बुधवार, 26 सितंबर 2018

पुत्रोऽहं पृथिव्याः



मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछाए टिकोरों की आस में पूरी दुपहरिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली हैकुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहेशहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँहकी कल्पना कर रहे थेवह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है ।और, उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ताल नृत्य कर रही हैं । गोया, यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकरकोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैंहमारी अबाध आकांक्षाएँ।
                सदियों पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस करोड़ देवताओं में सब हैं वर्षा के देवता मघवान,परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संतानें हैं, जिसके साथ क्रीड़ा  कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाए तो क्या यह कल्पना प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति नहीं है ?निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएँ थीं और उन सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया, वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएँ टूट चुकी हैं, तब हम चाहें तो  उसे ही पदार्थ कह लें । यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य  रहा है; उन्होंने पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची सृष्टि पंचतात्विक है, मनुष्य भी और पेड़-पौधे भी । अगर दायरा थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या का था । वहाँ पाँच नहीं, केवल चार तत्त्वों की बात की गई है;पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि । आकाश उनके चिंतन में अनुपस्थित है । यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी ।  भारतीय विद्वान बराहमिहिर ने यूनानियों को उनके खगोलीय अध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है । फिर भी, आकाश को अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या ये संदर्भ स्वयं में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ?  निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है । प्रकृति और मनुष्य के बीच का अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है; बाकी अनुभूतियाँ तो सब में होती हैं । मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है ।
           
                हमारी परंपरा और संस्कृति में यह समझ बहुत गहरी रही है। प्राचीन भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात् उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है किईशावास्य उपनिषद् का पहला मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है—
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनं ॥
(इस पृथ्वी पर जो भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है । इसलिए हमें त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो ।) प्राचीन भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात् उपनिषद काल तक आते-आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्त्वपूर्ण हो चुका था, इसे समझने के लिए यह उक्ति पर्याप्त है ।
                त्यागपूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके प्राप्य का त्याग करते हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव ।  दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए । लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है । एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के विषया में लिखा है,जो लिखा है उसे पढ़कर यह मान्यता अधिक पुष्ट ही होती है । उन्होंने हिंद स्वराज में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी उसकी भूख होती थी । लेकिन, अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह मनुष्य के भीतर बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी । गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है । गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और  मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है । सच कहा जाए तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है । हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी;बल्कि संभव है, उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें । इसलिए हमें अपनी उस लोभ-वृत्ति और हिंसा-वृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंस लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव भी इसके भीतर समाहित रहता है ।
                अनायास ही भारतीय चिंतन अहिंसा की दुंदुभी बजाता हुआ विश्व में चेतना की प्रसार-यात्रा पर नहीं निकलता है, बल्कि उसको बल मिलता है, भारतीय मानस में प्रकृति-मनुष्य के साहचर्य के प्रति गहरे स्वीकार-भाव से । प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकार-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता, रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है । डी. डी. कोसम्बी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही उठता है कि वे कौन से कारण थे कि दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ?  उनका ध्यान सहज ही आ अटकता है, भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कह उठाते हैं कि यहाँ अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियाँ नहीं कीं, बल्कि इस भूमि पर बौद्धिक क्रांतियाँ हुईं। एक बात वे कहना भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रान्ति का न होना अन्न-जल की अपर्याप्तता के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि इस सरस भूमि की सरस चेतना के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया । विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही नहीं फैले, बल्कि भारत के प्राकृतिक परिवेश ने उसे अपनी कुक्षि में धारण कर अनंत काल तक विकसित और पुष्ट भी किया ।  यूनान की महान सभ्यता को याद करें तो उसके विनाश के बीज उसकी उदात्त वीरता के भीतर निहित थे, जिसकी अभिव्यक्ति होमर के काव्य में सहज-लब्ध है । पर, भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसके माधुर्य की देन है । हमारे यहाँ अकेले-अकेले वीरता अनैतिक है, उद्दंड है, अस्वीकार्य है । दुर्योधन, बालि, हिरण्याक्ष,मेघनाद कोई भी यूनानी काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है, पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान न दिया । क्यों ? क्योंकि, उनमें माधुर्य न था;करुणा न थी, प्रेम न था, दया न थी । अपनी तितीक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद युधिष्ठिर भी वह मान न पा सके । भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला, अर्जुन को मिला, कृष्ण को मिला । अब आप कहेंगे भला इसका प्रकृति से क्या वास्ता ? जी हाँ, है । जरूर वास्ता है प्रकृति से । ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे । उन्हें मंगोलिया, अरब या जर्मनी मनुष्यों  की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था । उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थी, कोमल थी और इसलिए उनके मन में पलने वाले भाव भी कोमल थे । हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की उपेक्षा नहीं, बल्कि सम्मान है । लेकिन, उसमें करुणा और प्रेम का सन्निवेश अपरिहार्य है ।  मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिगामिता के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया है— “सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम ।” आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वानों ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़कर किया है, जिनकी प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही मौजूद है । 
                भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी मानव-प्रकृति-साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति। यह देवस्यकाव्यं है क्या ?प्रकृति— उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिए हैं । यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती है । चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट,तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास,सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल । सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं; आखिर इनके युग भी तो अलग हैं । और, हर युग की अलग संवेदना होती है । यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है । वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजनक नहीं लगती कि कविता आदिम मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है । आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं । उसमें जटिलता बढ़ी है और सहजता का धीरे-धीरे लोप होता चला गया है । इसी के साथ रागात्मकता, लयात्मकता और और अन्विति धीरे-धीरे दूर होती जा रही है ।
                हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है । यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से  में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं । आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है ।  उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा । आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए  शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात की है— संगीत और व्यायाम । व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो,लेकिन सार्थक होने के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादाश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता मनुष्य की सहजात वृत्ति है और यह प्रकृति के साहचर्य में उपजी है । मनुष्य प्रकृति से जितना दूर होगा, उसके जीवन से लयात्मकता का लोप हो जाएगा और वह कृत्रिम होता जाएगा।
                जब हम असभ्य थेवनचर थेखाद्यसंग्रही थेहमने आग की खोज नहीं की थीतब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने हुलस कर हमें दियाहमने अपना पेट भरने को फल माँगे इसने अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं,  हमने तन ढंकने को वस्त्र माँगाइसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दियाये स्वतः उसके पात्र बन गए— खुद अपना तन हमारे लिए समर्पित कर दिया । जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए लकड़ी दीपत्ते दिए । और-तो-औरमानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान है। जब पहले-पहल इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकते हैं । यहाँ तक कि विकास के सारे महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हुए । चेतनाकला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली पहचानहवा में लहराते पत्तों के संगीतहवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटट कर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात सत्त्ता में आस्था यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा ( यह अनायास नहीं की दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन के सिद्धांत दोनों की प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं) ।
                प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह एकात्म,ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान,दर्शन या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है,बल्कि यह लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही अधिक विकसित और पुष्ट हुआ है ।  दार्शनिकों,कवियों और चिंतकों ने तो वहीं से उसे ग्रहण किया । इसलिए वे उसके कर्जदार हैं । हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं । लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं।  वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और पीपल,बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं । ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले बच्चे के लिए वह बट दादा है,  सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़ पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रस्म है पित्तर नेवतल अर्थात पितर-गण को निमंत्रण।  तिलक के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य रस्में होती हैं, जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं । इन अनुष्ठानों में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है ।  यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है । हल्दी के साथ मटकोर (मिट्टी गोड़ना) भूमि (उर्वरता या उत्पत्ति की अधिष्ठात्री) की पूजा का विधान है । ये परम्पराएँ अब अवशेष मात्र बनकर नगरीय जीवन में महिला संगीत केशार्टकट फार्म और मेंहदी की नव-आयातितसेलिब्रेशन संस्कृति के हवाले हो चली है । 
                निश्चित रूप से आरंभ में जब मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता आज की तरह इतना सरलइतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था,मनुष्य लेता तब भी था और अब भी हैलेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य मिलते रहे हैंवे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं हैंबल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं। भारत को ही लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहींअपनी पोषक-वृत्ति के कारण उपास्य या श्रेष्ठ हैं । भारतीय परंपरा में जो भी सरस है, जीवनदायी है; वह माँ है । नदी, धरती या गो इन्हीं अर्थों में मातृ-स्वरूपा हैं । तीनों रसवंती हैं, तीनों जीवनी शक्ति का स्रोत हैं और तीनों में पोषण-वृत्ती है । प्रकृति में जो भी जीवन है उसको सरसता धरती की नसों से ही मिलती है । उसमें प्राणत्व का संचार उसी से होता है । धरती रसवंती है और आकाश उजस्विन् । आकाश प्रकाश का,चेतना का, ज्ञान का, ऊर्जा का स्रोत है । वह सूर्य-चंद्रमा को धारण करता है । सूर्य समूची सृष्टि को ऊर्जा प्रदान करता है । इसलिए आकाश पिता है । इसी तरह पीपल देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की रक्षा का हेतु बन जाता था ।  गाँव-घर में अनेक तीज-त्यौहार होते थे; उत्सव होते थे, जिनमें प्रकृति के उपादानों का प्रयोग होता था । मंगल घट के ऊपर विराजने वाला आम्रपल्लव, तोरणों में सजा अशोक और पुशपहरों में गूँथें हुए पुष्प हमारी प्रकृति की आदिम आसक्ति के अवशेष हैं । हुआ यह कि हम जैसे-जैसे प्रकृति से दूर होते गए, वैसे-वैसे अपने पुराने संस्कारों को धर्म और परंपरा की ताबीज में गूँथ कर अपने गले में धरण करते गए । पुराना राग छूटता गया, लेकिन ताबीज नहीं छूटी । नदी या सरोवर के भरे-पूरे जल को छोड़ हमने उसे मिट्टी के घड़े में समेट लिया और उस जल को पवित्रता-बोध से जोड़कर कलश के रूप में अपने पूजा-गृह, और विवाह-मंडप के मंगल घट से तर्पण के घट तक हर जगह शामिल कर लिया । नतीजा,प्रकृति छूटी नहीं वह साथ चलती रही, पर उस जीवंत रूप मैं नहीं रूढि-मात्र के रूप में, सकुची-सिमटी-सी हमारे पार्श्व में घिसटती हुई । न्याय का,विवेक का, ज्ञान का प्रतीक जल अविवेकपूर्ण कर्मकांड का अंग-भर बन गया और उसका देवता वरुण धीरे-धीरे नदियों, झरनों, सरोवरों और सागरों के गतिशील, प्रशांत या उमड़ते हुए आश्रयों को छोड़ कर स्वर्ग में जा विराजा ।  वह केवल जल का देवता नहीं, सत्य और न्याय का भी देवता है । कहाँ तो सरस जल और कहाँ सत्य और न्याय के शुष्क और कठोर विधान । अद्भुत मेल है यह । दर-असल यह मेल ही भारतीयता है । कठोर के साथ सरस,सत्य के साथ करुणा, त्याग के साथ भोग का यह अपूर्व साहयचर्य ही भारतीयता की पहचान है ।
                इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक रहा है । इसलिए  हमेशा हाथ फैलाए वह वृक्षों के सामने खड़ा ही रहा है । वृक्ष ही क्योंसमूची प्रकृति और उसके तृण-तृण के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है ।अपनी सारी उपलब्धियाँसारे सभ्यता-व्यापर और सारे ज्ञान-विज्ञान को सामने रखकर भीवह हमेशा अदना ही रहा । यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को विवश ही पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी बाँहों वाला बौना मैंबड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर बाँह करके हँसी का पात्र ही बनूँगा' (रघुवंशम्/कालिदास) । परइस आत्मदैन्य की स्वीकृति कालिदास जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव थीहम जैसे रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनईतो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे । पेड़ों को कौन कहेपूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम् (अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास हैमनुष्य । इसलिए वह शेष प्रकृति से श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता रखता है । ‘सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएँ प्रस्तुत करती है और मनुष्य इनका कुशल दोहन करता है’— ऐसा मनाने के क्रम मेंकुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई, यह हम नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँसारी चिंताएँ और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते रहेहम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखाकोई सहचर या कोई मित्र भी है; ‘मनुष्य धरती की संतान हैवह इसी की धूल-माटी में पल-सनकर बड़ा हुआ है’ —ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके थे । परिणामप्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी में सिमटता गया और हम अपने विजय का उत्सव मनाते रहे ।
                आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते में तेजी से गिरावट आई है । इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है । अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय हो गई है । ये दिल माँगे मोर के फलसफे वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या जरूरत ? हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं कि इन पर्वतीय अंचलों, समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं, हम अपनी ही आब-ओ-हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका  दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है कि पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है ।
( सोच विचार : वाराणसी) 

