सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

लिए लुकाठा हाथ।


कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठा हाथ।
जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ॥
कबीर की ये पंक्तियाँ हमारी पीढ़ी की प्रिय पंक्तियाँ हैं। इसे दोहराती तो पिछली पीढियाँ भी रही हैं,पर हमने इसे जीवन में उतारना सीख लिया है।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

नागपंचमी

आज नागपंचमी है। अपने गाँव-घर का साल का पहला त्यौहार। दादी के शब्दों में 'बरिस दिन क दिन' । दादी नहीं हैं, लेकिन इस त्यौहार पर उनसे जुडी यादें अब भी हैं। नगरीय जीवन की व्यस्तताओं और भीड़ - भाड़ में हमारे लिए त्यौहार सिर्फ अवकाशों तक सीमित रह गए हैं । हमारे खाने-पीने के व्यंजनों के रूप भी काफी बदल गए हैं। लेकिन अब भी नाग पंचमी के साथ 'महेर' और 'लट्टा' जैसे ठेठ गंवई व्यंजनों के स्वाद की स्मृतियाँ वैसे ही ताजा हो जाती हैं , जैसे दादी की स्मृतियाँ। मेरी समझ में नागपंचमी भी वैसे ही किसान जीवन का महत्वपूर्ण त्यौहार है, जैसे होली। होली एक फसल-चक्र का अंतिम त्यौहार है और नागपंचमी अगले फसल चक्र का पहला त्यौहार। अन्यथा भारतीय पंचांग के अनुसार तो साल का पहला त्यौहार सतुआन( बैशाखी ) होना चाहिए। वस्तुतः यह किसान-कैलेण्डर का पहला त्यौहार है। इसमें पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड की जगह प्रायः कम ही है और वह भी सम्भवतः बाद में जुड़ा होगा। हमारे यहाँ इसे नाग पंचमी के बजाय पचैंय्या के नाम से जाना जाता है। यह अखड़ेबाजों के लिए कुश्ती का त्यौहार है। इस दिन साल में कभी अखाड़े में न जाने वाला ग्रामीण भी अपने शरीर में अखाड़े की धूल मलता है। इसलिए इसका सम्बन्ध आध्यात्मिक से कहीं अधिक इहलौकिक जीवन से ही जुड़ा जान पड़ता है और यह इसके पूर्णतः लोकाश्रित (अपने मूल अर्थ में 'सेक्यूलर') त्यौहार होने के प्रमाण को ही पुष्ट करता है।

रविवार, 14 जून 2015

हम मारे जाएंगे




हमने पहचान ली हैं
सलवटें समय की
सफेद चादर में छिपी हुईं
हम मारे जाएँगे,
हमने देख लिया है
अमृत पात्र से ढका हुआ
विष-कुंभ
हम मारे जाएंगे,
कर लिया है हिसाब
साँसोंधड़कनों और फेफड़े में भरी हवा का
उनके और अपने
इसलिए हम मारे जाएंगे
इस तमाम करणों के बीच
क्या सच-मुच जिंदा हैं हम
इस डर के साथ कि हम मारे जाएँगे 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

भाषानाटकम्


प्रथमोध्यायः 

नटी : हे स्वामी! इधर पार्श्व में क्या हो रहा है ?
नट:  हे सखी इधर (मुखर्जी नगर में ) हिन्दी को लेकर संघ लोक सेवा आयोग की नीतियों की विरुद्ध  आंदोलन हो रहा है …
नटी : यह आंदोलन क्या होता है, प्रिय!
नट : प्रिये ! यह नए युग का यज्ञ है।
नटी : फिर, तो इसमें यजमान पुरोहित भी होंगे ?
नट : तुमने ठीक समझा । वह जो शित-केशी सौम्य मुख वाले सज्जन सबके माध्य में बे स्थित हैं, वे  हीं पुरोहित हैं ।
नटी : और आचार्य ?
नट : वह सामने स्थित प्रौढ़ सज्जन जो धान की हरित बालियों की बीच झरंगा क़ी पकी हुई पिंगल  बाली कि तरह शोभा पा रहे  हैं, वही इस यज्ञ की आचार्य हैं ।
नटी : इसके यजमान कौन हैं ?
नट : बेरोजगारी रूपी कीड़े द्वारा चाल दिए गए जड़ो वाले निरस वॄक्ष की चाल कि तरह शुष्क चेहरे वाले वे युवा ही उसके यजमान हैँ।
नटी : हे प्राणनाथ! इस यज्ञ का उद्देश्य क्या है ?
नट : हे भ्रामरी की तरह मधुर गुंजार करने वाली मेरी प्राण प्रिये ! यह अधुनिक राज सूय यज्ञ है ।
नटी: इसके सम्बन्ध में सुनकर मुझे उत्सुकता  हो रही है, मुझपर अनुग्रह करके इसकी संबन्ध में विस्तार से बताएँ ।
नट : यदि तुम इतनी उत्सुक हों तो सुनो..........

