रविवार, 14 जून 2015

हम मारे जाएंगे




हमने पहचान ली हैं
सलवटें समय की
सफेद चादर में छिपी हुईं
हम मारे जाएँगे,
हमने देख लिया है
अमृत पात्र से ढका हुआ
विष-कुंभ
हम मारे जाएंगे,
कर लिया है हिसाब
साँसोंधड़कनों और फेफड़े में भरी हवा का
उनके और अपने
इसलिए हम मारे जाएंगे
इस तमाम करणों के बीच
क्या सच-मुच जिंदा हैं हम
इस डर के साथ कि हम मारे जाएँगे 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

भाषानाटकम्


प्रथमोध्यायः 

नटी : हे स्वामी! इधर पार्श्व में क्या हो रहा है ?
नट:  हे सखी इधर (मुखर्जी नगर में ) हिन्दी को लेकर संघ लोक सेवा आयोग की नीतियों की विरुद्ध  आंदोलन हो रहा है …
नटी : यह आंदोलन क्या होता है, प्रिय!
नट : प्रिये ! यह नए युग का यज्ञ है।
नटी : फिर, तो इसमें यजमान पुरोहित भी होंगे ?
नट : तुमने ठीक समझा । वह जो शित-केशी सौम्य मुख वाले सज्जन सबके माध्य में बे स्थित हैं, वे  हीं पुरोहित हैं ।
नटी : और आचार्य ?
नट : वह सामने स्थित प्रौढ़ सज्जन जो धान की हरित बालियों की बीच झरंगा क़ी पकी हुई पिंगल  बाली कि तरह शोभा पा रहे  हैं, वही इस यज्ञ की आचार्य हैं ।
नटी : इसके यजमान कौन हैं ?
नट : बेरोजगारी रूपी कीड़े द्वारा चाल दिए गए जड़ो वाले निरस वॄक्ष की चाल कि तरह शुष्क चेहरे वाले वे युवा ही उसके यजमान हैँ।
नटी : हे प्राणनाथ! इस यज्ञ का उद्देश्य क्या है ?
नट : हे भ्रामरी की तरह मधुर गुंजार करने वाली मेरी प्राण प्रिये ! यह अधुनिक राज सूय यज्ञ है ।
नटी: इसके सम्बन्ध में सुनकर मुझे उत्सुकता  हो रही है, मुझपर अनुग्रह करके इसकी संबन्ध में विस्तार से बताएँ ।
नट : यदि तुम इतनी उत्सुक हों तो सुनो..........

(नेपथ्य से)
यह आंदोलन अपना हित साधन करने का रास्ता है । इसका किसी भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं । कुछ बुद्धिजीवी भी उसके साथ साथ हैं और स्टैटस बता रहे हैं की कुछ अध्यापक भी । पर, मुझे तो नहीं लगता कि ये कोई बहुत मह्त्वपूर्ण है क्योंकि ये सत्ता-व्यवस्था  में घुसने की होडा-होड़ी भर है। न तो इसका हिन्दी से कोई लेना देना है न हिन्दी भाषियों से।  यदि यह तथ्य है कि नई पद्धति लागू होने से पहले हिन्दी-भाषी और हिंदी माध्यम के छात्र अधिकारी बनाते रहे हैं तो यह भी तथ्य हैं की उन्होंने हिंदी भाषा के विकास में धेले भर का योगदान नहीं दिया । और मेरा यह भी दावा है की कल व्यवस्था के अंग बन जाएंगे तो वही करेंगे जो आज व्यवस्था कर रही  है। हिन्दी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों पर लाठीयां बरसाएंगे ।
            रही बात गुरुजनों की तो पहले अकादमिक जगत में अंग्ऱेज़ी की बरचस्व को तोड़ कर दिखाएँ और पश्चिम (यूरोप और अमेरिका) के आतंक से निजात पा लें, तो हिंदी क्या भारत की हर भाषा खुद-ब-खुद अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ सथान पा लेगी। अन्यथा भाषा की राजनीति  में सर  फोड़ौव्वल  के अलावा कुछ नहीं  मिलने वाला

(एक पागल  का बड़बड़ाते  हुए तेजी से  प्रवेश।  एक अदृश्य (दैवीय) स्तम्भ में बंधी स्त्री के पास आकर ठहर जाता है और अबतक मौन साक्षी की तरह सारे उपक्रम क़ो निहारने वाली वह स्त्री आचनक बोल उठती है)

स्त्री  : हा हन्त !
मुझे राजनीति की शामिधा और क्षेत्रवाद के घी  की सम्मिलित अग्नि में जाला कर  भष्म करने की निमित्त इतना कपटाचार ? ओह, स्वार्थ-सिद्ध आवाहन मन्त्रों को सुनकर यह अग्नि  अपनी लाल लाल जिह्वा कितनी तेजी से लपलपा रही हैं , लगता है, यह दुष्ट अग्नि यज्ञ की पूर्णाहुति से पूर्व ही बालि-पशु के रूप में यूप से बंधी हुई मुझे इस शाल-स्तम्भ के  साथ ही जला देगी ।
(इस तरह कहती हुई वह स्त्री अचानक आग के घेरे में आजाती है ओर उसे बचाने की उपक्रम में पागल भी उस आग में कूद  जाता है।)

समवेत स्वर में : हे पाठक गण ! अग्नि देव हमारे द्वारा श्रद्धा पूर्वक दी गयी यह जोडा बलि स्वीकार  करे और इससे प्रसन्न होकर वह हमारी आपकी और सभी अभिजात जनों की प्रिय आंग्ला भाषा नाम्नी सभ्य, सुसंस्कृत और और सभी कार्यों में दक्ष कन्या क़ो स्वस्थ और समृद्ध बनाएं तथा सौंदर्य एवं लावण्य युक्त करे। वह वैसे ही हम सभी को प्रिया हो, जैसे द्रोपदी अपने पांचो पतियों की प्रीया थी ।