बुधवार, 15 अगस्त 2018

मैं तीसरे गांव का आदमी हूँ

जेठ-बैशाख की नीम दुपहरिया में मेरा गांव गपिया रहा है । खटिया पर उठंगकरसुर्ती मलते हुएखैनी से भरे हुए लार वाले मुंह को आगे कर पिच्च से थूकते हुए या फिर ताश के पत्ते फेंटते हुए मेरा गांव गपिया रहा है। गांव के पूरब पुरनका पोखरा के भीटे पर,लाला जी के बैठका मेंपंडी जी के दुआर परबाबा के बरगद के नीचे या दक्खिन टोला की नीम के तले जगह-जगहजहां भी ढरकने कीबिलमने कीघड़ी-आध घड़ी टेक लेने की जगह हैवहां टिककर मेरा गांव गपिया रहा है । कोई ताश फेंट रहा हैकोई ताश बाँट रहा हैकोई बाजी समेट कर उत्साह से सीना चौड़ा कर रहा है और कोई केवल और केवल गपिया रहा है। किसी के पास कहकहे हैं तो किसी के पास अपने रोजमर्रे की बातेंकिसी के पास बेटे बहू की कहानियाँ तो किसी के कूल्हे या घुटने के दर्द और किसी के पास डांड़-मेढ़गोतिया-दायाद और भाई-बंधु। सबके पास वक्ता हैंसबके पास श्रोता हैं और सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। सब उसे कहने और सुनने में मशगूल हैं।

        इस गपियाते हुए गांव के पीछे भी एक गांव है । वह दरवाजे के पल्ले भिड़ा कर घर में उठंघा हुआ है । वह दो पहरों की आपाधापी के बाद अब थोड़ा सुस्ता लेना चाहता है । घर-बासनचूल्हा-चौका और लड़के-बच्चे के बाद अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेना चाहता है । गप्प उसे भी पसंद है । वह भी गपियाना चाहता हैलेकिन इस चिपचिपाती हुई दोपहर में सोए हुए बच्चे को भला कैसे जागा सकता है उसके पंखा झलते हुए हाथों में दर्द होने लगा हैलेकिन बच्चा ! पंखे के रुकते ही कुनमुना उठता है । फुसफुसा कर बतियाते हुए भी उसके जगने का डर उसे बोलने नहीं देता । थकान से आँखें झपक रही हैं लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट उसे फिर सचेष्ट कर देती है और वह नींद की शिथिलता में हाथ से छूटे पंखे को फिर संभालकर और तेजी से झलने लगता है ।