(नेपथ्य से)
यह आंदोलन अपना हित साधन करने का रास्ता है । इसका किसी भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं । कुछ बुद्धिजीवी भी उसके साथ साथ हैं और स्टैटस बता रहे हैं की कुछ अध्यापक भी । पर, मुझे तो नहीं लगता कि ये कोई बहुत मह्त्वपूर्ण है क्योंकि ये सत्ता-व्यवस्था  में घुसने की होडा-होड़ी भर है। न तो इसका हिन्दी से कोई लेना देना है न हिन्दी भाषियों से।  यदि यह तथ्य है कि नई पद्धति लागू होने से पहले हिन्दी-भाषी और हिंदी माध्यम के छात्र अधिकारी बनाते रहे हैं तो यह भी तथ्य हैं की उन्होंने हिंदी भाषा के विकास में धेले भर का योगदान नहीं दिया । और मेरा यह भी दावा है की कल व्यवस्था के अंग बन जाएंगे तो वही करेंगे जो आज व्यवस्था कर रही  है। हिन्दी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों पर लाठीयां बरसाएंगे ।
            रही बात गुरुजनों की तो पहले अकादमिक जगत में अंग्ऱेज़ी की बरचस्व को तोड़ कर दिखाएँ और पश्चिम (यूरोप और अमेरिका) के आतंक से निजात पा लें, तो हिंदी क्या भारत की हर भाषा खुद-ब-खुद अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ सथान पा लेगी। अन्यथा भाषा की राजनीति  में सर  फोड़ौव्वल  के अलावा कुछ नहीं  मिलने वाला

(एक पागल  का बड़बड़ाते  हुए तेजी से  प्रवेश।  एक अदृश्य (दैवीय) स्तम्भ में बंधी स्त्री के पास आकर ठहर जाता है और अबतक मौन साक्षी की तरह सारे उपक्रम क़ो निहारने वाली वह स्त्री आचनक बोल उठती है)

स्त्री  : हा हन्त !
मुझे राजनीति की शामिधा और क्षेत्रवाद के घी  की सम्मिलित अग्नि में जाला कर  भष्म करने की निमित्त इतना कपटाचार ? ओह, स्वार्थ-सिद्ध आवाहन मन्त्रों को सुनकर यह अग्नि  अपनी लाल लाल जिह्वा कितनी तेजी से लपलपा रही हैं , लगता है, यह दुष्ट अग्नि यज्ञ की पूर्णाहुति से पूर्व ही बालि-पशु के रूप में यूप से बंधी हुई मुझे इस शाल-स्तम्भ के  साथ ही जला देगी ।
(इस तरह कहती हुई वह स्त्री अचानक आग के घेरे में आजाती है ओर उसे बचाने की उपक्रम में पागल भी उस आग में कूद  जाता है।)

समवेत स्वर में : हे पाठक गण ! अग्नि देव हमारे द्वारा श्रद्धा पूर्वक दी गयी यह जोडा बलि स्वीकार  करे और इससे प्रसन्न होकर वह हमारी आपकी और सभी अभिजात जनों की प्रिय आंग्ला भाषा नाम्नी सभ्य, सुसंस्कृत और और सभी कार्यों में दक्ष कन्या क़ो स्वस्थ और समृद्ध बनाएं तथा सौंदर्य एवं लावण्य युक्त करे। वह वैसे ही हम सभी को प्रिया हो, जैसे द्रोपदी अपने पांचो पतियों की प्रीया थी ।



