का विषय बनाना और अस्तित्व की गहराइयों से प्राप्त भाषा में उसे व्यक्त करना, यही रचना की विशिष्ट प्रक्रिया है ।” साहित्य की स्वायत्तता को डॉ. तिवारी उसकी इसी विशिष्टता का पर्याय मानते हैं। उसे ‘कलावादी मुहावरा’ मानकर विरोध करने वालों का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने लिखा है— “कुछ मित्र साहित्य की विशिष्टता को उसकी स्वायत्तता मानकर उसका विरोध करते हैं। उन्हें यह एक कलावादी मुहावरा प्रतीत होता है, मगर क्या साहित्य का स्वरूप इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म आदि से भिन्न नहीं होता? क्या सूरदास का ‘सूरसागर’ वही है, जो वल्लभाचार्य का दर्शन ?” विश्वनाथप्रसाद तिवारी के अनुसार, “साहित्य का महाभाव करुणा तथा न्याय हैं।” आचार्य शुक्ल ने भी लोकमंगल की साधनावस्था की चर्चा करते हुए करुणा को सर्वाधिक महत्व दिया है। किन्तु, यहाँ करुणा के साथ न्याय को भी साहित्य के साहित्य होने लिए जरूरी माना गया है। तुलसीदास केवल अपनी करुणा के कारण बड़े कवि नहीं हैं, बल्कि वे ‘बालि के वध के प्रसंग में अपने आराध्य राम को भी कठघरे में खड़ा कर देते हैं—धरम हेतु अवतरेउ गुसाईं ।/मारेसि मोहिं ब्याध की नाईं॥’ अतः साहित्य हिंसा का विकल्प भी है। यही कारण है कि कट्टर सत्ताएँ प्रायः साहित्य की शत्रु बन जाती हैं। यह सत्ता चाहे राजनैतिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक अथवा वैचारिक। किन्तु, साहित्य की अपनी सत्ता है, जो अक्षुण्ण रहती है। इसीलिए अपने समकालीन राज्याश्रित इतिहासकारों की उपेक्षा के बावजूद तुलसीदास और उनका ‘रामचरित मानस’ आज भी लोकचित्त में प्रतिष्ठित है और कई शताब्दियों के अंधकार युग के बावजूद ईसाई-पूर्व यूनानी साहित्य यूरोप में साहित्य के पुनर्जन्म का आधार बना।
साहित्यकार की स्वतंत्र सत्ता होती है। इस जमीन पर खड़ा होकर ही वह अपने समलीन यथार्थ के समानान्तर एक स्वप्न या मनोराज्य की रचना करता है। उसके सहारे वह समाज को अपने समय के संत्रास या वेदना से मुक्ति का मार्ग दिखाता है और उसके भीतर न्याय के प्रति आस्था को और अधिक दृढ़ करता है। इसीलिए डॉ. तिवारी स्वतंत्रता को सृजनात्मकता का पर्याय मानते हैं। उन्हीं के शब्दों में “जहाँ स्वतंत्रता नहीं, वहाँ सृजन भी नहीं हो सकता । दुनिया में जो कुछ भी सर्जनात्मक संभव होता है, वह स्वतंत्रता के ही कारण होता है, किन्तु स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखल व्यक्तिवाद नहीं है। ऐसा हो जाने पर तो सारा समाज आदिकालीन बर्बर हो जाएगा। स्वतंत्रता का अर्थ दायित्वहीनता भी नहीं है। उसका सीधा अर्थ है साहस। व्यक्ति-स्वातंत्र्य और सामाजिक दायित्व दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। लेखन जितना स्वाधीन होगा उतना ही दायित्वपूर्ण भी।”