        इन दोनों से अलग एक तीसरा गाँव भी है । उस गाँव के पांव दुपहरिया से बहुत पहले ही गाँव की चौहद्दी और सिवान को पार कर सड़क पर जा टिकते हैं । किसी चाय की दुकान के जलते टप्पर या छान के नीचे धूनी रमाए वह अनंत ज्ञान साधना में लीन है । वह दुनिया-जहां की हर बात जानता हैहर क्षेत्र में दखल रखता है । वह अपना दुक्खम-सुक्खम नहीं बतियाता । गांव-जवार की तो उसे फुरसत ही नहीं । वह राष्ट्रनीति का व्याख्याता हैविदेशनीति का परम आचार्य है और ज्ञान-विज्ञान की नाना शाखाओं का प्रकांड पंडित। जो उसकी जद में नहीं हैवह ज्ञान-विज्ञान की किसी दूसरी शाखा-प्रशाखा में भी नहीं है । वह महाअवधूत है । श्मशान-सी सुनसान सड़क के किनारे बैठ पूरी दुपहरिया ज्ञान-साधना करता है । दुपहरिया ही क्यों तिझरिया और शामबल्की देर रात;जब तक कि कालभैरव का महाप्रसाद पा स्वयं महाभैरव न हो जाय और उसके मुंह से मोहनउच्चाटन और मारण के मंत्रों का भैरव नाद न होने लगेतब तक निरंतर यह मसान उससे सेवित ही रहता है । 
        पहला गाँव मेरे बचपन के साथ विदा हो गया और दूसरा बंद किवाड़ों के भीतर बंद । कभी-कभी उससे उठती सिसकियाँगाली-गलौज के स्वर या कभी-कभार मंगलगान की मधुर आवाजों से अधिक उस गाँव की परिधि में प्रवेश की अनुमति घर के बाहरी आदमी को नहीं है । वह तो दरवाजे पर खड़ा होकर आवाज दे सकता है । उस आवाज का जवाब भी पहले या तीसरे गांव का आदमी ही देगादूसरे गाँव ने तो सनातन चुप्पी साध रखी हैऐसा लगता है गोया वह जबान हिलाना ही नहीं जानता । वह जन्मजात गूंगा और बहरा है । या फिरउसकी जबान पहले या तीसरे के पास गिरवी है और उसीके कर्ज की रोटी खा कर सूद में पहले या दूसरे गाँव की पौधें तैयार कर रही है । हाँकभी-कभी भूलवश किसी खेझरा’ धान का बीज इस्तेमाल कर लेने से नर्सरी में दूसरे गाँव की पौध भी तैयार हो जाती है । समझदार किसान उसे रोपाई से पहले ही छांट देता है । जब ऐसा नहीं होता तो समझदारी इसी में है कि उसे समय से पहले काट-पीट कर गोदाम में रख दोनहीं तो झरंगा की तरह वह जल्दी पककर झड़ जाएगी और किसान हाथ मलता रहा जाएगा खेत और किसान का हर्जा करेगा सो अलग ।

        बहरहालमैं तीसरे गांव का आदमी हूं । इसलिए उसी की बात करूंगा । मेरी ये बहकी-बहकी बातें सुनकर आप पूछ सकते हैं मेरे इस गांव का नाम क्या है गांव ! कोई भी हो सकता है । मेराआपकाइनकाउनका । किसी का भी । अजीछोड़िए भी क्या फर्क पड़ता है किसी का हो । कहीं का हो । पते की जरूरत डाक पहुँचने तक है । जब यह डाक आप तक पहुंच ही जाएगी तो पते की भला क्या जरूरत । लिफाफे और मजमून तो खिलंदड़ों के भाँपने के लिए होते हैं । अपन को न खिलंदड़ी आती है और न खिलंदड़ों से वास्ता ठहरा । अपन तो ठहरे ठेठ गंवई आदमी । जैसा मेरा गाँव वैसा आपका । वैसा ही इनका और उनका भी । सुबह उठाकर दिशा-फरागतखैनी-गुटखा और सांझा को ठर्रा । बीच का दौर झक्क उज्जर नील-टिनोपाल पड़े कुर्तेचाय की चुस्कियों और आग के गोलों की तरह उछलती बहसों का । भला जेठ की दुपहरिया की धूप में वह ताप कहाँ जो इन आग के गोलों में है । अमेरिका की बड़ी-बड़ी मिसाइलें हों या चीन और रूस के आणविक हथियार सब उसके ताप में गलकर तरल और कभी-कभी हवा भी हो जा रहे हैं । बीच-बीच में पान की पिच्च और ताम्बूल रंजीत ठहाकों के कहने ही क्या वे तो संक्रामक रोग की तरह गांव के एक ताश अड्डे से दूसरे ताश अड्डे और एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ तक हवा में तैर रहे हैं । यह बात अलग है कि इस घोर दुपहरिया में हवा भी पेड़ों की छाँव में दुबक जाती हैअन्यथा यह बीमारी डेंगू चिकनगुनिया आदि-आदि से अधिक तेजी से पूरी दुनिया में फैल गई होती ।