                             इति श्री भाषा नाटकस्य प्रथमो अध्यायः । 

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

प्रतिबंधित कविताओं का स्वरूप

भारत का पिछली दो शताब्दियों  (1757 र्इ. से 1947 र्इ. तक) का इतिहास ब्रिटिश साम्राज्यवादी औपनिवेशिक सत्ता के अधीन एक परतन्त्र राष्ट्र का इतिहास रहा है। इस दौरान भारतीय जनता को अनेक प्रकार के दु:ख-दर्द झेलने पड़े। उनसे मुक्ति के लिए भारतीयों को एक लम्बी लड़ार्इ लड़नी पड़ी। उनकी अभिव्यक्ति पर बार-बार तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये गये। इसके बावजूद भारतीयों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना का प्रवाह निरंतर बना रहा और इसका एक बड़ा वाहक साहित्य रहा है। इसलिए साहित्य पर भी समय-समय पर प्रतिबंध लगाये जाते रहे। हिन्दी कविता इसका एक महत्त्व उदाहरण रही है। 
'देशेर कथा' की भूमिका में सखाराम गणेश देउस्कर ने लिखा है- ``हमारे आन्दोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र  हैँ । हम लोगों को दाता की करुणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति के कर्तव्य-बु़द्धि को उद्बोधित करने के लिए पुन: पुन: चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहाँ है।''  यह कथन ब्रिटिश भारत में लेखकों और बुद्धिजीवियों की भूमिका की ओर संकेत करता है।
'देशेर कथा का पहला संस्करण 1904 में प्रकाशित हुआ था। तब बंगाल अविभाजित था। अंग्रेज़ी हुकूमत ने 1905 र्इ. में बंगाल के विभाजन की घोषणा की। रिजले ने विभाजन के उद्देश्य के बारे में लिखा है- ''संयुक्त बंगाल एक शकित है। विभाजित बंगाल विभिन्न रास्तों पर जायेगा। हमारा उद्देश्य इसे विघटित कर देना है ताकि हमारे शासन का विरोध करने वाला एक ठोस आधर कमजोर हो जाय।'' बंगाल का विभाजन बांग्ला जातीयता पर एक गम्भीर चोट थीजिसके बाद  समूचा बंगाल तिलमिला उठा। बंगाल के साथ ही देश के अन्य प्रान्तों में भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। इस निर्णय का जबरदस्त विरोध किया गया। इस विरोध की लहर ने 'देशेर कथा' को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बना दिया। सन 1904 से 1908 तक इसके पाँच संस्करण प्रकाशित कराये गये। इसकी लोकप्रियता से डरकर सरकार ने 28 सितम्बर, 1910 में इस पुस्तक को प्रतिबन्धित कर दिया। 30 सितम्बर को इसकी सूचना दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुर्इ। 'हित वादिनी' पत्रिका ने प्रतिबंध का कारण बताते हुए लिखा है- ''पंडित सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक 'देशेर कथा' पर पाबंदी इस आधर पर लगार्इ गर्इ है कि इसमें ऐसी सामग्री है जिसको पढ़कर पाठकों के मन में सरकार के प्रति अलगाव का भाव पैदा होगा।'' 'देशेर कथा' के साथ ही देउस्कर की एक अन्य पुस्तक 'तिलकेर मुकद्दमा' पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। 
सन 1908 ई.  में वीर सावरकर को मराठी की कुछ देशभक्ति कविताएँ छापने पर धरा 121 के अनुसार आजीवन काला पानी की सजा दी गर्इ। मुम्बर्इ हार्इकोर्ट के जज ने फैसले में लिखा ''लेखक का  प्रधान उद्देश्य हिन्दुओं के कुछ देवताओं तथा वीरों का जैसेशिवाजी आदि का नाम लेकरवर्तमान सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना है। ये नाम तो सिर्फ बहाने हैं। लेखक का कहना सिर्फ इतना है कि शस्त्र उठाकर इस शासन का विध्वंश करो क्योंकि यह विदेशी तथा अत्याचारी है।'' भारतीय इतिहास में साहित्य पर प्रतिबंध के साथ काले पानी की सजा की यह पहली घटना थी। इसके पहले बालगंगाधर तिलक को 'शिवाजी के उद्गार' शीर्षक कविता के लिए 14 सितम्बर 1896 र्इ. में डेढ़ वर्ष की कड़ी सजा सुनार्इ गर्इ थी।
भारत में अंग्रेजी सत्ता अपनी स्थापना के समय मुद्रित सामग्री पर किसी-न-किसी रूप में नियंत्रण रखती रही। आरंभ में इस नियंत्रण को लेकर एक ऊहापोह की स्थिति दिखार्इ देती है। यह स्थिति उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन में प्रेस की स्वतंत्राता और भारत में एक शासक के रूप में अपनी स्थिति के द्वंद्व से पैदा हुर्इ थी। इसलिए कभी कठोर नियंत्रण और कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का लचीला रुख अख्तियार किया गया।'' फिर भी मुद्रित सामग्री पर सरकारी नियंत्रण सन 1799 र्इ. में सरकारी सेंसर की नियुक्ति से ही लागू हो गया था। 1867 र्इ. का प्रेस नियंत्रण कानून, 1870 र्इ. में पारित धारा 124(ए) और 1898 में इसका संशोधन तथा धारा 153(ए) का इसमें सम्मिलित किया जाना सरकार के क्रमश: बढ़ते नियंत्रण का प्रमाण है। बाद में 1908 र्इ. के समाचार पत्र अधिनियम और 1910 के इण्डियन प्रेस एक्ट ने इसे और कठोर बना दिया। 

