बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं । विवशता में ही सही सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा की लिए पहल की है । सामाजिक माध्यम और मीडिया मे यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है ? निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं , लेकिन सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी; जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति मे बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी। जिस तरह से आधुनिक शिक्षा ने शिक्षा को एक बंद दरवाजे से खुले दरवाजे की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएँ पैदा की हैं ।
दुनिया के लिए ऑनलाइन या मुक्त शिक्षा-व्यवस्था कोई नई बात नहीं हैं, अमेरिका और यूरोपीय देशों में इसका चलन ज़ोरों पर रहा है । हमारे यहाँ भी सरकारी योजना के स्तर पर इस क्षेत्र में तेजी से काम हो रहे हैं । यू जी सी, एन. सी. आर. टी. की ई- पाठशाला, मूक्स, योजना के साथ मुक्त विद्यालयीय शिक्षा संस्थान की स्वयं, इग्नू की ज्ञानवाणी आदि इसी ही कोशिशे हैं, किन्तु इनके व्यावहारिक रूप में आने में कुछ चुनौतियाँ अभी से महसूस की जाने लगी हैं । इसमें जिस चुनौती को सबसे पहले रेखांकित किया जाता है, वह शिक्षक की सीमित भूमिका और छात्र-शिक्षक संवाद की कमी ।
अस्सी के दशक के बाद दुनिया में शिक्षण के जो नए पैटर्न स्वीकृत हुए हैं, उनमें बहुलांश शिक्षाल की भूमिका को सीमित करने के ही पक्ष में हैं । शिक्षक को सर्कस का रिंग मास्टर न होकर फेसेलिटेटर की भूमिका में होना चाहिए, इससे विद्यार्थी का सीखना अधिक सहज और प्रभावी होगा । यह स्वीकृत तथ्य है । इसलिए शिक्षक की भूमिका का सीमित होना नारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू है । रही बात ‘सीमित’ का अर्थ शिक्षा क्षेत्र में शिक्षकों की संखा में कटौती के अर्थ में तो शिक्षा का पहला उद्देश्य रोजगार देना नहीं शिक्षा को प्रभावी और बेहतर बनाना है ।
दूसरी बात शिक्षक-छात्र के आमने सामने संवाद की कमी केवल ऑनलाइन शिक्षण का दोष नहीं बल्कि भारतीय शिख्स्स पद्धति का भी सबसे बड़ा दोष है । विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा का व्यावहारिक प्रारूप शिक्षक केन्द्रित है, न कि विद्यार्थी केन्द्रित । शिक्षक अपनी रुचि, ज्ञान और क्षमता के भीतर संबंधित विषय पढ़ा और लिखा देता है, विद्यार्थी उसे प्रायः स्वीकार कर लेता है और याद करके परीक्षा में उसे लिख देता है । इसके विपरीत ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी के पास बहुत सारे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामाग्री और संदर्भ होंगे, जिससे वह स्वयं को समृद्ध के शिक्षक से अपने सवालों और समस्याओं और संवाद कर सकेगा । इसमें शिक्षक रिंगमास्टर के बजाय सहभागी या सहयोगी की भूमिका में होगा ।
शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली ‘चौहद्दी’ तक आयी है तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढेगी ही और बढी भी है । किंतु या चौहद्दी तोडना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है । गूगल, विकिपीडीया, स्वयं, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला,मूक्स आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं,किंतु इनकी मूलभूत दो दिक्कते हैं; पहली प्रामाणिकता और दूसरी गम्भीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लोगोँ से है और दूसरे का संस्थानों से। पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है, तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है । प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोडने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं और उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है । यह अरुचि और उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं ।
यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो, पर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची हैं कि कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं । इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं, जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है ? कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं और प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है । ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है ? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ है तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों ?
परंपरागत शिक्षण की भी यह समस्या है कि वे विद्यार्थी को चुनने और निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता । शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है प्रायः उसी परिसर के संसाधनों, पुस्तकालय शिक्षक आदि का उपयोग कर पाता है । कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में इतने समृद्धि नहीं हैं कि वे विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं । विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तकों सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है, जिसमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती है । उनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय प्राया नहीं दिखाई देता । शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनःस्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच वे विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं । इस समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डब्लपर और फ़ेलो की संख्या बढ़ाई जाय और ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाय ।
यह माध्यम किसी एक परिसर, वहाँ के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा तथा किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा । विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्रियों की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा और शिक्षा को सब्जेक्टिव से ओब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा । तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ओब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा, अन्यथा यह ओजेक्टिव प्रश्न पूछने की रश्मअदायगी तक ही सीमित रहेगी । जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है, सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते । खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा ।
शिक्षण की संस्थानिक शिक्षण की एक सीमा यह भी है कि वाह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराइए जाती है विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते वह एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है, जिसमें विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं ऑनलाइन शिक्षा की तुलना में अधिक मानी जा सकती हैं, किन्तु उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है, जिससे उसकी सामाजिक सच्चाईयों से काटने की संभावना भी रहती है । ऐसे में वह उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा ।
शर्त यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा विवशता के पर्याय के रूप में न लेकर एक नई चुनौती या सम्भावना के रूप में लिया जाए, क्योंकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है । शिक्षण संस्थान केवल रोजी-रोटी देने के जरिया भर नहीं हैं और आज नहीं कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा, जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी । अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे ही और शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी । इसका लाभ सीधे-सीधे शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा ।
शुक्रवार, 1 मई 2020
शिक्षा में नई संभावनाओं का प्रयोगिक दौर
सोमवार, 14 जनवरी 2019
यात्रा और यादें
यात्रा में खुले हरे भरे मैदानों से गुजरना मुझे अपने गाँव घर की यादों में धकेल देता है। निश्चित तौर पर वह बेहद आत्मीय अनुभव होता है। पर, ऊबड़-खाबड़ बंजर पठारों से गुजरना मेरे लिए उससे कुछ अधिक रुचिकर है। सूखे बेजान पत्थरों के बीच बसे गांव और उनका पूरा परिवेश संवाद-सा करता है। वे एक कथा-सी कहते हैं अपनी दुर्दमनीय जिजीविषा की, अपनी चट्टान की सी कठोर जिंदगी और उसके भीतर दबी हुई करुणा की, उस सरस धार की जो बरसात की एक आत्मीय झकोर-मात्र से अनेक छोटी-बड़ी धाराओं में फूट पड़ती हैं। उनका विकुंठ-निरुज मन उल्लसित हो उठता है। वे अपनी सहस्र-सहस्र बहुवर्णी बाहें फैलाकर बादल को अपनी बाहों में भरने को उत्कट हो उठते हैं। कुछ भी दबाने-छुपाने या गोपन रखने का गुण उन्होंने नहीं सीखा चाहे निदाघ के ताप से झुलसा हुआ निर्वसन रक्त-श्याम तन हो या वर्षा की फुहारों से भीगे हुए मन का अपूर्व उल्लास। यह जिजीविषा, उन्मुक्तता और सौंदर्य ही इनकी थाती है । मैदान उनकी तुलना में अधिक गोपन-वृत्ति वाले हैं वे बरसात के जल में आकंठ डूबने के बावजूद सबकुछ सोख डालते हैं। कहीं-कहीं पचपच पनियल दूब में ढंके हुए तो कहीं नीति और आदर्श की चिंता में डूबे हुए गंभीर आचार्य की तरह निस्पृह। जहाँ यह दूर्वा-हरित एकरंगापन अधिक है, वहां गोपन की प्रवृत्ति भी अधिक है। वह अपना सारा कीच-कर्दम काई-सेवार और दूब की परत में ढँके मूंदे' धरती के शस्य श्यामल मुखमंडल का जयगान करता रहा है।
बुधवार, 28 नवंबर 2018
छायावादेतर काव्य: स्वतन्त्रता आंदोलन का संवेदनात्मक इतिहास
राजीवरंजन
इतिहासकार विपिन चन्द्र ने ‘एसे आन इण्डियन नेशनलिज्म’ की भूमिका में लिखा है, “स्वतन्त्र भारत व्यापक स्तर पर ‘स्वराज’ के आदर्शो द्वारा निर्देशित रहा है, जो स्वतन्त्रता सेनानियों की पीढी द्वारा अर्जित है। भारतीय स्वतन्त्रता अन्दोलन विश्व इतिहास का एक महानतम जन-आन्दोलन था, प्रायः, विशेष रूप से 1919 के बाद, .......... वे इतिहास के विषय हैं, वस्तु नहीं।”1, किसान नेता सहजानन्द सरस्वती ने भी अपने एक लेख में 1919 ई.भारतीय राजनीति की विभाजक रेखा माना है। उनके अनुसार, यह भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी की सक्रियता का आरंभ विन्दु है। आगे उन्होंने लिखा है, “उनने गांव की ओर..... मुंह मोड़ा और जन आन्दोलन की भेरी बजाई।...उनके चलाए इस विराट् जनांदोलन के फलस्वरूप शोषित पीडित जनता के बहुतेरे स्वतंत्र आन्दोलन महाकाय होकर चल पड़े।”2, उनका यह बयान इसलिए महत्व रखता है कि वे स्वयं भी इसी आंदोलन की उपज थे। इन दोनों उद्धरणों यह स्पष्ट हो जाता है कि 1919 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक विभाजक रेखा है जहां से इस आन्दोलन की व्याप्ति और गहराई भारतीय जनता के हर स्तर तक संभव हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार छायावाद युग का प्रस्थान विंदु भी इसी के आसपास है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में छायावाद एक स्वीकृत और मान्य पद है । इतिहासकारों ने इसे एक युगविशेष की प्रवृत्ति मानते हुए आधुनिक हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण युग का नामकरण ही छायावाद युग कर दिया है । ऐसा करते हुए उन्होंने यह भी बता दिया है कि उस युग के और से कवि छायावादी हैं । इस क्रम में प्रायः बृहत्त्रयी, लघु-त्रयी और चतुष्टयी आदि का उल्लेख किया जाता है। लेकिन, अधिकांशतः आलोचक छायावाद को चार प्रमुख कवियों सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और माहादेवी वर्मा तक ही सीमित करके देखते हैं। यही चार ऐसे कवि हैं, जिनके चारों ओर छायावादी काव्य की अवधारणा और छायावाद युग की पहचान वियकसित हुई है। इसलिए छायावाद युग (सन् 1918-1936 ई.) के दौरान रचनारत अन्य कवियों को या तो फुटकल में रखकर निबटा दिया जाता रहा या पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती युगों के खाते में खतिया दिया गया है, जबकी इस युग में छायावादी-चतुष्टयी के अतिरिक्त दूसरे कवि भी रचना कर रहे थे, जैसे माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चैहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, बालाकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि । इस आदि में ऐसे तमाम कवि शामिल हैं जिनका नाम तो नहीं मिलता, लेकिन भारतीय संग्रहालय में कविताएं उपलब्ध हैं। कम-से-कम बीसियों ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाएँ तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने जब्त करा लीं। काव्य की कला की दृष्टि से इनका महत्व हो या न हो, इतिहास की दृष्टि से अपने समय की संवेदना की अभिव्यक्ति और उनके समय की संवेदना की समझ के लिए उनको पढ़ा जाना नितांत आवश्यक है, बिना उन्हें पढ़े समझे या जाने हम उनके समय की घटनाओं, स्थितियों आदि को तो जान सकते हैं, पर उस समय के भारत की मनोरचना का पाठ उनके बिना संभव नहीं हैं ।
यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी की चर्चा करते हुए कथानक के तीन स्रोतों का उल्लेख किया है- इतिहास, कल्पना और दंतकथाएँ।3, उनके अनुसार इतिहास तथ्य आधारित होता है और कल्पना रचनाकार की रचनात्मक प्रतिभा का व्यापार। दंतकथाएँ इन दोनों से अलग इसलिए होती हैं कि उनमें सत्य का अंश भी होता है और कल्पना के लिए अवकाश भी। इसलिए ये साहित्य के लिए अधिक अनुकूल हैं। दरअसल, ये दंतकथाएँ किसी समाज के इतिहास की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति होती हैं। साहित्य और इतिहास के बीच फर्क का आधार भी यही है। इतिहास किसी समय और समाज के तथ्यों की प्रस्तुति है और साहित्य उसकी संवेदना की अभिव्यति। इसलिए दोनों अलग-अलग होते हुए भी परस्पर पूरक हैं। साहित्य के अध्ययन के अनेक नए उपागम साहित्य और इतिहास की इस परस्परता को स्वीकार भी कर चुके हैं और साहित्य के आलोचनात्मक पाठ के लिए इतिहास के अध्ययन की जरूरत भी महसूस करते रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो छायावादेतर काव्य का साहित्य के साथ-साथ साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी है, क्योंकि वह स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में रचा गया और छायावादेतर कवियों का दावा तो यहाँ तक है कि “लोग साहित्य को जीवन से भिन्न मानते हैं, वे कहते हैं कि साहित्य अपने लिए ही हो। साहित्य का यह धंधा नहीं कि वह मात्र मधुर ध्वनि निकाला करे......जीवन को हम रामायण मान लें। रामायण जीवन के आरंभ का मात्र नहीं किन्तु करुणा रस से ओत-प्रोत अरण्य कांड भी है। और, धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलिन लंका कांड भी है।”4, साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि - “मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि आपके कवि और राजनीतिज्ञ साथ ही साथ जिन्दा कैसे रह सकते हैं ? मैं कहता हूं भाई! संध्या होती है, शान्ति का राज्य स्थापित हो जाता है तब मैं अपनी बांसुरी ले-लेता हूं और एक तरफ बैठकर सबसे दूर बजाने लगता हूं.......जब प्रभात होता है, विश्व के संहारकों से मुझे लड़ने की आज्ञा मिलती है, तब मैं उसी बांसुरी से रण के नक्करे पर चोट करता हूं और रण-क्षेत्र की ओर कूच कर लेता हूँ। साहित्य ही जीवन की भित्ति है। उसमें रेल गाडी के डिब्बों की तरह अलग-अलग अंगों के लिए स्थान नहीं है।”5, यहाँ कवि आजादी की लड़ाई में एक सेनानी और साहित्य के क्षेत्र में एक रचनाकार इन दोनों भूमिकाओं में अपने व्यक्तित्व को उस बांसुरी के रूपक से व्यक्त करता है जो शांति और युद्ध अलग-अलग भूमिकाएँ निभा रहा है। इस बांसुरी के रूपक का दूसरा संदर्भ इस समय की कविता भी है जिसमें प्रेम और सौंदर्य तथा क्रान्ति दोनों के स्वर एक साथ मौजूद हैं ? कभी-कभी यह कवि के भीतर के द्वंद्व6, या विवशता7, के स्वर के रूप में भी व्यक्त हुई है।
यह केवल छायावादेतर कवियों की विवशता नहीं थी, बल्कि उन तमाम युवाओं और सेनानियों की विवशता थी जो जीवन के सुंदर स्वप्नों को छोड़ कर राष्ट्रीय मुक्ति के वृहत्तर स्वप्न से जा जुड़े थे और मातृभूमि के आह्वान पर अपनी नींद, भूख, प्यास- सब भूल चुके थे। उनके लिए जीवन का मूल्य मातृभूमि की स्वतन्त्रता थी और वे उसके लिए आत्मबलिदान8, के लिए भी तत्पर थे। परतंत्रता गहरी पीड़ा9, और उससे मुक्ती की आकांक्षा10, उस समय कविता का केंद्रीय स्वर था, चाहे वह हिन्दी कविता हो या किसी अन्य भाषा की। मलयालम के प्रसिद्ध कवि कुमारानाशान की प्रसिद्ध कविता ‘सीता’ की ये पंक्तियाँ इसका उदाहरण हैं-
पशुओं को भी बहुत कष्ट उठाना पडता है
किन्तु वह अधिक देर तक नहीं रहता,
केवल मानव अत्यंत पीडा पाता है
जो घायल गर्व से उपजती है ।11,
इस ‘घायल गर्व’ की अभिव्यक्ति छायावादेतर कविता में कभी आत्म-गौरव के गान में होती है तो कभी आत्माधिक्कार12, और कभी आह्वान13, के रूप में ।
यह अनायास नहीं कि माखनलाल चतुर्वेदी वीणा और वांसुरी जैसे संगीत में मधुरता लाने वाले वाद्यों का अपनी कविता में बार-बार प्रयोग कराते हैं, लेकिन यहाँ वह या तो वह भारत की जनता की विवशता का प्रतीक बनाते हैं या क्रान्ति-स्वर के। इसका कारण यह है कि पूर्व-परंपरा में माधुर्य और रस-चर्या का आधान माना जाने वाला काव्य उस समय अपनी परंपरागत विशेषता को छोड़कर एक नया रूप ले रहा था। यह प्रक्रिया अनायास रूप से घटित नहीं हो रही थी, बल्कि यह एक सचेत प्रक्रिया की देन थी। अपने समय के सत्य का अहसास और उसके प्रति उसकी व्यग्रता को दिनकर की इस कविता में देख सकते हैं-
व्योम कुंजों की परी अयि कल्पने !
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं,
उड न सकते हम धुमैले स्वप्न तक
शक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं।14,
इसका अर्थ यह नहीं कि यहाँ कल्पना का पूरी तरह नकार है, बल्कि कल्पना से भी जीवन और जमीन के यथार्थ से जुडने की अपेक्षा है। यहाँ वायवीय कल्पना का निषेध है, जो व्योम कुंजों की परी है, जो जीवन के सहज संदर्भों से अर्थात अपने समय सचाई से जुड़ी है उसका नहीं। इस जीवन और समाज को सुंदर बनाने में उसका उपयोग कवि का काम्य है- ‘शक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं’। यह स्वप्न आजाद भारत का स्वप्न था। इसलिए इस दौर की कविताएं अपने समय के यथार्थ को ही व्यक्त नहीं करतीं हैं, भविष्य भारत का स्वप्न भी रचती हैं। यह स्वप्न तत्कालीन भारतीय जनता की आँखों से देखा गया है, कवि ने उसे अभिव्यक्ति-भर दी है। यह प्रवृत्ति लगभग सभी छायावादेतर कवियों में दिखाई देती है। उदाहरण के लिए इस कविता को देखा जा सकता है-
श्रेष्ठता का होवे नाश दमकता हो समानता तत्त्व,
देश के अंग नहीं मार जाएँ प्राप्त हो पूरा-पूरा स्वत्व।15,
श्रेष्ठता बोध पर समता आधारित समाज को वरीयता निस्संदेह एक बड़ा स्वप्न है जिसे छायावादेतर काव्य ने परतंत्र भारत में स्वतन्त्रता के बाद के भारत के लिए एक बड़े स्वप्न के रूप में प्रस्तुत किया है । यह स्वप्न उस नवजागरण कालीन चेतना का उत्तराधिकार है जो भारत में जाति-वर्ण की विषम जमीन को तोड़कर एक समतामूलक समाज का बिरवा लगा गई थी । यह धीरे-धीरे भारतीय मानस में एक वृक्ष का आकार ले रहा था । गांधी के आगमन और भारतीय राजनीति में मजदूरों और किसानों की सहभागिता ने इस विश्वास को और अधिक पुख्ता कर दिया था । 1930 के आस-पास भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव उस नई पीढ़ी के रूप में आया जिसका नेतृत्व समाजवादी विचारों वाले नेता कर रहे थे । उसने इस स्वपन को कहीं अधिक सुंदर बनाया और साथ ही उसे वैश्विक फलक के साथ जोड़कर उसे मानवता के स्वप्न में बदल दिया । इन कवियों के स्वप्नों में वैश्विक स्तर पर दीन हीन लोगों की मुक्ति और भारत की राजनीतिक मुक्ति में एकात्म स्थापित हो गया-
दीन हीन उठ बैठें जग के, टूट पड़ें अघ के जग सारे
पुण्य बैजयंती फहराई जय-जय भारत वर्ष हमारे।16,
उनकी ललकार केवल ब्रिटिश साम्राज्य तक सीमित नहीं रही, बल्कि समूचे साम्राज्यवादी और अधिनायकवादी तंत्र के लिए चेतावनी का स्वर बन गई-
दुनिया के ‘नीरो’ सावधान दुनिया के पापी ‘जार’! सजग ।
जानें किस दिन फूंफकार उठें पद-दलित काल सर्पों के फन ।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन ।17,
यह विश्व-दृष्टि नई और बदलती हुई राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित जरूर है, लेकिन एकदम नई नहीं है। रंग-भेद के विरुद्ध महात्मा गांधी द्वारा चलाए जाने वाले आंदोलन और अहिंसा तथा आत्मिकबल पर माखनलाल चतुर्वेदी ने कविता18, लिखी और इस अहिंसक आंदोलन के प्रभाव की व्यापकता को रेखांकित करते हुए इसे मानव-मात्र की मुक्ति से जोड़ा इसी तरह एक दूसरी कविता में उन्होंने सामाजिक असमानता और देशी धनाड्यों और पूंजीपतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा-
रे भाई मदमाते भाई !