        यह तीसरा गांव पहले और दूसरे से अधिक पढ़ा लिखा और हुशियर है । अखबार बांच सकता है देश जहान की बातें कर सकता हैबात-बात में देश की राजनीतिविदेशनीति और युद्ध-नीति पर बहसें कर सकता हैचौराहे पर बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेते हुए सीरिया-लेबनान तक टहल कर आ सकता है, (कभी-कभार मंगल और चंद्रमा तक भी उड़ाने भर सकता हैलेकिन उसके लिए एनर्जी ज्यादा लगती है)गाँव-घर की मरनी-जियानी से लेकर दुनिया जहां की बातें कर सकता है । और तो औरसामने वाले से कमतर महसूस होते ही दूसरी सूचनाओं की जगह अपनी डिगरियाँ गिनाकर सामने वाले पर धौंस दिखा सकता है । लब्बोलुआब यहवह दुनिया में कोई भी करणीय और अकरणीय काम कर सकता हैसिवाय एक कामघर में दो जून की रोटी के इंतज़ाम के । सानी-पानी,फावड़ा-कुदाल चलाना कौन कहे खेत की डाँड-मेढ़ तक उसके लिए अछूत हैं । देश-दुनिया में अस्पृश्यता भले कम हुई होउसे क्या उसके लिए तो ये सब सनातन अस्पृश्य चीजें हैं । भलासारी पढ़ाई-लिखाई या कलम घिसाई इसी की खातिर की थी ! नहीं न ! फिर ! खेती रही होगी बाप दादों के लिए उत्तम चीजपर उसके लिए वह अपमानजनक है । खेतिहर भी क्या कोई मनुष्य होता हैदिनभर खेत में घिसाई और रात को मौसम की चिंता में उनींदी आँखें । सो खेती से उसका भावह-भसुर का रिश्ता है । कभी गाहे-बगाहे कुछ कर-करा भी दिया तो पूरा गाँव-गिरांव जान जाएगा कि आज फलाने बाबू रोपनी के खेत की मेंड़ पर खड़े बनिहारिन ताड़ रहे थे या अलाने बाबू खलिहान में ओसावन करने वाले बनिहार के आगे बोरे का मुंह खोल कर खड़े थे और चार बोरे के बाद पांचवें में ऑस्ट्रेलिया-भारत का मैच देखने चले गए थे । पर, गाँव की खबरनवीसों को इस तरह की सुर्खियां बनाने का मौका कम ही मिलता था, अक्सर सुर्खियों में हमारे दूसरे कारनामे ही होते, जिनके नाम तो बदल जाते पर प्रकृति वही रहती। इन सुर्खियों को बनाने वाले, बाँचने वाले और फिर इसपर गलचौर करने वाले भी हमारे ही गाँव के वासी थे । हमारे यानी तीसरे गाँव के । पहले गाँव ने हमें पहले ही बहिस्कृत कर रखा था । सच तो यह है कि हमीं उन्हें अपने स्तर का नहीं मानते । इसलिए सबेरे-सबेरे ही सविनय अवज्ञा के साथ चौराहे पर निकाल आते । उनसे तो अपना साबका तभी पड़ता जब कोई किसान-क्रेडिट कार्ड या सरकारी लोन की वसूली-तसूली के लिए दरवाजे पर बैन का आदमी आ पहुंचता और पहले गाँव का आदमी लाठी टेकते-टेकते हमारे तीसरे गाँव में अधमकता । वह आदमी भी हममें से किसी एक का रिश्तेदार होता । उसे दूर से देखते है उसका संबंधी दिशा मैदान या बहस मुसाहिबा के लिए कहीं निकाल लेता और तक दुबारा दर्शन नहीं देता जब तक वे लोग राह ताकते-ताकते निकाल न जाते ।
        रही बात दूससरे गाँव की तो वह दिन भर हमारे भूगोल से ही बाहर होता है । हाँ कभी-कभी इतिहास या साहित्य का हिस्सा जरूर बनजाता, वह भी रीमा भारती और वेद प्रकाश के उपन्यासों का लिबास पहने क्योंकि दिन के उजाले और लिबास में उसे देखने की हमें आदत ही नहीं रह गई है । हाँ कभी-कभी कुछ नावाछिटिया मेम्बर चाइना मोबाइल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपा से रात्रिकालीन सेवा का दिवस-संस्करण स्क्रीन पर जरूर उतार लाते, लेकिन उसके बाद ही वे पांत बहिष्कृत हो कोई और बाट पकड़ लेते । इसलिए दूसरे गाँव के समाचार माध्यमों तक तक हमारी खबरें या तो पहुँचती नहीं या पहुंचती भी तो पहले गाँव के आदमी के पुराने लाज-लिहाज से फिल्टर होकर । सो अपनी यह धूनी पूरी तरह सेफ थी । और उस दूसरे गाँव की जगह इस तीसरे गाँव की चौहद्दी में बहुत थी भी नहीं । सो दोनों ने एक अघोषित समझौता सा कर लिया था ।
         “पिच्च ! ई ससुरी सरकार महिलन के आरक्षण देके हमहन के सड़क पर घुमावत ह ।” टम्मन काका बड़ा ज़ोर देके बोलते हैं । हैं तो पुरान संघतिया बाकी गाँव के रिश्ता-नाता की बात ठहरी, सो वे एक पुश्त आगे निकाल गए। वही क्यों सब अपने मान-मर्यादा और रिश्ते नाते के साथ सीधे चले आए हैं पहिले गाँव से । पहिला गाँव से अलग एक नया टापू होने के बावजूद मान-मरजाद से कोई समझौता नहीं है यहाँ । पाड़ें जी, उपाधिया जी, तिवारी जी, राय साहब, बाबू साहब, जाधव जी, सींघ साहब, गुप्ता जी, वर्मा जी से लगायात चाचा, काका, दादा सब अपने पूरे मान मरजाद में बरकरार हैं । हाँ खान-पान में सब गोसाईं जी के चेले हैं, माने मुखिया मुख सों चाहिए खान-पान को एक । मुर्गा, मुर्गी, कालिया, कबाब से लेकर तमाम खाद्य अखाद्य पेय-अपेय सब एक ही मुख और एक ही भाव से खाते हैं। इस गाँव के बासिन्दे मान-मरजाद और उपाधि-सुपाधि तक भले सामंती हों, अपने व्यवहार में पूरी तरह लोकतान्त्रिक और मानवीय हैं । एक ही बोतल और एक ही पत्तल में शराब और चखने में सब बाँट लेते हैं। उसमें पप्पू पंडित और समशद धोबी या विजय बाबू और झिंदूरी दुसाध में कोई फरक नहीं । पढे लिखे जो ठहरे । ऊँह, निठल्ला पहला गाँव ! झूठी शानो-शौकत, झूठा छूआ छूत । अरे,  एक बूद एकै मल मूतरएक चाम एक गूदा। एक जोति थे सब उतपनाकौन बाहन कौन सूदा ।” भारत काका पुराने कबीर पंथी ठहरे । पुराने माने इतने कि इस तीसरे गाँव के सबसे उम्रदराज सदस्य हैं, लेकिन मेंबरी अभी नई है । दरअसल गांजे से जल्दी ही ठर्रा पर शिफ्ट हुए हैं सो पहिला गाँव के परभन्स बाबा वाले पुराने अखाड़े से बेदखल हो इस तीसरे गाँव में हेल आए हैं । सो बात-बात में कबीर बाबा की याद उन्हें सताने लगती है ।
        इधर डाक्टर विद्या विशारद भी इस गाँव के नए सदस्य बने हैं। हिन्दी साहित्य में पी-एच. डी. हैं और 15-20 साल कई विश्वविद्यालयों और शहर-शहरात की खाक छान चिर बेरोजगार का तगमा लेकर लौटे हैं, सो जब-तब उनका ज्ञान का दौरा पड़ जाता और इसी तरह वे भी बलबला पड़ते । शुरू-शुरू में बलबलाने के बाद मंडली की ओर सिर उठाकर देखते भी पर कोई दाद तो छोड़िए ध्यान भी तैयार न होता । पढे-लिखे शहराती पागल से अधिक की गिनती न थी उनकी । कुछ दिन विचारधारा वगैरह का भी चक्कर काटा था उन्होंने । इसलिए शुरू-शुरू में डी-क्लास-वी-क्लास की भी सोचते थे । पर जल्द ही पता लग गया कि यहाँ कोई क्लास-व्लास से वास्ता नहीं । यह गाँव इन सबसे ऊपर उठे मुमुक्क्षुओं का गाँव है । दिन भर की बड़बड़ साधना और शाम ढले ठेके पर पहुँच मोक्ष की प्राप्ति ही इनके जीवन का परम लक्ष्य है । उसके बाद तो पान की एक गिलोरी के बाद सारा ज्ञान-विज्ञान, क्लास-व्लास, विचारधारा-सिचारधारा तलवे के नीचे, बचा तो सिर्फ बम भोला । इस ज्ञान के बाद ही विशारद जी ने अपने सब डिगरहिया ज्ञान को एक दिन बस पर लाद कर सर्वविद्या की राजधानी भेज दिया, जहाँ से उन्होंने ये विद्याएँ ग्रहण की थीं । अब वे भी निधड़क निरंजन हैं, जो मन आए बोलो-कहो । पर, परम ज्ञान की साधना से अभी वंचित हैं जो शाम ढलने के बाद उनके तमाम सांघतियों को प्रज्ञापेय के पान के बाद प्राप्त होता है।
        इधर इस गाँव के दो टोले हो गए हैं। एक उत्तर और दूसरा दक्खिन। जाहिर है, दक्खिन पर अछूतों का पुराना हक है। सो यह दक्खिन टोला यहाँ भी अछूत है। बात-बात में उसे दक्खिन लगा दिया जाता है कभी जबान से और कभी आँखों ही आँखों में। यह नया टोला अब पहिले और दूसरे गाँव के भूगोल के थोड़ा करीब आ गया है। सड़क से हट कर बारी में। बराइठा के भीटे पर रोहनियावा आम के नीचे सरस साधना में लीन है । इसके पास न छीलम-गाँजा है और न खैनी, न ठर्रा। हो भी कैसे ? कहाँ तो रोहिनियावा आम की चटक पीत बैकुंठी आभा और कहाँ नशों का तामसी संसार ?
        यह नए किस्म के अवधूतों का टोला है। इन की धुनी हर दुपहरिया किसी बगीचे, किसी पोखरे के भीटे या किसी छान-छप्पर या किसी आम या महुए की गांछ तले जगती है और तिझरिया बिना किसी ताम-झाम के आगली दुपहरिया के लिए बिलम जाती है। इसके लिए न पहला गाँव अनपढ़, गंवार जाहिल है और न दूसरा गाँव ठेठ उपेक्षणीय। इसकी रस-साधना में इन दोनों की चर्चा आनिवार्य मंत्र हैं। वह इनका जाप कर रहा है, उनपर बहस कर रहा है, उनकी बातें कर रहा है, उनकी चिंताओं-दुश्चिंताओं से सरोकार रख रहा है और हर तिझरिया यह लड़खड़ाते कदमों से नहीं अधिक मजबूत कदमों से गाँव की ओर लौट रहा है। यह न देश की राजनीति से नावाकिफ है और न उसके चरित्र के प्रति आश्वस्त, फिर भी उसकी चिंता का पहला विषय पहला और दूसरा गाँव है; दूसरे गाँव की कोख में पलती और गोद में खेलती तीसरे गाँव की औलादें हैं। यह नया टोला इस गाँव का इतिहास पढ़ रहा है। ताल-पोखर, डाँड-मेंढ से संवाद कर रहा है, पेड़ों के पत्तों-पत्तों से उनका हाल-चाल पूछ रहा है। यह सीख रहा है कि इन सबने कैसे अपनी हवा से, अपने पानी से और अपनी मिट्टी से अपने हरे-भरे आँचल की छाँव में इस गाँव को पाला, पोसा, संभाला सहेजा? किस तरह इन्होंने हमें जीवन के पहले पाठ सिखाए? हमें यानी हमारे दादों-परदादों से लेकर हमारी पीढ़ी तक। जी हाँ, हमारी पीढ़ी। हाँ-हाँ खैनी खा कर पिच्च से थूकने वाली हमारी पीढ़ी, लड़खड़ाते कदमों चौराहे से घर लौटने वाली हमारी पीढ़ी, अपने ही बाप दादों के मूर्ख और जाहिल समझने वाली हमारी पीढ़ी।
        दोष इस पीढ़ी का नहीं उन पाठशालाओं का था जहां हमने सत्यंवद धर्मं चर की सहज शिक्षा की पोथीबद्ध व्याख्याएँ रट लीं और अपनी सुविधा के अनुसार उनके नए भाष्य भी कर डाले। हमारा यह नया टोला इन पोथियों के बाहर की जीवन की सहज पाठशालाओं की ओर लौट रहा है। यह वह पाठशाला है जहाँ पेड़ है, नदी है, खेत है और उनमें रमता हुआ सहज निरुज मन है। सहजता की यह पाठशाला ही जीवन की वास्तविक पाठशाला है । मानवता का हर रास्ता इस पाठशाला से हो कर ही गुजरता है । यही वह आखिरी रास्ता है जिससे हमारा तीसरा गाँव चौराहे की मसान-साधना छोड़ पहले गाँव में फिर से दाखिल हो सकता है, रात के बसेरे की तरह नहीं; अपनी पूरी आत्मीयता के साथ। तब किसी विद्या विशारद को अपने ज्ञान की गठरी बस पर लाद किसी सर्वविद्या की राजधानी नहीं भेजनी होगी, किसी टम्मन काका को स्त्रियॉं के आरक्षण के लिए सरकार को नहीं गरियाना होगा और न एक पत्तल मुर्गा और बोतल सदाबरत चलाकर अपने व्यक्तित्व की लोकतांत्रिकता सिद्ध करनी होगी। तब इस रोहनियावा आम की वैष्णव आभा की तरह हमारे गाँव की वैष्णवाता पूरे शबाब पर होगी और उसकी रस-साधना का-सा आनंद पूरे जहान में कहीं न होगा। न कोई दैन्य होगा न पलायन, न बँटवारा और न टोला। पूरा गाँव, पूरी सरेहि और उसमें बिखरा हुआ सारा कुमकुम-चन्दन ही हमारा अंगराग होगा और उसकी शस्यश्यामल धरती ही हमारा आराध्य। हमारे कर्म की स्वर्णाभ आभा ही उसका पीताम्बर होगा और तब हम भी चैतन्य महाप्रभु की तरह इस विराट श्यामलता लीन हो जाएंगे। यह तल्लीनता ही हमारे जीवन का लक्ष्य होगा और तब हम भी अपने गाँव के उस बूढ़े साधू की तरह पूरी तरंग में गा सकेंगे
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
यह तोष ही जीवन की चरम साधना और उसकी चरम उपलब्धि है। पुरानी आत्मवादी दार्शनिक शब्दावली इसे ही मोक्ष कहती है और अनात्मवादी शब्दावली निर्वाण। यह मोक्ष या निर्वाण जीवन से परे किसी अज्ञात लोक में लब्ध होने वाला आनंद या सुख नहीं, इसी जीवन में इसी लोक में मिलने वाला सुख है। बहुत पहले हमारे गाँव की इन्हीं अमराइयों में रमने वाले एक मनस्वी कवि के मुँह से किसी निसर्ग सुंदर रूपसी को देखकर अनायास ही फूट पड़े ये शब्द इसके प्रमाण हैं— “अहो लब्ध नेत्र निर्वाणम्।” नेत्रों को निर्वाण सुख देनेवाला यह रूप किसी नागर कन्या में संभव भी कैसे हो सकता है, अवश्य ही किसी जानपद क्षेत्र की अमराइयों में ही कहीं कवि को उसका साक्षात्कार हुआ होगा और उसकी अभ्यर्थना में उसने पूरा का पूरा नाटक (अभिज्ञान शकुंतलम्) ही रच डाला और वह भी उस कन्या की तरह ही अपूर्व। यही नहीं उसके सौंदर्य की अभिव्यक्ति भी ऐसी की जो समूचे भारतीय साहित्य में विलक्षण है और उसी के दम पर उपमा के क्षेत्र में सदियों से समूचे भारतीय साहित्य को अकेले ताल ठोंके खड़े हैं।
निसर्ग का साहचर्य ही विलक्षण है। सर्जनात्मक है। जीवन में रस और तरंग का संचार करने वाला है। विश्व में जो भी सर्जनात्मक है, मंगलमय है और सुंदर है; वह निसर्ग के ही सानिध्य का दाय है। निसर्ग की छाया से दूर जीवन की सहजता ही लुप्त नहीं होती, उसमें अमंगल का बीज भी अपने आप अंकुरित होने लगता है। कृत्रिमता, कुटिलता, व्यभिचार, घृणा, वैमनस्य, रोग, दुःख, सब-के-सब निसर्ग से दूर होते मानस की कलाएं हैं। जैसे-जैसे हम इससे दूर होते जाएंगे, हमारे भीतर ये कलाएं वैसे-वैसे अधिक विकसित होती जाएंगी। धीरे-धीरे हम यंत्रीभूत और क्षयग्रस्त हो जाएंगे। आज हमारी संस्कृति और सभ्यता के जो भी उपादान हैं वे हमें विकास के शीर्ष की ओर तो ले जाते हैं, पर इस शीर्ष के आगे भी कुछ है। भले ही वह आज अज्ञात है, अदृष्ट है और मोहक या आकर्षक है, लेकिन कल ? यह प्रश्न अनुत्तरित है। हाँ, इस कल की संकेत भी हमें प्रकृति के माध्यम से ही हमें मिल रहे हैं। पिघलते ग्लेशियर, टूटते हिंशृंग, तप्त होती धरती, बदलता मौसम चक्र यह सब हमारे विकासलब्ध भावी जीवन के ही पूर्व संदेश हैं।
(अक्षरा : भोपाल)