दूसरी ओर जैसे-जैसे भारत की आम जनता में आजादी की ललक बढ़ती गर्इ और स्वतंत्रता आन्दोलन की धार तेज होती गर्इवैसे-वैसे साहित्य में प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्ण होता गया। बड़ी मात्रा में आजादी और एकता के तराने पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे और सरकार उनपर प्रतिबंध लगाती रही। राष्ट्रीय संग्रहालय के 26 जून 1982 के रिकार्ड के अनुसार विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रतिबंधित कविता-संग्रहों की संख्या इस प्रकार है- हिन्दी-264, उर्दू-58, मराठी-33, पंजाबी-22, गुजराती-22, तमिल-19, तेलुगु-10, सिंधी-9, बंगला-4, कन्नड़-3, उड़िया-11। हिन्दी कविता संग्रहों में देवनागरी लिपि में लिखे गये हिन्दीतर भाषाओं के गीत भी थे। हिन्दी की प्रतिबन्धित काव्य-कृतियों में 'स्वराज्य की वंशी' (1922), 'अहिंसा का झंडा' (1930), 'आजाद भारत के गाने' (1930), 'देश का गम' (1922), 'शहीदों की यागदार' (1931), 'गांधी गीत सागर'(1930), 'अहिंसा की बिजली'(1932), 'आजादी के नुस्खे'(1930), 'आजादी का चमत्कार'(1930), 'आजादी की उमंग'(1931), 'गांधी का चरखा' (1923), 'खूनी गजलें' (1923), 'राष्ट्रीय पद्य-मंजरी'(1922), 'तराना-ए-आजाद'(1925), 'राष्ट्रीय तरंग'(1930), 'आजादी का झंडा'(1930), 'भगवान गांधी' अथवा 'स्वतंत्रा भारत का विगुल' (1930), 'बेकसों के आँसू' (1930) , 'भारत का राष्ट्रीय आल्हा' अथवा 'भारत के वर्तमान का फोटो' (1930), 'भारत का महाभारत' (1931), 'गांधी गीतांजली' (1932), 'चमकता स्वराज' (1930) आदि प्रमुख कविता संग्रह हैं ।
हिन्दी की इन पुस्तकों का प्रकाशन क्रमश: सन 1922, 1923, 1928, 1929, 1930, 1931, 1932 और 1940 में हुआ। प्राय: पुस्तकों के मुख-पृष्ठ पर किसी-न-किसी राष्ट्रीय नेता या शहीद की तस्वीर छपी होती थी। इनके ऊपर 'सत श्री अकाल', 'अल्लाह-हो अकबर' और 'वन्दे मातरम' लिखा होता था। 'गीतों को प्रभाती', 'चरखा गीत', 'राष्ट्रीय वन्दना', 'आल्हा', 'स्वराज्य गीत', 'स्वराज गायन', 'खादी का डंका', 'देशभक्त की आरजू'प्रार्थनाउदबोधन,'रणभेरी', 'शहीदों का संदेश' जैसे नाम दिये गये हैं। उदाहरण के लिए यती यतन लाल द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्रीय शंखनाद' संग्रह से एक गीत लिया जा सकता है। इसका शीर्षक है 'माता की पुकार-
ऐ हिन्द के सपूतो! कुछ भी तो कर दिखाओ। 
अब भी तजो गुलामी सबको यही सिखाओ।। 
*                *             *
आजाद जो है होना पहला सबक यही है।     
कानून को कुचलकर घर जेल को बनाओ।
*               *               *
कट जाय सरन कर दोयह आखिरी कसौटी।
इसका भी वक्त आया वीरो! कदम बढ़ाओ।।
इसी तरह एक दूसरा उदाहरण दृष्टव्य है। गिरिराज किशोर अग्रवाल द्वारा संकलित 'स्वतंत्रता की देवी' नामक संग्रह में शामिल 'है वतन के वास्ते अक्सीर वन्दे मातरम' इस प्रकार है-
है वतन के वास्ते अक्सरी वन्दे मातरम।
देश के खादिम की है जागीर वन्दे मातरम।।
जालिमों को है अगर बंदूक पर अपने गरूर।
है इधर हम बेकसों की तीर वन्दे मातरम।।
इन कविताओं में साहित्य के प्रचलित छन्दों के अतिरिक्त लावनियोंआल्हारास तथा अन्य लोक गीतों की शैलियों का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उर्दू की गजलों के आधार पर हिन्दी में भी गजलों का चलन दिखार्इ पड़ता है। प्राय: काव्य संग्रहों में संकलनकर्ता का नाम तो है लेकिन कवि या रचनाकार के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। कहीं-कहीं केवल प्रकाशक का नाम ही उपलब्ध होता है। एक ही गीत अनेक संग्रहों में शामिल किया गया है। 'क्रांति गीतांजली' भाग-2 के कवि रूप में रामप्रसाद बिस्मिल का नाम दर्ज है जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी की चर्चित कविता 'पुष्प की अभिलाषा' भी शामिल की गर्इ है। इन संग्रहों में शामिल मुख्य कवि हैं तूफानकन्हैयालाल दीक्षित 'इन्द्र'विश्वनाथ शर्माप्रयणयेश शर्माअभिराम शर्माजांनिसार 'अख्तर'अनवरत्रिभुवनमास्टर नूरासागर निजामीश्यामलाल पार्शदसुभद्रा कुमारी चौहानरामप्रसाद बिस्मिलस्वामी नारायणानन्द 'अख्तर'विशारदसोहनलाल द्विवेदी आदि। 

*                                    *                            *

हिन्दी की ये प्रतिबन्धित  कविताएँ अपने समय की राष्ट्रीय सांस्कृतिक आवश्यकाताओं की उपज हैं। इनमें भारतीय संस्कृति की पुनर्व्याख्या कर उसके उदात्तजीवन्त और प्रगतिशील तत्त्वों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है ये कविताएँ शांतिअहिंसा सत्य और त्याग जैसे उच्चतर मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखार्इ देती हैं। देश की धार्मिकसामाजिक और सांस्कृतिक एकता पर बल देते हुए देश के लिए आत्मोत्सर्ग को जीवन के सबसे बड़े ध्येय के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं। इसलिए सामाजिक विघटन और सांप्रदायिक अलगाव की चुनौतियों के सामने ये कविताएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं । वास्तव मेंये कविताएँ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में निहित राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की मुखर अभिव्यकित हैंजिसकी अनुगूंज अब भी सुनी जा सकती है।


एक अंश ……

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

उठ जाग मुसाफ़िर : विवेकी राय




विवेकी राय हिन्दी ललित निबन्ध परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. इस विधा में उनकी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदि, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय जैसे शीर्षस्थानीय निबन्धकरों के साथ की जाती है. उनके निबन्ध सग्रह ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ और ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ उनकी पहचान के शुरुआती आधार बनते हैं तो ‘वन तुलसी की गन्ध’ और ‘जगत तपोवन सो कियो’ निबन्ध के क्षेत्र में नए क्षितिज के विस्तर के प्रमाण हैं . इस विधा में उनके अब तक ग्यारह संग्रह प्रकशित हो चुके हैं. ‘उठ जाग मुसफ़िर’ उनका बारहवां निबन्ध संग्रह है. 

     ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ की भूमिका में विवेकी राय ने लिखा है- ‘‘कई बार चर्चाओं में यह बात आई कि ललित निबन्ध एक ठहरी हुई विधा है और इसमें अब ज्यादा कुछ लिखने-करने की सम्भावना नहीं है .’’(पृष्ठ ७) ठीक यही बात रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य संवेदना का विकास’ में लिखी है- ''पर इस माध्यम की कठिनाई यह है कि इसका स्वरुप और इसके आंतरिक तत्व कुछ ऐसे प्रतिमानीकृत हो चुके हैं कि उसमें किसी बड़े प्रयोग की  सम्भावना नहीं रह जाती। प्रताप नारायण लेकर अब तक ललित निबंध के ढांचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ" (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास-255). एक ललित निबन्धकार के लिए यह एक बडी चुनौती है . विवेकी राय इस चुनौती  को स्वीकर करते हैं- “मेरे भीतर एक प्रबल संकल्प बनकर उठ गया ‘ अवश्य, ऐसा लग रहा है कि ललित-निबन्ध ठहरी हुई विधा है ' मगर यह ललित निबन्धकार ठहरा हुआ नहीं है.” यही वह चुनौती है जिसने उक्त संग्रह के निबन्धों के लेखन की भूमिका तैयार की. इस पूरी कृति में कुल १० निबन्ध हैं- ‘मेरी दिनचर्या : कुछ आयाम’, ‘नमो वक्षेभ्यः’, ‘उठ जाग मुसाफ़िर’, ‘केना’, ‘ग्रीष्म बहार’, ‘ततः किम्’, ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’, ‘चिन्ता भारत के उजडते गांवो की’, ‘गांव पर बनाम गांव में,’ ‘सवाल जीवन का’.   

विवेकी राय की पहचान बहुआयामी है. वे ललित निबन्ध के साथ ही कथा और कविता विधा में भी सक्रिय रहे हैं. यही कारण है कि कथात्मकता, काव्यत्मकता और वैचारिकता उनके निबन्धों में भी साथ-साथ उपस्थित रहे हैं . ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ समूचा संग्रह इसका अद्वितीय उदहरण है . ‘उठ जग मुसफ़िर’ संग्रह में भी इस तरह के उदहरणों की भरमार है.  इस पुस्तक का ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ निबन्ध मस्टर साहब से मिलने जाने की घटना से शुरू होता है - “वहां जाते समय कल्पना कर रहा था कि सदा की भांति तन-मन से पूर्ण स्वस्थ होंगे , पूर्ववत् धधाकर सहास मिलेंगे, सदाबहार से दिखेंगे फ़ुल्ल-कुसमित...’’( पृष्ठ ४२). यह अन्दाज़ किस्सागोई का है. लेकिन, निबन्ध के अन्त तक आते-आते, सन्दर्भों और तर्कों से गुजरते हुए,वे क्रमशः वैचरिक होते जाते हैं - “यह है माता, मातृ-भूमि, जन्मभूमि, स्वर्गलोक से भी प्यारी, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, एक जगा हुआ व्यक्ति इसके लिए तडप रहा है. इस तडपन में गीता के ऊंचे ज्ञान की गूंज है. यह भूमि (अष्टभेदी प्रकृति में प्रमुख) ही माता है और पुरुष ही परमात्मा पिता है. और न कोई माता है न पिता. वे तो निमित्त मात्र हैं. इसी माता, भूमि, मातृभूमि और सबका भाव जिसके सपनो में डूबा मुसाफ़िर पूरे देश को जगाता है. माता बिन आदर कौन करे, एक धन्यता का भाव है एक भावभीनी जननी जन्मभूमि की प्रार्थना है, एक मन्त्र है, सुमिरन भजन और कीर्तन है, जीवन साधना का सार है,....अन्तिम परीक्षा की घडी में वाल्मीकि की सीता जी ने भी पुकारा था- ‘माधवी देवी विवंर दातुमर्हति.’”. (पृष्ठ-५२) वैचरिक अनुशासन और कथात्मक प्रवाह की यह समन्विति ही विवेकी राय के निबन्धों को अलग पहचान देती है, जो इस संग्रह के अधिकांश निबन्धों में मौजूद है. इसी तरह इस पुस्तक से निबन्धों पर लेखक के कवि मन की छाप के भी कई उदारहरण दिये जा सकते हैं; जैसे, “वह वृक्ष भी आम का ही था जिसे सडक के पास एक खेत में अकेले मस्ती में झूमते हुए देखा था. अरे, वह झूम क्या रहा था, उद्धत-उन्मत्त नृत्य कर रहा था. फल-भार से झुकी डालियां पुरवा हवा के झकोरे खाकर जैसे अंग-अंग मरोडकर, झहर-झहरकर, दाहिने-बाएं झूम-झूमकर, कुछ ऊपर उठ, नीचे झटक जैसे झूले के पेंग में लहरकर स्वयं उत्सवी त्यौहार मना रही थीं. नीचे से ऊपर तक हर डाली का, हर टहनी का, हर पत्ती का और लट्टू-से डांटियों में लटके, झूमते भूरे-कष्णाभ फलों का, अकेले या झोंप-के-झोंप फलों का अलग-अलग जलवा था” (पृष्ठ३०). यहां वर्णन में कविता की-सी लय है और कला जैसी सजीव चित्रात्मकता.            
          ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी रागात्मकता उनके लेखन की अपनी एक खास पहचान है. गंवई जीवन के प्रति ऐसा जुडाव हिन्दी के किसी भी निबन्धकार में सर्वथा दुर्लभ रहा है. रेणु के उपन्यासों ने उपन्यास विधा को नई पहचान और एक नया विशेषण ‘आंचलिक उपन्यास’ दिया, उसी तरह विवेकी राय के निबन्ध भी निबन्ध विधा के भीतर खुद को आंचलिक निबन्ध के रूप मे अलग पहचन दे पाते, यदि आचर्य द्विवेदि और उनके पर्वर्ती निबन्धकारों ने ‘ललित निबन्ध’ पद को स्वीकार कर सारे व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों को इसकी परिभाषा में समहित न कर लिया होता. ‘नवनिकष’ के विवेकी राय विशेषांक में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है -“ मेरे लेखन की पष्ठ्भूमि ग्राम-जीवन है. वास्तव में वही मेरा जीवन भी है. लगभग आधी उमर धुर देहत के एक गांव मे गुजारने के बाद  एक अत्यन्त पिछडे और छोटे शहर में आया भी तो शहरी नहीं बन पाया...एक पैर गाजीपुर में रहता है तो एक पैर गांव सोनवानी में रहता है. भारत सरकार की कृपा से गांव वाले पैर को आराम बहुत है क्योंकि गाज़ीपुर से गांव पर जाने के लिए छोटी लाइन के पांचवे स्टेशन ताज़पुर-डेहमा पर उतरने के बाद जाडे-गरमी के दिनों में डेढ घंटा पदयात्रा करना अनिवार्य होता है. बाढ-बरसात के दिनो में यह समय दुगुना से ले कर चौगुना तक हो जाता है. सडक एक दुःस्वप्न है. भारत के लाखों गावों की भांति अभी मेरा गांव भी बिजली और सडक से वंचित है.”(पृष्ठ-७) यही कारण है कि उनके यहां ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी लोक-संसक्ति है. उन्होंने अपने समूचे लेखन में गांव को बेहद संजीदगी से जिया है . प्रेमचन्द के ’लमही’ और विवेकी राय के ‘सोनवानी’ में फ़र्क है . लमही बनारस से बहुत नज़दीक है और इसलिए शहर से गांव का लगभग सीधा सम्वाद भी है, गांव और शहर के बीच सम्वाद की यह झलक प्रेमचन्द के लेखन में बार-बार दिखाई भी देती है. ‘गोदान’ में भी ग्रामीण और शहरी परिवेश की एक साथ उपस्थिति है. होरी, धनिया, गोबर, मतादीन, सिलिया आदि ग्रामीण पत्रों के साथ ही रायसाहब, मेहता, मालती, खान्ना जैसे नगरीय जीवन के अभ्यस्त पात्र भी हैं. लेकिन, विवेकी राय ने जिस गांव की बात की है वह इसससे अलग है. यदि सीधे-सीधे कहने की सुविधा हो तो यही कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के यहां ग्रामीण जीवन का चित्रण है और विवेकी राय के यहां गंवई जीवन और परिवेश की आत्मीय उपस्थिति. गंवई जीवन के प्रति उनके जैसी आत्मियता और उसमें घटित होने वाले बदलावों का वैसा सूक्ष्म रेखांकन केवल फ़णीश्वर नाथ रेणु के उपन्यसों में ही देखा जा सकता है. 
             निबन्ध विधा के भीतर भी उनकी पहचान का एक मजबूत आधार ग्रमीण जीवन के प्रति गहरा लगाव है. ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ संग्रह के दो निबन्ध ‘चिन्ता भारत के उजडते गावों की’ और ‘गांव पर बनाम गांव में’ तो शीर्षक से ही ग्रामीण परिवेश से जुडाव व्यक्त करते हैं. ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने लिखा है,- “सायंकाल किसी के खेत में ‘कोठा’ छूट जाने का अनुमान होता, अर्थात लगता कि खेत का कुछ भाग छूट जाएगा, तो कुछ समय पहले काम समाप्त हुए किसी भाई का सहयोग मिल जाता-बिना मांगे भी. एक दिन मुझे भी अकस्मात ऐसा ही सहयोग मिल गया और सूर्यास्त होते-होते ‘मेरा कोठा मार दिया गया’...यह प्रेम,भाईचारा,सहयोग और सहकार का अमृत है, जिसे पीकर अकाल पीडित गरीब गांव जीवित है...साठ-सत्तर साल पूर्व का था यह जीता जागता परिदृश्य...