रविवार, 29 मई 2016

फगुनहटा बयार



लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— ‘हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक, सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। बल्कि इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग ’। 

 फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है। इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे बार-बार ’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।

 फागुन के बयार की भी अद्भुत माया है। यह सारे परिवेश में एक अजीब नशा भर देती है। लगता है, सारा प्रकृति भाँग के नशे में झूम रही है। नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय, उचित अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। यहाँ हर कोई अपनी धुन में है और बिना ढोलक, झाल और हारमोनियम के ही, फाग गा रहा है। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। बूढ़ी पाकड़ ने भी अपनी चूनर निकाल ली है। फागुन में बूढ़ा भी जब देवर लग सकता है, तो बिचारी पाकड़ का क्या अपराध? बाग के कोने में चुप-चाप खड़ी रहने वाली सनातन उपेक्षित पाकड़ भी तो किसी की भाभी लग सकती है। बूढ़ा बरगद लाल-लाल बियहुती पगड़ी पहनकर इतरा रहा है तो वह क्यों न साज-शृंगार करे? वह भला क्यों बिना सिंगार-पटार के अपने बुढ़ापे का दुःख मनाए ? लेकिन ‘यह मुआ पीपल है कि मानता नहीं। कभी हाथ मटका-मटका कर मुझे चिढ़ा रहा है तो कभी बरगद की ओर इशारा करके ठहाका लगा रहा है। लुच्चा कहीं का, थोड़ा सज-सँवर क्या गई, लगा बुढ़ऊ से चुगली करने। देखेंगे बच्चू जब अपनी आएगी... तो कितना ढाँप के रखोगे’। पाकड़ की यह बात सुन पीपल और जोर से खिल-खिला उठता है। उसकी इस खिल-खिलाहट की खनक पूरे परिवेश को खन-खना देती है। युवा पीपल और बूढ़ी पाकड़ के इस हास-परिहास में बरगद को भी रस आ रहा है। वह ठहाका लगाकर हँसता भले न हो, पर उसके शरीर (पत्तों) की झुर-झुरी उसकी उत्त्फुल्लता की सूचना देता रही है। वह बूढ़े सौम्य गृहस्थ की तरह धीरे से मुस्कुराकर रह जाता है। पर उसकी आँख की कोर अपनी ओर घूमी देख कर पाकड़ और लला जाती है।

 रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा), ............ सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा, ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं। प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं ‘अतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु’। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ? दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।

सोमवार, 23 मई 2016

गर्मियों के दिन


गर्मियों के दिन । छुट्टियों का समय । मई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में स्कूल और कालेज बंद । घर जाने की उत्सुकता । एक आकर्षण बाबा और दादी की खुशी से चमकती आँखों का । गर्मियों की छुट्टियों के बाद घर से वापस लौटते समय आशीर्वाद में उठे हाथ और भाव-विह्वल आँखों की स्मृतियाँ । ये बचपन के दिन थे । गर्मियों के दिन । आज वे दिन हमें उमस,तपन और चिपचिपपन से भरे लगते है, लेकिन तब ऐसा नहीं था । वे दिन हमारी आजादी के दिन होते थे । किताबों से आजादी के दिन, बड़ों से पढ़ाई लिखाई के लिए डांट-डपट से आजादी के दिन । बाबा-दादी के प्यार - दुलार और अपनत्व के दिन। बाग़-बगीचे से लेकर पोखर-तालाब तक भटकने के दिन । पर ये दिन बहुत छोटे होते थे । पता ही नहीं चलता, कब आए और कब चले गए । हमें फिर वापस उन सबसे दूर आना पड़ता । एक छोटे से कस्बाई जीवन में । यहां गाँव की तरह मिट्टी और खपरैल के छोटे कमरे नहीं होते थे न ही बिजली का अभाव । हाँ तब कूलर तो यहां भी नहीं था । लेकिन इन डोलते हुए पंखों और खुले बड़े कमरों में वह शीतलता कभी नहीं मिली जो गर्मियों की दोपहर में दादी के आँचल में छुपकर सोने में मिलाती थी । अक्सर हमें सुलाते-सुलाते दादी भी सो जाती, कभी-कभी उसका फायदा उठाकर हम धीरे से निकल पड़ते बाग़-बगीचे की ओर । पर ऐसा होता कम ही था दादी की नींद बहुत कच्ची थी। अक्सर हम चोरी से सरकते हुए पकड़ लिए जाते । पर मुझे याद नहीं कि कभी उसके लिए मैंने दादी की डाँट खाई हो। वे हमेशा पुचकार कर मना लेतीं । उनके अस्थि-शेष हाथों में इतना दुलार और उनके झुर्रियों से भरे चहरे में इतना स्नेह था कि हम उसके बंधन को कभी अस्वीकार न कर सके । मुझे याद है घर में जब भी कोई डांटता या मारने को दौड़ाता मैंने हमेशा दादी की शरण ली । उनका आँचल हमारा अमोघ कवच था । अब भी जबकि उस आँचल को हमारे सिर से उठे एक अरसा बीत गया,गर्मियों की इस लू और तपन में मुझे वह आँचल बहुत याद आता है ।


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

नदी और मनुष्य





























नदी और मनुष्य के बीच अत्यंत पुराना और गहरा रिश्ता है। विश्व की लगभग सभी पुरानी सभ्यताएँ
; चाहे वह सिंधु‌‌-घाटी सभ्यता हो या नील नदी की सभ्यता अथवा मेसोपोटामिया की, इस रिश्ते की साक्षी हैं। नदी मनुष्य की जरूरतों के लिए जल और उसके परिवहन की माध्यम भर नहीं हैं, बल्कि सहस्राब्दियों के इस साहचर्य ने दोनों में रागात्मक संबंध विकसित कर दिया है। कहीं वह माँ है, तो कहीं प्रेयसी और कहीं देवी या ईश्वरीय शक्ति— जीवन में प्रेम, रस और आध्यात्म की प्रतीक। नदी माँ है, अपने आँचल में रस का अक्षय भंडार संचित किये हमारी धरती, हमारी क्षुधा और हमारी संस्कृति को अपने प्राण-रस से तृप्त कर उसे पुष्ट करने वाली माँ। वह अन्नदा है। वह पुष्टिदा है। वह सरस है। आनंदमयी है। शाम की गोधुली में घर लौटती रँभाती गायों को सिकम-भर (जी-भर) जल पिलाकर तृप्त कर देने वाली नदी, उनमें दूध का अमृत-स्रोत भर देने वाली नदी, धरती को सींच कर हरी-भरी कर देने वाली नदी माँ नहीं मातामही है। मातृ-रूपा धरती और गो दोनों का पोषण करने वाली दोनों को सरस करने वाली मातामही।



नदी वाक् है, यह सत् से असत्, तमस से ज्योति और अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाले मार्ग का निर्देश करती है। नदी काव्य है, इसमें रामायण का-सा औदात्य और महाभारत का-सा विस्तर है। नदी रसवंती है, इसमें सहस्र-सहस्र महाकाव्यों का रस है। नदी कला है, इसके कटान, ढलान, उतार-चढाव, और उनसे निर्मित आकृतियों ने मनुष्य की आदिम कला को प्रेरणा दी— उसकी कल्पना को आधार दिया। नदी गीत है, नदी लय है, नदी नाद है। नदी गति, यति और आरोह-अवरोह है। नदी सृजन-धर्मिणी है। वह स्वयं सिसृक्षा की कारयित्री शक्ति है और उसकी अभिव्यक्ति भी। हर पल, हर घड़ी, हर प्रहर, हर दिन, हर मास, हर वर्ष कुछ-न-कुछ सिरजती रहती है, नदी। कभी पत्थर की चट्टानों से कोई अपूर्व आकृति, तो कभी कगारों का बांकपन और कहीं धाराओं की सहस्र-सहस्र लटों से ढका धरती का मनोरम मुख। इसके विस्तृत पाट पर नौका विहार करते हुए, हमने अपनी कला के तमाम रूपक रचे। इसकी कल-कल ध्वनि में हमने संगीत की पहली धुन सुनी। इसके तरंगो से हमें अपने हृदय की तरंगो को शब्द-बद्ध कर काव्य में ढालने की प्रेरणा मिली। इसके झिल-मिल जल में हमने रंगों की पहचान की और अपनी कल्पना की आकृतियों में उन्हें भरने की कला सीखी। नदी कल्पदा है। नदी काम-रूपा है। कला, विद्या, काव्य और संगीत सभी का आदि स्रोत है — सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणिं
       नदी प्रेयसी है। उसमें अथाह रस है। अनिवार्य आमंत्रण है, उसमें उतर जाने, खो जाने, स्वयं को विलीन कर लेने का आमंत्रण । वह स्पर्शाकुल और वाचाल प्रेयसी नहीं है, वह धीरा है, प्रशांत है, कल-कल की मधुर-ध्वनि करने वाली मृदुभाषिणी है। उसमें तरंग है, आवेग है, बढ़ियाती है, तो दूर-दूर तक विस्तृत हो जाती है और फिर अपनी उर्वरता अपनी मातृका रूप का अवशेष नवीन जलोढ-मिट्टी (मृतिका) छोड़ पुनः नवोढा‌ की तरह संकुचित हो जाती है। फिर अपने पाट में आ सिमटती है। एक नई प्रेयसी की तरह-संकुचित, उत्फुल्ल और आमंत्रणोत्सुक। नदी चिर यौवना है। उसका यौवन और उसका प्रेम या तो मातृत्व में फलीभूत होता है या मुक्ति में। राम ने सरयू की गोद में जन्म लिया, उससे प्रेम किया और उसी की धार में समाहित हो गए। वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परात्पर ब्रह्म के सगुण-साकार रूप। उनके लिए यह मार्ग सरल था। हम उनके अंश हैं, माया के वशीभूत। कीर-मर्कट की तरह अपने-अपने पिंजरे और अपनी-अपनी रस्सी में बँधे हुए। हमें अपनी इस नीयति से अधिक लगाव है। इस छान-पगहे का अधिक आकर्षण है। हम उसी में बँधकर डोलते रहना चाहते हैं, अपने खूँटे के ईर्द-गिर्द बित्ते-चार बित्ते की परिधि में अपनी मुक्ति का जश्न मनाते हुए। हम स्वतंत्र हैं, हम मुक्त हैं, हम आधुनिक हैं। राम और सीता जैसे महाकाव्य-युग के पुराने घिसे-पिटे रूपकों से अधिक मानवीय और अधिक सहज। हम उनसे और उन्हें ईश्वर मानकर पूजने वालों से अधिक बुद्धि-विवेक-सम्पन हैं, अधिक वैज्ञानिक और तार्किक हैं। हम पुरानी रूढियों को नहीं मानते। हम उनके समूल उच्छेद के विश्वासी और मानव के जीवन की सहजता के आग्रही हैं। हमारी सहजता का प्रतिमान वही है जो पुराने किसी संस्कारी मन के लिए उद्दाम है, उच्छृंखल है या अनियंत्रित है। हमारे लिए प्रेम में डूब जाना उसमें मुक्ति पा लेना, स्वयं को विस्मृत कर प्रेम की धार में विलीन हो जाना असहज है, अमानवीय है, आत्महत्या है, या फिर हद से हद अस्तित्व का विलयन अथवा चरम क्षण की अनुभूति माध्यम।
       हमें तंवंगी गंगा ग्रीष्म-विरल और वरुणा की शांत कछार से प्रेम करने वाली दृष्टि नहीं चाहिए, जिसमें दृष्टि-अभिसार का आनंद है, हमें चाहिए रमण-तृषा को तृप्त करनेवाला सुख। उसे भोगने, बांधने और कैद कर लेने का सुख। नदी को कामधेनु मानकर उसे अंतिम बूंद तक निचोड़ डालने से मिलने वाला सुख। हमें प्रेम में डूबने और उसे जीने की फुरसत नहीं, हमें रोज डे’, प्रोपोज डे चाकलेट डे टैडी डे के साप्ताहिक सेलिब्रेशन के पैटर्न वाला प्रोजेक्टेड प्रेम चाहिए, जिसमें सब पूर्व-नियोजित और पूर्व-नियत हो। हमें आनंद नहीं सुख चाहिए, अपनी ऐंद्रिक एषणा की तृप्ति चाहिए, अपने अहं की तुष्टि चाहिए। सुख की अनुभूति नहीं उसका भोग चाहिए। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः का जाप करने वाले हमारे पुरनिया गँवार थे, यम-संयम, त्याग-विराग सब ढकोसले थे, उनके पीछे का सच था सुख को, भोग को, सम्पत्ति और संसाधन को मुट्ठी भर हाथों में संकुचित का देना। उसे मानना अंध-विश्वास है, रूढ़ि और धार्मिकता है, ये सब हमें अस्वीकार है। हम सहजता के पोषक हैं। हमारे जीवन की कुँजी है, डार्विन का विकासवाद—श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता। मनुष्य श्रेष्ठ है— सृष्टि के विकास की सबसे उन्नत परिणति। पुरानी आस्तिक शब्दावाली में कहें तो ईश्वर की सुंदरतम रचना — सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम। इसलिए प्रकृति उसके लिए संभावनाएँ प्रस्तुत करती है और मनुष्य उसका दोहन करता है। हम जीन ब्रूंज और डिमांजिया की मानस संतानें दोहन या उपभोग की शैली में सोचने की अभ्यस्त हैं। त्याग और संयम जैसे पुरानी थाती केवल झाँपी या मोन्हीं जैसे पुराने संग्रह-पात्रों में ताला बंद करके रख देने के लिए हैं। अगर गलती से ताला खुल जाए, तो उसे लोगों की नजर पडने से बचा लेने में ही भलाई है। लालच अच्छी चीज है के जमाने में त्याग-संयम ! छीः ! इतना अनाचार ! इतना विरस आयोजन !
       प्रेम की इस दोहन शैली की परिणति हैं, नदी-घाटी योजनाएँ, जिनके आरंभ से अंत तक की सारी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी होती है। यह बात अलग है कि इस प्रेम-प्रोजेक्ट का फिल्मांकन कई बार मध्यांतर में ही फ्लाप हो जाता है और कई बार यह इतना लंबा खिच जाता है कि खलनायक के बजाय नायक की ही मृत्यु हो जाय। फलागम तो अनिवर्यतः नायिका (नदी) को न होकर निर्माता-निर्देशक और कैमरामैन को ही होता है। बाकी रही गीत-संगीत की बात तो प्रोजेक्ट एरिया के विस्थापित लोगों की त्राहि का रम्य-दारुण स्वर इसकी कमी भी पूरी कर देता है। दर्शक को क्या ? फिल्म में एक बीड़ी जलइले छाप आइटम सांग पर ठुमका दिखा दो वाह-वाह कर उठेगा; टिहरी और हरसूद उसी पर न्योछावर कर देगा। रही बात हिट होने की तो मल्टीप्लेक्स के जमाने में सब चलता है। अगर फिल्म में थोड़ा हारर, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा मसाला हो और कहानी में प्रेम सिरे से गायब हो तो भी कमाई पक्की है। मामला प्रेम का नहीं उसके प्रचार और प्रदर्शन का है। वह अनुभूति से नहीं फेसियल एक्सप्रेशन और स्माइल के ईंच-सेंटीमीटर से तय होता है।
हम एक उत्तर-आधुनिक समय में जी रहे हैं। हमें समग्रता नहीं विखण्डन चाहिए। अनुभूति नहीं उत्तेजना चाहिए। अब हम चिंतन और विचार नहीं मूड से परिचलित होते हैं। हमारे पुरनिये जिस विचार और चिन्तन की दुहाई देते नहीं अघाते थे, उसकी हमें कोई दरकार नहीं। हम कबका उनका गला गोंट चुके हैं। हम कबसे अपनी दोनों भुजाएँ हवा में लहराते हुए, विचारों के अंत, ज्ञानानुशासनों के अंत और इतिहास के अंत की घोषणाएँ कर रहे हैं, यहाँ तक कि मनुष्य के अंत की भी। ईश्वर के अंत की घोषणा तो हमारे पूर्व-पुरुष ही कर गए थे। फिर प्रकृति ? उसकी तो मृत्यु अनिवार्य ही है। हमें ईश्वर-प्रकृति-मनुष्य नहीं, माइंड-मसल्स-मनी का त्रिक चाहिए। वासना, तृषा तथा बुभुक्षा और शांति, करुणा एवं मैत्री सब हमारे लिए समान हैं। प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, त्याग-भोग, यश-अपयश इनमें कोई फर्क नहीं। सब–के-सब पाठ हैं। इनको अलग-अलग रखकर सही-गलत और नीति-अनीति के तराजू पर तौलना हमारा कर्म नहीं। हम तो एक ऐसे जादुई यथार्थ में जी रहे हैं, जहाँ कहीं-भी और कभी-भी कुछ-भी घटित हो सकता है। हम बस इन सबके तटस्थ साक्षी हैं या अप्रत्याशित भोक्ता।  हमारे हाथ में कुछ भी नहीं, सब नियति-चालित है।
और, प्रेम? वह तो ठहरा पुराना वैष्णव‌‌, खाँटी अहिंसक, समर्पणोन्मुख, पोर-पोर में रस से सराबोर— एकदम नदी की तरह सरस और पवित्र। लेकिन हमें क्या? होगा पवित्र। होगा सरस। होगा समर्पित। हमें प्रेम का रस नहीं चाहिए। उसकी वैष्णवता नहीं चाहिए। पुराना वैष्णव भावापन्ना प्रेम तो बूढ़ा और निठल्ला हो चुका है, अपनी लकुटी और कामरिया तक सिमटा हुआ। उसका सारा साम्राज्य मंदिर के चौखटे से गंगा के घाट तक सिमटा है। उसके बाहर की दुनिया उसके लिए प्रपंच है, माया है, काम है, पाप है। हम पाप-पुण्य के उन पुराने प्रतिमानों को नहीं मानते। हमारा प्रेम उसे अतिक्रांत करता है। हमें किसी मंदिर के चौखटे या गंगा की घाट पर बैठ प्रेम के पद नहीं गाना। उसका गंडा उसे ही मुबारक— हमें उसकी चेलहाई नहीं करनी। यह घोर आर्थिक युग और वह भिक्षाजीवी जीवन ना-बाबा-ना। हमें राम-धुन नहीं, दाम-धुन चाहिए। अर्थ, धर्म काम और मोक्ष के चार सोपान नहीं, बस दो चाहिएअर्थ और काम। वह भी पूर्वापर या युग्म में नहीं, अपने द्वंद्वात्मक रूप में।
हमें वैष्ण्वता नहीं, उसका वेष चाहिए। उसका वस्त्र चाहिए। उसकी रामनामी, चंदन, कंठी और खंजड़ी चाहिए। केवल आवरण, देह और रूप भी नहीं, आत्मा की कौन चलाए। वह तो कब का आउट-डेटेड हो गया। हमारा फलसफा है—जो दिखता है वो बिकता है। मन और आत्मा न दिखते हैं और न बिकते हैं। बिकते हैं वस्त्र, आवरण, आड‌ंबर। हमें वही चाहिए। वही हमारी जरूरत है। हमारे समय की जरूरत है। हमें समर्पण नहीं चाहिए, हमें चाहिए मल्टी-पर्पज प्रेम। इसे हम जब चाहें ओढ़-बिछा सकें और जब चाहें तह करके काँख में दबा लें— सुदामा की तरह संकोच में नहीं, सुविधा में। हमें चाहिए मल्टी डाइमेंशनल प्रेम, जिसे जब चाहें जिस ओर चाहें मोड़ सकें। हमें प्रेम नहीं उसकी योजनाएँ चाहिए। मल्टी-डाइमेंशनल और मल्टी-परपज योजनाएँ। इंच और सेंटीमीटर में नपी-तुली योजनाएँ। सारा अबाड़-कबाड़ बटोर एक बड़ा सा पुतला खड़ा कर देने वाली, बालू, गिट्टी, ईंट, सीमेंट पर टिकी बड़े-बड़े स्मारकों की योजनाएँ। यही हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, सम्मूर्तन हैं या सही शब्दों में कहें तो प्रेम का प्रदर्शन है। हमारे लिए प्रेम नहीं, उसके स्मारकों की कीमत है जो उसकी लागत से तय होती है या फिर उपयोगिता से।
हमने नदी को अपने इसी प्रेम-पाश में बाँध लिया है। वह प्रेयसी नहीं, हमारी बंधक है— हमारे अनुरंजन का, भोग का और तृप्ति का साधन मात्र। हम उसे भोग रहे हैं, उससे अनुरंजित हो रहे हैं और तृप्त होने के बजाय अपनी वासना को और अधिक उत्तेजित कर रहे हैं। उसकी आत्मा की मसान पर अपनी ऐषणा की धुनी रमाए फुत्कार रहे है—‘ये दिल माँगे मोर। हमारे इस मोर का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। हम उसके शव में भी अपनी सिद्धि देख रहे हैं। वह हमारे लिए द्रौपदी का अक्षय-पात्र है, और हम परीक्षा लेने के लिए दुर्वासा बन उसके सामने आ डटे हैं। विडम्बना यह कि द्रौपदी के सामने उनके सखा कृष्ण का सहारा था, लेकिन नदी? वह निरुपाय है। उसका सहस्राब्दियों का सहचर, उसका प्रिय मनुष्य स्वयं दुर्वासा बनकर सामने आ खड़ा है। अपने भोग के लिए उसके सारे वजूद को मिटा डालना चाहता है। उसके बालू, उसके पत्थर, उसकी सीपी, उसके जीव, उसकी गति-तरंग, उसका पाट— सब-कुछ। बूँद-बूँद, कण-कण, ईंच-ईंच।




नदी केवल धरती के भूगोल में बहने वाली नदी नहीं है। वह जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। वह अंतःसलिला है। हमारे भीतर निरंतर बह रही है। अनेक-अनेक सहस्राब्दियों से अनेक नाम, अनेक रूप नदी। अपनी सहस्र-सहस्र भुजाओं वाली नदी। हिम की तरह शीतल और खौलते हुए जल की तरह उष्ण जल वाली नदी। समुद्र जैसे खारे और दूध की तरह सुस्वादु जल वाली नदी। सिंधु-ब्रह्मपुत्र की तरह विशाल और वरुणा-असी की तरह मृत-प्राय नदी। यमुना और काली की तरह गँदली और भागीरथी-अलकनंदा की तरह झिर-झिर निर्मल नदी। कर्मनाशा की जैसी अभिशिप्त और नर्मदा की तरह पुण्यशीला नदी। इन नदियों के कोई घाट, कोई तटबंध, कोई प्रवाह क्षेत्र, कोई विभाजक रेखा नहीं है। यहाँ सब घुला-मिला, सब सहज और सब एक दूसरे में डूबा हुआ है। सब समरस, सब समशील, सब अविभाजित, सब अखण्ड, सब आनंदमय, जिह्वा संवेद्य षड्-रस से परे, अद्भुत और अपूर्व।
नहीं, मैं धर्म, आध्यात्म या दर्शन की बात नहीं कर रहा। मैं कर रहा हूँ, संवेदना की बात। उस संवेदना की, जो धर्म, आध्यत्म, दर्शन ही नहीं, बल्कि विज्ञान की परिधि से भी परे है। यह मनुष्य और मनुष्य ही नहीं, बल्कि समूची सृष्टि को परस्पर जोड़ती है; स्व और पर के बने बनाए पैमाने से परे। इसमें कहीं कोई गाँठ, कहीं कोई दरार या कहीं कोई जोड़ नहीं है। यह सहज-संश्लिष्ट और सहज-संपृक्त है। यह सहजता ही इसकी आत्मा, इसका प्राण, इसकी जीवनी-शक्ति है। यह एक सरस प्रवाह की तरह निरंतर हमारे बीच प्रवहणशील है। हमारे विचारों और अनुभूतियों की डाक एक दूसरे को बाँट रही है, पावती और प्रत्युत्तर ले रही है और फिर उसे भेजने वाले तक पहुँचा रही है; अविराम और अविलम्ब। यह क्रम, यह यात्रा, यह प्रवाह अनादि है। इसमें एक अद्भुत लय है, एक अनूठा सौंदर्य और एक अपूर्व मिठास है। एक  ऐसी  मिठास  जिसे  एक पुराने कवि ने  गूँगे के गुड़ जैसा कहा है‌‌-- अबिगत गति कछु कहत ना आवे, ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे। यह बात जब सूरदास जैसा रससिद्ध पुरनिया कह रहा है, तो हम नवछिटुवों की क्या विसात कि उसे नकार दें। हमारे पास विज्ञान है, यंत्र है, तकनीक है, तर्क-शक्ति और विवेकशीलता है, लेकिन ये सब इस रस के आस्वाद में सर्वथा असमर्थ हैं। इसे ना कोई विकासवाद परिभाषित कर सकता है, न संभावाना और नव-संभावनावाद। न तर्क और न विज्ञान। पुराने भारतीय चिंतन में यही आत्माहैपरमात्मा का अंश, छाया या प्रतिरूप, जो हममें, तुममें खडग-खंभ मेंसब में व्याप्त है।
   आत्मीय’, ‘आत्मीयता’, ‘आत्माभियक्तितो ले   को तो हमने सहज स्वीकर कर लिया, परन्तु आत्माऔर परमात्माको अपने शब्द-कोश तथा अपनी चिंतन-धारा से परे धकेल दिया। जब आत्मा है ही नहीं, तो आत्मका क्या वजूद ? हम इसे समझने में असमर्थ रहे। इस असमर्थता का परिणाम यह हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और नदी के बीच या मनुष्य और इस सचराचर जगत के बीच जो प्रवाहमाण रस था, जो आत्मीयता थी जो संवाद और संवेदना थी, हम उसका सिरा ही छोड़ बैठे सिया-राममय सब जग जानी कहने वाला कवि हमें पुनरुत्थानवादी या यथा-स्थितिवादी और ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत का उद्घोष करने वाला ऋषि रूढ़िवादी नजर आने लगा। परिणामतः प्रकृति और मनुष्य के बीच का स्वरस्य विच्छिन्न हो गया। हमने प्रकृति को अपने महाभोज का व्यंजन मान लिया और हम उसका छक कर भोग कर रहे हैं। पाँत में भाई बंद के साथ बैठकर सहभोज वाले अंदाज में नहीं, अकेले-अकेले सबकुछ गटक कर जाने वाले अंदाज में झपटते हुए। नई शब्दावली में कहें तो वह हमारा उपभोज्य है और हम उसके उपभोक्ता।
       हम बाहर की नदीयों को जोड़ना चाहते हैं। मृत हो चुकी नदियों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। एक नदी का जल दूसरे में स्थानांतरित करना चाहते हैं। लेकिन हमारे भीतर की नदी छीज रही है, सूख रही है, विभाजित हो रही है। हमें उसकी चिंता नहीं। हाथों में लहराती तख्तियाँ, उठी हुई बाहों के साथ उछलते नारों और दंगों की चोट से टूटते अखंड कगारों की चिंता हमें नहीं। स्वाद, रंग, घाट की होड़ में बिखरती समन्विति की चिंता हमें नहीं। हम अपने भीतर के देवत्व को फाँसी देकर मंदिरों, मठों, गिरजाघरों में उसकी मूर्तियाँ सजाना चाहते हैं। उसकी लाश पर मस्जिदों की ऊँची मीनारें और भव्य मजारें बनाना चाहते हैं। भीतर के रस के अखंड और शाश्वत प्रवाह को नष्ट कर जगह-जगह कृत्रिम फब्बारे लगाना चाहते हैं। हमरे भीतर की नदी छीज रही है। हमारे भीतर का रस सूख रहा है। हमारे भीतर का देवत्व बधिक के गँडासे के सामने उकुडूँ बैठा है, पर हमारे लिए वह देवता नहीं देवी का निर्माल्य है या कुर्बानी का बकरा। हम जोर-जोर से हर-हर महादेव’, अल्ला हु अकबर और सत श्री अकाल के नारे लगा रहे हैं। हमारे स्वरों के बीच की समरसता विलुप्त हो चुकी है। हमारे भीतर की अंतःसलिला में अलग-अलग रंग और अलग-अलग स्वाद वाली सदानीरा नदियाँ अब आपस में डूबकर अपूर्व रंग और अद्भुत स्वाद की सृष्टि नहीं करतीं, बल्कि अपने-अपने तटों में सिमट कर चल रही हैं। कोई भागीरथी, कोई अलकनंदा, कोई नर्मदा, कोई गंगा, कोई ब्रह्मपुत्र नहीं, हमारे भीतर बहने वाली हर धारा या तो मल-वाहिनी असी है या पुण्य-क्षीणा कर्मनासा। यह हमारे भीतर के मल को ढो रही है। हमारी यांत्रिकता, लिप्सा और स्वार्थपरता के सारे अपशिष्ट इसमें घुल रहे हैं। यह दिन-ब-दिन विषाक्त होती जा रही है। हमारे लोभ, मद, मोह, तृषा, भोग, वासना, एषणा, हिंसा, व्यभिचार, पापाचार, के भार ने इसे बोझिल बना दिया है। यह झिर-झिर, निर्मल परदर्शी नहीं, हमारे भीतर की कुँठाओं के रंग में रंगी है। यह कठौती वाली गंगा है। इसके घाट पर बैठा कोई तुलसीदास अब यह दावा नहीं कर सकता कि सुरसरि सम सबकर हित होई
       मेरा आदिम मन फिर भी नहीं मानता। उसके भीतर बैठा नदी-प्रेम अब-भी जब-तब हुलस उठता है। अब-भी किसी नदी की कछार पर पहुँचते ही उसके प्रेम का कोई-कोई गीत कंठ से फूट ही जाता है। यह कंठ भले मेरा अपना हो, पर बोल मेरे मन के भीतर बैठे उस आदिम मनुष्य के ही होते हैं, जो अपनी छोटी डोंगी में सदियों से निरंतर उस नदी की लहरों पर झिझिरी खेल रहा है। वह नदी से प्रेम करता है, उसे पूजता है, उसे मातृ-रूप मानता है और इसलिए नदी अब तक उसके लिए संसाधन नहीं बन पाई, वह उसका उपभोग नहीं कर पया। सूख चुकी नदी के ऊँचे कगार पर बैठा वह अब भी गा रहा है। उसे उम्मीद है कि नदी नहीं मरती। वह देवी-स्वरूपा है और देवता अमृत हैं। वह फिर जी उठेगी। अपनी अदम्य जिजीविषा से कोई एक सोता धरती के इस कठोर कवच को तोड़ कर बह चलेगा। अचानक कोई पाताल-गंगा फूट पडेगी, जिसकी धारा में भींग कर यह सारा विरस आयोजन सरस हो जाएगा, जिसमें डूबकर असी और कर्मनासा भी स्वच्छ, प्रशस्त और पवित्र हो जाएगी। तब वह अपनी डोंगी पर पाल डाल हर नगर, हर गाँव, हर घाट-अघाट, अपना गीत, अपना रस, अपना राग बाँट आएगा। 

शनिवार, 28 नवंबर 2015

कबीर

 कबीर हिन्दी के पहले जातीय कवि थे। उनकी कविताई की भाषा में लगभग उन सभी बोलियों के शब्द खोजे जा सकते हैं जो हिन्दी का लोक-वृत्त निर्मित करती हैं। यह कहना असंगत होगा कि हिन्दी समूचे भारत की भाषा है लेकिन इस तथ्य में भी कोई सन्देह नहीं कि यह बहुसंख्यक भारतीयों की भाषा है और इसलिए भारत के एक बड़े
जन समुदाय के आत्माभिव्यति का माध्यम भी। यह जितना सही आज है लगभग उतना ही सही कबीर के जमाने में भी था। इसलिए कबीर भारत के उन तमाम लोकप्रिय कवियों में शुमार किये जा सकते हैं, जिनका भारतीय चित्त और मानस की निर्मिति में बड़ा योगदान रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आज कबीर केवल कबीरपंथियों और सिक्खों (गुरुग्रंथ साहेब में संकलित अंशों के कारण) में ही लोकप्रिय नहीं बल्कि आम भारतीय लोकमानस में बहुत में भी बहुत गहराई से बैठे हैं। पिछले दिनों जब अपने गांव की दलित बस्तियों में ‘चमरुआ’ और ‘कहरुआ’ लोकगीतों के संकलन का प्रयास किया तो यह पाया कि ये ज्यादा तर कबीर के पदों के ही या तो नए लोक-प्रचलित रूप हैं या उसी की तर्ज पर रचे गए निर्गुण और उलटबांसियां। और तब मैंने यह महसूस किया कि कबीर हिन्दी निर्गुं संत-परंपरा के न तो पहले कवि थे न प्रवर्तक, बल्कि यह एक किसी पुरानी चली आती हुई परंपरा के ही चरम विकास थे, जो निची समझी जने वाली जातियों के लोक-कवियों द्वारा विकसित हुई थी। यह मान लेने पर कबीर की उलटबांसियों को चार्यापद या गोरख की परंपरा से जोडने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि इससे यह भान होता है कि इन सभी का स्रोत एक ही है और वह है, नीची कही जाने वाली अछूत और कामगार जातियों की लोक परंपरा। अन्यथा केवल एक कवि के कारण यह इतनी लोकप्रिय नहीं हो सकती थीं। उलटबांसियों और निर्गुण साहित्य का स्रोत श्रमिक, अपवंचित और अन्त्यज वर्ग ही है इस मान्यता का एक प्रमाण यह भी है कि इनमें न केवल अटपटापन है बल्कि विषाद की एक गहरी रेखा भी है जो संसार की असारता के रूप में बार-बार व्यक्त हुई है। जो समाज निरन्तर प्रताणित और उपेक्षित रहेगा और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद जीवन की जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहेगा उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ? क्या बधावा और क्या शोक-वाद्य ?उसे ये दोनों ही स्थितियां समान ही नज़र आयेंगी— “जिहि घर जिता बडावणा तिहिघर तिता अदोह।”

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

कुबेरनाथ राय की गांधी-दृष्टि

राजीवरंजन
राम मनोहर लोहिया ने लिखा है- किसी एक व्यक्ति के विचारों को राजनीति कर्म का केंद्र नहीं बनाना चहिए। वे विचार सहायता तो करेंपरन्तु नियंत्रण नहीं। स्वीकृति और अस्वीकृतिदोनों ही अन्धविश्वास के बदलते पहलू हैं। मेरा विश्वास है कि गांधीवादी अथवा मार्क्सवादी होना मतिहीनता है और गांधीवाद-विरोधी या मार्क्सवाद-विरोधी होना भी उतनी ही बड़ी मूर्खता है। गांधी और मार्क्स दोनों के ही पास अमूल्य ज्ञान-भण्डार हैकिन्तु तभी ज्ञान प्राप्त हो सकता हैजब विचारों का ढांचा किसी एक युग या व्यक्ति के विचार तक सीमित ना हो।
कुबेरनाथ राय का लेखन लोहिया के इस सूत्र का सटीक उदाहरण है। वे अपने राजनीतिक और आर्थिक दर्शन में गांधी के बेहद करीब हैं तो रक्त-गोत्र की शुचिता सम्बन्धी विचारों में लोहिया से प्रभावित और ‘कम्यूनिस्ट मेनिफ़ेस्टो’ को ‘गीता’, ‘धम्मपद’, ‘कुरान’ तथा ‘बाइबिल’ के कोटि की रचना मानते हुएस्वयं पर उसके प्रभाव को स्वीकार करते हैं- “इस शताब्दी में कोई भी बुद्धिजीवीयदि वह किसी निहित स्वार्थ से नहीं जुड़ा हैतो मार्क्सवादी प्रमूल्यों से थोडा-बहुत प्रभावित है ही। फ़िर भी कुबेरनाथ राय पर आधुनिक विचारकों में सबसे गहरा प्रभाव गांधी का ही है। अपने पन्द्रहवें निबंध-संग्रह ‘मराल’ में ‘आधुनिक सन्दर्भ में साहित्यकार की भूमिका’ पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है- “तीसरी दुनिया के अभावग्रस्त और पिछड़े देशों के लिए यदि कोई सही रुचिबोधसौंदर्यबोध और जीवन-पद्धति संस्तुत की जा सकती है तो वह है गांधीवादी रुचिबोधसौंदर्यपद्धति और जीवन-पद्धति क्योंकि ये स्वदेशीपनसादगी और सहजता’ के सूत्र पर आधारित हैं। यह बात जोर देकर वही व्यक्ति कह सकता है जिसने गांधी के विचारों का अध्ययन भर न किया हो बल्किअपने जीवन और व्यवहार में उसे आत्मसात किया हो। उन्होंने जब भी गांधी का जिक्र किया हैअपने अनुभव-सत्य को आधार बनाया है।
स्वयं कुबेरनाथ राय ने अपने लेखन की जिन पांच दिशाओं – ‘१. गंगातीरी लोकसंस्कृति और आर्येतर भारत २. भारतीय साहित्य ३. रामकथा ४. गांधी चिंतन और ५. विश्व साहित्य - का उल्लेख किया हैउनमें गांधी-दर्शन को एक मुख्य दिशा के रूप में याद किया है। इस विषय पर उनकी एक पुस्तक ‘पत्र-मणिपुतुल के नाम’ तथा दो स्वतंत्र  निबंधों ‘गांधी की प्रासंगिकता’ (मरालऔर ‘गांधी-चिंतन का महायान’ (चिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रके अतिरिक्त विभिन्न संकलनों और निबंधों में तमाम सूत्र बिखरे हुए हैं। अपनी समग्र अन्विति में ये निबंध 'गाँधी-चिंतनमें अपनी उपस्थिति उसी रूप में  दर्ज कराते हैं जैसे बौद्ध-चिंतन में महायान शाखाये निबंध गांधी-चिंतन से जुडे हो कर भी सीधे-सीधे गांधी के विचारों के भाष्य नहीं बल्किविवेक सम्मत अध्ययन से अर्जित सत्व की वैचारिक अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए कुबेरनाथ राय ने इन निबंधों को गांधी-चिंतन के महायान से जोड़ा है। ‘चिन्मय-भारत’ में उन्होंने अपनी महायान सम्बन्धी संकल्पना के सम्बन्ध  में लिखा है, “किसी भी मुक्त चिंतन और दर्शन के दो रूप होते हैं : लघुयान और महायान। बीज से निकला पौधा जीवन का लघुयान है तो उसमें विकसित सुदूर-प्रसारी शाखा-प्रशाखा वाला वृक्ष उसका महायान है जिसमें असंख्य परस्पर विरोधी विचार आश्रय लेते हैंजिसके फूल और फल लघुयान स्वरुप में अदृश्य थेअतः बिलकुल नई बातें जैसी लगते हैंजिसके आकार-प्रकार और उपलब्धियों की कल्पना उसके लघुयान रूप पौधे को देख कर नहीं की जा सकती''५। गांधी-चिंतन के सन्दर्भ में उनकी महायान सम्बन्धी मान्यता है कि ''मेरी कल्पना है कि भविष्य में गांधीवाद के भी दो रूप होंगे - 'लघुयानऔर 'महायान'। मैं अपने आपको 'महायान से जोड़ता हूँ।'' उन्होंने गांधी के लेखनचिंतन या कर्म को अलग-अलग रखकर नहीं देखा बल्किइन तीनों की परस्पर समन्विति और साहचर्य को साधने का प्रयास किया और उनके सम्यक् अनुशीलन से अर्जित 'मर्मऔर ‘बोध’ को आधार बनाते हुएगांधीवाद का एक नया भाष्य तैयार कियाजो उनके शब्दों में 'महायानहै। यह गांधी-चिंतन के समग्र-बोध और उसकी विवेक सम्मत व्याख्या के बिना सम्भव नहीं है।
पत्र मणिपुतुल के नाम’ पत्र-शैली में लिखा गया एक ललित निबंध-संग्रह है। इसकी भूमिका में पुस्तक के लिखे जाने के प्रसंग का उल्लेख करते हुए कुबेरनाथ राय ने लिखा है - “इसका प्रथम पत्र बेरोजगारी और नियोजन की समस्या को लेकर लिखा गया है और यह अपने मूल प्रारूप में एक सही घटना पर आधारित है और अपने मूल रूप में मेरी उच्चशिक्षिता भ्रातृ-बधू श्रीमती हीरामणि राय को ( जिसे घर में पुतुल भी कहा जाता हैसचमुच लिखा गया है। बाद में उस पत्र को परिवर्धित और संशोधित करके मैंने ‘गांधी-मार्ग’ को भेज दिया। सम्पादक महोदय श्री भवानी प्रसाद मिश्र ने ६-७ ऐसे पत्र लिखने का प्रस्ताव कियायों प्रस्ताव क्या किया तकाजा कर-करके लिखवाया... ये पत्र शुद्ध सहित्यिक कृतियां हैं ... मणिपुतुल प्रतीक है ‘नई पीढी’ का। इस कृति में कुल चौदह निबंध हैं। ये सभी निबंध 'गांधीवादी रस-दृष्टि’ और शील-बोधकी संहिता उपस्थित करते हैं।
'रसऔर 'शीलकुबेरनाथ राय के दो अत्यधिक प्रिय शब्द हैं। एक अवधारणात्मक पद के रूप में उन्होंने इन दोनों का बार-बार प्रयोग किया है। 'रस आखेटकनिबंध में उन्होंने लिखा है, ''मैं मानता हूँ और भरतमुनि भी मानते हैं कि हर एक अनुभव में रस है।'' उनके लिए 'रसएक सीमित पद नहीं बल्किजीवन के समग्र अनुभव और बोध को व्यक्त करने वाला एक व्यापक पद हैजिसमें रम्य भी है और दारुण भीतिक्त तथा कटु भी है और मधुर तथा कसैला भी। जब वे गांधीवादी रस-बोध की बात करते हैं तो गांधी-दृष्टि को जीवन के समग्र-अनुभव से जोड़कर देखते हैं। इसीलिए वे कभी ‘बेरोजगारी और बेकारी की समस्या’ की बात करते हैंतो कभी व्यवस्था के भ्रष्टाचारवर्तमान राजनीतिक परिदृश्य एवं राजनीतिक विसंगतियों की और कभी औद्योगिक विकासपूँजीवाद तथा नवपूँजीवाद के प्रभाव में बदलते जीवन मूल्यों और सामाजिक परिदृश्य की।
'पत्र मणिपुतुल के नामसंग्रह का पहला निबंध ‘पाँत का आखिरी आदमी’ भारतीय युवा वर्ग की बेरोजगारी और बेकारी की समस्या पर केन्द्रित है । उन्होंने लिखा है- “ हम एक वक्राघातों विडंबनओं के अद्भुत जगत में जी रहे हैं....असल बात तो यह है कि वह साक्षात्कार एक नाटक मात्र होगा । आजकल न्युक्तियां पूर्व निश्चित होती हैं। कभी सच्चाई ‘गुहा’ में निवास करती थी और उसका अन्वेषण करने वाले अमृत पाकर दार्शनिक बन जाते थे। अब सच्चाई सर्प की बांबी में निवास करने लगी है और उसके अन्वेषण करने वाले ‘दंश’ पाकर विद्रोही हो जाते हैं।" यह एक तथ्य हैजो आज भी उतना ही सही हैजितना सन् १९८० (‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ के प्रथम ‘गांधी शांति प्रतिष्ठानसंस्करण का प्रकाशन वर्षके आस-पास। वे इसे भारतीय युवा वर्ग में जन्म लेती अवदमन की प्रवृत्ति का कारक मानते हैं। यदि वर्तमान सन्दर्भ में देखा जाय तो यही अवदमन उन तमाम सामाजिक विकृतियों का कारण हैजिन्हें आज हमारा बुद्धिजीवी वर्ग एक बड़े सामजिक संकट के रूप में देखता है और जिन पर आज सबसे अधिक बहस की जा रही है। भ्रष्टाचारयौन कुण्ठाएं और विकृतियांदुःशील सामाजिक परिदृश्य जो आज हमारे समाज का एक बड़ा यथार्थ हैंउनका मूल इसी अवदमन के भीतर है। इस अवदमन की अभिव्यक्ति किसी क्रान्ति में नहींबल्की तमाम छ्द्म-क्रान्तियों में ही सम्भव है। पिछ्ले २-३ वर्षों के भीतर पूरे विश्व में जिस तरह के आन्दोलनों की बाढ़ देखी गई हैवह इसी अवदमन से मुक्ति और उनके कारकों के प्रतिरोध की छ्टपटाहट  है।
कुबेरनाथ राय ने जिन दंश पाए विद्रोहियों का  जिक्र किया हैवे आज भी  परिदृश्य का हिस्सा हैं। उन्हीं के शब्दों में, “ऐन्द्रिकसामजिकसांस्कृतिकआर्थिक अनेक-अनेक अवदमनों के आधार पर आधुनिक संस्कृति के सारे क्रिया-कलाप विकसित हो रहे हैंकभी ‘वाम-भाषा’ तो कभी ‘दक्षिण-भाषा’ में।१० जातिवादसम्प्रदायवादआतंकवादनक्सलवाद आदि से घिरे वर्तमान भारतीय समाज में यह कथन अस्सी के दशक की तुलना में कहीं अधिक अर्थवान बन गया है। कुबेरनाथ राय इस स्थिति के लिए मध्यवर्गीय भारतीय बुद्धिजीवियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनके अनुसार इसका विकल्प चालू राजव्यवस्था और अर्थनीति में नहीं बल्किएक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में है ।एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था जिसमें पाँत के आखिरी आदमी की पत्तल भी खाली न होसुविधाएंव्यवस्था का लाभ और सामाजिकराजनैतिक तथा आर्थिक लाभ में हिस्सेदारी उसे भी सुलभ होआदर्श नहीं बल्कि व्यवहार में। उन्होंने वर्तमान व्यवस्था को एक ऐसा भोज कहा हैजिसमें सारा लाभ भण्डार के नजदीक बैठा आदमी ही पा रहा है- “तरह-तरह के महोच्चारों के बीच पाँत ‘भक्षण’ कर रही है। दही चीनी तो लोग ऐसे सर्र-सर्र चाट रहे हैं गोया आती हुई वर्षा के शंख बज रहे हों। पर सारा भूरि भोजनसारा राजसूय यज्ञ अन्धेरे में लोग हुंकार भरभर करके खा रहे हैंसतयुग उतर आया है इस अंधेरे में। परन्तु वास्तविकता तो यह है कि सबकुछ भोग कर रहे हैं वे जो भण्डार-गृह के पास बैठे हैं। शेष में से कोई पूड़ी चबा रहा हैकिसी की पत्तल में महज चटनी पड़ कर रह गई है और पाँत के आखिरी आदमी का तो पत्तल ही खाली है। वह प्रारम्भ से ही त्राहि-त्राहि कर रहा हैपरन्तु इस कोलाहल में कौन सुनता है।११
आर्थिक विषमता और सामाजिक वितरण के लिहाज से १९८० से २०१३ तक लगभग तीस-तैंतीस सालों में स्थितियाँ क्रमशः विषम ही हुईं हैं। एक ओर जहाँ सम्पन्नता के टापुओं की चमक-दमक है वहीं दूसरी ओर विपन्नता का धुप्प अँधेरा। शेयरसेंसेक्स और बड़े व्यपारिक अधिग्रहणों की खबरों के बीच दुबकी हुई किसानों की आत्महत्याभूखमरी की रिपोर्टें (रिपोर्टें इसलीये कि ये बडी खबरों के बीच सूचना मात्र की तरह दर्ज की जाती हैं) और छोटी-मोटी चोरी-चिकारी की घटनाओं से लेकर हत्या-बलात्कार आदि की रपटें तक इसकी गवाह हैं। कभी-कभी इनको दर्ज करने का अन्दाज इस तरह का होता है कि इनके खबर होने का भ्रम होता हैलेकिनवास्तव में या तो ये सनसनी पैदा करने वालीअथवा चटखारेदार सूचनाएं भर होती हैं। ऐसा या तो टी.आर.पी. के कारण होता है या जनरुचि के दबाव वश। यही कारण है कि एक समय में अति ज्वलन्त लगने वाली खबर’ भी फ़ेन-बुद्बुद की तरह अगले ही पल कहीं खो जाती है। गहमा-गहमी और हो-हल्ले के बावजूद जल्द ही सारा गर्दोगुबार अपना निशान खो देता है। प्रायः इन सबका कोई स्थाई या दीर्घकालिक प्रभाव नहीं होता है। यह बात इसलिए विशेष महत्व रखती है कि आज साहित्य की तुलना में समाज में मीडिया की पहुंच और प्रभाव अधिक है। आज की मीडिया का एक अति प्रचलित शब्द है- हाई प्रोफ़ाइल। यह शब्द आज सबसे अधिक प्रभावी है। जो आदमी हाईप्रोफ़ाइल नहीं है- अभिजात नहीं हैउसका मीडिया से कोई वास्ता नहीं है। न हीवर्तमान व्यवस्था के लिए उसका कोई महत्व है। कुबेरनाथ राय इस तथ्य को अस्सी के दशक में ही महसूस कर रहे थे- चालू अर्थ-व्यवस्था का मस्तिष्क और हाथ है शिक्षित’ और अर्थ सुविधा प्राप्त बुद्धिजीवी या एलीट। और इस वर्ग का जीवन-दर्शन है-जितना पाते हैं उससे ज्यादा पायेंजितनी सुविधायें हैं उससे ज्यादा सुविधाएं मिलें।’’१२
उपभोक्तावाद और नव्यपूँजीवाद के वर्चस्व ने विषमता की स्थिति को और अधिक विषम बनाया  है। बाजार ने सब  कुछ सुलभ बना दिया है। संचार मध्यमों और सामाजिक जीवन के व्यवहार में वही ‘मूल्यवान’ है जो बिकता है। जो बिकता नहीं वह मूल्यहीन है। यह बात प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा सामजिक-संस्थाओं के आपसी तालमेल और आम जीवन-व्यवहार के अध्ययन से सहजता से समझी  जा सकती  है। ‘बाजार’ दिन--दिन हमपर इतना हावी होता जा रहा है कि हम भूल चुके हैं कि इससे इतर की दुनिया क्या होती है। हर चीज तैयार माल की तरह हमारे सामने मौजूद है जरूरत है खरीद क्षमता कीजो पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ी है। क्यों और कैसे ये अर्थशास्त्र के पंडित ही ठीक से बता सकते हैं लेकिन इतना तो एक सामन्य आदमी भी समझ सकता है कि शेयर में जितना उछाल आया है और जितनी तेजी से अरबपतियों-खरबपतियों की तादाद बढी हैउतनी तेजी से समाज के निचले स्तर के लोगों को इस विकास में हिस्सेदारी नहीं मिली है। कुबेरनाथ राय के अनुसार, “उद्योग और मशीन के पीछे जो लक्ष्य हैवह है ‘बहुत ज्यादा उत्पादन।’ परन्तु हमारे जैसे जनबहुल देश के लिए इससे भी ज्यादा जरूरी है ‘बहुत ज्यादा लोगों के द्वारा उत्पादन।’ हमारी अर्थनीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें ज्यादा से ज्यादा हाथों  की जरूरत होसबको काम मिल सके।"१३। सबको रोजगार का अर्थ है ; आर्थिक विकास के लाभ में सबकी हिस्सेदारीसबका विकास और इसके बदलाव के लिए जरुरी है चिंतन शैली में बदलाव - “ जान लो अर्थ-व्यवस्था और राजव्यवस्था में बदलाव से कुछ नहीं होता जब तक हमारी चिंता शैली में आखिरी आदमीअन्त्यज या सीमान्त पुरुष को जगह नहीं मिलती।१४ कुबेरनाथ राय का आर्थिक राजनीतिक चिंतन इसी अन्त्यज या सीमान्त पुरुष- पाँत के आखिरी आदमी’ की चिंता से जुड़ा है।

गांधी ने हरिजन के ३० जुलाई १९३८ के अंक में भविष्य के भारत की तस्वीर की कल्पना मेरा सपना’ करते हुएलिखा है, “मेरे विचार के अनुसार ऐसी सरकार के पास जो चीज़ नहीं होगी वह हैबी.ए.एम.ए. पास डिग्रीधारियों की फ़ौजजिनकी बुद्धि दुनिया भर का किताबी ज्ञान ठूंसते-ठूंसते कमजोर हो चुकी है और जिनके दिमाग अंग्रेजों की तरह फ़र-फ़र अँग्रेजी बोलने की असंभ चेष्टा में प्रायः अशक्त हो गए हैं. इनमें से अधिकांश को न कोई काम मिलता है न कोई नौकरी.१५ लेकिन गांधी का यह स्वप्न आजादी के बाद भी भारतीय समाज के लिए एक स्वप्न ही रहा. कुबेरनाथ राय ने नई सरस्वती का आह्वान’ शीर्षक निबंध में स समस्या के कारण का जिक्र करते हुएलिखा है- “ पुराने जमाने की एक कहावत है- उत्तम खेती मध्यम बान. अधम चाकरी भीख निदान.” व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे क्षेत्र में और इस प्रगतिशील बीसवीं सदी में भी यह पूरी-पूरी लागू होती है. तुम्हारी यह चाकरी भीक्षाटन से ज्यादा अच्छी नहीं. तो भी तुम लोग इसी के लिए प्रतिद्वंद्विता कर रही होपरस्पर होड लगाए हो प्रमाण्पत्र और सिफ़ारिशें जुटाने में. .....पता नहीं कैसी महात्वांकाक्षा है जिसका शिकार तुम और तुम्हारी पीढी हो गई है. ......महानगरीय सभ्याता की आयात की गई एक श्रमविरोधी असहजअप्राकृतिकभोगवादी और कृत्रिम जीवन-दृष्टि का इतना व्यापक प्रभाव है कि ऐसा करना तुम लोगों के लिए असंभव है.१६कुबेरनाथ राय अपने समूचे लेखन में इस कृत्रिमताभोगवाद और अप्राकृतिक जीवन स्थितियों का विरोध करते रहे हैं। इन विरोधों में उपभोक्तावाद और बाजारवाद के विरोध का भी पूर्वाभास पाया जा सकता है। कहीं कहीं यह विरोध पूर्वाभास न रहकर सीधे और स्पष्ट रूप से भी व्यक्त हुआ है। अपने एक निबंध में उन्होंने लिखा है - “सारे सवलों का एक ही जवाब ‘समूह-माध्यम’ बार-बार दिमाग में बैठा रहा है और वह है अमुक कम्पनी के अमुक माल के ‘अनुरूप’ अथवा ‘अमुक माल के विज्ञापन जैसा। जब से हर गांव में दो-चार दूरदर्शन ( तब कस्बों और गावों में निजी चैनलों’ और  'केबल-संस्कृति’ का विस्तार नहीं हुआ था ) हो गए हैं,...निहित स्वर्थों वाला पूँजीतंत्र हमारे शीलस्वभाव और रुचिबोध को अपने माल के अनुरूप ढालकर हमें हर तरह से कुण्ठित और परावलम्बी बना देने के ताक में है। गांव के हर एक युवक के हॄदय में ‘छोटे-छोटे बंबई’ जन्म ले चुके हैं और शहर के हर एक युवक के हॄदय में ‘छोटा-छोटा अमेरिका’ जो काम सुख का आधुनिक स्वर्ग है।"१७ ‘शील’ और सामंजस्य’ की बात करते हुएउन्होंने काम’ की तमाम अर्थ-व्यंजनाओं का सहारा लिया है। उनके लिए काम’ मनुष्य की भोग-वृत्ति’ हैजिसके इच्छाकामनावासनाअनेक रूप हैं। आज के विज्ञापनों में जब यह कहा जाता है की ये दिल माँगे मोर’ तो उसी इच्छा कामना या वासना की प्रवृत्ति को उद्दीप्त करने की या ठेठ अन्दाज में कहा जायतो उपभोग की इच्छा को प्रोत्साहित करने का उपक्रम होता हैताकि उपभोग बढ़ा कर अपना उत्पाद बेचा जा सके।