शुक्रवार, 1 जून 2018

बावड़ी की आत्मकथा





बहुत पुरानी दोस्ती थी। सदियों की। पीढ़ियों से। पीढ़ियाँ! मेरी नहीं उनकी। न जात न पाँत । न छूआ-छूत। न मान –अपमान। सब अपने थे। भैया-चाचा, बहन, बुआ, बेटी। कोई पराया नहीं न कोई अनचीन्हा। आदमी तो आदमी पशु-पारानी, चिरई-चुरुंग सबके लिए खुले थे अपने दरवाजे। घना बगीचा । महुआ और आम की घनी डालियाँ और उनकी छाया में बसा अपना बसेरा। कब से था? किसी को याद नहीं। मुझे भी नहीं । कहाँ तक याद करूँ— इतिहास अपना या गाँव का?


हाँ, याद है कुछ तो यह मकान जो तब कच्चा था, मिट्टी और खपरइलों से बना। मिट्टी की भीत, लकड़ी का ठाट और फिर मिट्टी छोप कर ऊपर से खपराइलों की पाँत बिछ गई थी। कोई सौ साल पहले की बात है। कुछ लोग आए थे तब। कुर्ते-धोती और झोले में एक अधेड़ मास्टर, गाँव के मुखिया और कोई साहब; शायद डिप्टी साहब। मौका मुआइना और फिर बच्चों की चहल-पहल। बच्चों की स्कूल खुला था तब, दक्खिन की दांती (किनारे) पर। सरकारी स्कूल था। ठीक वहीं, जहां आम और महुए के कुछ पुराने पेड़ उकठकर गिर गए थे और जगह खाली हो गई थी। रौनक भर गई थी मेरे जेहन में। हाँ, पेड़ों के पत्तों की खुसुरफुसुर, तालियों की मद्धम आवाज और नए-नए किल्लों की मीठी खिलखिलाहट की जगह ले ली थी बच्चों की धमा-चौकड़ी, उछल-कूद और खिलखिलाहट की मीठी आवाजों ने। कभी पहाड़ों की सामूहिक आवाज, कभी गिनतियों का समवेत स्वर तो कभी अंत्याक्षरी, खोखो कबड्डी और गिल्ली डंडा। एक अपूर्व लय थी जिसेमे खोकर दशकों का फासला भी कम लगता है अभी। बच्चे झुक कर कभी मुझसे दवात में पानी भरते तो कभी अनजाने खड़िया या स्याही घोल देते। मेरे इतने बड़े पाट में भला दो बूंद का क्या असर? मैंने बदरंग होने को बुरा नहीं माना कभी। सच कहूँ ? बच्चों ने भी बुरा नहीं माना कभी, जब बरसात में हुलस कर मेरा पानी उनके रास्ते पर आ जाता । वे बिना गीले-शिकवे के अपने कपड़े ऊपर की ओर खिसकाकर पार कर जाते और मैंने भी इसका हमेशा खयाल रखा कि कोई बच्चा मेरे पानी में डूबे नहीं। अच्छा यारना था अपना। पानी में कंकड़ी फेंक मेरे भीतर लहरें उठाना और कागज की नाव बहाना उनका प्रिय शगल था । अपना भी तो अच्छा मनोरंजन था । हम दोनों खेलते रहे। पीढ़ियाँ गुजरती रहीं। पेड़ तो कुछ उकठे और कुछ काटकर खेत बना दिए गए, पर मैं ज्यों की त्यों। बरसात में हुलासकर स्कूल के आँगन में और गर्मी में सिमटकर अपनी ताली में। अपने नए दोस्तों की किलकारियों में पत्तों के खिलखिलाहट और तालियाँ बजाकर नाचना कब का बिसर गया । हाँ, वह ठंडी छाँह कभी-कभी जरूर याद आती जब सूरज की तपन से मेरे कंठ सूखने लगते और लगता हलक से प्राण ही निकाल जाएंगे। लगता काश कि वे पुराने दोस्त होते, सारी तपन झेलकर वे मुझे अपनी ठंडी छाँव दे देते । 