इसलिए लेखक ने स्वाधीनता को साहित्य का बुनियादी मूल्य माना है। उसके अनुसार, “स्वाधीनता, लोकतन्त्र, शांति और सामाजिक न्याय, ये रचना के बुनियादी सरोकार हैं । कविता के केंद्र में सदा से मनुष्य रहा है । उस मनुष्य और समाज-व्यवस्था की धड़कन को महसूस करना और उसे रूपायित करना ही कविता का धर्म है और यही कविता का मुख्य सरोकार । कविता मनुष्य के पक्ष में एक बयान है । वह उसके दुःख-सुख, उसकी आशा-आकांक्षा, उसके असमंजस, उसकी ट्रेजडी, उसके हालात को उजागर करती है, पूरी तरह निष्पक्ष और विवेक-सम्पन्न होकर। कविता का स्वभाव सीमाओं से मुक्त होना है। वह मुक्ति की दिशा में अग्रसर होती है, रोकने वाली ताकतों से संघर्ष करते हुए। वह विवेक दृष्टि देती है, अनुभव की गहराइयों में प्रवेश करती है। भावुकता या आवेश में विध्वंसात्मक आवेश नहीं फैलाती”।
लेखक ने यहाँ यह बात कविता के संदर्भ में कही है, किन्तु वह साहित्य की सभी विधाओं और उनके सर्जकों पर भी लागू होती है । साहित्यकार जब भावुकता या वैचारिक अथवा राजनीतिक आग्रहों के वशीभूत होता है तो वह अपनी स्वच्छंदता, विवेक या सरोकारों से किस तरह विरत हो जाता है इसका उदाहरण लेखक ने इसी पुस्तक के एक निबंध ‘छायावाद के विरुद्ध सुनियोजित षड्यंत्र’ में दिया है,“ ‘छायावाद’ पुस्तक को ध्यान से पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है कि इसमें आलोचक कहता तो कुछ और है, पर कहना कुछ और चाहता है, अर्थात उसकी तान जिस बात पर टूटती है, वह उसके पूर्व कथन के विरुद्ध है । ऐसा लगता है, जैसे उसके आस्वादन और पूर्वाग्रहों में द्वंद्व और असमंजस की स्थिति है ।” ऐसे में आलोचक सत्य और न्याय, जिसे डॉ. तिवारी साहित्यकार का स्वधर्म मानते हैं, से च्युत हो जाता है।
साहित्य के स्वधर्म की चर्चा करते हुए लेखक ने प्रसंगतः साहित्य और अन्य ज्ञानानुशासनों के साथ-साथ साहित्य और कला के अंतर्संबंधों पर भी विचार किया है। उसके अनुसार सभी कला-माध्यमों के मूल में एक ही तरह की सर्जनात्मक चेतना निहित रहती है, परंतु माध्यम के परिवर्तन के साथ अभिव्यक्ति की क्षमता और उसके स्वरूप में बदलाव आ जाता है । यह जरूरी नहीं की जिस तथ्य या घटना को एक माध्यम बहुत आसानी से व्यक्त कर सकता है, दूसरा भी उसे उसी सहजता से व्यक्त कर ले । अभिव्यक्ति के हर माध्यम की अपनी सीमा होती है, किन्तु ‘शब्द’ इनमें सर्वाधिक सशक्त माध्यम है । इसीलिए साहित्य अन्य विधाओं की तुलना में सर्वाधिक अभिव्यक्तिक्षम है ।
इस पुस्तक की एक खास बात यह भी है, कि लेखक ने साहित्य को लेकर केवल अवधारणात्मक लेख नहीं लिखे, बल्कि आलोचना में उन्हें कसौटी के रूप में इस्तेमाल कर एक प्रतिदर्श भी प्रस्तुत किया है । इसमें सूर, तुलसी और मीरा जैसे मध्यकालीन कवियों के साथ ही छायावादी काव्य तथा अज्ञेय, मुक्तिबोध और कुंवरनारायण जैसे आधुनिक लेखकों पर विचार किया गया है। इन्हीं के साथ आधुनिक हिंदी कविता पर एक स्वतंत्र निबंध भी है, जिसे पढ़कर इस तथ्य की स्वतः पुष्टि हो जाती है, कि जिन विषयों की ओर अन्य ज्ञानानुशासन ध्यान