'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । मेरी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहीर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा दिया । उन्होने मेरे भविष्य के लिए बहुत कम वय में मुझे अपने से दूर जाने दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
गुरुवार, 25 मई 2017
सोमवार, 15 मई 2017
वाया सहारनपुर
सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलितवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जातिवादी वोट बैंकों में नागरिकों के तब्दील करनेवाली राजनीतिक पार्टियों का विरोध करने के, सरकार पर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करने के लिए दबाव डालने के, जातिगत मतभेदों को बढ़ाने से रोकने और उसे हवा देने वाली ताकतों का विरोध करने के तथा आरक्षण के संबंध में भ्रांतियाँ दूर करने के लिए व्यापक प्रयास करने के । ये तमाम पहलू हैं, जो भारतीय समाज को क्रमशः ज्वालामुखी के मुख-विवर की ओर धकेलते रहे। तब हम सब तमाशाबीन रहे और एकदूसरे खिलाफ खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे । संभालना अब भी जरूरी है, अन्यथा समय जवाब नहीं माँगेगा फैसले सुनाएगा और हम सब कटघरे में खड़े या तो बेबस फैसला सुनेंगे या चुपचाप अपने पापों की फंदे पर लटक जाएंगे । समय पंडी जी, बाऊ साहब, यादव जी, मौर्या जी, पटेल जी, या किसी दलित और जनजाति के लिए पालागन करने या आरक्षण देने नहीं आएगा , वह जाति-गोत्र के आधार पर फंदे या कठघरे नहीं तैयार करेगा, वह सबको एक साथ लपेटेगा । तब कोई न कोई तारनहार रहेगा न तमाशाबीन । सब मारे जाएंगे । सहारनपुर उस आपदा की पूर्वसूचना भर है । इसलिए बेहतर हो, सरकार पर समेकित विकास और रोजगार सृजन के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएँ, बजाय सिरफुटौवल और आपसी गाली-गलौज में ऊर्जा जाया करने के ।
रविवार, 14 मई 2017
शहादतें सिर्फ सीमाओं नहीं होतीं
शहादतें सिर्फ सीमाओं पर और जंगलों में नहीं होतीं । अपने गावों और घरों में भी होती हैं । भरोसा न हो तो सहारनपुर देख लीजिए । देश में केवल सुकमा और कश्मीर नहीं सहारनपुर भी है । सर्जिकल स्ट्राइक केवल कश्मीर के मोर्चे पर क्यों ? जवाबी कारवाई केवल सुकमा और बस्तर में क्यों ? आपके घरों में क्यों नहीं ? अरे आप तो काँपने लगे, बावु साहेब! मैंने तो केवल बात की आप तो पूरी कारस्तानी कर आए हैं। तब आपके हाथ नहीं काँपे अब आपका पूरा वजूद काँप गया । यही सोच रहे हैं न कि आपके इन कोमल हाथों का प्रतिवाद अगर किसी कठोर हाथों ने दे दिया तो संभाल भी नहीं पाएंगे । फिर किस बात का दंभ है-- देश के गृहमंत्री का या प्रदेश के मुख्यमंत्री का ( आप के गोतिया हैं न दोनों 'रामराज' के भविष्य ?) या अपनी कुलीनता का? माफ कीजिएगा वो आपके लिए कुछ नहीं कर सकते और न आपकी अमानवीय नीचकर्मा 'कुलीनता' । अगर ये सब अकुलीन मिल उठ खड़े हुए तो ... अरे ! आप नाहक सोच में पड़ गए । मैं तो बस सामाजिक और मानसिक सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा हूँ। सीमा और सुकमा के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी । आप जिस मानसिकता में लोगों के घर जलाते हैं, वही मानसिकता सीमा और जंगलों में हमारे सैनिकों को शहीद करती है । जैसे आप ठाकुर और वे दलित हैं, वैसे ही सीमा पार का आदमी यह सोचता है कि वह पाकिस्तानी है और आपके सिपाही भारतीय या सुकमा के माओवादी सोचते हैं कि वे सर्वहारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सिपाही सत्ता के एजेंट तथा उसकी शक्ति हैं, इसलिए उन्हें नष्ट करना या क्षति पहुंचाना वे अपनी जन्मसिद्ध धिकार मानते हैं । पहले मनुष्य को मनुष्य मानने की तमीज तो पैदा करिए , अन्यथा सहारनपुर तो नहीं रुकेगा, सुकमा और कश्मीर भी नहीं रुकेगा । सब यूं ही चलता रहेगा और आप जैसी आकृति वाले विभिन्न जाति, गोत्र, देश और विचारधारा के लोग यूं ही कटते रहेंगे ।
मंगलवार, 9 मई 2017
शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते
शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं । शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं । माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी ।
शनिवार, 29 अप्रैल 2017
परफ़ार्मिंग बनाम अंडरपरफ़ार्मिंग
देश की आजादी के बाद भारत सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आयोगों के गठन हैं । आलम यह है की सरकार यदि हंसने, रोने, छींकने आदि-आदि विषयों पर भी कोई आयोग बना दे तो भी जनता को कोई खास आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे में उच्च शिक्षा के नियमन और निर्देशन के लिए एक आयोग का होना आश्चर्य की बात नहीं । संयोग से उसका गठन भी बहुत पहले हो चुका है और यह आयोग तमाम छोटे-बड़े काम कर भी रहा है । उनमें से कुछ की जानकारियाँ सामान्य जन को हैं कुछ की नहीं । भारत के उच्च शिक्षित युवाओं के लिए इसकी सबसे अधिक उपयोगिता या प्रासंगिकता यूजीसी, नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ) के कारण है । मुझे याद है अपने छात्र-जीवन में हम उन तिथियों का इंतजार करते थे जब कि नेट की विज्ञप्ति आती, उसकी परीक्षा होती या उसके परिणाम आते थे । इसी क्रम में कभी पता लगता कि यूजीसी ने अचानक बहुत से लोगों को एकमुश्त छूट दे दी है और पहले से पात्रता अर्जित कर चुके अभ्यर्थियों में नई योग्यता वाले अभ्यर्थियों का एक रेला आ जुड़ता । तर्क यह कि पदों की तुलना में योग्य पात्रों की कमी है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इसका परिणाम भीड़ बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं हुआ । न तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ी और न देश भर के खाली पद भरे जा सके । हुआ तो केवल यह कि यूजीसी ने अपनी ही पात्रता परीक्षा को बार-बार प्रश्नांकित किया और अंततः आज अप्रासंगिक बना दिया है । एक समय वह भी आया कि यूजीसी द्वारा अनुदानित विश्वविद्यालयों के माध्यम से यूजीसी द्वारा संचालित की जाने वाली नेट परीक्षा का केंद्र लेने से कुछ विश्वविद्यालयों ने हाथ खड़ा कर दिये और फिर अराजकता और अव्यवस्था का आलम फैल गया । आयोग ने उससे उबरने के लिए पूरी परीक्षा को ठेके पर सीबीएसई को सौंपा और सुन रहा हूँ अंततः उसने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। अतः यह स्पष्ट नहीं है कि जून में होने वाली यह परीक्षा होगी भी या नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे पूरी तरह अप्रासंगिक बनाकर समाप्त करने की तैयारी हो रही है ?
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।
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