यूं ही क्रम चलता रहा। अपनापा बढ़ता रहा। बगल में एक और स्कूल खुला— प्राइवेट। थोड़ी दूर था, लेकिन उसकी नियत में शुरू से मैं उसके करीब नहीं, बल्कि उसके जड़ में थी। गाँव का हर ताल, पोखर, बंजर जमीन उसकी नीयत की जड़ में ही थे मेरे तरह। सरकार भी बादल चुकी थी और व्यवस्था भी। न मुखिया थे और न गाँव में लाज-लिहाज की पुरानी रवायतें। गाँव बादल रहा था। प्रधान बादल रहे थे, हर साल। किनारे के स्कूल में चुनाव होते। हो-हल्ला, मार-पीट, तू-तू मैं-मैं। बिलकुल पसंद नहीं था मुझे। कहाँ तो बच्चों की किलकारियाँ और कहाँ यह षडमंडल ? हाँ, यह भी पता था कि उन्हें भी नहीं पसंद थी मैं। बस वक्त की घात में बैठे थे। मुखियाई की तरह परधानी परंपरागत नहीं थी। एक अनुकूल प्रधान और फिर मेरा वजूद.. 


मेरे तमाम गोतिया बिला चुकीं थे वर्तमान की खपराइलों में। जिनके खेत और दुआर उनके पास थे उन्होने उढ़ा दी थी चादर और ब्याह ले गए थे अपने खेतों और द्वारों के साथ; वैसे ही जैसे बड़ें भाइयों की बेवाओं को उढ़ा देते थे चादर अंधेरे कमरे में सिंदूर डाल, बिना उनकी मर्जी पूछे। नेउरी गडही, पउदर, पोतनहर, पुरनकी बौली सब। धीरे-धीरे खसरा खतौनी से भी हटा दिये गए उनके नाम और उनकी जगह दर्ज हो गए किसी अ राय, ब पांडे, स श्रीवास्तव, द कुर्मी और य पासवान के नाम। गाँव भला करता भी क्या ? भाई या पड़ोसन की बेवा जो ठहरी किसी इस-उस के घर बैठ जाए उससे तो अच्छा है कि नाक बच गई। भाई ने ही रख ली। लाठी-डंडा, मान-मानव्वल, सुलह-सपाटा और भोज-भात। बस बात खतम। सब भूल गए उनके नाम, उनके परे रूप-रंग और यादों की कौन कहे। मैं अकेले देखती रही गाँव के इस छोर पर क्योंकि गाँव से थोड़ी दूर थी और बाबू-बाबुयान के खेतों से भी। उसमें भी तुर्रा यह कि गाँव के रामलीला मैदान से सटी; कभी रामलीला में गंगा का रोल कर लेती तो कभी समुद्र का। यही था रक्षा कवच मेरा, वरना पूरनका पोखरा की बावन बिधे जमीन को लील गए लोग तो भला मुझ बावड़ी की बिसात ही क्या?


प्राइवेट स्कूल वालों की नज़र पारखी थी। कागज-पत्तर पर तो पहले ही सारा बचा खुचा बंजर, ग्रामसमाज और तालाब-बावड़ी स्कूल की जद में ले चुके थे, बारी थी वास्तविक कब्जे की। पहले मेरे बरसाती पानी के विस्तार को रोका गया स्कूल की सड़क बनी। कोफ्त तो खूब हुई मुझे रोई भी। जिन बच्चों को दसकों से कोई परेशानी नहीं हुई मुझसे। मुझे भी बरसात के दिनों में उनके छोटे-छोटे कोमल पाँवों को धोकर उससे कहीं ज्यादा सुख मिलता, जितना रामलीला में गंगा बनकर राम के खुरदुरे पैरों को धोने में मिल सकता था। उन्हीं के नाम पर मुझे घेर दिया गया। मेरा आँचल मुझसे छीन लिया गया । यह बात भी लगभग दो दशक पुरानी हुई, सो घाव धीरे-धीरे सूख चला था। पर, अब नजर मेरी पूरी देह पर थी। 




मिट्टी खोदने, डालने और बराबर करने वाली मशीनों की भीड़, लोगों का हल्ला। कुछ उत्सुक आँखें, कुछ विरोध भरी और डराती-धमकाती तथा कुछ डर-सहमकर पीछे हटतीं। शायद यह पहला अवसर था कि चादर गुपचुप नहीं ओढ़ाई गई। पूरे साजोसामान से लैस अमले आमने सामने। एक ओर स्कूल की बढ़ते हुए पंजे थे, तो दूसरी ओर मेरी गर्दन को मुट्ठियों में जकड़कर मेरा दम घोंट देने की रामलीला समिति चाहत। इन दोनों के बीच निस्सहाय मैं। बहुत देर तक एक छोर पर स्कूल के बोर्ड और दूसरे छोर पर समिति के बोर्ड का गाड़ना देखती रही और खंती हर बार हल्की आवाज के साथ मेरे कलेजे को गहरे तक कुरेदती रही और अंत में ठीक वहीं, जहां स्कूल के बच्चे कभी अपनी दावतों को पानी में डुबोकर स्याही और खड़िया का रंग घोल जाते तो कभी अपनी छोटी कागज की नाव पानी में डालकर उसे दूर तक जाता हुआ देखकर किलकारी भरते और कभी मिट्टी में सने अपने नन्हें पाँव पानी में दाल हिला-हिलाकर अपने पैर साफ करते, आज मिट्टी का पहला रोड़ा गिरा जो मेरी सांस की नली में अटक गया। मै छटपटाती रही और मेरे ऊपर उनके अधिकार की चादर फैलती रही, धीरे-धीरे सब मिटता रहा। अपनत्व, याराना, पीढ़ियों और सदियों के संबंध, उन नन्हें पावों के निशान, आँचल में सिमटी कागज की कश्तियाँ सब दफन होते रहे। एक किनारे खड़ा पुराना स्कूल और दूसरे किनारे खड़ा अकेला महुए का पेड़ मूक साखी बन देखते रहे । मिट्टी के ढेले गिरते रहे मशीने चलतीं रहीं। लोग फावड़े से जमीन बराबर करते रहे और ठाकुर द्वारे के लाउडीस्पीकर से उद्घोषणा होती रही, “ग्रामवासी कृपया ध्यान दें उत्तर के पोखरे में खुदाई कर उसे और गहरा करने के लिए काम चालू है, कृपया अधिक से अधिक संख्या में पहुँचकर श्रमदान करने का कष्ट करें। पोखरे की खुदाई पुण्य का काम है आप अपना अमूल्य श्रमदान करके पुण्य का लाभ लें। पोखरे के भीटे पर बैठा ग्रामप्रधान ग्राम विकास अधिकारी के साथ हर गाँव में पोखरे खुदवाने के सरकारी आदेश और हाजिरी रजिस्टर लेकर पोखरे खुदवाने में लगाने वाली लागत का हिसाब-किताब करता रहा और गाँव के दक्खिन मेरी सांस घुटती रही।




अब मेरे ऊपर भी एक चादर ओढा दी गई है, जिसपर साप्ताहिक हाट लगती है, दशहरे का मेला लगता है और दिन-ब-दिन समिति की आय बढ़ रही है और पुण्य भी। गाँव के लोग खुश हैं जमीन स्कूल मैनेजर के हाथ जाने से बच गई और गाँव की जमीन है गाँव के काम आएगी। धरम-करम भी कोई चीज होती है आखिर ! मैं भी बेवा नहीं, सधवा हूँ । अपने पति के नाम से जानी जाती हूँ । मेरी नई पहचान है—‘रामलीला मैदान’ रामलीला समिति, ग्रामसभा, क। अपने इस नए पते के साथ मैं अब भी जिंदा हूँ । मैं अब भी साँस ले रही हूँ और अब भी जी खोल कर बोलना-बतियाना चाहती हूँ । हिलना-मिलना और दुःख-सुख का हिसा बांटना चाहती हूँ । पर, अफसोस अभी मैं इतिहास नहीं हूँ, न पुरातत्वविदों की रुचि का विषय । कल जब तुम भी नहीं होगे, शायद यह गाँव यह पाठशाला भी नहीं होगी, तब शायद कोई खंती, कोई फावड़ा या कोई मशीन मेरे भीतर छिपे इतिहास और स्मृतियों को खोद रही होगी । दुर्भाग्य, तब मेरी स्मृतियों की भाषा समझने वाला कोई न होगा, मेरे आँचल में छुपी कागज की नावों का अर्थ और मिट्टी और शीशे की उन दवातों का इतिहास कार्बन डेटिंग से निकाला जाएगा, उन बच्चों के पाँवों के निशान तो तभी खो चुके जब मेरे वक्ष पर लहराते जल को तुम्हारी मिट्टी ने सोख लिया । लेकिन, तब भी तुम्हारा इतिहास मुझसे ही लिखा जाएगा, जब तुम खुद नहीं होगे । इसलिए मैं अब भी जीना चाहती हूँ ताकि भविष्य को तुम्हारे वजूद की गवाही दे सकूँ ।