सबल बिलोक चरण चुंबनरत
निर्बल देख सताते भाई
रे भाई मदमाते भाई !19,
यह भारतीय समाज के भीतर सामाजिक विषमता के विरु) जन्म लेती असहमति की ही काव्य में अभिव्यक्ति है। यह कविता 1921 की है। यह वही दौर है जब महात्मा गांधी भारतीय राजनीति के एक मुख्य नायक के रूप में उभर रहे थे। चंपारण और खेड़ा के सत्याग्रह ने उन्हें लोकमानस में ‘महात्मा’ के रूप में प्रतिष्ठित करा दिया था। गांधी के आह्वान पर बड़ी संख्या में किसान कांग्रेस और आजादी के आंदोलन से जुड़ रहे थे। इसलिए उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति कविता में न होना आश्चर्य का विषय होता। गैरबरबरी और शोषण की यह समझ स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त थी। इसी दौर से जुड़े अनेक राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं ने तीस के बाद की राजनीतिक पीढ़ी के साथ खड़े होकर किसानों और मजदूरों का आंदोलन किया और सोसालिस्ट विचारों की ओर प्रवृत्त हुए। स्वयं छायावादेतर कवियों ने भी उस दौर में अनेक ऐसी कविताएं लिखीं जिसमें रूसी क्रांति और उसके मूल्यों का समर्थन दिखाता है। वस्तुतः यह प्रवृत्ति किसानों और मजदूरों की राजनीतिक भूमिका की गांधी-नीति की ही प्रतिफलन है, जिसे आगे चलकर समाजवादी जमीन मिल गई। यह अनायास नहीं कि आजादी के दौर के भारतीय राजनीति के जयप्रकाश नारायण और लोहिया या उन जैसे तमाम समाजवादी नेता गांधी को ही अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और दिनकर की तमाम कविताएं, जिनमें मानवतावाद, शोषण का विरोध और उसके प्रति गहरा आक्रोश है, वे इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति का बढ़ाव या विस्तार हैं। इसलिए प्रगतिवाद की समकालीन और समधर्मी होती हुई भी ये कविताएं प्रगतिवाद की चैहद्दी से बाहर खड़ी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा करती हैं। उदाहरण के लिए नवीन की ‘जूठे पत्ते’ कविता का ये अंश देख सकते हैं-
लपक चाटतै जूठे पत्ते, जिस दिन मैंने देखा नर को,
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ, आज आग इस दुनिया भर को,
यह भी सोचा क्यों न टेंटुआ, घोटा जाय स्वयं जगपति का,
जिसने अपने ही स्वरूप को, रूप दिया इस घृणित विकृति का20,,
या फिर, दिनकर की ‘विपथगा’ कविता का यह अंश भी देखा जा सकता है-
दलित हुए निर्बल सबलों से, / मिटे राष्ट्र उजडे दरिद्र जन,
आह! सभ्यता आज कर रही / असहायों का शोणित शोषण।
’
धन पिशाच के कृषक मेघ में / नाच रही पशुता मतवाली,
आगन्तुक पीते जाते हैं /दीनों के शोणित की प्याली।
’
बरस ज्योति बन गहन तिमिर में, / फूट मूक की बनकर भाषा,
चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन, /उमड गरीबी की बन आशा।
’
गूंज शान्ति की सुखद सांस-सी / कलुषपूर्ण इस कोलाहल में,
बरस सुधामय, कनक-वृष्टि-सी /ताप-तप्त जग के मरुथल में ।21,
नवीन की कविता में क्षोभ का जो स्वर है उसकी तुलना जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल के पात्र विजय की उस समय की मनःस्थिति से की जा सकती है, जब वह भंडारे का उच्छिष्ठ लूटते हुए चांडालों और उनसे जूझ कर अपने लिए कुछ हिस्सा पाने की कोशिश करती हुई तारा को देखकर होती है। वह पूरी तरह उद्विग्न हो उठता है और मंगल देव से इस सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था के प्रति अपने रोशपूर्ण उद्गार व्यक्त करता है। यही नहीं जब अज्ञात कुल-शील तारा को निरंजन देवगृह में प्रवेश से रोकता है तो वह विद्रोह कर उठता है और मंगलदेव को वाराणसी से हरिद्वार वापस होना पड़ता है। यह विद्रोह जिस तरह प्रगतिवाद की पूर्वपीठिका है, वैसी ही नवीन और दिनकर की कविताएं भी।
ये सभी समेकित रूप से उस समय भारतीय समाज में तैयार हो रही विषमता के विरोध की स्वाभाविक जमीन के ही अलग-अलग प्रतिविम्ब हैं। इन्हें एक साथ जोड़कर उस समय के भारतीय लोकमन को समझा जा सकता है। यह वही लोक मन है जिसने भगत सिंह जैसे युवा क्रान्तिकारियों को जन्म दिया और उन्हें राजनीतिक बोध के स्तर पर मार्क्सवादी विचारों के करीब ले गए। साहित्य में प्रगतिवाद के लिए भूमिका रची और प्रेमचंद जैसे उपन्यासकारों को आदर्शवाद से यथार्थोनमुख आदर्शवाद के रास्ते यथार्थवाद की ओर यात्रा के लिए प्रेरित किया।
इसलिए यह अनायास नहीं कि छायावादेतर काव्य में अपने समय के यथार्थ से कहीं गहरा लगाव दिखाई देता है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो इसमें गांधीवादी और क्रांतिकारी दोनों तरह के स्वर एक साथ मिलते हैं। कहीं-कहीं क्रांतिकारी स्वर अधिक प्रबल हो उठता है, विशेष रूप से मुख्य-धारा की कविताओं से अलग उन कविताओं में जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गईं थीं। यह ततत्कालीन भारतीय मानस के द्वंद्व को दिखातीं हैं, जो हिंसा और अहिंसा दोनों मार्गों को लेकर संशय में था बल्कि, सामान्य जन में क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति बढ़ रही थी। भगत सिंह की शहादत के आस-पास इस तरह की कविताओं की बाढ़ आ गई।
भगत सिंह को 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय विधानसभा में बम पफेंकने के अपराध में गिरफ्तार किया गया और 23 मार्च 1931 को उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी दे दी गई। इस दौर में हिन्दी में क्रांतिकारी गीतों के अनेक संकलन प्रकाशित हुए, जैसे- ‘आजाद भारत के गाने’ (1930), ‘शहीदों की यादगार’ (1931), ‘गाँधी गीत सागर’ (1930), ‘आजादी का चमत्कार’ (1930, ‘आजादी की तरंग’ (1931) ‘बेकसों के आँसू’ (1931) ‘भारत का महाभारत’ (1931) तथा ‘चमकता स्वराज्य’ (1931) आदि। इसके अतिरिक्त 1930 में ‘हिन्दू पंच’ ने ‘बलिदान अंक’ प्रकाशित किया था। कई कविताएँ तो भगत सिंह को केन्द्र में रखकर लिखी गई। ‘फाँसी लाहौर की उर्फ भगत सिंह का तराना’ इस बात का एक सुन्दर उदाहरण है। यह पूरी पुस्तक ही भगत सिंह और उनकी पफाँसी पर केन्द्रित थी जिसे आपत्ति जनक मानकर औपनिवेशिक सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी संग्रह में प्रभु नारायण मिश्र की ‘भगत सिंह’ शीर्षक एक कविता प्रकाशित हुई थी, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-
तूने चमन को है सींचा लहू से।
कहाँ जा बसा होके न्यारा भगत सिंह।।
मगर देश के लिए जान दे दी।
बड़ा शान तेरा हमारा भगत सिंह।।22,
यह तत्कालीन भारतीय समाज के मनोजगत की काव्य में अभिव्यक्ति का एक प्रामाणिक उदाहण है। गांधी तो इस पूरे दौर के लोकनायक और काव्यनायक ही थे। चरखा, खादी और स्वदेशीजैसे प्रतीक भी काव्य के लोकप्रिय विषय रहे हैं ।
छायावादेतर काव्य भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के समानान्तर रचा जाने वाला काव्य था। इसमें उस दौर की सामाजिक राजा नेएटैक घटनाओं के व्योरे साहज ही देखे जा साकटे हैं। लेकिन, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह काव्य अपने समय के लोक-जीवन और उसके मानस-व्यापार से भी बहुत गहराई से जुड़ा है। इसलिए यह उसके उसके मानसिक संवेदन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी है। इसमें उस दौर के भारतीय मानस, आजादी की लड़ाई की पृष्ठभूमि और उसकी पूर्वपीठिका के रूप में काम करने वाले लोक मन तथा उसके प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। अतः यह यह भारत की आजादी की लड़ाई का संवेदनात्मक इतिहास है।
