मध्यकाल में केशवदास
नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए । उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं । अपने
समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— ‘कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई’। वे
राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे
तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था
कि ‘भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास’ उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं
थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था कहीं-न- कहीं उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द
है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को
अस्वीकार करता है । कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी
जुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में
गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं।
कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है
। यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है ।
पुराने जमाने के राजा,सामंत या दरबारी ही नहीं आधुनिक युग के
धनाड्य, पूंजीपति, नेता और अधिकारी भी
ऐसा ही व्यवहार कराते हैं । कभी संस्कृत या फारसी की जो स्थिति थी वही आज
अङ्ग्रेज़ी की है । यह वर्ग सामान्य जनता से अपने को अलगाने और जन सामान्य पर अपना
रोब गाँठने के हथियार के रूप में भाषा का इस्तेमाल करता है और एन-केन प्रकार से
भाषा के आधार पर अपना वर्चस्व कायम रखने की हर संभव कोशिश में लगा रहता है। उयाके
लिए भाषा जीवन और अनुभूति का सवाल नहीं होती, बल्कि सामाजिक
वर्चस्व का एक मजबूत हथियार होती है । दुर्भाग्य यह रहा कि हमारे देश की आजादी के
बाद भाषा के सवाल को हल करने की ज़िम्मेदारी इसी अभिजात वर्ग के हाथों में थी; चाहे वे राजनैतिक और प्रशासनिक दुनिया के लोग हों या अकादमिक दुनिया के
लोग। वे अङ्ग्रेज़ी पढे-लिखे लोग थे। जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि अङ्ग्रेज़ी उनके लिए
सुविधा की भाषा थी, गलत है। अङ्ग्रेज़ी उनके लिए वर्चस्व की भाषा
थी। वे अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए अङ्ग्रेज़ी
के प्रभुत्व को कायम रखना चाहते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह अंतरराष्ट्रीय
संवाद की भाषा है और दुनिया के ज्ञान का साहित्य इसी भाषा में रचा गया है। उससे परिचित
होने के लिए हमें अङ्ग्रेज़ी का बोध होना जरूरी है। पर, क्या यह सही नहीं है कि
कुछ सदियों पुरानी इस भाषा ने दुनिया की सभी भाषाओं पर वर्चस्व अनायास केवल हथियार
के बलपर हासिल नहीं किया, बल्कि उसके लिए खून-पसीना भी बहाया, खाक भी छानी । अरबिक, ग्रीक और संस्कृत माध्यमों में
उपलब्ध ज्ञान के पुराने साहित्य का उल्था भी किया । दर्शन, भूगोल
और विज्ञान आदि के जर्मन और फ्रांसीसी विद्वानों के विचारों को भी अपनी भाषा में सुलभ
बनाया । जाहीर है ऐसा करने वाले समाज के विशिष्ट और सुविधा सम्पन्न लोग ही थे । भारतीय
अभिजात वर्ग के लोगों की तरह । यदि ये लोग भी दुनिया के इस साहित्य के ज्ञान को अपने
व्यक्तिगत या वर्गीय वर्चस्व का माध्यम बनाए रखना चाहते तो अवश्य अपनी अनुवाद नहीं
करते। यह समझना आसान है कि भारतीयों की तरह अन्य भाषाओं के टर्मो के अनुवाद करने में
उन्हें मुश्किल आई होगी और उन्हें लोकप्रिय बनाना भी बहुत आसान नहीं रहा होगा। लेकिन, यह काम केवल इस लिए हो सका कि वे अपनी भाषा से प्रेम कराते थे । उन्हें उसकी
पहचान की चिंता थी या अपने अतिलघु इतिहास के बावजूद समझ सकते थे कि उनकी सांस्कृतिक
पहचान उनकी भाषाई अस्मिता से अनिवार्यतः जुड़ी है और भाषिक समृद्धि ही उन्हें सांस्कृतिक
पहचान देगी, वर्ना ग्रीक और रोमन संस्कृतियों के सामने उनकी शिशु-संस्कृति
का भला क्या वजूद ? अपनी इस पहचान की चिंता, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से लगाव ही उन्हें वैश्विक स्तर पर भाषाई वर्चस्व
देने में कामयाब हुआ।
भारत की स्थिति इसके ठीक उलट है। यहाँ हमारे
अपने पुराने सांस्कृतिक इतिहास पर सीना फूलाने की पर्याप्त सुविधा है, ब्रिटेन की तरह हम सांस्कृतिक रूप से फकीर नहीं हैं । हमारा अभिजात वर्ग इसे
जनता है और जब-तब अपने सीने चौड़े करके इसका दंभ भी भरता है, लेकिन
बात जब उस सांस्कृतिक पहचान को नयापन देने की होती है, तो वह
आधुनिक विश्वभाषा औरहमें ज्ञान-विज्ञान की
शरण में जा खड़ा होता है और इनकी दुहाई देता हुआ यह दावा करता है कि भारतीय भाषाओं में
इस तरह का ज्ञान अनुपलब्ध है। इसलिए हमें अनिवार्यतः अङ्ग्रेज़ी की शरण में जाना होगा।
गोया भाषा ज्ञान का माध्यम न हो, स्वयं ही ज्ञान का सृजन करती
हो और अङ्ग्रेज़ी अपने जन्म के साथ ही सारा ज्ञान-संभार लेकर पैदा हुई हो। आधुनिक भारतीय
भाषाएँ एक समृद्ध सांस्कृतिक उत्तराधिकार के बावजूद आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि
से कंगाल हैं, यह बात हमें स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं, लेकिन मुझे आपत्ति इस बात पर है कि इतना सांस्कृतिक उत्तराधिकार, इतनी विभिन्नता और इतना भाषाई वैविध्य होने के बावजूद हमारी कोई भी भाषा आधुनिक
ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने में सक्षम क्यों नहीं हुई? भाषाई
राजनीति के कारण? नहीं, यह भाषाई वर्चस्व
बनाए रखने का एक हथियार-भर है। इसमें भाषा को समझ, बोध या राष्ट्रीय
अस्मिता के प्रश्न से जोड़ने के बजाय भावनात्मक उबाल को बढ़ाने के एक जरिया के रूप में
इस्तेमाल किया जाता है, ताकि ये प्रश्न उसके भाप में सहज ही उड़ा
दिए जाएँ ।
विडंबना यह है कि यह शाजिश भाषा-निरपेक्ष
है। इसमें क्या हिन्दी, क्या बंगला, क्या तमिल— सभी भाषाओं के अभिजातवर्गीय लोग शामिल हैं जो समाज पर भाषा के
सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए भाषाई आंदोलन भुस के पुतले साबित हुए
हैं । हाँ इन्होंने इन वर्चस्ववादियों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक ज्ञान को पहुँचने
से रोकने के लिए एक सेफ़्टी वाल्व जरूर दे दिया है । भसहा दिवस माने और सरकारी आयोजनों
में आपनी जैसा फैसी बहाने से अधिक जरूरी है इन सेफ़्टीवाल्वों के चरित्र का उदघाटन और
ज्ञान के साहित्य की भारतीय भाषाओं में सुलभता को सुनिश्चित करना। इस विश्वहिंदी दिवस
पर यह संकल्प ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी ।