शुक्रवार, 3 जून 2016

फागुन

लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक,सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग
        फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है।  इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,/पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार/ जिसे पूरा पकड़ पाया नहीं—/ किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता/ तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता ?’ और न ही इस सृजन के लिए किसी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।
        सारे परिवेश में एक अद्भुत उमंग है। सारी प्रकृति भँग की तरंग में झूम रही है; नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय,उचित-अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। तृण, तरु, लता, गुल्म, पशु, पक्षी, मनुज सब अपनी-अपनी मौज में हैं और बिना ढोल-मजीरे के ही, फाग गाए जा रहे हैं। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। सब मिलकर एक ऐसे महाफाग की सृष्टि कर रहे हैं, जिसकी ताल पर कोई अवघड़ देवता अनादि काल से नृत्य कर रहा है। इस सृष्टि का सारा कार-बार सृजन-लय और उन्मीलन-निमीलन इसीकी नृत्य-भंगिमाएँ हैं। कबीरा, जोगीड़ा और फगुआ सब उसी अवघड़ की महिमा के गान हैं। इसीलिए समाज के लिए जो असंगत, अस्वीकृत, अश्लील और अशोभन है, वह सब यहाँ लोक-स्वीकार्य, श्लील और शुभ हो जाता है। यह अवघड़ ही इस परमाप्रकृति का सनातन प्रेमी है और प्रकृति का सारा शृंगार-पटार— किसलय, कोंचे, बौर और पुष्प अपने इस प्रियत्म को ही रिझाने के उपादान हैं। यह अवघड़ देवता ही 'पुरुष और प्रकृति' के युग्म का 'पुरुष', 'शिव और शक्ति' के युग्म का 'शिव' तथा अमिताभ बुद्ध और प्रज्ञा-पारमिता के युग्म का शिव है, जो इस नवयौवना प्रकृति के साथ ........... (दाम्पत्य-भाव) में स्थित होकर नई सृष्टि की रचना करता है। यह अनायास नहीं कि पौराणिक आख्यानों में भी फागुन की महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख है। यह किसी ऐसे ही आदिम लोक-कल्पना को शास्त्र-सम्मत ठहराने का उपक्रम है। परंपरागत हिंदू-मानस के लिए बिना दांपत्य के प्रेम की कल्पना अग्राह्य है। वह राधा-कृष्ण के लुका-छिपी वाले प्रेम को ईश्वरीय लीला मानकर एक हद तक भले सहन कर ले, लेकिन बिना विवाह के नव-सृजन (संतान-उत्पत्ति) उसके लिए असह्य है। हाँ, यह बात अलग है कि उसे बूढ़े शिव और नवयौवना पार्वती के बेमेल विवाह में उतनी असंगति नहीं दिखती। वैसे भी, जब फागुन में बुढ़वा देवर लागे’, तो इस बेमेल विवाह की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती?
        फागुन की हवा एक अल्हड़ बालिका की तरह बिना किसी अवरोध के पूरे गाँव में कुँलाचें भर रही है। वह कभी गेहूँ की बालियों को झकझोर देती है तो कभी आम, महुए या पीपल की डाली को और कभी अरहर या सरसों के पौधे को हल्की सी चपत लगा कर दूर भाग जाती है। उसके लिये अपने घर-आँगन और पड़ोसी के दुआर-बथान में कोई अंतर नहीं। हर एक घर, हर एक आँगन उसका अपना है। वह कहीं भी बिलम कर सुहता लेती है, बिना किसी सोच-संकोच के। सारी सरेह (खेत) उसके छोटे-छोटे कदमों के ताल पर थिरक उठी है। चतुर्दिक ऊल्लास की आभा फूट रही है। बुढ़ा से बूढ़ा वृक्ष भी पुलकित हो उठा है। उसके जीर्ण पत्रहीन शरीर से भी नए-नए किल्ले फूट पड़े हैं। फिर युवा, किशोर और बाल वृक्षों का कहना ही क्या? सब मगन हैं। पीपल ताली बजा-बजाकर नाच रहा है, आम और महुए  उसकी संगत कर रहे हैं। पाकड़ लाल-लाल चुनर पहन इधर उधर मटक रही है। बेला और चम्पा इत्रदान लिए खड़ी हैं। रातरानी और हरसिंगार फूलों से होली खेल रहे हैं। अमलतास के हाथ में पीला गुलाल है, तो पलाश के हाथ में लाल रंग की पिचकारी। प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर फागुन उतर आया है।
        रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा),............  सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा,ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं।
        प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं अतिथि देवो भव की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह सत्यं वद् धर्मं चर में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ?दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।
         दिशा-कुदिशा का बोध मानवीय मस्तिष्क की उपज है। सबको जात-कुजात के खानों में बाँट कर देखना मनुष्य की फितरत है। ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब का भेद मनव-मन की कल्पनाएँ हैँ। जाति, धर्म, वर्ण, गोत्र, आदि के तमाम भेद-उपभेद तो मनुष्य ने गढ़े है। यहाँ हर ओछा से ओछा मनुष्य अपने से भी तुच्छ दो-एक आदमी तलाश लेता है। भला प्रकृति का इससे क्या वास्ता ? वह इन बँटवारों को नहीं मानती। वह दिशा-कुदिशा का भेद नहीं करती। वह पुरवा, पछुआ, उतरहिया और दखिनहिया उसके लिए सब समान हैं। वह माँ है, सब उसके प्रिय हैं। वह ममतामयी और समदर्शिणी है, वह सबको समान प्रेम करती है। वह हम हैं जो उसे भोग्य-भोजक भाव से देखते हैं, उसके प्रेम पर अपना एक छ्त्र राज्य समझते हैं, उसकी सारी सम्पत्ति, उसका सारा स्नेह, सारा संचित कोश अकेले-अकेले हजम कर जाना चाहते हैं। उसे राष्ट्र और राज्य की चौहद्दियों में बाँधकर उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। उसका दिया सारा दूध,सारा मधु, सारा जल, सारा अन्न अकेले-अकेले हथिया लेना चाहते हैं। हम मनुष्य महुए, आम, पीपल और पलाश की तरह सहज रूप से अपने स्वाद और रुचि के अनुरूप महाभोज का आनंद नहीं ले सकते। हमें अपने मन-भोगमें कंकड़ी दिखने लगी और दूसरे के पत्तल का रूखा-सूखा भी छप्पन भोग लगने लगा है, उसे भी हड़प जाना चाहते हैं। हमारी लिप्सा करोड़-करोड़ मुख हैं, जिससे वह सबकुछ लील जाना चाहती है। वह खाद्य और अखाद्य के बोध से रहित है। तरु, पादप, जीव, जंतु, कंकड़-पत्थर और यहाँ तक कि मनुष्य भी उसके लिए अभक्ष्य नहीं। हमारी ऐषणा हिंसा-अहिंसा की सीमाओं से परे जा रही है। उसके सामने गला काट प्रतियोगिता जैसे मुहावरे आउटडेटेड हो चुके हैं। सच कहें तो अब हमें उन मुहावरों और प्रतीकों की भाषा से कोई वास्ता नहीं। अब हम सीधे और सपाट शब्दों में मनुष्य के अंत’, इतिहास का अंत और विचार का अंत की बातें कर रहे हैं। हमारा कोई अतीत नहीं, हमारा कोई वर्तमान नहीं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भविष्य भी नहीं। हमने इन सबकी खुले बाजार नीलामी कर दी है। यह बाजार ही हमारा नियामक है। वह चाहे तो मुझे, आपको, हम सबको टके के बल पर खरीद सकता है और न चाहे तो आप कूड़े के ढेर में निबटाए जाने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है। हमारी हवा, हमारा पानी, हमारी जमीन, उसके भीतर और बाहर बिखरे असंख्य रत्न और धातु ही नहीं, हमारी गरीबी, हमारी बेकारी और हमारी भूख-प्यास सब बिकाऊ है। सरेआम चौराहे पर नीलाम हो रही हैं और हम अपने कलेजे पर हाथ रखे डालर, रूबल और पौंड के उतार-चढ़ाव नाप रहे हैं। ऐसे में फगुनहटा के बयार की फुदक पर सम्मोहित होने के बजाय संसेक्स की उछालों के साथ हमारे उछलने भला कौन सा आश्चर्य है? 

    (अपूर्ण)

रविवार, 29 मई 2016

फगुनहटा बयार



लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— ‘हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक, सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। बल्कि इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग ’। 

 फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है। इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे बार-बार ’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।

 फागुन के बयार की भी अद्भुत माया है। यह सारे परिवेश में एक अजीब नशा भर देती है। लगता है, सारा प्रकृति भाँग के नशे में झूम रही है। नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय, उचित अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। यहाँ हर कोई अपनी धुन में है और बिना ढोलक, झाल और हारमोनियम के ही, फाग गा रहा है। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। बूढ़ी पाकड़ ने भी अपनी चूनर निकाल ली है। फागुन में बूढ़ा भी जब देवर लग सकता है, तो बिचारी पाकड़ का क्या अपराध? बाग के कोने में चुप-चाप खड़ी रहने वाली सनातन उपेक्षित पाकड़ भी तो किसी की भाभी लग सकती है। बूढ़ा बरगद लाल-लाल बियहुती पगड़ी पहनकर इतरा रहा है तो वह क्यों न साज-शृंगार करे? वह भला क्यों बिना सिंगार-पटार के अपने बुढ़ापे का दुःख मनाए ? लेकिन ‘यह मुआ पीपल है कि मानता नहीं। कभी हाथ मटका-मटका कर मुझे चिढ़ा रहा है तो कभी बरगद की ओर इशारा करके ठहाका लगा रहा है। लुच्चा कहीं का, थोड़ा सज-सँवर क्या गई, लगा बुढ़ऊ से चुगली करने। देखेंगे बच्चू जब अपनी आएगी... तो कितना ढाँप के रखोगे’। पाकड़ की यह बात सुन पीपल और जोर से खिल-खिला उठता है। उसकी इस खिल-खिलाहट की खनक पूरे परिवेश को खन-खना देती है। युवा पीपल और बूढ़ी पाकड़ के इस हास-परिहास में बरगद को भी रस आ रहा है। वह ठहाका लगाकर हँसता भले न हो, पर उसके शरीर (पत्तों) की झुर-झुरी उसकी उत्त्फुल्लता की सूचना देता रही है। वह बूढ़े सौम्य गृहस्थ की तरह धीरे से मुस्कुराकर रह जाता है। पर उसकी आँख की कोर अपनी ओर घूमी देख कर पाकड़ और लला जाती है।

 रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा), ............ सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा, ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं। प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं ‘अतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु’। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ? दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।

सोमवार, 23 मई 2016

गर्मियों के दिन


गर्मियों के दिन । छुट्टियों का समय । मई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में स्कूल और कालेज बंद । घर जाने की उत्सुकता । एक आकर्षण बाबा और दादी की खुशी से चमकती आँखों का । गर्मियों की छुट्टियों के बाद घर से वापस लौटते समय आशीर्वाद में उठे हाथ और भाव-विह्वल आँखों की स्मृतियाँ । ये बचपन के दिन थे । गर्मियों के दिन । आज वे दिन हमें उमस,तपन और चिपचिपपन से भरे लगते है, लेकिन तब ऐसा नहीं था । वे दिन हमारी आजादी के दिन होते थे । किताबों से आजादी के दिन, बड़ों से पढ़ाई लिखाई के लिए डांट-डपट से आजादी के दिन । बाबा-दादी के प्यार - दुलार और अपनत्व के दिन। बाग़-बगीचे से लेकर पोखर-तालाब तक भटकने के दिन । पर ये दिन बहुत छोटे होते थे । पता ही नहीं चलता, कब आए और कब चले गए । हमें फिर वापस उन सबसे दूर आना पड़ता । एक छोटे से कस्बाई जीवन में । यहां गाँव की तरह मिट्टी और खपरैल के छोटे कमरे नहीं होते थे न ही बिजली का अभाव । हाँ तब कूलर तो यहां भी नहीं था । लेकिन इन डोलते हुए पंखों और खुले बड़े कमरों में वह शीतलता कभी नहीं मिली जो गर्मियों की दोपहर में दादी के आँचल में छुपकर सोने में मिलाती थी । अक्सर हमें सुलाते-सुलाते दादी भी सो जाती, कभी-कभी उसका फायदा उठाकर हम धीरे से निकल पड़ते बाग़-बगीचे की ओर । पर ऐसा होता कम ही था दादी की नींद बहुत कच्ची थी। अक्सर हम चोरी से सरकते हुए पकड़ लिए जाते । पर मुझे याद नहीं कि कभी उसके लिए मैंने दादी की डाँट खाई हो। वे हमेशा पुचकार कर मना लेतीं । उनके अस्थि-शेष हाथों में इतना दुलार और उनके झुर्रियों से भरे चहरे में इतना स्नेह था कि हम उसके बंधन को कभी अस्वीकार न कर सके । मुझे याद है घर में जब भी कोई डांटता या मारने को दौड़ाता मैंने हमेशा दादी की शरण ली । उनका आँचल हमारा अमोघ कवच था । अब भी जबकि उस आँचल को हमारे सिर से उठे एक अरसा बीत गया,गर्मियों की इस लू और तपन में मुझे वह आँचल बहुत याद आता है ।


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

नदी और मनुष्य





























नदी और मनुष्य के बीच अत्यंत पुराना और गहरा रिश्ता है। विश्व की लगभग सभी पुरानी सभ्यताएँ
; चाहे वह सिंधु‌‌-घाटी सभ्यता हो या नील नदी की सभ्यता अथवा मेसोपोटामिया की, इस रिश्ते की साक्षी हैं। नदी मनुष्य की जरूरतों के लिए जल और उसके परिवहन की माध्यम भर नहीं हैं, बल्कि सहस्राब्दियों के इस साहचर्य ने दोनों में रागात्मक संबंध विकसित कर दिया है। कहीं वह माँ है, तो कहीं प्रेयसी और कहीं देवी या ईश्वरीय शक्ति— जीवन में प्रेम, रस और आध्यात्म की प्रतीक। नदी माँ है, अपने आँचल में रस का अक्षय भंडार संचित किये हमारी धरती, हमारी क्षुधा और हमारी संस्कृति को अपने प्राण-रस से तृप्त कर उसे पुष्ट करने वाली माँ। वह अन्नदा है। वह पुष्टिदा है। वह सरस है। आनंदमयी है। शाम की गोधुली में घर लौटती रँभाती गायों को सिकम-भर (जी-भर) जल पिलाकर तृप्त कर देने वाली नदी, उनमें दूध का अमृत-स्रोत भर देने वाली नदी, धरती को सींच कर हरी-भरी कर देने वाली नदी माँ नहीं मातामही है। मातृ-रूपा धरती और गो दोनों का पोषण करने वाली दोनों को सरस करने वाली मातामही।



नदी वाक् है, यह सत् से असत्, तमस से ज्योति और अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाले मार्ग का निर्देश करती है। नदी काव्य है, इसमें रामायण का-सा औदात्य और महाभारत का-सा विस्तर है। नदी रसवंती है, इसमें सहस्र-सहस्र महाकाव्यों का रस है। नदी कला है, इसके कटान, ढलान, उतार-चढाव, और उनसे निर्मित आकृतियों ने मनुष्य की आदिम कला को प्रेरणा दी— उसकी कल्पना को आधार दिया। नदी गीत है, नदी लय है, नदी नाद है। नदी गति, यति और आरोह-अवरोह है। नदी सृजन-धर्मिणी है। वह स्वयं सिसृक्षा की कारयित्री शक्ति है और उसकी अभिव्यक्ति भी। हर पल, हर घड़ी, हर प्रहर, हर दिन, हर मास, हर वर्ष कुछ-न-कुछ सिरजती रहती है, नदी। कभी पत्थर की चट्टानों से कोई अपूर्व आकृति, तो कभी कगारों का बांकपन और कहीं धाराओं की सहस्र-सहस्र लटों से ढका धरती का मनोरम मुख। इसके विस्तृत पाट पर नौका विहार करते हुए, हमने अपनी कला के तमाम रूपक रचे। इसकी कल-कल ध्वनि में हमने संगीत की पहली धुन सुनी। इसके तरंगो से हमें अपने हृदय की तरंगो को शब्द-बद्ध कर काव्य में ढालने की प्रेरणा मिली। इसके झिल-मिल जल में हमने रंगों की पहचान की और अपनी कल्पना की आकृतियों में उन्हें भरने की कला सीखी। नदी कल्पदा है। नदी काम-रूपा है। कला, विद्या, काव्य और संगीत सभी का आदि स्रोत है — सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणिं
       नदी प्रेयसी है। उसमें अथाह रस है। अनिवार्य आमंत्रण है, उसमें उतर जाने, खो जाने, स्वयं को विलीन कर लेने का आमंत्रण । वह स्पर्शाकुल और वाचाल प्रेयसी नहीं है, वह धीरा है, प्रशांत है, कल-कल की मधुर-ध्वनि करने वाली मृदुभाषिणी है। उसमें तरंग है, आवेग है, बढ़ियाती है, तो दूर-दूर तक विस्तृत हो जाती है और फिर अपनी उर्वरता अपनी मातृका रूप का अवशेष नवीन जलोढ-मिट्टी (मृतिका) छोड़ पुनः नवोढा‌ की तरह संकुचित हो जाती है। फिर अपने पाट में आ सिमटती है। एक नई प्रेयसी की तरह-संकुचित, उत्फुल्ल और आमंत्रणोत्सुक। नदी चिर यौवना है। उसका यौवन और उसका प्रेम या तो मातृत्व में फलीभूत होता है या मुक्ति में। राम ने सरयू की गोद में जन्म लिया, उससे प्रेम किया और उसी की धार में समाहित हो गए। वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परात्पर ब्रह्म के सगुण-साकार रूप। उनके लिए यह मार्ग सरल था। हम उनके अंश हैं, माया के वशीभूत। कीर-मर्कट की तरह अपने-अपने पिंजरे और अपनी-अपनी रस्सी में बँधे हुए। हमें अपनी इस नीयति से अधिक लगाव है। इस छान-पगहे का अधिक आकर्षण है। हम उसी में बँधकर डोलते रहना चाहते हैं, अपने खूँटे के ईर्द-गिर्द बित्ते-चार बित्ते की परिधि में अपनी मुक्ति का जश्न मनाते हुए। हम स्वतंत्र हैं, हम मुक्त हैं, हम आधुनिक हैं। राम और सीता जैसे महाकाव्य-युग के पुराने घिसे-पिटे रूपकों से अधिक मानवीय और अधिक सहज। हम उनसे और उन्हें ईश्वर मानकर पूजने वालों से अधिक बुद्धि-विवेक-सम्पन हैं, अधिक वैज्ञानिक और तार्किक हैं। हम पुरानी रूढियों को नहीं मानते। हम उनके समूल उच्छेद के विश्वासी और मानव के जीवन की सहजता के आग्रही हैं। हमारी सहजता का प्रतिमान वही है जो पुराने किसी संस्कारी मन के लिए उद्दाम है, उच्छृंखल है या अनियंत्रित है। हमारे लिए प्रेम में डूब जाना उसमें मुक्ति पा लेना, स्वयं को विस्मृत कर प्रेम की धार में विलीन हो जाना असहज है, अमानवीय है, आत्महत्या है, या फिर हद से हद अस्तित्व का विलयन अथवा चरम क्षण की अनुभूति माध्यम।
       हमें तंवंगी गंगा ग्रीष्म-विरल और वरुणा की शांत कछार से प्रेम करने वाली दृष्टि नहीं चाहिए, जिसमें दृष्टि-अभिसार का आनंद है, हमें चाहिए रमण-तृषा को तृप्त करनेवाला सुख। उसे भोगने, बांधने और कैद कर लेने का सुख। नदी को कामधेनु मानकर उसे अंतिम बूंद तक निचोड़ डालने से मिलने वाला सुख। हमें प्रेम में डूबने और उसे जीने की फुरसत नहीं, हमें रोज डे’, प्रोपोज डे चाकलेट डे टैडी डे के साप्ताहिक सेलिब्रेशन के पैटर्न वाला प्रोजेक्टेड प्रेम चाहिए, जिसमें सब पूर्व-नियोजित और पूर्व-नियत हो। हमें आनंद नहीं सुख चाहिए, अपनी ऐंद्रिक एषणा की तृप्ति चाहिए, अपने अहं की तुष्टि चाहिए। सुख की अनुभूति नहीं उसका भोग चाहिए। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः का जाप करने वाले हमारे पुरनिया गँवार थे, यम-संयम, त्याग-विराग सब ढकोसले थे, उनके पीछे का सच था सुख को, भोग को, सम्पत्ति और संसाधन को मुट्ठी भर हाथों में संकुचित का देना। उसे मानना अंध-विश्वास है, रूढ़ि और धार्मिकता है, ये सब हमें अस्वीकार है। हम सहजता के पोषक हैं। हमारे जीवन की कुँजी है, डार्विन का विकासवाद—श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता। मनुष्य श्रेष्ठ है— सृष्टि के विकास की सबसे उन्नत परिणति। पुरानी आस्तिक शब्दावाली में कहें तो ईश्वर की सुंदरतम रचना — सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम। इसलिए प्रकृति उसके लिए संभावनाएँ प्रस्तुत करती है और मनुष्य उसका दोहन करता है। हम जीन ब्रूंज और डिमांजिया की मानस संतानें दोहन या उपभोग की शैली में सोचने की अभ्यस्त हैं। त्याग और संयम जैसे पुरानी थाती केवल झाँपी या मोन्हीं जैसे पुराने संग्रह-पात्रों में ताला बंद करके रख देने के लिए हैं। अगर गलती से ताला खुल जाए, तो उसे लोगों की नजर पडने से बचा लेने में ही भलाई है। लालच अच्छी चीज है के जमाने में त्याग-संयम ! छीः ! इतना अनाचार ! इतना विरस आयोजन !
       प्रेम की इस दोहन शैली की परिणति हैं, नदी-घाटी योजनाएँ, जिनके आरंभ से अंत तक की सारी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी होती है। यह बात अलग है कि इस प्रेम-प्रोजेक्ट का फिल्मांकन कई बार मध्यांतर में ही फ्लाप हो जाता है और कई बार यह इतना लंबा खिच जाता है कि खलनायक के बजाय नायक की ही मृत्यु हो जाय। फलागम तो अनिवर्यतः नायिका (नदी) को न होकर निर्माता-निर्देशक और कैमरामैन को ही होता है। बाकी रही गीत-संगीत की बात तो प्रोजेक्ट एरिया के विस्थापित लोगों की त्राहि का रम्य-दारुण स्वर इसकी कमी भी पूरी कर देता है। दर्शक को क्या ? फिल्म में एक बीड़ी जलइले छाप आइटम सांग पर ठुमका दिखा दो वाह-वाह कर उठेगा; टिहरी और हरसूद उसी पर न्योछावर कर देगा। रही बात हिट होने की तो मल्टीप्लेक्स के जमाने में सब चलता है। अगर फिल्म में थोड़ा हारर, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा मसाला हो और कहानी में प्रेम सिरे से गायब हो तो भी कमाई पक्की है। मामला प्रेम का नहीं उसके प्रचार और प्रदर्शन का है। वह अनुभूति से नहीं फेसियल एक्सप्रेशन और स्माइल के ईंच-सेंटीमीटर से तय होता है।
हम एक उत्तर-आधुनिक समय में जी रहे हैं। हमें समग्रता नहीं विखण्डन चाहिए। अनुभूति नहीं उत्तेजना चाहिए। अब हम चिंतन और विचार नहीं मूड से परिचलित होते हैं। हमारे पुरनिये जिस विचार और चिन्तन की दुहाई देते नहीं अघाते थे, उसकी हमें कोई दरकार नहीं। हम कबका उनका गला गोंट चुके हैं। हम कबसे अपनी दोनों भुजाएँ हवा में लहराते हुए, विचारों के अंत, ज्ञानानुशासनों के अंत और इतिहास के अंत की घोषणाएँ कर रहे हैं, यहाँ तक कि मनुष्य के अंत की भी। ईश्वर के अंत की घोषणा तो हमारे पूर्व-पुरुष ही कर गए थे। फिर प्रकृति ? उसकी तो मृत्यु अनिवार्य ही है। हमें ईश्वर-प्रकृति-मनुष्य नहीं, माइंड-मसल्स-मनी का त्रिक चाहिए। वासना, तृषा तथा बुभुक्षा और शांति, करुणा एवं मैत्री सब हमारे लिए समान हैं। प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, त्याग-भोग, यश-अपयश इनमें कोई फर्क नहीं। सब–के-सब पाठ हैं। इनको अलग-अलग रखकर सही-गलत और नीति-अनीति के तराजू पर तौलना हमारा कर्म नहीं। हम तो एक ऐसे जादुई यथार्थ में जी रहे हैं, जहाँ कहीं-भी और कभी-भी कुछ-भी घटित हो सकता है। हम बस इन सबके तटस्थ साक्षी हैं या अप्रत्याशित भोक्ता।  हमारे हाथ में कुछ भी नहीं, सब नियति-चालित है।
और, प्रेम? वह तो ठहरा पुराना वैष्णव‌‌, खाँटी अहिंसक, समर्पणोन्मुख, पोर-पोर में रस से सराबोर— एकदम नदी की तरह सरस और पवित्र। लेकिन हमें क्या? होगा पवित्र। होगा सरस। होगा समर्पित। हमें प्रेम का रस नहीं चाहिए। उसकी वैष्णवता नहीं चाहिए। पुराना वैष्णव भावापन्ना प्रेम तो बूढ़ा और निठल्ला हो चुका है, अपनी लकुटी और कामरिया तक सिमटा हुआ। उसका सारा साम्राज्य मंदिर के चौखटे से गंगा के घाट तक सिमटा है। उसके बाहर की दुनिया उसके लिए प्रपंच है, माया है, काम है, पाप है। हम पाप-पुण्य के उन पुराने प्रतिमानों को नहीं मानते। हमारा प्रेम उसे अतिक्रांत करता है। हमें किसी मंदिर के चौखटे या गंगा की घाट पर बैठ प्रेम के पद नहीं गाना। उसका गंडा उसे ही मुबारक— हमें उसकी चेलहाई नहीं करनी। यह घोर आर्थिक युग और वह भिक्षाजीवी जीवन ना-बाबा-ना। हमें राम-धुन नहीं, दाम-धुन चाहिए। अर्थ, धर्म काम और मोक्ष के चार सोपान नहीं, बस दो चाहिएअर्थ और काम। वह भी पूर्वापर या युग्म में नहीं, अपने द्वंद्वात्मक रूप में।
हमें वैष्ण्वता नहीं, उसका वेष चाहिए। उसका वस्त्र चाहिए। उसकी रामनामी, चंदन, कंठी और खंजड़ी चाहिए। केवल आवरण, देह और रूप भी नहीं, आत्मा की कौन चलाए। वह तो कब का आउट-डेटेड हो गया। हमारा फलसफा है—जो दिखता है वो बिकता है। मन और आत्मा न दिखते हैं और न बिकते हैं। बिकते हैं वस्त्र, आवरण, आड‌ंबर। हमें वही चाहिए। वही हमारी जरूरत है। हमारे समय की जरूरत है। हमें समर्पण नहीं चाहिए, हमें चाहिए मल्टी-पर्पज प्रेम। इसे हम जब चाहें ओढ़-बिछा सकें और जब चाहें तह करके काँख में दबा लें— सुदामा की तरह संकोच में नहीं, सुविधा में। हमें चाहिए मल्टी डाइमेंशनल प्रेम, जिसे जब चाहें जिस ओर चाहें मोड़ सकें। हमें प्रेम नहीं उसकी योजनाएँ चाहिए। मल्टी-डाइमेंशनल और मल्टी-परपज योजनाएँ। इंच और सेंटीमीटर में नपी-तुली योजनाएँ। सारा अबाड़-कबाड़ बटोर एक बड़ा सा पुतला खड़ा कर देने वाली, बालू, गिट्टी, ईंट, सीमेंट पर टिकी बड़े-बड़े स्मारकों की योजनाएँ। यही हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, सम्मूर्तन हैं या सही शब्दों में कहें तो प्रेम का प्रदर्शन है। हमारे लिए प्रेम नहीं, उसके स्मारकों की कीमत है जो उसकी लागत से तय होती है या फिर उपयोगिता से।
हमने नदी को अपने इसी प्रेम-पाश में बाँध लिया है। वह प्रेयसी नहीं, हमारी बंधक है— हमारे अनुरंजन का, भोग का और तृप्ति का साधन मात्र। हम उसे भोग रहे हैं, उससे अनुरंजित हो रहे हैं और तृप्त होने के बजाय अपनी वासना को और अधिक उत्तेजित कर रहे हैं। उसकी आत्मा की मसान पर अपनी ऐषणा की धुनी रमाए फुत्कार रहे है—‘ये दिल माँगे मोर। हमारे इस मोर का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। हम उसके शव में भी अपनी सिद्धि देख रहे हैं। वह हमारे लिए द्रौपदी का अक्षय-पात्र है, और हम परीक्षा लेने के लिए दुर्वासा बन उसके सामने आ डटे हैं। विडम्बना यह कि द्रौपदी के सामने उनके सखा कृष्ण का सहारा था, लेकिन नदी? वह निरुपाय है। उसका सहस्राब्दियों का सहचर, उसका प्रिय मनुष्य स्वयं दुर्वासा बनकर सामने आ खड़ा है। अपने भोग के लिए उसके सारे वजूद को मिटा डालना चाहता है। उसके बालू, उसके पत्थर, उसकी सीपी, उसके जीव, उसकी गति-तरंग, उसका पाट— सब-कुछ। बूँद-बूँद, कण-कण, ईंच-ईंच।




नदी केवल धरती के भूगोल में बहने वाली नदी नहीं है। वह जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। वह अंतःसलिला है। हमारे भीतर निरंतर बह रही है। अनेक-अनेक सहस्राब्दियों से अनेक नाम, अनेक रूप नदी। अपनी सहस्र-सहस्र भुजाओं वाली नदी। हिम की तरह शीतल और खौलते हुए जल की तरह उष्ण जल वाली नदी। समुद्र जैसे खारे और दूध की तरह सुस्वादु जल वाली नदी। सिंधु-ब्रह्मपुत्र की तरह विशाल और वरुणा-असी की तरह मृत-प्राय नदी। यमुना और काली की तरह गँदली और भागीरथी-अलकनंदा की तरह झिर-झिर निर्मल नदी। कर्मनाशा की जैसी अभिशिप्त और नर्मदा की तरह पुण्यशीला नदी। इन नदियों के कोई घाट, कोई तटबंध, कोई प्रवाह क्षेत्र, कोई विभाजक रेखा नहीं है। यहाँ सब घुला-मिला, सब सहज और सब एक दूसरे में डूबा हुआ है। सब समरस, सब समशील, सब अविभाजित, सब अखण्ड, सब आनंदमय, जिह्वा संवेद्य षड्-रस से परे, अद्भुत और अपूर्व।
नहीं, मैं धर्म, आध्यात्म या दर्शन की बात नहीं कर रहा। मैं कर रहा हूँ, संवेदना की बात। उस संवेदना की, जो धर्म, आध्यत्म, दर्शन ही नहीं, बल्कि विज्ञान की परिधि से भी परे है। यह मनुष्य और मनुष्य ही नहीं, बल्कि समूची सृष्टि को परस्पर जोड़ती है; स्व और पर के बने बनाए पैमाने से परे। इसमें कहीं कोई गाँठ, कहीं कोई दरार या कहीं कोई जोड़ नहीं है। यह सहज-संश्लिष्ट और सहज-संपृक्त है। यह सहजता ही इसकी आत्मा, इसका प्राण, इसकी जीवनी-शक्ति है। यह एक सरस प्रवाह की तरह निरंतर हमारे बीच प्रवहणशील है। हमारे विचारों और अनुभूतियों की डाक एक दूसरे को बाँट रही है, पावती और प्रत्युत्तर ले रही है और फिर उसे भेजने वाले तक पहुँचा रही है; अविराम और अविलम्ब। यह क्रम, यह यात्रा, यह प्रवाह अनादि है। इसमें एक अद्भुत लय है, एक अनूठा सौंदर्य और एक अपूर्व मिठास है। एक  ऐसी  मिठास  जिसे  एक पुराने कवि ने  गूँगे के गुड़ जैसा कहा है‌‌-- अबिगत गति कछु कहत ना आवे, ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे। यह बात जब सूरदास जैसा रससिद्ध पुरनिया कह रहा है, तो हम नवछिटुवों की क्या विसात कि उसे नकार दें। हमारे पास विज्ञान है, यंत्र है, तकनीक है, तर्क-शक्ति और विवेकशीलता है, लेकिन ये सब इस रस के आस्वाद में सर्वथा असमर्थ हैं। इसे ना कोई विकासवाद परिभाषित कर सकता है, न संभावाना और नव-संभावनावाद। न तर्क और न विज्ञान। पुराने भारतीय चिंतन में यही आत्माहैपरमात्मा का अंश, छाया या प्रतिरूप, जो हममें, तुममें खडग-खंभ मेंसब में व्याप्त है।
   आत्मीय’, ‘आत्मीयता’, ‘आत्माभियक्तितो ले   को तो हमने सहज स्वीकर कर लिया, परन्तु आत्माऔर परमात्माको अपने शब्द-कोश तथा अपनी चिंतन-धारा से परे धकेल दिया। जब आत्मा है ही नहीं, तो आत्मका क्या वजूद ? हम इसे समझने में असमर्थ रहे। इस असमर्थता का परिणाम यह हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और नदी के बीच या मनुष्य और इस सचराचर जगत के बीच जो प्रवाहमाण रस था, जो आत्मीयता थी जो संवाद और संवेदना थी, हम उसका सिरा ही छोड़ बैठे सिया-राममय सब जग जानी कहने वाला कवि हमें पुनरुत्थानवादी या यथा-स्थितिवादी और ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत का उद्घोष करने वाला ऋषि रूढ़िवादी नजर आने लगा। परिणामतः प्रकृति और मनुष्य के बीच का स्वरस्य विच्छिन्न हो गया। हमने प्रकृति को अपने महाभोज का व्यंजन मान लिया और हम उसका छक कर भोग कर रहे हैं। पाँत में भाई बंद के साथ बैठकर सहभोज वाले अंदाज में नहीं, अकेले-अकेले सबकुछ गटक कर जाने वाले अंदाज में झपटते हुए। नई शब्दावली में कहें तो वह हमारा उपभोज्य है और हम उसके उपभोक्ता।
       हम बाहर की नदीयों को जोड़ना चाहते हैं। मृत हो चुकी नदियों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। एक नदी का जल दूसरे में स्थानांतरित करना चाहते हैं। लेकिन हमारे भीतर की नदी छीज रही है, सूख रही है, विभाजित हो रही है। हमें उसकी चिंता नहीं। हाथों में लहराती तख्तियाँ, उठी हुई बाहों के साथ उछलते नारों और दंगों की चोट से टूटते अखंड कगारों की चिंता हमें नहीं। स्वाद, रंग, घाट की होड़ में बिखरती समन्विति की चिंता हमें नहीं। हम अपने भीतर के देवत्व को फाँसी देकर मंदिरों, मठों, गिरजाघरों में उसकी मूर्तियाँ सजाना चाहते हैं। उसकी लाश पर मस्जिदों की ऊँची मीनारें और भव्य मजारें बनाना चाहते हैं। भीतर के रस के अखंड और शाश्वत प्रवाह को नष्ट कर जगह-जगह कृत्रिम फब्बारे लगाना चाहते हैं। हमरे भीतर की नदी छीज रही है। हमारे भीतर का रस सूख रहा है। हमारे भीतर का देवत्व बधिक के गँडासे के सामने उकुडूँ बैठा है, पर हमारे लिए वह देवता नहीं देवी का निर्माल्य है या कुर्बानी का बकरा। हम जोर-जोर से हर-हर महादेव’, अल्ला हु अकबर और सत श्री अकाल के नारे लगा रहे हैं। हमारे स्वरों के बीच की समरसता विलुप्त हो चुकी है। हमारे भीतर की अंतःसलिला में अलग-अलग रंग और अलग-अलग स्वाद वाली सदानीरा नदियाँ अब आपस में डूबकर अपूर्व रंग और अद्भुत स्वाद की सृष्टि नहीं करतीं, बल्कि अपने-अपने तटों में सिमट कर चल रही हैं। कोई भागीरथी, कोई अलकनंदा, कोई नर्मदा, कोई गंगा, कोई ब्रह्मपुत्र नहीं, हमारे भीतर बहने वाली हर धारा या तो मल-वाहिनी असी है या पुण्य-क्षीणा कर्मनासा। यह हमारे भीतर के मल को ढो रही है। हमारी यांत्रिकता, लिप्सा और स्वार्थपरता के सारे अपशिष्ट इसमें घुल रहे हैं। यह दिन-ब-दिन विषाक्त होती जा रही है। हमारे लोभ, मद, मोह, तृषा, भोग, वासना, एषणा, हिंसा, व्यभिचार, पापाचार, के भार ने इसे बोझिल बना दिया है। यह झिर-झिर, निर्मल परदर्शी नहीं, हमारे भीतर की कुँठाओं के रंग में रंगी है। यह कठौती वाली गंगा है। इसके घाट पर बैठा कोई तुलसीदास अब यह दावा नहीं कर सकता कि सुरसरि सम सबकर हित होई
       मेरा आदिम मन फिर भी नहीं मानता। उसके भीतर बैठा नदी-प्रेम अब-भी जब-तब हुलस उठता है। अब-भी किसी नदी की कछार पर पहुँचते ही उसके प्रेम का कोई-कोई गीत कंठ से फूट ही जाता है। यह कंठ भले मेरा अपना हो, पर बोल मेरे मन के भीतर बैठे उस आदिम मनुष्य के ही होते हैं, जो अपनी छोटी डोंगी में सदियों से निरंतर उस नदी की लहरों पर झिझिरी खेल रहा है। वह नदी से प्रेम करता है, उसे पूजता है, उसे मातृ-रूप मानता है और इसलिए नदी अब तक उसके लिए संसाधन नहीं बन पाई, वह उसका उपभोग नहीं कर पया। सूख चुकी नदी के ऊँचे कगार पर बैठा वह अब भी गा रहा है। उसे उम्मीद है कि नदी नहीं मरती। वह देवी-स्वरूपा है और देवता अमृत हैं। वह फिर जी उठेगी। अपनी अदम्य जिजीविषा से कोई एक सोता धरती के इस कठोर कवच को तोड़ कर बह चलेगा। अचानक कोई पाताल-गंगा फूट पडेगी, जिसकी धारा में भींग कर यह सारा विरस आयोजन सरस हो जाएगा, जिसमें डूबकर असी और कर्मनासा भी स्वच्छ, प्रशस्त और पवित्र हो जाएगी। तब वह अपनी डोंगी पर पाल डाल हर नगर, हर गाँव, हर घाट-अघाट, अपना गीत, अपना रस, अपना राग बाँट आएगा। 