भी नहीं देते, उसे साहित्यकार अपनी रचना में केंद्रीय स्थान देता है । हिंदी साहित्य के इतिहासकारों द्वारा उपेक्षितप्राय उत्तरछायावादी काव्य पर लेखक ने जिस मनोयोग से विचार किया है, वह इसका उदाहरण है । ‘विवशता और विषाद से भरी होने के बावजूद बच्चन की कविता में जीने की प्यास बहुत है’ और ‘उनकी (सुभद्रा कुमारी चौहान की) कविता को जो शक्ति देती है, वह है लोक मन की सहजता और सादगी’— ये दोनों टिप्पणियाँ मेरी सीमित जानकारी में इन दोनों कवियों के संदर्भ में अब तक की सबसे सटीक टिप्पणियाँ हैं ।
इसी तरह इस पुस्तक में रवीन्द्रनाथ ठाकुर और सीताकान्त महापात्र पर निबंध संकलित हैं ।
पुस्तक के परवर्ती भाग में वैचारिक निबंध संकलित हैं जिनमें बुद्ध, गांधी, लोहिया आदि विचारक तथा भारत में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता एवं आधुनिक विकास जैसे विषयों पर निबंध शामिल हैं । ये ऐसे विषय हैं, जिनसे किसी भी आधुनिक भारतीय लेखक का अनिवार्य सरोकार है । इनसे परे जाकर समाज और साहित्य ही क्यों आधुनिक काल के किसी भी कला-माध्यम को नहीं समझा जा सकता । इन्हें लेकर लेखक की दृष्टि जितनी ही स्पष्ट होगी, किसी भी साहित्य-चिंतक या आलोचक के लिए साहित्यालोचन का काम उतना ही सुगम और सहज होगा ।
गांधी और लोहिया ने ‘आधुनिक’ यूरोपीय जीवन मूल्यों का ‘भारतीय’ विकल्प प्रस्तुत किया । उन्होंने यूरोप से आयातित और आरोपित आधुनिकता को अस्वीकृत कर देशज आधुनिकता की तलाश की कोशिश की है। इसके मूल्यमान भारतीय चिंतन, धर्म, साधना और जीवन-पद्धति के भीतर से तलाशे और तराशे गए हैं । इसलिए भारतीय मनोरचना के सर्वाधिक उपयुक्त भी हैं । यही कारण है कि गांधी की ‘हिंदस्वराज’ जैसी लघु-पुस्तिका अपने रचनाकाल की लगभग एक शताब्दी के बाद भी उतनी ही लोकप्रिय है । ‘हिंदस्वराज और सभ्यता की अवधारणा’ शीर्षक लेख में डॉ. तिवारी ने सभ्यता संबंधी यूरोपीय और गांधीवादी मूल्यमानों की तुलना करते हुए लिखा है, “यूरोप में विकास की अवधारणा और सभ्यता की अवधारणा एक है । गांधी के लिए ‘विकास’ और ‘सभ्यता’ की अवधारणाएँ अलग-अलग हैं । यह कोई जरूरी न हीं कि जो भौतिक, आर्थिक और यांत्रिक दृष्टि से विकसित हो, वह सभ्य भी हो । गांधी जी के अनुसार अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना सभ्य होने की बुनियादी कसौटी है । भोग से भोग की इच्छा बढ़ती है, अतः मन की चंचल वृत्तियों पर नियंत्रण होना चाहिए । यह गांधी की नैतिक दृष्टि है, जो भौतिक समृद्धि से परे देखती है, जो स्पर्द्धा के पागल दौड़ को सभ्यता नहीं मानती । गांधी यंत्र को नहीं यंत्र के मनुष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को देखते हैं, जो मनुष्य की मनुष्यता को क्षतिग्रस्त करते हैं और उसकी नैसर्गिक क्षमता का नाश करते हैं ।”