समाज के चिंतन की मुख्य धारा माना जाने वाला साहित्य क्रमशः हाशिए की ओर खिसकता जा रहा है। मनोरंजन-व्यापार के बहाने फ़िल्मों और धारावाहिकों में एक नए तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक-चेतना सामने आ रही है जिसका आधार वही ‘मूल्यवान’-सन्दर्भ तैयार कर रहा हैजिसका जिक्र ऊपर किया गया है। यहां आवेग हैहडबड़ी हैनया दिखाने कीज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की आकांक्षा है क्योंकि आज का फ़लसफ़ा है ‘लालच अच्छी चीज है। गांधी अत्यधिक लालच और अत्यधिक उपभोग को हिंसा मानते हैं। हिंद-स्वराज’ में उन्होंने डॉक्टर के संबंध में लिखा है - “मैं बहुत खाऊं बदहजमी हो जायअजीर्ण हो जायडाक्टर के पास जाऊं और वह मुझे गोली देखाकर मैं चंगा हो जाऊं और दुबारा खूब खाऊं और फिरसे गोली लूं...मैंने विलास कियाबिमार पड़ाडाक्टर ने मुझे दवा दी और मैं चंगा हुआ। क्या मैं फ़िर से विलास नहीं करूंगा।१८ बहुधा अतिसरलीकरण करते हुए यह कहा जाता है कि गांधी डाक्टर और उसके पेशे का विरोध कर रहे थे या आधुनिकता का विरोध कर रहे थे लेकिनयहां उनका विरोध डाक्टर से नहीं उपभोग की प्रवृत्ति’ से है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आगे लिखा है- “हम डाक्टर क्यों बनते हैंयह भी सोचने की बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात नहीं।"१९ जाहिर है यह लोभ-वृत्ति का विरोध हैउसी लोभ-वृत्ति का जिसे आज के समय में आवश्यक’ और अच्छा’ बताया जा रहा है और संचार-माध्यमों द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जिसे जोर-शोर से प्रचारित कर रही हैंजिनका आज परम और चरम उद्देश्य है- आमदनीअधिक-से-अधिक पैसा कमाना। यह उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन हैएक अतिवाद हैएक असहज स्थिति है।इन बड़े उद्योगों का एक और पहलू हैजिसे महात्मा गांधी ने अनेक सन्दर्भों में रेखांकित किया है। ऐसा ही एक संदर्भ ग्रामीण अर्थव्यस्था से जुड़ा है- अहिंसा की रचना कारखानों की सभ्यता की बुनियाद पर नहीं हो सकतीलेकिन स्वयंपूर्ण गावों की बुनियाद पर उसकी रचना हो सकती है। मेरी कल्पना की ग्रामीण अर्थव्यवस्था शोषण का पूरा बहिष्कार करती है और शोषण ही तो हिंसा का सार तत्व है। इसलिए आपको अहिंसक बनने के लिए पहले ग्राम-दृष्टि का विकास करना पड़ेगा।२० अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है- इस तस्वीर में उन मशीनों के लिए कोई जगह नहीं होगी जो इन्सान की मेहनत की जगह लेकर चंद लोगों की हाथों में सारी ताकत इकट्ठा कर देती है।२१ हिंसा और शोषण के इस अन्तर्संबंध और इसमें बड़ी मशीनों की भूमिका की समझ कुबेर नाथ राय को भी है और साथ ही इसके गांधीवादी समाधान में आस्था भी। उन्होंने वर्तमान अर्थ-नीति को मानव-विरोधी माना है-“ हमारी अर्थ-नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें ज्यादा से ज्यादा हाथों की जरूरत होसबको काम मिल सके। इसी से हम गांधी जी के विचारों को महत्व देते हैं क्योंकि उनके विकेंद्रीकरण’ और हस्तशिल्प’ के आदर्शों में हमें अपनी अर्थनीति का समाधान मिलता है। अतः सिंथेटिक वस्त्रों की ज्यादा माँग करने का अर्थ होगा केंद्रीकरण पर आश्रित पूँजीवाद को प्रश्रयबृहदाकार उत्पादन की राक्षसी तकनीकों के प्रश्रय तथा मशीन के द्वारा मनुष्य के अवमूल्यन को प्रश्रय .... वृहदाकार यंत्र मनुष्य की मनुष्यता को हीन कर उसे सर्जक न रखकर एक पुर्जा बना डालते हैं और ना केवल गुणात्मक अवमूल्यन करते हैं बल्कि उसे अनावश्यक और निरर्थक भी बना डालते हैं।२२ गांधी और कुबेरनाथ राय दोनों की चिंता के मूल में ताकत को चन्द लोगों के हाथों में सिमटने’ या पूँजीवाद के प्रश्रय’ से भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने की चिंता है। साथ ही गांधी की चिंता अहिंसा को बचाने की चिंता है तो कुबेरनाथ राय की मनुष्य को गैर जरूरी होने से बचाने कीअर्थात्मनुष्यता को उसके अवमूल्यन से बचाने की । इस तरह उन्होंने गांधी के अमूर्त अहिंसा’ को एक मूर्त संदर्भ देने की कोशिश की है।

       सत्य और अहिंसा दोनों ही गांधी के जीवन-दर्शन की दो दृष्टियां (नेत्र) हैंयह मानी हुई बात है। लेकिन साहित्य में इनका क्या मूल्य हो सकता है यह न तो गांधी ने स्वयं कहीं उल्लेख किया है और न ही साहित्य के शास्त्रकार पण्डितों नेन तो उनके समय में और न उसके बाद ही। साहित्य के शोधकों ने साहित्य और गांधी के रिश्ते पर शोध जरूर कियालेकिन गांधी-दृष्टि और उसके मूल्यों के आधार पर किसी साहित्यिक मूल्य की बात कुबेरनाथ राय से पहले नहीं मिलती। अपने निबंध सच बोलना ही कविता’ है में उन्होंने लिखा है, “मेरी समझ में गांधी जी को समझने की कुंजी तीन शब्दों में है : सत्यअहिंसा और अभय ... उनकी राजनीति को समझना चाहो तो केन्द्रीय शब्द अहिंसा’ और शिल्प-दृष्टिरसदृष्टि को समझना हो तो विशेष बल देना होगा सत्य’ पर ... शिल्प की रचनात्मक प्रक्रिया और रूपायन में सत्य यानी अकृत्रिमता’ ‘स्वाभाविकता’ आदिसर्वाधिक महत्वपूर्ण है तो उस शिल्प की उपयोगिता के सन्दर्भ में अहिंसा’ प्रमुख हो जाती है।२३ कुबेरनाथ राय द्वारा तैयार यह भाष्य सर्वथा मौलिक है। यह केवल गांधी की साहित्य-दृष्टि तक सीमित नहीं बल्कि स्वयं कुबेरनाथ राय की साहित्य सम्बन्धी मान्यताओं की भी अभिव्यक्ति है। अपने इसी निबंध में उन्होंने लिखा है, “ऐसी हालत में गांधीवादी साहित्यकार के लिए जरुरी हो जाता है जनमत’ के विरुद्ध विद्रोह ! एकला चलो रे।” सत्य के लिए अभिमन्यु की तरह अकेले खड़ा हो जाना।२४ शर्त यह है कि स्थिति लोक-मंगलकामिनी हो, “आज राजा’ जनता ही है और जनप्रतिनिधि’ जनता का अवतार है ...शासक दल या विरोधी दल एक ही राजसभा के दो चेहरे हैं और यही राजसभा जनमत’ या जनता का अनिष्ट’ निर्धारित करती है। गांधीवादी साहित्यकार में इतनी मर्दानगी होनी चहिए कि मौका पड़ने पर इस जनता का राजदरबारी न बने और यदि जनमत के विपरीत जाने से उत्तरकालीन मानव का मंगल साधन होतो वह साहस पूर्वक अपनी अकेली आवाज बुलन्द कर सके।२५ यह एक ऐसी मान्यता है जो बार-बार उनके लेखन में दोहराई गई हैचाहे वह प्रजागर पर्व में साहित्यकार की भूमिका’ (दृष्टि-अभिसार) निबंध होया मेरी सृष्टि मेरी दृष्टि’ (मूर्तिदेवी पुरस्कार के समय दिया गया वक्तव्य) और मेरे लेखन के बारे में’ (मराल) या आधुनिक संदर्भ में साहित्यकार की भूमिका’ निबंध।कुबेरनाथ राय ने ‘मराल’ की भूमिका में लिखा है “ अब मैं ललित की जवाकुसुम जैसी चटक लालउग्र और उत्तेजक भंगिमा पर मुग्ध नहीं होता ! सरलतेजस्वी और निष्पाप मुझे ज्यादा आकर्षित करते हैं।२६ मराल का  ‘सरलतेजस्वी और निष्पाप’ पत्र-मणिपुतुल का ‘शान्तंसरलंसुन्दरं’ एक ही है। वर्तमान परिदृश्य उग्रउत्तेजक और तड़क-भड़क वाला है। फ़िल्मों में बढ़ती कामुकतादेहासक्ति और हिंसा अमर्यादित तथा फ़ूहड सौंदर्य की सृष्टि कर रहे हैंमीडिया टीआरपी की होड़ में क्रमशः आक्रमक और उत्तेजक होती जा रही है। कामुकता भरे उत्तेजक विज्ञापनों के सहारे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बाजार को अपने उत्पादनों से पाटने पर आमादा हैं। उत्तेजना का यह बजार उपभोक्तावादी हितों का पोषक है तथा ‘सरलतेजस्वी और निष्पाप’ इसका एक सार्थक विकल्प। इन शब्दों की परिभाषा ‘पत्र-मणिपुतुल’ के नाम में निबंध-दर-निबंध मौजूद है। वास्तव में यह पूरा संकलन इन्हीं सवालों से जूझने का उपक्रम है ; कभी कला और चिंतन के सन्दर्भ में तो कभी आर्थिक-राजनीतिक संदर्भों को केंद्र में रखकर। उनकी चिंता मानव के समूचे क्रिया-व्यापार को जीवन के ‘सहज छन्द’ से जोड़ने की चिंता है - “सच पूछो तो पुनः आवश्यकता है शिक्षा को जीवन के सहज छन्द से जोड़ने की और यह बात वृहत्तर प्रश्न की ओर ले जाती है। वह है जीवन के अन्य क्षेत्रों में व्याप्त मानसिक अवरोधोंकृत्रिमताओं और जटिलताओं के उन्मूलन और पुनर्संस्कार की। शिक्षा तो वस्तुतः जीवन का दिल मात्र है। इसकी ट्रेजडी एक वृहत्तर ट्रेजडी का हिस्सा है। आज समूचा जीवन एक असहज दृष्टि का शिकार हो गया हैएक सहज त्रिषा को लेकर पागल भ्रान्ति छंद में गतिशील हैऔर सहजसरसऋजु को स्वीकारने कीजीवन के सादे सौम्य-कान्तअकृत्रिम रूप को अंगीकार करने की क्षमता ही उसके पास नहीं रही।२७ इसी तरह साहित्य के सन्दर्भ में सरलता की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है -“ सरल माने सीधानिष्कपटप्रसन्न और प्रसादोपम। इसी से इस गुण को साहित्य में प्रसाद गुण कहा गया है। साहित्य में तीन गुण माने गए हैंओजमाधुर्य और प्रसाद। परन्तु गांधी जी प्रसाद को एक तीसरा गुण नहीं मानते और न ओज माधुर्य से उसे विच्छिन्न करके देखते हैं। बल्कि उनके अनुसार अलंकरणहीनस्वाभाविकप्राकृतिकसहज सरलता में तीनों गुणों की अभिव्यक्ति की जा सकती है। अलंकरणहीन भाषा का अर्थ यह भी नहीं कि आजकल की हिप्पी पोशाक की तरह ‘टापलेस-बाटमलेस’ भाषा हो जैसी कि ‘अकविता’ या एण्टी पोएट्री के नाम से हिन्दी में चली थी। ऐसी फ़ूहड़ सरलता गांधीवादी सरलता के अन्तर्गत नहीं आती। गांधीवादी सरलता बहुत कुछ वैसी बात है जैसी कि बहुत पहले श्री भवानी प्रसाद मिश्र ने एक बार लिखा था-
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिखऔर उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख !"२९एक अन्य निबंध में उन्होंने ‘उच्चगामी कविता के दो उदहरण’ दिए हैं इनमें एक तुलसी दास की ‘कवितावली’ से है और दूसरी तेलुगु के कवि शेषेन्द्र शर्मा की कविता का अनुवाद। इन दोनों कविताओं के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है “पहली कविता का विषय है ‘प्रबल विश्वास’ और दूसरी का ‘प्रबल साहस। ये दोनों ही ‘अभय’ के दो रूप हैं यद्यपि दोनों की भाषा-संवेदना और विषय-वस्तु एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। तो भी दोनों ही उच्चगामी साहित्य की स्थितियाँ रचती हैं अपने-अपने मुहावरे में।३०कुबेरनाथ राय हर तरह की कृत्रिमता का विरोध करते हैं- चाहे वह साहित्य में हो या जीवन में। वे वैष्णव रसवादी लेखक हैं। साहित्य में आनन्द की भूमिका स्वीकार करते हैं। लेकिन शुद्ध रसवाद उनके लिए अग्राह्य है - यदि रचना की प्रकृति में रस नहीं है तो वह आत्मा से विच्छिन्न है और श्रम मात्र है। साथ ही यह रस’ मंगल-विधायक तत्व के सहयोग से लब्ध नहीं हैशैतानकृत हैतो वह आत्मा द्वारा भोग्य सद् आनन्द नहींऔर वह मात्र उग्रता और उत्तेजना का पीड़ा-लब्ध रस (सेडिज्म) है।३१ इसी तरह उन्होंने चरम त्याग को भी असहज तथा जीवन-धर्म का विरोधी माना है। महाश्रमण इतना विराग असह्य है’ निबंध में उन्होंने लिखा है - नैतिक दृष्टि का केंद्र है मनुष्य का मंगल और ऐसी निर्ममताउदासी और जीवन का ऐसा तिरस्कार मंगल का विरोधी ही नहींअशुभ है। इसी से भारतीय जनविश्वास में संन्यासीक्षपणक और भिक्षु का सामने पड़ जाना किसी शुभ कार्य में अमंगलजनक माना गया है। उनकी जगद्गुरू संन्यासी’ की महिमा के बावजूद वे निर्ममताउदासी और जीवनविरोधी शक्ति यानी मृत्यु से जुड़े हैं।३२ जाहिर हैलेखक एकान्तिक रूप से त्याग और वैराग्य को भी उतना ही समाज-निरपेक्ष या जीवन-विरोधी मानता हैजितना उद्दाम काम’ को। उद्दाम काम और एकान्तिक त्याग दोनों ही अमंगलकारी हैं और इसलिए दोनों ही निषिद्ध भी। भारतीय मनीषा का सारा चिंतन-व्यापार भोग और त्याग के इसी समन्वय पर आधारित है ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥-ईशावास्योपनिषद्(पृथ्वी पर संसार में चर-अचर जो भी हैइन सब में ईश्वर का निवास है। उनका त्याग पूर्वक भोग करोयह धन किसका है।)जयशंकर प्रसाद ने भी कामायनी’ में मंगल संयुत् काम की ही बात की है काम मंगल से मंडित श्रेयसर्ग इच्छा का है परिणाम,तिरस्कृत कर उसको तुम भूल बनाते हो असफ़ल भवधाम।-कामयनीश्रद्धा सर्गकुबेरनाथ राय ने चिन्मय भारत’ में स्वतंत्र  रूप से काम और त्याग दोनों के सामंजस्य पर विस्तार से बात की है। उनके अनुसार “ ‘काम’ परिग्रहमुखी और भोगवादी वृत्ति है तो क्रतु त्यागमुखी और तपसोन्मुखी। ये दोनों विपरीतधर्मी हैं। पर ऋत’ के माध्यम से यानी प्राणधर्म के विश्वव्यापी मंगल-छंद के माध्यम से दोनों को परिपूरक बनाकर एक सामंजस्य अर्जित करके चलना ही सही जीवन-धर्म है।३३ ‘काम’ और क्रतु’ की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है-“ ‘काम’ अर्थात् इच्छाकामनावासना जो मनुष्य की भोगमुखी प्रवृत्ति है। क्रतु’ अर्थात्त्यागवैराग्य और कर्मयोग।३४ उनके अनुसार इन दोनों का रचनात्मक सामंजस्य’ ही ऋत’, ‘धर्म’ या शील’ हैजो इससे परे है वह अनृत हैअधर्म हैदुःशील है। इन तीनों में भी उनका बल सबसे अधिक शील’ पर रहा है। यह पद उन्होंने बौद्ध दर्शन से लिया है-

चन्दनं तगरं वापि
उप्पलं अथवास्सिकिः।
एतेसं गंध जातानंशील गन्धो अनुत्तरों।।
-धम्मपद

कुबेरनाथ राय इसी अनुत्तर गंध वाली शील की बात करते हैं। यही 
शील’ गांधी-चिंतन की भी धुरी है। उन्हीं के शब्दों में, “गांधी जी शील’ को सौंदर्य’ से अलग करके नहीं देखते थे। शील और सौंदर्य का विभाजन और सौंदर्य की अलग स्वायत्तता की बात उन्हें स्वीकार नहीं थी। जो शील तत्व यानी चरित्र से तटस्थनिरपेक्ष या विच्छिन्न हैवह सुन्दर होते हुए भी सुन्दर नहीं। गांधी मीरा के भजन पसंद करते थेपरन्तु गीतगोविंद’ की महिमा उन्हें स्वीकर्य नहीं थी।३५
साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से वे दो प्रमुख तत्वों को आवश्यक मानते हैं- रस और भूमा। रस को उन्होंने अपने आप में डूब जाने- समाधिस्थ हो जाने की स्थिति का कारण माना है। वे रसवादियों द्वारा स्वीकृत रस से आनन्द के सम्बन्ध रसोवैसः’ को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आनन्द का ही एक रूप मोक्ष है। इसे वे भारत की चिन्मय सत्ता का प्रतीक मानते हैं। मोक्ष और निर्वाण की प्रचलित परिभाषाओं से अलग वे इसकी व्यावहारिक व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार इसके लिए मृत्यु आवयश्क नहीं हैं। यह इस जीवन और इस लोक में भी किया जा सकता हैं। नृत्यगीतकला आदि के माध्यम से। वे इसके प्रमाण में अभिज्ञान शाकुंतलम्के एक अंश ‘अहोलब्ध नेत्र निर्वाणम्’ का उल्लेख किया है। उनके अनुसार यहाँ नेत्र निर्वाण का अर्थ आखों का नष्ट होना जाना नहीं है। यहाँ इसका अर्थ है चरम सुख या महासुख की प्राप्ति। इसका आधार लौकिक हैशकुन्तला का रूप। दूसरे तत्व भूमा का अर्थ उन्होंने विस्तृत होने की इच्छा माना है। उन्होंने रस की आत्मविभोरता और भूमा का विस्तार दोनों को साहित्य के लिए आवश्यक माना है। वे इन दोनों से समन्वित साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य मानते हैं। उन्होंने शील को इनके समन्वय का आधार माना है। इस रूप को वे ऋद्धिप्रधान कहते हैं। कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य के तीन कोटियों में रखते हैं - रसप्रधानऋद्धिप्रधान तथा रसप्रधान और ऋद्धिप्रधान। बिहारी और गालिब को पहली कोटि में रखते हैं। उनके अनुसार ये दोनों ही रसप्रधान कवि हैं। दूसरी कोटि में उन्होंने व्यास वाल्मीकि सूरकबीर और तुलसी को रखा है। ये रस भूमा और शील से समन्वित ऋद्धिप्रधान कवि हैं। वे इस वर्ग के कवियों को राष्ट्रीय शील के प्रशिक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हैं। तीसरी कोटि में वे कालिदाससूरदास और रवीन्द्र नाथ टैगोर को सम्मिलित करते हैं। इनमें रस और ऋद्धि दोनों तत्त्व की एक साथ उपस्थिति हैं। उन्होंने इस सूची को कवि के छोटे बड़े कद के निर्धारण का आधार  बनाकर काव्य की प्रकृति की पहचान का आधार माना है।
कुबेरनाथ राय ने कालिदास की रचनाओं में मेघदूतम्’ की तुलना में रघुवंशम्’ को श्रेष्ठ माना है और उसे रघुवंश की कीर्तिबांसुरी’ कहा है। उनके अनुसार कालिदास इस काव्य द्वारा स्पष्टतः निर्देश देते हैं कि प्रत्येक जातिराष्ट्र या कुल की एक मूल प्रकृति’ या शील’ या ऋता’ (चाहे जिस संज्ञा से इसे पुकारें) होती है और जब तक यह प्रकृति या शील या ऋता उस जाति राष्ट्र या कुल के जीवन मेंउसके कार्यकलाप में सक्रिय भाव से स्वीकृत रहती है तब तक वह जाति,राष्ट्र या कुल महिमा और ऋद्धि उपलब्ध कराता रहता है। यह मूल-प्रकृतिशील या ऋता ही उस जातिराष्ट्र या कुल की संजीवनी शक्ति है.... भारतीय जाति के कुलशील या मूल-प्रकृति के निर्माण में इस रघुकुल-परम्परा का इतना महत्वपूर्ण योगदान है कि रघुकुल की प्रकृति’ और कुल-शील’ ही हमारी आदर्श प्रकृति और आदर्श राष्ट्रीय कुल-शील’ हो गये हैं।३६ यहां यह सवाल संगत है कि वह कौन सा शील है जिसे रघुवंशम्’ के माध्यम से कालिदास ने प्रस्तुत किया है और जिसके कारण कुबेरनाथ राय ने उसे राष्ट्रीय शील का प्रतीक माना है। उन्हीं के शब्दों में, “रघुकुल में रघु से श्रेष्ठ उपलब्धियों वाला राजा नहीं हुआ। रामचंद्र अपनी शीलगत अंतर्निहित सिद्धि के कारण रघु से श्रेष्ठतर अवश्य हैंपरन्तु वाह्य उपलब्धियों में रघु उनसे भी महान हैं .... दिलीप शील-बल के प्रतीक हैं तो रघु बाहु-बल के और रामचंद्र में दोनों की चरम सामर्थ्य होते हुए भी वे शील-बल पर निर्भर थे।३७ कुबेरनाथ राय ने अपने समूचे लेखन में इसी राष्ट्रीय शील’ की तलाश की कोशिश की है। इस क्रम में वे कभी नृतत्वविज्ञान से गुजरते हुए भारतीय जाति की निर्मिति प्रक्रिया की बात करते हैं तो कभी वेदपुराण एवं महाकव्यों की और कभी फ़ागुन डोम या रामदेवा जी जैसे ठेठ गंवई चरित्रों के जीवन-संदर्भोंकथाओं तथा गीतों से गुजरकर इस राष्ट्रीय शील या भारतीय शील और उसकी बुनावट को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं। यह वही शील है जो आजीवन महात्मा गांधी के लेखनचिंतन और कर्म में प्रतिभासित होता रहा है।
दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रह के संबंध में गांधी जी ने लिखा है, “सत्याग्रही डर को सदा के लिए नमस्कार कर देता है।३८ उनके अनुसार आत्मिक बल सबसे बड़ा बल है। रस्किन की पुस्तक अन्टु दिस लास्ट’ का सारांश प्रस्तुत करते हुएअन्त में उन्होंने स्वराज का वास्तविक अर्थ इस तरह समझाया है- स्वराज का वास्तविक अर्थ हैअपने ऊपर काबू रख सकना। यह वही व्यक्ति कर सकता है जो स्वयं नीति का पालन करता है। दूसरों को धोखा नहीं देता माता-पितास्त्री-बच्चेनौकर-चाकरपड़ोसी सबके प्रति कर्तव्य का पालन करता है। जिस राष्ट्र में ऐसे मनुष्यों की संख्या अधिक होउसे स्वराज मिला हुआ ही समझना चहिए।३९ यही है गांधी का जीवन-दर्शन - अभय और कर्तव्य-बोध समन्वित। इसमें आत्मिक बल और नैतिक जीवन दोनों का समावेश आवश्यक है। यही समन्वय रघुवंशम्’ के राम के व्यक्तित्व में हैजिसका जिक्र कुबेरनाथ राय ने ऊपर के अंश में किया है।
गांधीजी में राम के प्रति एक गहरा आकर्षण है और उन्होंने जब भी एक आदर्श राज्य की बात की हैतो राम-राज्य’ का उल्लेख किया है। उनकी प्रिय भजन में भी रघुपति राघव राजा राम’ का जिक्र है। तुलसी दास के यहां भी राम-राज्य एक आदर्श राज्य के स्वप्न के रूप में अता है। वहां समतासमानता और न्याय का आधुनिक सूत्र अपनी चरम अवस्था में दिखाई देता है-
रामराज्य बैठे त्रैलोका। हर्सित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर कहू सन कोई। राम प्रताप विसमता खोई।।
*
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत स्रुति नीती।।
*
नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना। नहिं कोऊ अबुध न लच्छन हीना।।
-तुलसीदासरामचरित मानसउत्तर काण्ड

उनके राम परात्पर ब्रह्म के सगुण-साकार ईश्वरीय रूप ही नहींबल्कि मानवता के परम आदर्श अपने मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में उपस्थित हैं। वे शील समन्वित हैंघर और वन के बीचकाम और क्रतु के बीच समन्वित जीवन जीने वाले हैं- - तुलसी घर वन बीच ही रहिय प्रेम पुर छाइ। कुबेरनाथ राय स्वयं को गोस्वामी तुलसीदास का सच्चा उत्तराधिकारी मानते हैं- मेरा जन्म तुलसीदास की भूमि पर हुआ है। उनके द्वारा दिये गए उत्तराधिकार का मैं भी भागीदार हूँ। इसका मुझे औसत से ज्यादा घमंड रहता है।४० गोस्वामी तुलसी दास उनके प्रिय कवि हैं और राम-कथा उनकी साहित्यिक रुचि का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र । राम-कथा पर उनकी तीन स्वतन्त्र कृतियाँ-महाकवि की तर्जनी’,‘त्रेता का वृहत्साम’ और रामायण महातीर्थम्’ तथा कई स्वतन्त्र निबन्ध हैंजो विभिन्न संकलनों में बिखरे हैं। इनमें उनकी दृष्टि भारतीयता के अभिज्ञान पर टिकी हैजिसके तीन पक्ष हैं- ऐतिहासिकीनृतात्विकी और शीलाचारिकी। इनमें राम का उल्लेख उन्होंने शीलाचारिकी वाले सन्दर्भ में अधिक किया है। उनके अनुसार राम का चरित्र भारतीय शीलाचार की संहिता उपस्थित करता है। अपनी पुस्तक निषाद बाँसुरी’ में कुबेरनाथ राय ने राम को नव्य आर्यत्व का प्रतीक माना हैजो सगोत्रीय नार्डिक आर्यों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसमें ऋत् और मधु – सत्य और सौंदर्य दोनों है। उनके अनुसार यह समन्वय ही भारतीय जीवन दर्शन और ज्ञान-परम्परा की अपनी निजी थाती है। पत्र मणिपुतुल के नाम’ संकलन में कुबेरनाथ राय ने बार-बार यह स्मरण दिलाया है कि गांधी सत्य के साथ-साथ माधुर्य के भी उपासक थे अवश्य ही उसके सत्य संयुत् रूप में। वे रसमय पुरुष थे’ निबन्ध में उन्होंने महत्मा गांधी के इस कथन को उद्धृत किया है- मैं सौन्दर्य को सत्य के माध्यम से देखता हूँ। सभी सत्यन केवल विचार बल्किसच्चे चेहरे’ सच्ची तस्वीरें और सच्चे गीत भी- सुन्दर हैं प्रायः लोग सच्चाई में सुन्दरता नहीं देख पाते,साधारण जन इससे दूर हो जाते हैं हैं और इसमें निहित खूबसूरती को देख नहीं पाते।४१ यहाँ सौन्दर्य का विरोध नहीं बल्कि सत्य के सौन्दर्य पक्ष का उद्घाटन हैजो बिना सौंदर्य के महत्व को स्वीकार किये सम्भव ही नहीं है।
सत्य और सौंदर्य की इस समन्विति पर आधारित सौन्दर्य-दृष्टि को कुबेरनाथ राय ने सर्वोदय का शील-शास्त्र और सौन्दर्य-शास्त्र’ कहा है। उनके अनुसार, “गांधी चिन्तन के शील-शास्त्र की चर्चा तो प्रायः होती है। इसका प्रमुख चेहरा भी शील प्रधान है। परन्तु इसके सौन्दर्य-शास्त्र यानी रस दृष्टि की चर्चा अत्यल्प हुई है. यही नहींबल्कि आम धारणा तो यह है कि वे आजीवन शील-दृष्टि पर लगातार लिखते बोलते गएपर सौन्दर्य-शास्त्र और रस-दृष्टि पर अलग से बहुत कुछ कहा नहीं है। परन्तु उनकी जीवन पद्धति में और समय-समय पर विविध घटनाओं के संदर्भ में उनके वक्तव्यों से उनकी रस दृष्टि के बारे में एक अवधारणा बहुत आसानी से बनती है। गांधी चिंतन के महायान-स्वरूप में रस-शास्त्र को ही प्रामाणिक स्थान मिलेगा और हम इसे सर्वोदय का रस-शास्त्र’ कहना पसंद करेंगे।४२
ऋत् और मधुत्याग और भोगसत्य और सौन्दर्य की समन्विति का यह सारा क्रम भारतीय चिन्तन-परम्परा के अनुरूप चलता हैब्राह्मण परंपरा और श्रमण परंपरा दोनों ही समन्वय को महत्व देती हैं । ब्राह्मण परम्परा तत्तु समन्वयात्’ को लेकर चलती है तो श्रमण परंपरा मध्यम प्रतिपदा’ को। दोनों ही अतिचार का निषेध करती हैं। दोनों ही संयम की बात करती हैंएक के लिए संयम का आधार धर्म’ है तो दूसरे के लिए शील। गांधी के संदर्भ में कुबेरनाथ राय जब शील शब्द का प्रयोग करते हैंतो उन्हें श्रमण परंपरा से जोड़ते हैंलेकिन निषेधवादी संदर्भ (त्याग और वैराग्य के एकान्तिक संदर्भ) में नहीं बल्कि जीवन की समग्रता के स्वीकार के अर्थ में- “ गांधीवादी चिंतन-पद्धति एक पूर्णांग जीवन का परिदृश्य एवं परिकल्पना को लेकर चलती है।४३ यही कारण है कि मनुष्य की मनुष्यता’ को बचाए रखने और तीसरी दुनिया के अभावग्रस्त और पिछड़े देशों के लिए’ ‘स्वदेशीपन सादगी और सहजता’ के सूत्र पर आधारित इस गांधीवादी रुचि-बोधसौन्दर्य-पद्धति और जीवन-पद्धति को कुबेरनाथ राय ने अपरिहार्य माना है ।
संदर्भ
१. राम मनोहर लोहियाअर्थशास्त्र मार्क्स से आगेलोकभारतीइलाहाबाद,१९९४पृष्ठ -
२.  कुबेर नाथ रायसहजानन्द समग्रभूमिका (अप्रकाशित) खण्ड-४
३. कुबेरनाथ रायमरालभारतीय ज्ञानपीठ,१९९३पृष्ठ-११२
४. कुबेरनाथ रायमेरी सृष्टि मेरी दृष्टि, (संपादक) मांधाता रायनिवेदितासहजानन्द कालेजगाज़ीपुरपृष्ठ-३०
५. कुबेरनाथ रायचिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रहिन्दुस्तानी अकदेमी१९९६पृष्ठ-१८९।
६. कुबेरनाथ रायपत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०भूमिका
७. वही।
८. कुबेरनाथ रायरस-आखेटकभारतीय ज्ञानपीठ,१९ पृष्ठ-३३
९. कुबेरनाथ रायपाँत का आखिरी आदमीपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-९।
१०. वही-९।
११. कुबेरनाथ रायपाँत का आखिरी आदमीपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-१२।
१२. वही।
१३. कुबेरनाथ रायपाँत का आखिरी आदमीपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-१८-१९।
१४. कुबेरनाथ रायपाँत का आखिरी आदमीपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-१३।
१५.   महात्मा गांधीमेरा सपनापंचायत राजनवजीवन प्रकाशन मंदिर,अहमदाबाद
१६.   कुबेरनाथ रायनई सरस्वती का आह्वानपत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-२७
१७.   कुबेरनाथ रायमरालभारतीय ज्ञानपीठ,१९९३पृष्ठ-१११
१८.   महात्मा गांधीहिंद-स्वराजनवजीवन प्रकाशन मंदिर,अहमदाबादपृष्ठ-४०
१९.   वही-४१
२०.   महात्मा गांधीअहिंसक अर्थव्यवस्थापंचायत राजनवजीवन प्रकाशन मंदिर,अहमदाबाद-५
२१.   महात्मा गांधीस्वतन्त्र भारत में पंचायतेंपंचायत राजनवजीवन प्रकाशन मंदिर,अहमदाबाद-१०
२२.   कुबेर नाथ रायशांतं सरलं सुन्दरम्पत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,दिल्ली-१९
२३.   कुबेरनाथ रायसच बोलना ही कविता हैपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-६४
२४.   वही
२५.   वही
२६.   कुबेरनाथ रायसाहित्य उच्चगामी हो!, पत्र:मणि पुतुल के नामगांधी शान्तिप्रतिष्ठान८३-८४।
२७.   कुबेरनाथ रायभारतीय ज्ञानपीठ,१९९३मरालभूमिका,
२८.   कुबेरनाथ रायनयी सरस्वती का आह्वानपत्रमणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान१९८०,पृष्ठ-२९
२९. कुबेरनाथ रायस्वच्छ और सरलपत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-७४
३०. कुबेरनाथ रायसाहित्य उच्चगामी हो!, पत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-८९
३१. कुबेरनाथ रायभारतीय वाङ्मय का विश्वरूपचिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रहिन्दुस्तानी अकदेमी,१९९६पृष्ठ-६६
३२. कुबेरनाथ रायमरालभारतीय ज्ञानपीठ,१९९३पृष्ठ-१११
३३. कुबेरनाथ रायचिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रहिन्दुस्तानी अकदेमी१९९६पृष्ठ-९८-९९
३४. वही,९८
३५. कुबेरनाथ रायचिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रहिन्दुस्तानी अकदेमी१९९६पृष्ठ-१११ 
३६. कुबेरनाथ रायमहाकवि की तर्जनीनेशनल पब्लिशिंग हाउस१९८९पृष्ठ- ८५-८६
३७. कुबेरनाथ रायमहाकवि की तर्जनीनेशनल पब्लिशिंग हाउस१९८९पृष्ठ-७९
३८. महात्मा गांधीसर्वोदयनवजीवन प्रकाशन मंदिर भूमिका
३९. वही
४०. कुबेरनाथ राय मनियारा सांप,भारतीय ज्ञानपीठनई दिल्ली,१९६४ पृष्ठ-४४
४१. कुबेरनाथ रायवे रसमय पुरुष थेपत्र मणिपुतुल के नामगांधी शान्ति प्रतिष्ठान,१९८०पृष्ठ-४७
४२. कुबेरनाथ रायचिन्मय भारत : आर्ष-चिंतन के बुनियादी सूत्रहिन्दुस्तानी अकदेमी१९९६पृष्ठ-१९१।
४३. वहीपृष्ठ-१९०।