1, ‘एसे आन इण्डियन नेशनलिज्म’ हर आनंद पब्लिकेशन, 1993, दिल्ली, 2013, भूमिका
2, सरस्वती, सहजानन्द, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृष्ठ-259
3, जैन, निर्मला, काव्यचिंतन की पश्चिमी परंपरा, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2006, पृष्ठ-47
4,जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14
5, वही, पृष्ठ-14
6, यह कैसा आहवान ! /समय असमय का तनिक न ध्यान ।
तुम्हारी भारी सृष्टि के बीच/क्या यह तरल अग्नि ही पेय ?
सुधा मधु का अक्षय भंडार/ एक मेरे ही हेतु अदेय ?
‘उठो’ सुन उठूँ, हुई क्या देवि/नींद भी अनुचर का अपराध ?
मारो सुन मरूँ नहीं क्या शेष/अभी दो-दिन जीने की साध ?
- दिनकर, रामधारी सिंह, हुंकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ-21
7,विवश मैं तो वीणा का तार।
जहां उठी अंगुली तुम्हारी, मुझे गूंजना है लाचारी
मुझको कंपन दिया तुम्हीं ने, खुद सह लिया प्रहार
दिखाऊँ किसे कसक सरकार।
अभागा मैं वीणा का तार !
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14
ख्8, मानी मन मानता नहीं है, इसे रोको मत
मातृभूमि बनि बिना बानी रह जाएगी ।
जीवन के युद्ध में है जाने का सुयोग फिर
जोश ही रहेगा न जवानी रह जाएगी ।
- गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
ख्9, क्यों पडीं परतंत्रता की बेडियां
दासता की हाय हथकडियां पडीं
न्याय का ‘मुंहबंद’ फांसी के लिए
कण्ठ पर जंजीर की लडियां पडीं।
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-53
10, मेरे जीते पूरा स्वराज्य भारत पाए अरमान यही।
बस शान यही अभिमानय ही हम कोटि-कोटि की जान यही।
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14
11, जार्ज, के. एम., कुमारनाशान, दिल्ली, साहित्य आकादेमी, पृष्ठ-
12, जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रस धार नहीं।
वह हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
- गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
13, जीवन गीत भुला दो, कण्ठ मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान निकली है मेरे अन्तर्तम से !
ऽ
दहल जाय दिल पैर लडखडाएँ कांप जाय कलेजा उनका,
सिर चक्कर खाने लग जाए, टूटे बंधन शासन-गुण का,
नाश स्वयं कह उठे कडककर उस गभीर कर्कश-से स्वर से-
‘रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान निकली है मेरे अंतर्तम से’।
-नवीन, बालकृष्ण शर्मा, नवीन रचनावली, दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, 2011, पृष्ट-1177
14, दिनकर, रामधारी सिंह, रेणुका, उदयाचल प्रकाशन, इलाहाबाद, 1954, पृष्ठ-5
15, जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-42
16, वही, पृष्ठ-60
17, दिनकर, रामधारी सिंह, हुंकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ-93
18, सुजन, ये कौन खडे हैं ? बन्धु! नाम ही है इनका बेनाम,
कौन सा करते हैं ये काम? काम ही है बस इनका काम।
भाई बहन, हां कल ही सुना, अहिंसा आत्मिक बल का नाम,
पिता सुनते हैं श्री विश्वेश, ‘जननि?’ श्री प्रकृति सुकृति सुख धाम।
- जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-43
19, वही, 75
21, दिनकर, रामधारी सिंह, रेणुका, उदयाचल प्रकाशन, इलाहाबाद, 1954, पृष्ठ-31
22, सिद्धू, गुरुदेव सिंह, फाँसी लाहौर की, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2006, पृ. 36
बुधवार, 21 नवंबर 2018
विचार और अंतर्दृष्टि : अरथ अमित आखर अति थोरे
राजीवरंजन
“आलोचना में विश्लेषण या विवेचन के विवरण की संपूर्णता का महत्त्व नहीं होता; महत्त्व विवेचन या विश्लेषण के पीछे सक्रिय अंतर्दृष्टि या समझ का भी होता है । कभी-कभी तो यह इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इसके पीछे की और बातें गौण या उपेक्षणीय हो जाती हैं ।” ‘आलोचना और अंतर्दृष्टि’ पुस्तक प्रोफेसर हनुमानप्रसाद शुक्ल की इस आलोचना-दृष्टि का सर्जनात्मक दृष्टांत है । पुस्तक का आकार सीमित होते हुए भी इसकी अंतर्वस्तु बहु-आयामी है । इसमें भाषा, साहित्य और इन दोनों के रास्ते संस्कृति के अनेक प्रश्नों पर विचार के साथ ही यह इनसे जुड़े तमाम नए प्रश्नों का प्रस्थान भी है ।
इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लेखक ने साहित्य को भाषायी सीमाओं और माध्यम विशेष की सीमित परिधि से बाहर निकालकर देखने-पढ़ने की हिमायत की है । उनके अनुसार ‘भारतीय चित्त को उन्मथित करने वाले बुनियादी प्रश्नों और उसकी चेतना को व्याप्त करने वाली अवधारणाओं’ के आधार पर भारत की सभी भाषायी इकाइयों के साहित्य में एक आत्मीय रिश्ते की तलाश की जानी चाहिए । अतः भारतीय साहित्य की संकल्पना और उसे साकार करने में तुलनात्मक भारतीय साहित्य और तुलनात्मक भारतीय साहित्य-मीमांसा की भूमिका को पहचानने की कोशिश इस पुस्तक की दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं । पुस्तक की लघु आकृति और उसके विषय वैविध्य के बावजूद लेखक ने इसकी सैद्धांतिकी ही नहीं पेश की है, प्रत्युत् अपने आलोचनात्मक लेखों द्वारा उसे व्यावहारिक आधार भी दिया है । यह महत्वपूर्ण है कि यहाँ 'भारतीयता' एक रूढ़ पद या स्थानीय अस्मिताओं का विरोधी नहीं है । बल्कि, साहित्य में ‘भारतीयता’ की तलाश के क्रम में लेखक ने लोक-निष्ठा के साथ उसके अविरोधी संबंध और सह-अस्तित्व को समझाने की कोशिश भी की है । जायसी केन्द्रित ‘जायस नगर मोर अस्थानू ...’ लेख इसका सटीक उदाहरण है, जिसमें जायसी की लोकनिष्ठा को ही लेखक ने उनके साहित्य की ताकत और उनके एक ‘भारतीय कवि’ होने का प्रमाण माना है ।
हिन्दी भाषा और उससे जुड़े विभिन्न सवालों पर लिखे गए अपने लेखों में लेखक ने भारतीयता के इस पक्ष को और अधिक स्पष्ट और तार्किक रूप में विश्लेषित किया है । ये लेख हिंदी और उसकी आधार भाषाओं (बोलियों) तथा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के आपसी संबन्धों को देखने की एक नई दृष्टि देते हैं । उनके अनुसार हिंदी एक भाषा नहीं, बल्कि उत्तर भारत में बोली जाने वाली जनपदीय भाषाओं का एक संयुक्त उत्तराधिकार (कॉमनवेल्थ) है, जिसकी और अधिक समृद्धि या स्वीकार्यता दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ सहकार पर निर्भर है । आज जबकि एक ओर उत्तर भारत की विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति की मांगे चल रही हैं और दूसरी ओर दक्षिण में हिंदी के प्रति अस्वीकार्यता की बर्फ अभी पूरी तरह पिघली नहीं है, प्रोफेसर शुक्ल का भाषा के प्रति यह उदार दृष्टिकोण विशेष महत्त्व का है । दरअसल, वे भारत में भाषा के प्रश्न को अधिक उदार और हिंदी को कहीं अधिक खुली भाषा बनाने के पक्षधर हैं । भाषा के प्रति उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि का एक दूसरा उदाहरण भी है हिन्दी भाषा की लैंगिक एकांगिता को रेखांकित करना और उसे एक लिंग-निरपेक्ष भाषा के रूप में विकसित करने का उनका प्रस्ताव । ‘स्त्री विमर्श और हिंदी भाषा का पुनर्संवाद’ शीर्षक लेख में इसी विषय को आधार बनाया है ।