                             इति श्री भाषा नाटकस्य प्रथमो अध्यायः । 

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

प्रतिबंधित कविताओं का स्वरूप

भारत का पिछली दो शताब्दियों  (1757 र्इ. से 1947 र्इ. तक) का इतिहास ब्रिटिश साम्राज्यवादी औपनिवेशिक सत्ता के अधीन एक परतन्त्र राष्ट्र का इतिहास रहा है। इस दौरान भारतीय जनता को अनेक प्रकार के दु:ख-दर्द झेलने पड़े। उनसे मुक्ति के लिए भारतीयों को एक लम्बी लड़ार्इ लड़नी पड़ी। उनकी अभिव्यक्ति पर बार-बार तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये गये। इसके बावजूद भारतीयों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना का प्रवाह निरंतर बना रहा और इसका एक बड़ा वाहक साहित्य रहा है। इसलिए साहित्य पर भी समय-समय पर प्रतिबंध लगाये जाते रहे। हिन्दी कविता इसका एक महत्त्व उदाहरण रही है। 
'देशेर कथा' की भूमिका में सखाराम गणेश देउस्कर ने लिखा है- ``हमारे आन्दोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र  हैँ । हम लोगों को दाता की करुणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति के कर्तव्य-बु़द्धि को उद्बोधित करने के लिए पुन: पुन: चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहाँ है।''  यह कथन ब्रिटिश भारत में लेखकों और बुद्धिजीवियों की भूमिका की ओर संकेत करता है।
'देशेर कथा का पहला संस्करण 1904 में प्रकाशित हुआ था। तब बंगाल अविभाजित था। अंग्रेज़ी हुकूमत ने 1905 र्इ. में बंगाल के विभाजन की घोषणा की। रिजले ने विभाजन के उद्देश्य के बारे में लिखा है- ''संयुक्त बंगाल एक शकित है। विभाजित बंगाल विभिन्न रास्तों पर जायेगा। हमारा उद्देश्य इसे विघटित कर देना है ताकि हमारे शासन का विरोध करने वाला एक ठोस आधर कमजोर हो जाय।'' बंगाल का विभाजन बांग्ला जातीयता पर एक गम्भीर चोट थीजिसके बाद  समूचा बंगाल तिलमिला उठा। बंगाल के साथ ही देश के अन्य प्रान्तों में भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। इस निर्णय का जबरदस्त विरोध किया गया। इस विरोध की लहर ने 'देशेर कथा' को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बना दिया। सन 1904 से 1908 तक इसके पाँच संस्करण प्रकाशित कराये गये। इसकी लोकप्रियता से डरकर सरकार ने 28 सितम्बर, 1910 में इस पुस्तक को प्रतिबन्धित कर दिया। 30 सितम्बर को इसकी सूचना दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुर्इ। 'हित वादिनी' पत्रिका ने प्रतिबंध का कारण बताते हुए लिखा है- ''पंडित सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक 'देशेर कथा' पर पाबंदी इस आधर पर लगार्इ गर्इ है कि इसमें ऐसी सामग्री है जिसको पढ़कर पाठकों के मन में सरकार के प्रति अलगाव का भाव पैदा होगा।'' 'देशेर कथा' के साथ ही देउस्कर की एक अन्य पुस्तक 'तिलकेर मुकद्दमा' पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। 
सन 1908 ई.  में वीर सावरकर को मराठी की कुछ देशभक्ति कविताएँ छापने पर धरा 121 के अनुसार आजीवन काला पानी की सजा दी गर्इ। मुम्बर्इ हार्इकोर्ट के जज ने फैसले में लिखा ''लेखक का  प्रधान उद्देश्य हिन्दुओं के कुछ देवताओं तथा वीरों का जैसेशिवाजी आदि का नाम लेकरवर्तमान सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना है। ये नाम तो सिर्फ बहाने हैं। लेखक का कहना सिर्फ इतना है कि शस्त्र उठाकर इस शासन का विध्वंश करो क्योंकि यह विदेशी तथा अत्याचारी है।'' भारतीय इतिहास में साहित्य पर प्रतिबंध के साथ काले पानी की सजा की यह पहली घटना थी। इसके पहले बालगंगाधर तिलक को 'शिवाजी के उद्गार' शीर्षक कविता के लिए 14 सितम्बर 1896 र्इ. में डेढ़ वर्ष की कड़ी सजा सुनार्इ गर्इ थी।
भारत में अंग्रेजी सत्ता अपनी स्थापना के समय मुद्रित सामग्री पर किसी-न-किसी रूप में नियंत्रण रखती रही। आरंभ में इस नियंत्रण को लेकर एक ऊहापोह की स्थिति दिखार्इ देती है। यह स्थिति उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन में प्रेस की स्वतंत्राता और भारत में एक शासक के रूप में अपनी स्थिति के द्वंद्व से पैदा हुर्इ थी। इसलिए कभी कठोर नियंत्रण और कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का लचीला रुख अख्तियार किया गया।'' फिर भी मुद्रित सामग्री पर सरकारी नियंत्रण सन 1799 र्इ. में सरकारी सेंसर की नियुक्ति से ही लागू हो गया था। 1867 र्इ. का प्रेस नियंत्रण कानून, 1870 र्इ. में पारित धारा 124(ए) और 1898 में इसका संशोधन तथा धारा 153(ए) का इसमें सम्मिलित किया जाना सरकार के क्रमश: बढ़ते नियंत्रण का प्रमाण है। बाद में 1908 र्इ. के समाचार पत्र अधिनियम और 1910 के इण्डियन प्रेस एक्ट ने इसे और कठोर बना दिया। 