स्वराज्य, विकास, नई खेती, नए ढांचे, नई-नई साधन-सम्पन्नता, सुविधा, नए तन्त्र-यन्त्र और मनी-मन्त्र में फंस किसान निरानन्द और गांव उदास क्यों हो गए ?...यह तुम्हरी कैसी सुराजी विकास की नई यान्त्रिक-व्यापरिक खेती है, जिसने ग्राम-देवता को मार डाला और गांव भलमानुस-विहीन हो गया? "(८५-८६). यहां स्वराज, पंचायती राज और समन्वित-विकास की सरकारी होर्डिंगों पोस्टरों और बैनरों से इतर, सरकारी स्लोगनों के ठीक उलट, आज के गांव की वास्तविक तस्वीर है जो पुरानी पिढी की स्मृतियों के गांव के रूप में आज के गांव के सामने डट कर खडी है. लेखक स्मृतियों के उस गांव को अपने लेखन में फ़िर से जी रहा है. यह पुरातनता का मोह या उसके पुनर्जीवन कि आकांक्षा नहीं बल्कि, परम्परा के ‘अस्ति-पक्ष’ को बचाए रखने की एक रचनात्मक जिद है.गांवों की उपेक्षा और उनसे निरन्तर कटते जाने का आभास महात्मा गांधी को बहुत पहले ही हो गया था. ‘हरिजनसेवक’ में ३०-०७-१९३८ को उन्होंने यह लिखा था-“जिन्हें शिक्षा का सौभाग्य प्राप्त है, उन्हें गावों की बहुत समय से उपेक्षा की है. उन्होंने अपने लिए शहरी जीवन चुना है.” इसके बर-अक्स उन्होंने जिस ‘ग्राम-स्वराज’ की बात की थी वह उस ‘सुराज’ से बहुत अलग है, जिसपर विवेकी राय ने व्यंग किया है. उनके सुराज में सहकारी खेती और सहकारी पशुपालन की बात शामिल थी. वे ग्रामीण जीवन के सहयोग और सहकारिता से परिचित थे. उन्होंने गांवों के लिए एक अहिंसक अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी, “अहिंसा की रचना कारखानों की सभ्यता की बुनियाद पर नहीं हो सकती है. मेरी कल्पना की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था शोषण का पूरा बहिष्कार करती है और शोषण ही तो हिंसा का सार-तत्व है. इस लिए आपको अहिंसक बनने के लिए पहले ग्रामदृष्टि का विकास करना पडेगा. ” (हरिजन सेवक,१.९.१९४०) स्पष्ट है गांधी ‘ग्राम-दृष्टि’ और ‘ग्राम-जीवन’ को नष्ट किए बिना विकास की बात कर रहे थे गांवों के तथाकथित नगरीकरण और आधुनिकीकरण के नाम पर संसाधनों से लेकर जीवन तक अन्धाधुन्ध यांत्रिकीकरण की नहीं. विवेकी राय की चिन्ता इसी ‘यान्त्रिकीकरण’ के विरोध से जन्मी है. पुराने जमाने की बात करते हुए उक्त अंश में विवेकी राय जिस रागत्मकता को रेखांकित कर रहे हैं, वह आज यांत्रिक होते ग्रामीण जीवन के कारण क्रमशः छीजती जा रही है-“ इसी करवट में ग्राम-विकास की बढती गाडी गावों के उजाड तक पहुंची. विकास तन्त्र, नवजीवित जातिवाद, चुनाव की राजनीति. इन चार रास्तों से चार चोर शनैः शनैः काल्क्रम से, छद्म वेश में घुसे गावों में...गांव बेपहचान हो गया. उसकी सामजिक एकता, पारस्परिक राह-रस्म. भाईचारा और भोज-भात की अन्यतम विशेषताएं तथा ग्राम-भाव के केंद्रीय तत्व-स्वरूप सांस्कृतिक परंपराएं सबकुछ घिस-पिट बदरंग हो समाप्त प्राय है. ”(पृष्ठ-८८) उनकी चिन्ता इन छीजते हुए जीवन-मूल्यों को बचाने की चिन्ता है जो एक बाहरी आदमी के लिए सम्भव नहीं, उसके लिए गांव या तो पिकनिक-स्पाट है या तमाम कुरूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की शरणस्थली. वह या तो उसे संरक्षित करना चाहता है, या फ़िर बदलना. लेकिन विवेकी राय के निबन्ध उससे जुडने, उसे अनुभव करने और जीने के लिए आमंत्रित करते हैं.
विवेकी राय का मन गांव-घर और सिवान-मथार में खूब रमा है. अर्ध-नगरीय कस्बाई जीवन से आ जुडने के बावजूद, वह अब भी उनकी सैर करने निकल जाता है. निबन्ध उनकी इसी मनोयात्रा के सहचर हैं. गांवों के प्रति गहरा आकर्षण बल्कि, मोह की स्थिति के कारण प्रायः यह महसूस होता है कि उनके यहां एक ही विषय का अतिशय दोहराव है और वे इससे बाहर नहीं निकल पाए हैं. लेकिन यह एक सतही अनुभव है. उनके निबन्धों में आहिस्ते-आहिस्ते उतरा जाय तो ऊपर से बहुत सरल और सीधे लगने वाले या रोचक लालित्यपूर्ण निबन्ध भी बहुत गहरी अर्थ-व्यंजकता, उदात्त जीवन-दर्शन और सामजिक-बोध से सम्पन्न हैं. गांव उनके लिए शहस्र-शीर्षा, शहस्र-पाद भारत की एक लघु इकाई हैं. कहा जाता है, एक चावल देख कर तसले के भात के पकने का अंदाज़ा लग जाता है, गांव तसले के उसी चावल की तरह हैं जिनसे भारत में हो रहे बदलावों की नब्ज टटोली जा सकती है. विवेकी राय गांवों के बहाने पूरे भारत की बात करते हैं. भूख, बेरोजगारी, बेकारी, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी तमाम समस्याएं, उनके यहां इसी माध्यम से व्यक्त हुई हैं. ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ संकलन के ‘सोने की लूट’ निबन्ध में गांव के दशहरे के बहाने उन्होंने सामजिक-यथार्थ के अनेक धूप-छाहीं रंगों को मिलाकर ललित निबन्ध के फ़लक पर भारतीय जीवन का एक वास्तविक चित्र अंकित किया है “अब मेरे सामने यह मुट्ठीभर मिट्टी है.यह मिट्टी नहीं लंका का सोना है. सकल विश्व-सम्पदा की राशि को चाकर रखने वाला रावण जल गया. उसकी सोने की लंका में ‘रहा न कुल कोऊ रोवनिहारा’. रामराज्य का श्रीगणेश हो गया.....काश कि वह दिन दूर न होता जब विश्वमंच पर शोषण,बर्बरता,अन्याय...धर्मान्धता और पैशचिकता के दशानन का बध होता” (फ़िर बैतलवा डाल पर,४४). यह एक स्वप्न है, एक शुभाकांक्षा है, जो उनके निबंधों में बार-बार ध्वनित होती है, ‘ग्राम-जीवन’ इसी स्वप्न की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और ऐसा शायद इसलिए कि यहां नगरीय जीवन से कम जतिलताएं हैं और सहज मानुस-भाव अब भी कुछ-न-कुछ हद तक बचा हुआ है-“ रामलीला है, त्यौहारी उल्लास हैं, उर्जस्वित अखाडे हैं, आह्लादक मंगलिक गीत हैं, एक परिवार का मंगलिक महोत्सव जैसे पूरे गांव का है..... सह जीवन सामूहिकता और सहयोग-भाव सर्वोपरि है. ऐसा तो एक दम नहीं हमसे क्या मतलब ?”(पृष्ठ,९८). लेकिन, इन स्थितियों के भीतर भी आधुनिकता ने एक फ़ांक पैदा कर दी है. मांगलिक गीतों की धुन फ़िल्मी गीतों के तिलिस्म में  कहीं खोती जा रही है. कंहरुआ,लोरकी,बिरहा से लेकर विवह गीत, सोहर और देवी गीत तक धीरे -धीरे संग्रहालयों की ओर रुख कर रहे हैं. ‘मास-कल्चर’ और ‘पपुलर कल्चर’ के वर्तमान दौर में देशी; गंवई परंपराओं की बहुरंगी संस्कृति, ‘फ़िल्मी कल्चर’ के छ्तनार वृक्ष के नीचे ‘बोनसाई’ जैसी या एकरूपता के नीरस असीमित विस्तार के बीच किसी ‘ओएसिस’(मरुद्यान) की तरह भूले भटके ही दिखाई दे जाती है. विवेकी राय के शब्दों में, “गांव नकलबाजी में शहर का कर्टून बनकर रह गया है”(पृष्ठ,८९)
