शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

कुबेरनाथ राय का साहित्यिक दृष्टिकोण

 

आपने कुबेरनाथ राय के साहित्यिक दृष्टिकोण और उनकी वर्गीकरण पद्धति को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है। इसे समझने के लिए उनके दृष्टिकोण के मुख्य बिंदुओं को थोड़ा विस्तार से देख सकते हैं:

  1. मूल्यपरक दृष्टि

    • कुबेरनाथ राय साहित्य में रस और भूमा को प्रमुख तत्व मानते हैं।

    • रस: उन्होंने रस को आत्मविभोरता (self-absorption) का माध्यम माना, जो समाधि की स्थिति में ले जाता है।

      • इसे भारतीय दर्शन के 'रसोवैसः' के सिद्धांत से जोड़ते हैं, जिसमें आनंद को मोक्ष का एक रूप माना गया है।
      • उनका मत है कि यह आनंद मृत्यु के बाद ही संभव नहीं है, बल्कि जीवन में नृत्य, गीत और कला के माध्यम से भी प्राप्त हो सकता है।
      • उदाहरण: उन्होंने कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् के 'अहोलब्ध नेत्र निर्वाणम्' का उल्लेख किया, जहां निर्वाण का अर्थ है चरम सुख, न कि विनाश।
    • भूमा: इसे उन्होंने विस्तृत होने की इच्छा या साहित्य की व्यापकता के रूप में देखा।

      • रस और भूमा का समन्वय साहित्य को श्रेष्ठ बनाता है।
    • शील: उन्होंने रस और भूमा के समन्वय का आधार शील को माना है।

      • इस प्रकार का साहित्य ऋजु और प्रामाणिक होता है, जिसे उन्होंने शृंगार प्रधान या ऋजुता प्रधान कहा।
  2. साहित्य की तीन कोटियाँ
    कुबेरनाथ राय ने साहित्य को तीन कोटियों में वर्गीकृत किया:

    • रसप्रधान साहित्य:
      • इनमें रस की प्रमुखता है।
      • उदाहरण: बिहारी और गालिब।
    • शीलप्रधान (ऋजु साहित्य):
      • इसमें रस, भूमा और शील का समन्वय होता है।
      • उदाहरण: वाल्मीकि, व्यास, सूरदास, कबीर, तुलसी।
    • रस और शील का समन्वय (रसशीलप्रधान साहित्य):
      • इसमें रस और भूमा दोनों तत्व संतुलित होते हैं।
      • उदाहरण: कालिदास, सूरदास, रवींद्रनाथ टैगोर।
  3. आधुनिक दृष्टिकोण
    कुबेरनाथ राय ने साहित्य को कालजयी नज़रिये से देखा।

    • प्राचीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्यकारों तक, जैसे प्रेमचंद, दिनकर और मुक्तिबोध, सभी पर उन्होंने विचार किया।
    • क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों (जैसे शंकरदेव और रवींद्रनाथ ठाकुर) के योगदान को भी उन्होंने सराहा।

निष्कर्ष

कुबेरनाथ राय का साहित्य चिंतन भारतीय परंपरा, दर्शन और साहित्यिक सौंदर्यशास्त्र का अद्वितीय समन्वय है। उनकी दृष्टि साहित्य को न केवल रसात्मक अनुभव का माध्यम मानती है, बल्कि इसे जीवन के व्यावहारिक पक्षों से जोड़ती है। उनका यह दृष्टिकोण साहित्यिक आलोचना में गहराई और व्यापकता का परिचायक है।