रविवार, 13 मई 2018

'माँ' दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है



'मातृ दिवसइस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस के दिन फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं हैजिससे जाहिर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ, जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा कर अल्पवयस में ही घर से सैकड़ों मील दूर जाने दिया दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा हैपहले भी और अब भी । 
अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
 हमारी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन ! इतना अहंकार अपने उसी वजूद पर, जिसे स्वयं उसी ने सिरजा, रचा और आकार दिया— ‘माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं ।’ अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप’ कविता के ये शब्द मुझे माँ से अपने रिश्ते को व्यक्त करने के लिए सबसे सटीक शब्द लगते हैं । पर यह हमारी अहमन्यता ही है कि हम अपने जीवन के व्यस्ततम वर्षों में उसके लिए एक दिन नियत कर उसके प्रति अपने दायित्व की इतिश्री समझ लें । वस्तुतः वह ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ है भी नहीं । जीवन के अंतिम पड़ाव तक, जब घर के सारे पुरुष सारे संबंध अपने वय की विवशता में पारिवारिक दायित्वों से विरत हो अगली पीढ़ी की तरफ उम्मीद के साथ आँख उठा कर देखने लगते हैं, तब भी वह मान ही है जो अपनी संतान के लिए कभी नहीं थकती । हारी-बीमारी ही नहीं नाउम्मीदी की तमाम रातों में जब आप अकेले कमरे की चक्कर लगा रहे होते हैं तो वह माँ ही है जो रात भर जाग कर हमारेके सोने की प्रतीक्षा करती है और जब आप बिस्तर पर धारक जाते हैं तो वह अपनी बूढ़ी निःशक्त अंगुलिया आपके बालों में डालकर आपके भीतर की उम्मीद को जगाती है जिलाती है । वह मृत्यु की चौखट पर पहुँचने-पहुँचने तक अपनी संतान के हित और शुभ के लिए घिसटती रहती है । निश्चित तौर पर सुविधा सम्पन्न परिवारों की बात थोड़ी अलग हो सकती है, पर भारत की बहुलांश जनसंख्या सुविधा हीं, वंचित या अल्पवञ्चित है । इसलिए खा-अधाकर मचिया पर बैठ पंखा झलती हुई बूढ़ी माएँ हमारी पिछली पीढ़ियों का स्वप्न जरूर रही हैं, यथार्थ नहीं । अधिकांश माएँ मृत्यु की चौखट तक अपनी संतानों के लिए खटते और घिसटते हुए ही इस दुनिया विदा होती हैं और हम संताने हमेशा उनसे इसी उम्मीद में बंधे रहते हैं—

फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

संतान की यह उम्मीद और उसके अक्षुण्ण और अनाहत व्यक्तित्व का संस्कार ही हर माँ की नियति है । चाहे वह घूरहू-कतवारू की माँ हो या सर्वसुविधासम्पन्न किसी अभिजात कुल की माँ । वह आजीवन सजग और सचेष्ट रूप से अपनी इसी ज़िम्मेदारी के निर्वहन में रत रहती है । तब भला वह हमारी ज़िम्मेदारी या दायित्व कैसे हो सकती है, जिसके लिए हम जीवन भर जिमीदारी या दायित्व रहे । यह बात अलग है कि उसने कभी इस बोध के साथ इस रिश्ते को जिया ही नहीं । उसके जीवन में इन शब्दों को गढ़ने या रचने की फुर्सत ही कब रही ? वह तो हम हैं जो उसी की रची हुई बुद्धि के बल पर इन शब्दों से खेलना सीख गए हैं, अन्यथा वह हमेशा खुद के लिए जीती रही और उस खुद का अविभाज्य हिस्सा, बल्कि सर्वांश हम सन्तानें थीं। उसकी हँसी-खुशी, सुख-दुख हमसे अलग हुआ ही नहीं, फिर भी उसे हमेशा यह सालता रहा, हमने अपने बच्चों के लिए किया ही क्या, जबकि दूसरी माएँ बहुत कुछ करती रहीं हैं। हम समर्थ ही नहीं थे । उसकी यह समर्थता और सबकरके भी अपने को न करने वाला समझना काश हम संतानों ने भी उससे सीख लिया होता । तब हम उसे ज़िम्मेदारी या दायित्व की तरह नहीं, बल्कि अपने उसे वजूद की तरह स्वीकार करते हुए सहज रूप से जीना सीख पाते; उसे अपने जीवन का सर्वांश भले न बनाते, एक अविभाज्य हिस्से की तरह उसकी जिंदगी को जी पाते । और, तब हम उस अहमन्यता और कर्ता भाव से कुछ मुक्त हो पाते, जो ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ शब्द के प्रयोग में है । 
रिश्ते शब्दों से नहीं बयान होते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं। शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं।  
माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी । 
भारतीय परंपरा में जो भी पोषक और धारक है, वह माँ है । हम धरती की गोद में पैदा होते, खेलते और जीते हैं । वह अतः हमें धारण करती है । उसकी नदियां, उसके वृक्ष, उसकी हवा, उसके जल, उसके फल, उसकी गायें सब हमारे लिए हैं, वे हमें पोषण देते हैं और प्राण-रक्षा करते हैं । इसलिए वह पोषक है । इसीलिए उसके जिक्र के साथ ही  माताभूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: का घोष करने वाला हमारा आदिम ऋषि आज भी कहीं न कहीं किसी मन कोने में जाग उठता है।   
धरती ही क्यों ? नदी भी स्रोतस्विनी है, पयस्विनी है, जीवन दायनी है, हमारी फसलों हमारे फलों और हमारी गायों में ‘रस’ भरने वाली रसवंती है, इसलिए वह भी हमारे प्राणों को धारण करने और पोषण देने वाली है और वह भी माँ है । भारतीय कला और साहित्य का एक प्राचीन प्रतीक है जिसपर आधुनिक मन इसपर असहमत है, भ्रांत है और उसका मातृत्व संदेह के घेरे में है, फिर भी भारत का बहुलांश उसे मातृवत ही मानता है (कभी-कभी धर्मांधता या रूढ़ि के रूप में भी सही ) वह है ‘गो’ । पुरानी आत्मवादी शब्दावली में कहें तो वह हमारे शरीर को आत्मा और प्राण-तत्त्व को धारण करने की क्षमता देती है और आधुनिक शब्दावली में कहें तो उसके दूध में पूर्ण आहार की वह पोषकता है, जो एक शिशु को एक माँ से मिलता है । यही क्यों इन सबकी समेकित ‘अभिव्यक्ति’ प्रकृति भी मातृ-स्वरूप है । भारतीय चिंतन, कला या साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति जिस भी रूप में हुई है, उसे मातृका या माँ की संज्ञा ही दी गई है । चाहे वह आदिम कल्पना की सप्त मातृकाओं की पाषाण पिंडियाँ हों या शक्ति-स्वरूपा दुर्गा, काली आदि रक्षक और धारक देवियाँ या विश्व को पोषण देने वाली अन्नपूर्णा, पार्वती और लक्ष्मी । ये उत्तर वैदिक देवियाँ ही क्यों ? ठेठ वैदिककाल की ‘वाक्’ भी पोषण, रक्षण और धारण के गुणों से समन्वित है और इसीलिए उत्तर-वैदिक काल में वाणी भी माँ ही मानी गई और उसकी अधिष्ठात्री सरस्वती भी । 
धरती के उलट आकाश पिता है । वह रोशनी दिखाता है, वह मार्ग प्रशस्त करता है, वह हमें जल (जीवन) देता है, लेकिन उसकी रोशनी का संरक्षण, उसके जल का धारण और उसके मार्ग का आधार धरती है । उसके बिना उसका तेज व्यर्ध है, उसका जीवनांश निराधार है और उसका सारा प्रशस्ता-भाव अर्थहीन है । संभावत: इसीलिए भारतीय परंपरा में धरती अधिक पूज्य है । लोक परम्पराओं में उसके पूजन के अनेक स्थानीय त्यौहार और अवसर हैं तथा शास्त्रीय परंपरा में जलपूरित घट उसी का प्रतीक है । यह सारा कुछ उस मातृत्व के पूज्य और सम्मान्य भाव की ही अभिव्यक्ति है। 
फिर भी, जीवन और व्यवहार के धरातल पर हमारे परिवारों की सबसे उपेक्षित और नगण्य स्थिति माँ की ही है । वह स्त्री है । अपने घर के प्रत्येक पुरुष से वय और रिश्ते में भले ही बड़ी हो पर अपने अधिकार और जीवन स्तर में सबसे बाद में आती है । यह सच है । वह मातृ-दिवस की तरह ही सर्वथा नैपथ्य में ही सिमटी रहती है और उसे तभी याद किया जाता है जब कि उसकी हमें कोई जरूरत हो । ठीक वैसे ही जैसे टूटते और बिखरते परिवारों तथा हाशिये पर खिसकते वृद्धों वाले समाज हमें खुद को सभ्य और मानवीय दिखाने के लिए मातृ या पितृ दिवस की हमें और ‘सेलिब्रेशन’ का रूप देकर कमाना हमारे बाजार की जरूरत है । दरअसल जरूरत से अधिक के लिए हमारे पास रिश्तों के कोई अवकाश नहीं है और बाजार हमारी इन जरूरतों को भुनाना बखूबी जनता है । देश-विदेश की तमाम ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियाँ हफ्तों से मातृदिवस को बेच रही हैं । 



मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय




बचपन में जब हिंदी  की वर्णमाला सीख रहा था तब यह सवाल कई बार ज़हन में उठा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘आ’ ‘इ’ या ‘उ’ से बारहखड़ी की शुरुआत की जाय तो क्या होगा? बात तो ठीक भी थी, क्रम बदलने से भाषा का भला बिगड़ता भी क्या? हां स्कूल या घर में डांट ज़रूर पड़ती, शायद अध्यापक की छड़ी की मार भी। यह डर ही था जिसके कारण इस कल्पना को मूर्त रूप न दे सका। आगे जब व्याकरण और भाषा विज्ञान पढ़ा तब भी यही बात आई।



हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार पाणिनी के माहेश्वर सूत्र, जो भगवान शंकर के डमरू से निकली 14 ध्वनियां मानी जाती हैं वो भी ‘अ इ उ ण’ से ही शुरू होती है। आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि बिना ‘अ’ की सहायता के हिंदी के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि ‘अ’ सभी स्वरों में सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए हिंदी वर्णमाला का पहला वर्ण है।



मानव ने जब अपनी सभ्यता की शुरुआत की तो उसके पास जो सबसे ज़रूरी चीज थी जल। चाहे सिंधु सभ्यता हो अथवा नील नदी या दजला-फरात की या कोई अन्य सभ्यता उसका विकास नदी के तट पर हुआ जिसकी वजह थी जल की उपलब्धता। शायद इसलिए ही ये नदियां इन संस्कृतियों के लिए पूजनीय भी थीं। सिंधु और नील के पूजा के प्राचीन प्रमाण तो मिलते ही हैं, गंगा और नर्मदा आज भी भारत में पूजनीय हैं। उन्हें मान माना जाता है। क्यों किसी रूढ़ि के कारण नहीं, अपने सांस्कृतिक महत्त्व और अपनी उपादेयता के कारण।



पौराणिक कथाओं में भी जलाशय का महत्त्व इस बात से पता चलता है कि कालीदास ने शकुंतला की विदाई प्रसंग में कण्व ऋषि द्वारा किसी प्रिय जन को जलाशय के पास छोड़ने का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि जलाशय शुभता के प्रतीक हैं और इनका दर्शन मात्र शुभ होता है। इसीलिए हमारे घरों में यात्रा से निकलते समय जलपूरित पात्र रखने का चलन भी है। इसका संदर्भ अभिज्ञानशकुंतलम के चतुर्थ अंक में भी है , जब शकुंतला विदा होती है तो पिता कण्व उसे छोड़ने जलाशय तक आते हैं । 



लगभग दो-तीन पीढ़ी पहले तक जलाशयों को खुदवाना लोककल्याण का काम था। ये जलाशय हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम थे और हम उनपर आश्रित थे। इतना ही नहीं हमारे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक काम भी इनके तट पर संपन्न होते थे। पूर्वजों का तर्पण हो या बच्चे का मुंडन दोनों ही जलाशय पर ही सम्पन्न होते थे। ये चलन भी हमारे देश और हमारी संस्कृति में जल के महत्त्व को दिखाता है।



जलाशय एक सांस्कृतिक घटक के रूप में  महत्त्वपूर्ण भी रहा है और हमारे समाज में उनकी भूमिका वही रही है, जो नागरी वर्णमाला में ‘अ’ की है। इसलिए हम जलाशयों को मानवीय संस्कृति का ‘अ’कार कह सकते हैं।



लेकिन, स्वतंत्र भारत में जिस तरह जल के नए स्रोतों का विकास हुआ और उनका प्रयोग बढ़ा, हमने उन जलाशयों की उपेक्षा आरंभ कर दी और क्रमशः वे हमारे लिए महतत्वहीन हो गए। कुएं-तालाब भी धीरे-धीरे मृतप्राय हो गएं और हम उन्हें भूलते गए। भोजपुरी भाषा (चाहें तो बोली कह लें) में एक कहावत है ‘घर के पुरनिया के झापीं में बंद करके रखे के चाहीं।’ अर्थ यह कि हमें घर के बुज़ुर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जाने कब उनका अनुभव हमारे काम आ जाए और हम मुश्किल से मुश्किल संकट से निकल जाएं।



यह बात शब्दशः जलाशयों पर भी लागू होती है। ये भी हमारे लिए संजीवनी शक्ति की भूमिका में आ सकते हैं। अपनी इसी समझ के कारण तालाब किसी की व्यक्तिगत संपत्ति ना होकर हमारे समूचे गांव या मुहल्ले के होते थे। हर कोई उसके मरम्मत वगैरह में बराबर सहभागी होता था। अब जबकी तालाबों का संरक्षण गांव की सार्वजनिक भूमिका के बजाय ग्रामसमाज और उसके सरकारी बजट के दायरे में आ गया है तो फंड, उपेक्षा और भ्रष्टाचार के कारण ये तेज़ी से उपेक्षित होकर धीरे धीरे हमारे खेतों, घरों या किसी अन्य स्ट्रक्चर में समाते जा रहे हैं। यह स्थिति दिन ब दिन भयावह होती जा रही है।



बुंदेलखंड, विदर्भ से लेकर उन क्षेत्रों में भी सोखे की खबरे आ रही हैं जहां जल संरक्षण के इन स्रोतों के कारण परंपरागत सूखे के दिनों में भी फसलें उगाना संभव था। अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत और स्थानीय प्रयासों से इनके संरक्षण और विस्तार के उपाय हो रहे हैं, पर ये अभी बहुत छोटे स्तर पर ही चल रहे हैं। पिछले दिनों जब ये खबरें आईं कि सरकारी प्रयासों से इनकी संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, मेरा ध्यान अचानक अपने गांव के इन परंपरागत स्रोतों की ओर चला गया और मैंने पाया कि पिछले दस सालों में हमारे गांव में जलाशयों की संख्या लगभग 1/10 रह गई है। इनमें से कुछ सूखकर किसी के खेत बाग या घर के दायरे में आ मिले और कुछ जो बच रहे थे वे सरकारी अनदेखी की वजह से सूखते गए। इस तरह गांव की परिधि बनाने वाले जलाशय गांव के भौतिक विस्तार की भेंट चढ़ गए।



इस तरह इन सांस्कृतिक इकाइयों का मारना हमारे लिए खतरनाक है। इनके बिना भारतीय संस्कृति या मानवीय संस्कृति की कल्पना वैसे ही असंभव है, जैसे अ के बिना व्यंजन वर्णों का उच्चारण। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक व्याकरण को बचाने के लिए जलाशयों का संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा निकट अतीत में मानव संस्कृति का निष्प्राण होना सुनिश्चित सत्य है।



https://www.youthkiawaaz.com/2017/10/dying-water-sources-is-a-huge-worry/