देश की आजादी के बाद व्यवस्था के नये तंत्र में गांव सबसे अधिक पीसे गए हैं-उनकी सर्वाधिक क्षति हुई है. शहर जहां आधुनिकता की दौड में बहुत तेजी से आगे निकल गए हैं और उन्होंने अपना ऊपरी केंचुल उतार फ़ेंका है (यह बात अलग है कि मनोग्रंथियां और जटिल हुई हैं) वहीं गांव आधुनिक जीवन की विसंगतियों और पुराने केंचुल दोनों को एक साथ ढो रहे हैं-“ बदलाव के संक्रमणशील आधुनिक स्रोतों के प्रभाव से सीधा-सादा गांव अब विचित्र प्रकार का तिकडमी-फ़ितरती हो गया है.शहर के लोग यदि गांव में चले गए तो ग्रामीण उन्हें लंगी मारकर गिरा सकता है”(चिंता भारत के गावों की,उठ जाग मुसाफ़िर,९३).या फ़िर “ लगता है गांव सडक से उठकर सडक पर आता जा रहा है.  किसान दुकानदार बनता जा रहा है. खेत में खडा है तो उसका चेहरा कुछ और तरह का है तथा सडक पर कुछ और तरह का...अच्छा है बदलाव को विकास कहें...”(गांवपर बनाम गांव में, उठ जाग मुसाफ़िर,१०७). कारण; ‘विकास’, यानी एक बहुत बडा छद्म, जिसे वर्तमान व्यवस्था ने रचा है. विवेकी राय इस छ्द्म का प्रतिवाद करते हैं,“ मैंने वैसे आत्मतुष्ट गावों को देखा है और जिया है जिनके आधे-अधूरे लोग भी अपने आपमें पूरे थे और गांव-पर-गांव का अधिकार रखते थे.” ( वही,८९).  तो फ़िर क्या गांवई जीवन की ओर फ़िर लौट चला जाय, फ़िर उस परम्परा का पुनरुत्थान किया जाय जो पुरानी पड गई है, जो लगातार कदम-कदम पर तार-तार हो रही है, “ मेरा उत्तर है नहीं, यह असम्भव है”(वही,९९). फ़िर उपाय क्या है - शहरों के निरन्तर विस्तार और गांव में घुस आए शहरीपन का स्वागत ! विवेकी राय इससे भी असहमत हैं. वे पुनरुत्थान को तो नकारते ही हैं, अन्धाधुन्ध नगरीकरण के भी परम विरोधी हैं- “मगर उसे इस प्रकार उपेक्षित, प्रवंचित और अधकचरी शहरी मानसिकता में प्रवाहित-पतित आत्मघाती अवस्था में लुढकते जाने देने का समर्थन भी तो नहीं किया जा सकता.”(पृष्ठ-९९). यह द्वंद्व लेखक का निजी द्वंद्व नहीं समुचे गंवई समाज का द्वंद्व है. वह खुद को, अपनी परम्परा को बचए रखने की जद्दोजहद भी कर रहा है और साथ ही आधुनिक जीवन से ताल-मेल बिठाने की कोशिश भी कर रहा है. इन दोनों के बीच वह निरन्तर लिथड रह है-“ पुरातन परम्पराओं, रीति-रहनि और वैश्विक सटाव के दो ध्रुवांतों के बीच आज का ग्राम जीवन अटका-भटकापरम अनिश्चय की स्थिति में है. यह अपने पुरानेपन के सुखद व्यामोह को विस्मृत नहीं कर पाता है...नई पीढी के लिए पुरानी परंपराएं असंगत हो गई हैं. उसे लगता है पुरातनता मात्र एक निष्क्रिय भावात्मक सत्ता है”(पृष्ठ-९१). विवेकी राय इसके समाधान की बात भी करते हैं, जो गांधी-मार्गी है. उनके लिए यही स्वाभाविक भी है क्योंकि वे गांधी-चिन्तन में आस्था रखते हैं. यह बात उनके लेखन से गुजरते हुए, एक सचेत पाठक सहजता से समझ सकता है.
‘उठ जाग मुसाफ़िर’ को पढते समय कभी यह अनुभव होता है कि अपने ही गांव का कोई बडा-बुजुर्ग, कोई पुरनिया नई पीढी के किसी पढे-लिखे युवक को अपनी स्मृतियों की दुनिया की सैर करा रहा है तो कभी लगता है कि ‘कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू’ को चरितार्थ करता हुआ कोई लेखक आधुनिक गंवई जीवन की संहिता का दर्शन (ऋषयः मंत्र द्रष्टारः) कर उसके मंत्रों का गान कर रहा है. फ़र्क यह है कि ये मंत्र आदिम मन के मुग्ध-गायन नहीं जैसा कि वैदिक ऋचाओं के सम्बन्ध में माना जाता है, बल्कि लेखक ने यहां असहमतियों के लिए प्रर्याप्त छूट ली है. वह स्वयं उनका भाष्य भी करता चल रहा है.  इस पूरी प्रक्रिया में लेखक का ‘किसान-मन’ अत्यन्त सजग है. इसलिए खेती-बारी, घर-दुआर, गांव-जवार की ही बात नहीं करता बल्कि, वह ऋतु और मौसम की, बतास और बयार की खबर भी रखता है. जब वह प्रकृति में रमता है, तो निरन्तर डूबता जाता है; आकण्ठ नहीं आपद-मस्तक. उसका दर्शन ही है- ‘ज्यों-जों बूडे श्याम रंग त्यॊं-त्यॊं उज्ज्वल होय’. बिना इसके ग्रिष्म जैसे भुतहे मौसम में ‘बहार’ (ग्रिष्म बहार) की कल्पना कहां संभव है ? एक किसान ही है जिसे इस मौसम में भी मजा लेने की आदत है. चैती कटी है, बाग में महुए की मादक गन्ध है, आम के टिकोरे हैं, जौ या चने का सत्तू और आम की चटनी या ‘पन्ना’ है. बारहों महीने यह मौज कहां - कभी फ़ांका और कभी आधा-पेट.  लेखक आज की ‘अपरिचित’ गरमी के बीच उन्हीं दिनों की याद कर रहा है- “किसी बगीचे में पेड के नीचे आराम से सोते-बैठते, हंसते-बोलते लू भरी दोपहरी कट जाती. अब न बाग न वृक्ष ! झंखन में अचेत पडे-पडे भीतर-ही-भीतर गुनावट में डूबे हैं गांव या शहर के वृद्धजन!”(पृष्ठ-६२). किसान का प्रकृति से गहरा नाता है. वह भी उसके परिवार की एक सदस्य है- “गांव के बाहर कचनार अमराइयां हैं, चीं-चीं चहचह से गुलजार बंसवारियां हैं.....वृक्ष देवता भी मानवी रिश्तों में बंधे हैं. नया लगाया गया बाग फ़लदार होने लगा तो उसका विधिवत विवाह हुआ. लगाने वाला व्यक्ति फ़ल नहीं खाएगा” (पृष्ठ-९८). यह है किसान और प्रकृति का रिश्ता. यहां मानव विजेता और प्रकृति विजित नहीं है. डार्विन के ‘श्रेष्ठतम् की उत्तरजीविता’ और सम्भावनावादी भूगोलवेत्तओं का मनव-प्रकृति संबंध यहां लागू नहीं है. यहां मानव  उपभोक्ता और प्रकृति उपभोज्य नहीं है. दोनों में रागात्मक संबन्ध है, साहचर्य और आत्मीयता है. विवेकी राय की चिन्ता मानव और प्रकृति के बीच इस साहचर्य और आत्मीयता को बचए रखने की चिन्ता है. यही गांधी के अहिंसा दर्शन की भी विशेषता है. ये दोनों ही ‘ईशावास्योपनिषद्’ के इस श्लोक से प्रभावित जान पडते हैं –
ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्.
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्चिद्धनम्..
यह केवल आस्था और आस्तिकता की बात नहीं है; बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है, जिसपर समूचा भारतीय मानस टिका है. भोग के लिए भोग या अनन्त लिप्सा और अनन्त उपभोग नहीं, त्याग और भोग का समन्वय- दोनों की सम स्थिति, यही भारतीय जीवन-दर्शन है- ‘तत्तु  समन्वयात्’. यही भारतीय सौन्दर्य-दृष्टि और भारतीय आर्ष-चिन्तन की रीढ है. यहां वृक्ष देवता है, नदी देवता है, पर्वत देवता है, सूर्य, अग्नि, वायु, थल सब देवता हैं. यहां तक कि अन्न भी देवता है, उससे फ़ूटा अंकुर और हरीभरी फ़सल भी देवता है. भोजपुरी किसान के लिए ‘हर-हर महादेव’ का नारा नहीं; ‘हरियर-हरियर महादेव’ की कामना अधिक महत्व रखती है. विवेकी राय ने उसी किसान और उसकी चेतना की बात की है- “वृक्ष देवता हैं उन्हें काटना या क्षतिग्रस्त करना पाप है”(९८).