इसी पुस्तक में विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के संबंध में यह लिखा है, “आधुनिक हिंदी साहित्य का ही विश्लेषण करें तो देखेंगे कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर आज तक का हिंदी साहित्य अपनी मूल धारा में समाजोन्मुख, संघर्षशील चेतना से सम्पन्न और मानव मंगल की धारणा से अनुप्राणित है ।” यहाँ लेखक का आधुनिक साहित्य के मूल्य को आँकने का प्रतिमान वही ‘मानव-मंगल’ है, जिसकी चिंता वह गांधी के ‘हिंद-स्वराज’ में पाता है। लेखक ने उसे वैचारिक उत्तराधिकार के रूप में शायद यहीं से आत्मसात् भी किया है । डॉ. तिवारी ने साहित्य संबंधी उक्त टिप्पणी प्रगतिशीलता को परिभाषित करते हुए की है, इसलिए उन्होंने ‘समाजोन्मुख, संघर्षशील चेतना से सम्पन्न’ विशेषण का प्रयोग किया है, अन्यथा ‘मानव-मंगल’ में ये दोनों तत्त्व स्वतः समाविष्ट हैं । ऊपर जिस देशज आधुनिकता की बात गांधी और लोहिया के संदर्भ में की गई है, कुछ वही देशजता प्रगतिवाद में भी महत्त्वपूर्ण थी । जो कवि, कथाकार, लेखक या आलोचक भारतीय साहित्य की प्रगतिशील विरासत को आत्मसात् करके आगे बढ़ा, वही दीर्घजीवी हो सका; अन्य अनुकरण की बाढ़ में तिरोहित हो गए ।
गांधी और लोहिया पर ही नहीं, इस पुस्तक में बुद्ध और नेहरू पर निबंध भी हैं । बुद्ध, ‘ज्ञात इतिहास के प्रथम’ मानववादी हैं तो नेहरू आधुनिक भारतीय इतिहास के । पहले, जन्मना राजपुरुष थे और कर्मणा दार्शनिक तो दूसरे आत्मना साहित्यकार और कर्मणा राजनीतिज्ञ । पहले ने मानव-कल्याण के हित राज्य का त्याग कर प्रब्रर्ज्या धारण किया तो दूसरे ने राजनीतिज्ञ के रूप में मानव-कल्याण की चिंता की । दोनों ने भारतीय इतिहास के दो मोड़ों पर अलग-अलग तरह से, लेकिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं और वैश्विक फ़लक पर भारत की पहचान को सुदृढ़ किया । नेहरू पर केन्द्रित लेख इस दृष्टि से उल्लेख्य है कि इसमें लेखक ने न केवल नेहरू के राजनीतिक और विचारक व्यक्तित्त्व की तुलना में उनकी साहित्यिक सहृदयता को उकेरा है, बल्कि इस पक्ष ने उनके राजनेता और नीतिकार रूप को कहाँ और किस रूप में प्रभावित किया है, उन संदर्भों को भी उभारा है । यह नेहरू के मूल्यांकन का एक विशिष्ट नज़रिया है ।
‘साहित्य का स्वधर्म’ पुस्तक का फ़लक अत्यंत विस्तृत है । इसके निबंध बहुविध और बहुआयामी हैं । ये अलग-अलग समय और परिवेश में लेखक द्वारा व्यक्त विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर भी इनमें एक आंतरिक लय या अन्विति है, जो इसे संकलन मात्र बनने से बचाती है । यह एक ओर लेखक के गहन अनुशीलन के परिचायक हैं तो दूसरी ओर पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार भी करते हैं । अपनी समग्रता में यह पुस्तक लेखक द्वारा अपने पाठक को उस मूलाधार से परिचित करने की कोशिश जान पड़ती है, जहाँ खड़े होकर उसने अपने विचार और चिंतन को आकार दिया है ।
समीक्षित पुस्तक—
पुस्तक : साहित्य का स्वधर्म
लेखक : विश्वनाथप्रसाद तिवारी
प्रकाशक : सामयिक बुक्स
संस्कारण : 2018
मूल्य : 595