भाषा और साहित्य संबंधी लेखक की मान्यताओं का मूल आधार उनका ‘भारत-बोध’ है । उन्होंने भारत को एक जीवंत और बहुलतावादी देश के रूप में रेखांकित किया है । उनके अनुसार यह बहुलता ही भारत की आत्मा है— “भारत एक बहुभाषिक-बहुजातीय-बहुसांस्कृतिक-बहुधर्मी-बहुपंथी इकाई है; इन सबका संश्लेष और समवाय है । भारतीय मानस की निर्मिति इसी समझ से बनी है । भारतीय साहित्य इसी ‘भारतीय मानस’ की अभिव्यक्ति है ।” यह बहुलता सहजात और स्वाभाविक है— “भारत एक भौगोलिक सांस्कृतिक इकाई भी है । भूगोल का विस्तार बहुत अधिक है । कहीं-कहीं उसमें जो कुछ भेदक रेखाएँ दिखाई देती हैं, वे भारत नामक ‘विराट्’ विग्रह के संयोजक ‘संधि-बिंदु’ हैं । जैसे मानव वपु अनेक अंग संस्थानों के संयोजन से जीवंत आवयविक अस्तित्व पाता है; ठीक वैसा ही जीवंत और आवयविक अस्तित्व है ‘भारत’ । इसलिए राजनीतिक इकाई या इकाइयों के रूप में भारत को देखने की भूल नहीं करनी चाहिए । यह भौगोलिक एकता भारत की सांस्कृतिक एकता की रीढ़ है । इसके कारण मूल्यों, आदर्शों, धर्मों, विचारों, विश्वासों, दर्शनों, कलाओं आदि के अखिल भारतीय प्रसार में सहजता रही है । इस एकता और संवेदना के साझे के कारण ही एक भारतीय ‘चित्त’ या ‘मानस’ बनाता है । इस मानस द्वारा सृजित-सर्जित वस्तु को ही हम ‘भारतीय संस्कृति’, ‘भारतीय दर्शन’, ‘भारतीय संगीत’, ‘भारतीय साहित्य’ आदि नामों से संबोधित करते हैं । इसी आधार पर एक ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ अस्तित्वमान' होती है । यह ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ ही भारतीय साहित्य की ‘आत्मा’ है ।” ये उद्धरण आज के हमारे परिवेश के संदर्भ में खास अर्थ रखते हैं, जबकि हम एकरूपता को ही एकता का आधार मानने के लिए लिए विवश किये जा रहे हों ।
यह पुस्तक प्रोफेसर हनुमानप्रसाद शुक्ल के एक सुधी आलोचक, भाषाविद और संकृतिचेता व्यक्ति की अभिव्यक्ति और पाठक के लिए इन विषयों पर एक विशेष दृष्टि से साक्षात्कार के अवसर के साथ-साथ आधुनिक भारतीय साहित्य के अध्ययन के लिए एक नए शास्त्र प्रस्तावना भी प्रस्तुत करती है । उन्होंने ‘तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा’ और ‘भारतीय रस-चिंतन’ की ओर पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया है । दादेगावाकर की पुस्तक ‘रसचर्चा’ की समीक्षा ‘शास्त्र सूचिन्तित पुनि-पुनि देखिय’ में लेखक ने ‘भारतीय रस-चिंतन’ को देखने और समझने पाठकों के लिए एक नया वातायन खोलने की कोशिश की है और एक लेख के सीमित आकार के बावजूद उसे उद्घाटित करने में सफल भी रहे हैं ।
भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा, हिंदी भाषा के विभिन्न पक्षों आदि पर केन्द्रित लेखों के साथ ही यहाँ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों, लेखकों और उनकी कृतियों पर आलोचनाएँ और समीक्षाएं भी मौजूद हैं । इनमें जायसी, एषुत्तछन, आचार्य शुक्ल, प्रेमचंद, नवीन, आचार्य वाजपेयी, निर्मल वर्मा, विजय मोहन सिंह ,चंद्रकांत देवताले, तिलोत्तमा मजूमदार, सुरेन्द्रवर्मा आदि शामिल हैं । ये चुनाव लेखक के साहित्य-बोध के दायरे और उनकी अंतर्दृष्टि के भी प्रमाण हैं और तीन खंडों में अन्तःविभक्त यह पुस्तक अपनी समग्रता में पाठक की चित्त-रिद्धी का एक महत्तर उपक्रम । अतः सीमित पृष्ठों में इतना सब समाहित करने वाली इस पुस्तक की पहचान गोस्वामी जी के इन शब्दों में ही संभव है कि ‘अरथ अमित आखर अति थोरे ।’
पुस्तक: विचार और अंतर्दृष्टि लेखक: प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्ल
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली मूल्य: 550/-
बुधवार, 26 सितंबर 2018
पुत्रोऽहं पृथिव्याः
मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछाए टिकोरों की आस में पूरी दुपहरिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली है, कुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहे? शहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँह' की कल्पना कर रहे थे, वह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है ।और, उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ताल नृत्य कर रही हैं । गोया, यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकर, कोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैं, हमारी अबाध आकांक्षाएँ।
सदियों पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस करोड़ देवताओं में सब हैं— वर्षा के देवता मघवान,परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संतानें हैं, जिसके साथ क्रीड़ा कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाए तो क्या यह कल्पना प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति नहीं है ?निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएँ थीं और उन सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया, वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएँ टूट चुकी हैं, तब हम चाहें तो उसे ही पदार्थ कह लें । यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य रहा है; उन्होंने पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची सृष्टि पंचतात्विक है, मनुष्य भी और पेड़-पौधे भी । अगर दायरा थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या का था । वहाँ पाँच नहीं, केवल चार तत्त्वों की बात की गई है;पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि । आकाश उनके चिंतन में अनुपस्थित है । यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी । भारतीय विद्वान बराहमिहिर ने यूनानियों को उनके खगोलीय अध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है । फिर भी, आकाश को अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या ये संदर्भ स्वयं में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ? निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है । प्रकृति और मनुष्य के बीच का अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है; बाकी अनुभूतियाँ तो सब में होती हैं । मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है ।
हमारी परंपरा और संस्कृति में यह समझ बहुत गहरी रही है। प्राचीन भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात् उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि‘ईशावास्य उपनिषद्’ का पहला मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है—
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनं ॥
(इस पृथ्वी पर जो भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है । इसलिए हमें त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो ।’) प्राचीन भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात् उपनिषद काल तक आते-आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्त्वपूर्ण हो चुका था, इसे समझने के लिए यह उक्ति पर्याप्त है ।