 इसी संग्रह में ‘नमो वृक्षेभ्यः’ शीर्षक पूरा निबन्ध ही प्रकृति-मानव-सबन्धों के इसी साहचर्य पर केन्द्रित है. इसमें इस साहचर्य की अनेक स्थितियों का वर्णन किया गया है और  इस परस्परता के क्रमशः क्षरण की चिन्ता भी है- “आश्रय वाली पैरों तले की जमीन खिसकती रहे और ग्लोबल वार्मिंग अफ़वाह नहीं सिर घहराई नाना रूपों वाली सत्यानाशी आपदा बन गहराती रहे तथा वृक्षाश्रित पक्षी-प्राणी बंजर जन-मन को कोसते रहें,मरते रहें,विलुप्त होते रहें, चिन्ता कौन करता है ? भीड में पैर उठे हैं सबका जो होगा, हमारा भी वही होगा.” स्पष्ट है, लेखक के प्रकृति से लगाव का कारण किसान-मन की प्रकृति से सहजात आत्मीयता मात्र नहीं है बल्कि, वैश्विक जीवन की चुनौतियों के प्रति सजग और विवेक-संयुत् मानस की मानव-हित चिन्ता की अभिव्यक्ति भी है. अतः गंवई जीवन और प्राकृतिक परिवेश से विवेकी राय का यह लगाव और आत्मीयता ‘भावुकतापूर्ण अरण्यरोदन’ नहीं, वर्तमान उपभोक्तावादी समय की चुनौतीयों का एक सार्थक विकल्प भी है. 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

