संवदिया के युवा कविता विशेषांक में प्रकाशित मेरी कविता ............
पगडंडियाँ
(1)
पगडंडियों से
सड-कों की ओर
भाग रहा सरपट ,
भागना सड-कों की ओर
शुरुआत
भागने की गाँव से शहर
बसने की नया गाँव शहरों में
न पगडंडियाँ
न सड़कें
न सुथरी हवा
पतली गलियां
बजबजाती नालियां
नालियों में रेंगते
'बच्चे शहर के' A
(2)
पगडंडियाँ
जाती हैं गाँव
हरे-भरे खेतों के बीच से,
साँझ की मीठी हवा में
ठहर जाते बोझिल कदम
पगडंडियों से जाते-जाते घर
कोई एक झोंका हवा का
बांध लेता बढे हुए कदमों को
जगा देता चाह विलमकर सुस्ताने की
तब याद आता घर
चल पड़ते कदम
घर की ओर पगडंडियों से
(3)
पगडंडियाँ
जाती हैं खेतों की ओर
घरों से - गाँव से ,
चरती हैं गाएँ
पगडंडियों के अगल-बगल
झुकी है चनरी घसियारिन
तय करती रिश्ते खुरपी के घास से
तय करते रिश्ते तो आदित महराज भी
तिथि और वर देख पतरों से
पुराना है लेकिन उससे कहीं
रिश्ता चनरी का घास से
(4)
पगडंडियाँ
रोकती हैं
घेतरी हैं
बांध लेती हैं
घुमावदार मोड़ों में ,
कहतीं -
ठहर जाओ
जाते-जाते दूर पगडंडियों से,
आओ
बैठो
सुस्ता लो
पी-लो
घूंट- दो घूँट पानी
लेकर कुँए से
चूस लो दो गन्ने
नहीं बोलेगा कोई
मैं हूँ न A
लौटे थे बहुत दिन बाद
फिर कहाँ ?
रुको न , पल दो पलA
कहाँ-कहाँ भटकोगे
धुप में - लू में ?
लो अच्छा,
ले-लो टिकोरे दो-चार
उखड लो थान-दो थान पुदीना
कम आएंगें
हरी-बीमारी में
वहां नहीं होगा कोई अपना A
सुनते जाओ
कथा एक राहगीर की
गया पर लौटा नहीं
लौटेगा अब क्या ...
लौटे नहीं अब तक वे
पठाया था सनेसा
जिन-जिन से लौटने का .
(5)
लो,
लौट आया
उन्हीं पगडंडियों पर
फिर से ,
खोजता नए छोर
कटान-दिशाएँ ,
कितने घुमाव
कितने मोड़
कितनी गुँथी हैं ये पगडंडियाँ...
क्या नहीं जाता कोई रास्ता
सीधे
सडकों से गाँव की ओर ?