शनिवार, 28 नवंबर 2015

कबीर

 कबीर हिन्दी के पहले जातीय कवि थे। उनकी कविताई की भाषा में लगभग उन सभी बोलियों के शब्द खोजे जा सकते हैं जो हिन्दी का लोक-वृत्त निर्मित करती हैं। यह कहना असंगत होगा कि हिन्दी समूचे भारत की भाषा है लेकिन इस तथ्य में भी कोई सन्देह नहीं कि यह बहुसंख्यक भारतीयों की भाषा है और इसलिए भारत के एक बड़े
जन समुदाय के आत्माभिव्यति का माध्यम भी। यह जितना सही आज है लगभग उतना ही सही कबीर के जमाने में भी था। इसलिए कबीर भारत के उन तमाम लोकप्रिय कवियों में शुमार किये जा सकते हैं, जिनका भारतीय चित्त और मानस की निर्मिति में बड़ा योगदान रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आज कबीर केवल कबीरपंथियों और सिक्खों (गुरुग्रंथ साहेब में संकलित अंशों के कारण) में ही लोकप्रिय नहीं बल्कि आम भारतीय लोकमानस में बहुत में भी बहुत गहराई से बैठे हैं। पिछले दिनों जब अपने गांव की दलित बस्तियों में ‘चमरुआ’ और ‘कहरुआ’ लोकगीतों के संकलन का प्रयास किया तो यह पाया कि ये ज्यादा तर कबीर के पदों के ही या तो नए लोक-प्रचलित रूप हैं या उसी की तर्ज पर रचे गए निर्गुण और उलटबांसियां। और तब मैंने यह महसूस किया कि कबीर हिन्दी निर्गुं संत-परंपरा के न तो पहले कवि थे न प्रवर्तक, बल्कि यह एक किसी पुरानी चली आती हुई परंपरा के ही चरम विकास थे, जो निची समझी जने वाली जातियों के लोक-कवियों द्वारा विकसित हुई थी। यह मान लेने पर कबीर की उलटबांसियों को चार्यापद या गोरख की परंपरा से जोडने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि इससे यह भान होता है कि इन सभी का स्रोत एक ही है और वह है, नीची कही जाने वाली अछूत और कामगार जातियों की लोक परंपरा। अन्यथा केवल एक कवि के कारण यह इतनी लोकप्रिय नहीं हो सकती थीं। उलटबांसियों और निर्गुण साहित्य का स्रोत श्रमिक, अपवंचित और अन्त्यज वर्ग ही है इस मान्यता का एक प्रमाण यह भी है कि इनमें न केवल अटपटापन है बल्कि विषाद की एक गहरी रेखा भी है जो संसार की असारता के रूप में बार-बार व्यक्त हुई है। जो समाज निरन्तर प्रताणित और उपेक्षित रहेगा और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद जीवन की जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहेगा उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ? क्या बधावा और क्या शोक-वाद्य ?उसे ये दोनों ही स्थितियां समान ही नज़र आयेंगी— “जिहि घर जिता बडावणा तिहिघर तिता अदोह।”