दूसरी ओर जैसे-जैसे भारत की आम जनता में आजादी की ललक बढ़ती गर्इ और स्वतंत्रता आन्दोलन की धार तेज होती गर्इवैसे-वैसे साहित्य में प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्ण होता गया। बड़ी मात्रा में आजादी और एकता के तराने पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे और सरकार उनपर प्रतिबंध लगाती रही। राष्ट्रीय संग्रहालय के 26 जून 1982 के रिकार्ड के अनुसार विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रतिबंधित कविता-संग्रहों की संख्या इस प्रकार है- हिन्दी-264, उर्दू-58, मराठी-33, पंजाबी-22, गुजराती-22, तमिल-19, तेलुगु-10, सिंधी-9, बंगला-4, कन्नड़-3, उड़िया-11। हिन्दी कविता संग्रहों में देवनागरी लिपि में लिखे गये हिन्दीतर भाषाओं के गीत भी थे। हिन्दी की प्रतिबन्धित काव्य-कृतियों में 'स्वराज्य की वंशी' (1922), 'अहिंसा का झंडा' (1930), 'आजाद भारत के गाने' (1930), 'देश का गम' (1922), 'शहीदों की यागदार' (1931), 'गांधी गीत सागर'(1930), 'अहिंसा की बिजली'(1932), 'आजादी के नुस्खे'(1930), 'आजादी का चमत्कार'(1930), 'आजादी की उमंग'(1931), 'गांधी का चरखा' (1923), 'खूनी गजलें' (1923), 'राष्ट्रीय पद्य-मंजरी'(1922), 'तराना-ए-आजाद'(1925), 'राष्ट्रीय तरंग'(1930), 'आजादी का झंडा'(1930), 'भगवान गांधी' अथवा 'स्वतंत्रा भारत का विगुल' (1930), 'बेकसों के आँसू' (1930) , 'भारत का राष्ट्रीय आल्हा' अथवा 'भारत के वर्तमान का फोटो' (1930), 'भारत का महाभारत' (1931), 'गांधी गीतांजली' (1932), 'चमकता स्वराज' (1930) आदि प्रमुख कविता संग्रह हैं ।
हिन्दी की इन पुस्तकों का प्रकाशन क्रमश: सन 1922, 1923, 1928, 1929, 1930, 1931, 1932 और 1940 में हुआ। प्राय: पुस्तकों के मुख-पृष्ठ पर किसी-न-किसी राष्ट्रीय नेता या शहीद की तस्वीर छपी होती थी। इनके ऊपर 'सत श्री अकाल', 'अल्लाह-हो अकबर' और 'वन्दे मातरम' लिखा होता था। 'गीतों को प्रभाती', 'चरखा गीत', 'राष्ट्रीय वन्दना', 'आल्हा', 'स्वराज्य गीत', 'स्वराज गायन', 'खादी का डंका', 'देशभक्त की आरजू'प्रार्थनाउदबोधन,'रणभेरी', 'शहीदों का संदेश' जैसे नाम दिये गये हैं। उदाहरण के लिए यती यतन लाल द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्रीय शंखनाद' संग्रह से एक गीत लिया जा सकता है। इसका शीर्षक है 'माता की पुकार-
ऐ हिन्द के सपूतो! कुछ भी तो कर दिखाओ। 
अब भी तजो गुलामी सबको यही सिखाओ।। 
*                *             *
आजाद जो है होना पहला सबक यही है।     
कानून को कुचलकर घर जेल को बनाओ।
*               *               *
कट जाय सरन कर दोयह आखिरी कसौटी।
इसका भी वक्त आया वीरो! कदम बढ़ाओ।।
इसी तरह एक दूसरा उदाहरण दृष्टव्य है। गिरिराज किशोर अग्रवाल द्वारा संकलित 'स्वतंत्रता की देवी' नामक संग्रह में शामिल 'है वतन के वास्ते अक्सीर वन्दे मातरम' इस प्रकार है-
है वतन के वास्ते अक्सरी वन्दे मातरम।
देश के खादिम की है जागीर वन्दे मातरम।।
जालिमों को है अगर बंदूक पर अपने गरूर।
है इधर हम बेकसों की तीर वन्दे मातरम।।
इन कविताओं में साहित्य के प्रचलित छन्दों के अतिरिक्त लावनियोंआल्हारास तथा अन्य लोक गीतों की शैलियों का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उर्दू की गजलों के आधार पर हिन्दी में भी गजलों का चलन दिखार्इ पड़ता है। प्राय: काव्य संग्रहों में संकलनकर्ता का नाम तो है लेकिन कवि या रचनाकार के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। कहीं-कहीं केवल प्रकाशक का नाम ही उपलब्ध होता है। एक ही गीत अनेक संग्रहों में शामिल किया गया है। 'क्रांति गीतांजली' भाग-2 के कवि रूप में रामप्रसाद बिस्मिल का नाम दर्ज है जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी की चर्चित कविता 'पुष्प की अभिलाषा' भी शामिल की गर्इ है। इन संग्रहों में शामिल मुख्य कवि हैं तूफानकन्हैयालाल दीक्षित 'इन्द्र'विश्वनाथ शर्माप्रयणयेश शर्माअभिराम शर्माजांनिसार 'अख्तर'अनवरत्रिभुवनमास्टर नूरासागर निजामीश्यामलाल पार्शदसुभद्रा कुमारी चौहानरामप्रसाद बिस्मिलस्वामी नारायणानन्द 'अख्तर'विशारदसोहनलाल द्विवेदी आदि। 

*                                    *                            *

हिन्दी की ये प्रतिबन्धित  कविताएँ अपने समय की राष्ट्रीय सांस्कृतिक आवश्यकाताओं की उपज हैं। इनमें भारतीय संस्कृति की पुनर्व्याख्या कर उसके उदात्तजीवन्त और प्रगतिशील तत्त्वों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है ये कविताएँ शांतिअहिंसा सत्य और त्याग जैसे उच्चतर मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखार्इ देती हैं। देश की धार्मिकसामाजिक और सांस्कृतिक एकता पर बल देते हुए देश के लिए आत्मोत्सर्ग को जीवन के सबसे बड़े ध्येय के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं। इसलिए सामाजिक विघटन और सांप्रदायिक अलगाव की चुनौतियों के सामने ये कविताएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं । वास्तव मेंये कविताएँ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में निहित राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की मुखर अभिव्यकित हैंजिसकी अनुगूंज अब भी सुनी जा सकती है।


एक अंश ……