लौट के बुद्धू घर को आए

बुद्धू हमारे गांव के पुराने रहवासी हैं। माना कि गांव के खसरा खतौनी में उनका कहीं कोई नाम नहीं, लेकिन इस बात की परवाह भी किसे है, न खुद बुद्धु को और न गांव के मुखिया-परधान को। बुद्धू कब पैदा हुए और उनके मां-बाप कौन थे किसी को पता नहीं। गांव के पुरनिया कहते हैं कि वे लोमश मार्कंदेय के सहोदर भ्राता हैं और तबसे आज तक जिए जा रहे हैं। इसी किंवदन्ती के आधार पर कुछ लोग उन्हें कैथी के मार्कंदेय धाम के निवासी भी मनते हैं, जो बाद में इस गांव में आ बसे। लोग मानते हैं, मानते रहें। मैं नहीं मानता। मैं तो उन्हें इसी गांव का मानता हूं। जब वे इस गांव की कई पीढियों के साथ जिए, रहे और अब भी रहते चले आ रहे हैं तो उन्हें यहां का मानने में भला आपत्ति भी क्या हो सकती है। इस गांव की तमाम पीढींया बुद्धु के देखते-देखते ही जन्मीं पलीं और काल के गाल में समा गईं। पर बुद्धु अब भी गबरू जवान हैं। सांड की तरह मजबूत डील-डौल और शेर की तरह मस्त चाल। हो भी क्यों न, उन्हें फ़िकर ही क्या है?जहां पांव ठिठक गए वहां खा लिया। जहां चारपाई मिलि ओठंग लिये। किसी ने कुछ कहा तो सुना दिया— ‘बुद्धू न किसी के राज्य में रहता है न किसी का दिया खाता है।’ फ़िर किसी ने कुछ अण्ट-सण्ट बोला तो बांह चढाके खड़े हो गए और तब सामने वाला खिसकने में ही भलाई  समझता है।
‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम।’ ये रही बुद्धू की प्रिय भजन जिसे स्प्तम स्वर में गा-गा कर पूरे गांव को सुनाते हैं । अगर कोई टोक दे तो ट्का सा जवाब “खुद तो कलियुग के कुटिल कीट बने घूमते हो और मैन राम का नाम जप रहा हूम तो उसमें भी बधा। हे राम घोर कलियुग आ गया है।’ इस भजन से उन्हें खुद तो कलियुग से मुक्ति मिली नहीं गांव के कुछ कुलों का उद्धार जरूर हो गया जिनके युवा उत्तराधिकारियों ने बुद्धू को अपना गुरू मान लिया। इस गांव के लगभग सारे निठल्ले बुद्धू के कनफ़ुंकिया चेले हैं। अंटी, बंटी, ही नहीं रामदास, परशुराम शरण और मुख्तार सहेब, मौलवी साहेब, बी.डी.ओ. साहेब डिप्टी साहेब सब के सब । चेलहाई में जाति-धर्म का भला कैसा बंधन ? जब ‘सबै धेनु गोपाल की’ तब सभी कनफुंकिया चेले बुद्धू के कैसे नहीं हो सकते। सुना है एक बार त्रेता में जब टोला-पडोसा के राक्षरों ने इस गांव के एक अवघड़ साधू को पूजा-पाठ में बिघ्न डाला तब उन्होंने ही उसे ‘सबके दाता राम’ का मंत्र दिया था और साधू भागा-भागा अयोध्या गयया था और राम लक्ष्मण को राजा दशरथ से उधार मांग लाया था और तब तड़का का बध इस गांव के ठीक दक्षिण में बकुलों से भरे तालाब (बक सर) में छिप कर किया गया था। बाकी की कथा तो आप को मालुम ही है।
 उनके जिवन में खास था तो बस एक घर, जो उन्हें नहीं छोडता था। वे जमाने से उसे पकड़े बैठे थे या वह उन्हें कहना असान नहीं। पर इतना तो निश्छित था दिन भर बुद्धु जहां रह ले जहां रम लें लेकिन शाम ढलते-ढलते बुद्धु वापिस घर जरूर लौट आते। एकाध दफ़ा जब वे नहीं लौटे, तो गांव में उनके मरने-बिलाने की अफ़वाह भी आई, लेकिन घूम फ़िर कर बुद्धु पुनः वापिस। सो गांव के बडे बूढों में यह कहावत ही चल पड़ी कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’।


अंश.....