लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— ‘हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक,सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग ’।
फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है। इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,/पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार/ जिसे पूरा पकड़ पाया नहीं—/ किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता/ तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता ?’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।
सारे परिवेश में एक अद्भुत उमंग है। सारी प्रकृति भँग की तरंग में झूम रही है; नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय,उचित-अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। तृण, तरु, लता, गुल्म, पशु, पक्षी, मनुज सब अपनी-अपनी मौज में हैं और बिना ढोल-मजीरे के ही, फाग गाए जा रहे हैं। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। सब मिलकर एक ऐसे महाफाग की सृष्टि कर रहे हैं, जिसकी ताल पर कोई अवघड़ देवता अनादि काल से नृत्य कर रहा है। इस सृष्टि का सारा कार-बार — सृजन-लय और उन्मीलन-निमीलन इसीकी नृत्य-भंगिमाएँ हैं। कबीरा, जोगीड़ा और फगुआ सब उसी अवघड़ की महिमा के गान हैं। इसीलिए समाज के लिए जो असंगत, अस्वीकृत, अश्लील और अशोभन है, वह सब यहाँ लोक-स्वीकार्य, श्लील और शुभ हो जाता है। यह अवघड़ ही इस परमाप्रकृति का सनातन प्रेमी है और प्रकृति का सारा शृंगार-पटार— किसलय, कोंचे, बौर और पुष्प अपने इस प्रियत्म को ही रिझाने के उपादान हैं। यह अवघड़ देवता ही 'पुरुष और प्रकृति' के युग्म का 'पुरुष', 'शिव और शक्ति' के युग्म का 'शिव' तथा अमिताभ बुद्ध और प्रज्ञा-पारमिता के युग्म का शिव है, जो इस नवयौवना प्रकृति के साथ ........... (दाम्पत्य-भाव) में स्थित होकर नई सृष्टि की रचना करता है। यह अनायास नहीं कि पौराणिक आख्यानों में भी फागुन की महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख है। यह किसी ऐसे ही आदिम लोक-कल्पना को शास्त्र-सम्मत ठहराने का उपक्रम है। परंपरागत हिंदू-मानस के लिए बिना दांपत्य के प्रेम की कल्पना अग्राह्य है। वह राधा-कृष्ण के लुका-छिपी वाले प्रेम को ईश्वरीय लीला मानकर एक हद तक भले सहन कर ले, लेकिन बिना विवाह के नव-सृजन (संतान-उत्पत्ति) उसके लिए असह्य है। हाँ, यह बात अलग है कि उसे बूढ़े शिव और नवयौवना पार्वती के बेमेल विवाह में उतनी असंगति नहीं दिखती। वैसे भी, जब ‘फागुन में बुढ़वा देवर लागे’, तो इस बेमेल विवाह की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती?
फागुन की हवा एक अल्हड़ बालिका की तरह बिना किसी अवरोध के पूरे गाँव में कुँलाचें भर रही है। वह कभी गेहूँ की बालियों को झकझोर देती है तो कभी आम, महुए या पीपल की डाली को और कभी अरहर या सरसों के पौधे को हल्की सी चपत लगा कर दूर भाग जाती है। उसके लिये अपने घर-आँगन और पड़ोसी के दुआर-बथान में कोई अंतर नहीं। हर एक घर, हर एक आँगन उसका अपना है। वह कहीं भी बिलम कर सुहता लेती है, बिना किसी सोच-संकोच के। सारी सरेह (खेत) उसके छोटे-छोटे कदमों के ताल पर थिरक उठी है। चतुर्दिक ऊल्लास की आभा फूट रही है। बुढ़ा से बूढ़ा वृक्ष भी पुलकित हो उठा है। उसके जीर्ण पत्रहीन शरीर से भी नए-नए किल्ले फूट पड़े हैं। फिर युवा, किशोर और बाल वृक्षों का कहना ही क्या? सब मगन हैं। पीपल ताली बजा-बजाकर नाच रहा है, आम और महुए उसकी संगत कर रहे हैं। पाकड़ लाल-लाल चुनर पहन इधर उधर मटक रही है। बेला और चम्पा इत्रदान लिए खड़ी हैं। रातरानी और हरसिंगार फूलों से होली खेल रहे हैं। अमलतास के हाथ में पीला गुलाल है, तो पलाश के हाथ में लाल रंग की पिचकारी। प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर फागुन उतर आया है।
रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा),............ सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा,ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं।
प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं ‘अतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु’। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ?दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।
दिशा-कुदिशा का बोध मानवीय मस्तिष्क की उपज है। सबको जात-कुजात के खानों में बाँट कर देखना मनुष्य की फितरत है। ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब का भेद मनव-मन की कल्पनाएँ हैँ। जाति, धर्म, वर्ण, गोत्र, आदि के तमाम भेद-उपभेद तो मनुष्य ने गढ़े है। यहाँ हर ओछा से ओछा मनुष्य अपने से भी तुच्छ दो-एक आदमी तलाश लेता है। भला प्रकृति का इससे क्या वास्ता ? वह इन बँटवारों को नहीं मानती। वह दिशा-कुदिशा का भेद नहीं करती। वह पुरवा, पछुआ, उतरहिया और दखिनहिया उसके लिए सब समान हैं। वह माँ है, सब उसके प्रिय हैं। वह ममतामयी और समदर्शिणी है, वह सबको समान प्रेम करती है। वह हम हैं जो उसे भोग्य-भोजक भाव से देखते हैं, उसके प्रेम पर अपना एक छ्त्र राज्य समझते हैं, उसकी सारी सम्पत्ति, उसका सारा स्नेह, सारा संचित कोश अकेले-अकेले हजम कर जाना चाहते हैं। उसे राष्ट्र और राज्य की चौहद्दियों में बाँधकर उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। उसका दिया सारा दूध,सारा मधु, सारा जल, सारा अन्न अकेले-अकेले हथिया लेना चाहते हैं। हम मनुष्य महुए, आम, पीपल और पलाश की तरह सहज रूप से अपने स्वाद और रुचि के अनुरूप महाभोज का आनंद नहीं ले सकते। हमें अपने ‘मन-भोग’में कंकड़ी दिखने लगी और दूसरे के पत्तल का रूखा-सूखा भी छप्पन भोग लगने लगा है, उसे भी हड़प जाना चाहते हैं। हमारी लिप्सा करोड़-करोड़ मुख हैं, जिससे वह सबकुछ लील जाना चाहती है। वह खाद्य और अखाद्य के बोध से रहित है। तरु, पादप, जीव, जंतु, कंकड़-पत्थर और यहाँ तक कि मनुष्य भी उसके लिए अभक्ष्य नहीं। हमारी ऐषणा हिंसा-अहिंसा की सीमाओं से परे जा रही है। उसके सामने ‘गला काट प्रतियोगिता’ जैसे मुहावरे आउटडेटेड हो चुके हैं। सच कहें तो अब हमें उन मुहावरों और प्रतीकों की भाषा से कोई वास्ता नहीं। अब हम सीधे और सपाट शब्दों में ‘मनुष्य के अंत’, ‘इतिहास का अंत’ और ‘विचार का अंत’ की बातें कर रहे हैं। हमारा कोई अतीत नहीं, हमारा कोई वर्तमान नहीं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भविष्य भी नहीं। हमने इन सबकी खुले बाजार नीलामी कर दी है। यह बाजार ही हमारा नियामक है। वह चाहे तो मुझे, आपको, हम सबको टके के बल पर खरीद सकता है और न चाहे तो आप कूड़े के ढेर में निबटाए जाने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है। हमारी हवा, हमारा पानी, हमारी जमीन, उसके भीतर और बाहर बिखरे असंख्य रत्न और धातु ही नहीं, हमारी गरीबी, हमारी बेकारी और हमारी भूख-प्यास सब बिकाऊ है। सरेआम चौराहे पर नीलाम हो रही हैं और हम अपने कलेजे पर हाथ रखे डालर, रूबल और पौंड के उतार-चढ़ाव नाप रहे हैं। ऐसे में फगुनहटा के बयार की फुदक पर सम्मोहित होने के बजाय संसेक्स की उछालों के साथ हमारे उछलने भला कौन सा आश्चर्य है?
(अपूर्ण)