बुधवार, 16 जनवरी 2013

घरौंदे


लड़कियाँ बनती हैं घरौंदे
रखती हैं
एक अदद चूल्हा
मिट्टी का,
लकड़ियाँ , चारपाई
छोटे छोटे बर्तन-भाड़े
फूस और मिट्टी के
देखती है स्वप्न
रचने का अपना घर ,
लड़कियाँ बनती हैं पुतली
जोड़-गांठ कर फटे-पुराने कपडे
सजाती हैं उसे गहनों से
बनती हैं दुल्लहन
रचती हैं ब्याह--
स्वप्न भविष्य का
लडके बाराती बनते हैं
खाते हैं महुए के पत्तलों में
भांति भांति के व्यंजन
बिदा करते हैं दुल्हन
बर्तन-भाड़ों के साथ

लड़कियाँ अगोरती हैं
खाली घर ओसारे
आंगन में चारपाई से सर टिका
सो रहती हैं जैसे सोईं हों मांएं
बाद बेटी की बिदाई के.

पगडंडियाँ

संवदिया के युवा कविता विशेषांक में प्रकाशित मेरी कविता ............ 

पगडंडियाँ 

(1)
पगडंडियों से 
सड-कों की ओर
भाग रहा सरपट ,
भागना सड-कों की ओर
शुरुआत
भागने की गाँव से शहर
बसने की नया गाँव शहरों में
न पगडंडियाँ
न सड़कें
न सुथरी हवा
पतली गलियां
बजबजाती नालियां
नालियों में रेंगते
'बच्चे शहर के' A

(2)
पगडंडियाँ
जाती हैं गाँव
हरे-भरे खेतों के बीच से,
साँझ की मीठी हवा में
ठहर जाते बोझिल कदम
पगडंडियों से जाते-जाते घर
कोई एक झोंका हवा का
बांध लेता बढे हुए कदमों को
जगा देता चाह विलमकर सुस्ताने की
तब याद आता घर
चल पड़ते कदम
घर की ओर पगडंडियों से

(3)
पगडंडियाँ
जाती हैं खेतों की ओर
घरों से - गाँव से ,
चरती हैं गाएँ
पगडंडियों के अगल-बगल
झुकी है चनरी घसियारिन
तय करती रिश्ते खुरपी के घास से
तय करते रिश्ते तो आदित महराज भी
तिथि और वर देख पतरों से
पुराना है लेकिन उससे कहीं
रिश्ता चनरी का घास से

(4)
पगडंडियाँ
रोकती हैं
घेतरी हैं
बांध लेती हैं
घुमावदार मोड़ों में ,
कहतीं -
ठहर जाओ
जाते-जाते दूर पगडंडियों से,
आओ
बैठो
सुस्ता लो
पी-लो
घूंट- दो घूँट पानी
लेकर कुँए से
चूस लो दो गन्ने
नहीं बोलेगा कोई
मैं हूँ न A

लौटे थे बहुत दिन बाद
फिर कहाँ ?

रुको न , पल दो पलA
कहाँ-कहाँ भटकोगे
धुप में - लू में ?

लो अच्छा,
ले-लो टिकोरे दो-चार
उखड लो थान-दो थान पुदीना
कम आएंगें
हरी-बीमारी में
वहां नहीं होगा कोई अपना A

सुनते जाओ
कथा एक राहगीर की
गया पर लौटा नहीं
लौटेगा अब क्या ...
लौटे नहीं अब तक वे
पठाया था सनेसा
जिन-जिन से लौटने का .

(5)
लो,
लौट आया
उन्हीं पगडंडियों पर
फिर से ,
खोजता नए छोर
कटान-दिशाएँ ,
कितने घुमाव
कितने मोड़
कितनी गुँथी हैं ये पगडंडियाँ...
क्या नहीं जाता कोई रास्ता
सीधे
सडकों से गाँव की ओर ?

बुधवार, 1 अगस्त 2012

छोटी मछली


अच्छा लगता था थूकना
बचपन में
तालाब के पानी में
मछलियों  का लपकना
निगल जाना उसे
उछल कर झटके से.

नहीं जनता था तब
कितना मुश्किल है
निगल जाना
किसी और की थूक
झपटकर
बड़ी मछली के डर से
छोटी मछली का .

सरहदें


परिंदा कोई तुम्हारे आँगन का
नहीं मार सकता पर
मेरे आँगन में ,

मूंद दीं बिलें चीटीयों की
कायम करती थी
जो बेवजह आवाजाही
तुम्हारे घर से मेरे घर की ,
रोशनदानों पर
जड़ दिए मोटे शीशे सके नापाक हवा
तुम्हारे दरख्तों की
मुझ तक
मेरे घर मेरी आद-औलादों तक ,
फिर, कैसे रोया
मेरा नवजात बच्चा
तुम्हारे बच्चे की आवाज में ?
अरे! अब हँस रहा
तुम्हारा बच्चा मेरे बच्चे की तरह.


क्या महफूज़ हैं ,
सच-मुच हमारी-तुम्हारी सरहदें   !

सोमवार, 30 जुलाई 2012

इतिहास


इतिहास कोई कब्र नहीं
जहाँ दफन है एक ठहरा हुआ समय .
इतिहास न कोई स्मारक
ना खँडहर.
वह जिन्दा है,
साँस ले रहा है,
मेरे  भीतर सदियों से .
कभी लम्बी उसांसें
कभी आहें तीखी वेदना भरी
कभी हांफता हुआ
निकल जाता बहुत दूर
और कभी अहिस्ते से सहला जाता
पास आकर अपनी ठंडी सांसों से...
इतिहास मेरे भीतर खेल रहा है
रचा रहा है मुझे
मेरे समय को.