त्यागपूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके प्राप्य का त्याग करते हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव । दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए । लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है । एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के विषया में लिखा है,जो लिखा है उसे पढ़कर यह मान्यता अधिक पुष्ट ही होती है । उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी उसकी भूख होती थी । लेकिन, अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह मनुष्य के भीतर बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी । गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है । गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है । सच कहा जाए तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है । हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी;बल्कि संभव है, उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें । इसलिए हमें अपनी उस लोभ-वृत्ति और हिंसा-वृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंस लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव भी इसके भीतर समाहित रहता है ।
अनायास ही भारतीय चिंतन अहिंसा की दुंदुभी बजाता हुआ विश्व में चेतना की प्रसार-यात्रा पर नहीं निकलता है, बल्कि उसको बल मिलता है, भारतीय मानस में प्रकृति-मनुष्य के साहचर्य के प्रति गहरे स्वीकार-भाव से । प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकार-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता, रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है । डी. डी. कोसम्बी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही उठता है कि वे कौन से कारण थे कि दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ? उनका ध्यान सहज ही आ अटकता है, भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कह उठाते हैं कि ‘यहाँ अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियाँ नहीं कीं, बल्कि इस भूमि पर बौद्धिक क्रांतियाँ हुईं’। एक बात वे कहना भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रान्ति का न होना अन्न-जल की अपर्याप्तता के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि इस सरस भूमि की सरस चेतना के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया । विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही नहीं फैले, बल्कि भारत के प्राकृतिक परिवेश ने उसे अपनी कुक्षि में धारण कर अनंत काल तक विकसित और पुष्ट भी किया । यूनान की महान सभ्यता को याद करें तो उसके विनाश के बीज उसकी उदात्त वीरता के भीतर निहित थे, जिसकी अभिव्यक्ति होमर के काव्य में सहज-लब्ध है । पर, भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसके माधुर्य की देन है । हमारे यहाँ अकेले-अकेले वीरता अनैतिक है, उद्दंड है, अस्वीकार्य है । दुर्योधन, बालि, हिरण्याक्ष,मेघनाद कोई भी यूनानी काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है, पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान न दिया । क्यों ? क्योंकि, उनमें माधुर्य न था;करुणा न थी, प्रेम न था, दया न थी । अपनी तितीक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद युधिष्ठिर भी वह मान न पा सके । भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला, अर्जुन को मिला, कृष्ण को मिला । अब आप कहेंगे भला इसका प्रकृति से क्या वास्ता ? जी हाँ, है । जरूर वास्ता है प्रकृति से । ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे । उन्हें मंगोलिया, अरब या जर्मनी मनुष्यों की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था । उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थी, कोमल थी और इसलिए उनके मन में पलने वाले भाव भी कोमल थे । हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की उपेक्षा नहीं, बल्कि सम्मान है । लेकिन, उसमें करुणा और प्रेम का सन्निवेश अपरिहार्य है । मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिगामिता के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया है— “सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम ।” आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वानों ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़कर किया है, जिनकी प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही मौजूद है ।
भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी मानव-प्रकृति-साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति।’ यह ‘देवस्यकाव्यं’ है क्या ?प्रकृति— उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिए हैं । यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती है । चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट,तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास,सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल । सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं; आखिर इनके युग भी तो अलग हैं । और, हर युग की अलग संवेदना होती है । यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है । वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजनक नहीं लगती कि कविता आदिम मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है । आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं । उसमें जटिलता बढ़ी है और सहजता का धीरे-धीरे लोप होता चला गया है । इसी के साथ रागात्मकता, लयात्मकता और और अन्विति धीरे-धीरे दूर होती जा रही है ।
हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है । यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं । आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है । उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा । आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात की है— संगीत और व्यायाम । व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो,लेकिन सार्थक होने के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादाश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता मनुष्य की सहजात वृत्ति है और यह प्रकृति के साहचर्य में उपजी है । मनुष्य प्रकृति से जितना दूर होगा, उसके जीवन से लयात्मकता का लोप हो जाएगा और वह कृत्रिम होता जाएगा।
जब हम असभ्य थे, वनचर थे, खाद्यसंग्रही थे, हमने आग की खोज नहीं की थी; तब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने हुलस कर हमें दिया, हमने अपना पेट भरने को फल माँगे इसने अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं, हमने तन ढंकने को वस्त्र माँगा, इसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दिया, ये स्वतः उसके पात्र बन गए— खुद अपना तन हमारे लिए समर्पित कर दिया । जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए लकड़ी दी, पत्ते दिए । और-तो-और, मानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान है। जब पहले-पहल इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकते हैं । यहाँ तक कि विकास के सारे महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हुए । चेतना, कला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली पहचान, हवा में लहराते पत्तों के संगीत, हवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटट कर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात सत्त्ता में आस्था —यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा ( यह अनायास नहीं की दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन के सिद्धांत दोनों की प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं) ।
प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह एकात्म,ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान,दर्शन या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है,बल्कि यह लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही अधिक विकसित और पुष्ट हुआ है । दार्शनिकों,कवियों और चिंतकों ने तो वहीं से उसे ग्रहण किया । इसलिए वे उसके कर्जदार हैं । हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं । लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं। वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और पीपल,बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं । ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले बच्चे के लिए वह बट दादा है, सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़ पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रस्म है ‘पित्तर नेवतल’ अर्थात पितर-गण को निमंत्रण। तिलक के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य रस्में होती हैं, जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं । इन अनुष्ठानों में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है । यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है । हल्दी के साथ ‘मटकोर’ (मिट्टी गोड़ना) भूमि (उर्वरता या उत्पत्ति की अधिष्ठात्री) की पूजा का विधान है । ये परम्पराएँ अब अवशेष मात्र बनकर नगरीय जीवन में महिला संगीत के‘शार्टकट फार्म’ और मेंहदी की नव-आयातित‘सेलिब्रेशन’ संस्कृति के हवाले हो चली है ।
निश्चित रूप से आरंभ में जब मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता आज की तरह इतना सरल, इतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था,मनुष्य लेता तब भी था और अब भी है, लेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य मिलते रहे हैं, वे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं हैं, बल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं। भारत को ही लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहीं, अपनी पोषक-वृत्ति के कारण उपास्य या श्रेष्ठ हैं । भारतीय परंपरा में जो भी सरस है, जीवनदायी है; वह माँ है । नदी, धरती या गो इन्हीं अर्थों में मातृ-स्वरूपा हैं । तीनों रसवंती हैं, तीनों जीवनी शक्ति का स्रोत हैं और तीनों में पोषण-वृत्ती है । प्रकृति में जो भी जीवन है उसको सरसता धरती की नसों से ही मिलती है । उसमें प्राणत्व का संचार उसी से होता है । धरती रसवंती है और आकाश उजस्विन् । आकाश प्रकाश का,चेतना का, ज्ञान का, ऊर्जा का स्रोत है । वह सूर्य-चंद्रमा को धारण करता है । सूर्य समूची सृष्टि को ऊर्जा प्रदान करता है । इसलिए आकाश पिता है । इसी तरह पीपल देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की रक्षा का हेतु बन जाता था । गाँव-घर में अनेक तीज-त्यौहार होते थे; उत्सव होते थे, जिनमें प्रकृति के उपादानों का प्रयोग होता था । मंगल घट के ऊपर विराजने वाला आम्रपल्लव, तोरणों में सजा अशोक और पुशपहरों में गूँथें हुए पुष्प हमारी प्रकृति की आदिम आसक्ति के अवशेष हैं । हुआ यह कि हम जैसे-जैसे प्रकृति से दूर होते गए, वैसे-वैसे अपने पुराने संस्कारों को धर्म और परंपरा की ताबीज में गूँथ कर अपने गले में धरण करते गए । पुराना राग छूटता गया, लेकिन ताबीज नहीं छूटी । नदी या सरोवर के भरे-पूरे जल को छोड़ हमने उसे मिट्टी के घड़े में समेट लिया और उस जल को पवित्रता-बोध से जोड़कर कलश के रूप में अपने पूजा-गृह, और विवाह-मंडप के मंगल घट से तर्पण के घट तक हर जगह शामिल कर लिया । नतीजा,प्रकृति छूटी नहीं वह साथ चलती रही, पर उस जीवंत रूप मैं नहीं रूढि-मात्र के रूप में, सकुची-सिमटी-सी हमारे पार्श्व में घिसटती हुई । न्याय का,विवेक का, ज्ञान का प्रतीक जल अविवेकपूर्ण कर्मकांड का अंग-भर बन गया और उसका देवता वरुण धीरे-धीरे नदियों, झरनों, सरोवरों और सागरों के गतिशील, प्रशांत या उमड़ते हुए आश्रयों को छोड़ कर स्वर्ग में जा विराजा । वह केवल जल का देवता नहीं, सत्य और न्याय का भी देवता है । कहाँ तो सरस जल और कहाँ सत्य और न्याय के शुष्क और कठोर विधान । अद्भुत मेल है यह । दर-असल यह मेल ही भारतीयता है । कठोर के साथ सरस,सत्य के साथ करुणा, त्याग के साथ भोग का यह अपूर्व साहयचर्य ही ‘भारतीयता’ की पहचान है ।
इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक रहा है । इसलिए हमेशा हाथ फैलाए वह वृक्षों के सामने खड़ा ही रहा है । वृक्ष ही क्यों? समूची प्रकृति और उसके तृण-तृण के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है ।अपनी सारी उपलब्धियाँ, सारे सभ्यता-व्यापर और सारे ज्ञान-विज्ञान को सामने रखकर भी, वह हमेशा अदना ही रहा । यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को विवश ही पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी बाँहों वाला बौना मैं, बड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर बाँह करके हँसी का पात्र ही बनूँगा' (रघुवंशम्/कालिदास) । पर, इस आत्मदैन्य की स्वीकृति कालिदास जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव थी; हम जैसे रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनई' तो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे । पेड़ों को कौन कहे, पूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम् (अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता’ को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास है, मनुष्य । इसलिए वह शेष प्रकृति से श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता रखता है । ‘सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएँ प्रस्तुत करती है और मनुष्य इनका कुशल दोहन करता है’— ऐसा मनाने के क्रम में, कुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई, यह हम नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँ, सारी चिंताएँ और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते रहे, हम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखा, कोई सहचर या कोई मित्र भी है; ‘मनुष्य धरती की संतान है, वह इसी की धूल-माटी में पल-सनकर बड़ा हुआ है’ —ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके थे । परिणाम, प्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी में सिमटता गया और हम अपने विजय का उत्सव मनाते रहे ।
आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते में तेजी से गिरावट आई है । इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है । अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय हो गई है । ‘ये दिल माँगे मोर’ के फलसफे वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या जरूरत ? हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं कि इन पर्वतीय अंचलों, समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं, हम अपनी ही आब-ओ-हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है कि पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है ।
( सोच विचार : वाराणसी)
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