रविवार, 10 नवंबर 2024

रामकथा और कुबेरनाथ राय


 

कुबेरनाथ राय के लेखन का तीसरा विषय-क्षेत्र हैµ रामकथा इसमें वे खूब रमे हैं। उन्होंने इस विषय पर तीन स्वतन्त्र किताबें ही लिख डाली हैं। ‘महाकवि की तर्जनी’ इस विषय पर लिखी गयी पहली उनकी स्वतंत्र पुस्तक है। इसमें रामकथा का आश्रय लेकर रस-बोध, बौळिकता और शील-बोध का एक त्रिकोण उपस्थित हुआ है। इसके तीन भाग हैं। पहले में वाल्मीकि ;रामकथा के रचयिताओं?द्ध पर विचार हुआ है। दूसरे भाग में राम-कथा में शील-तत्व सम्मिलित हैं। इसमें उन्होंने आदि कवि वाल्मीकि से लेकर असमिया कवि माधव कदली तक पर विचार हुआ है। माधव कदली को उन्होंने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में रामकथा का पहला कवि माना है। ‘रामचरित मानस’ के प्रारम्भिक श्लोकों में से चार के अंशों ‘वन्देवाणीविनायकौ’,‘भवानीशंकरौवन्दे’,‘कवीश्वरौ कपीश्वरौ’,‘वन्दे बोधमयं नित्यं’ पर आधरित चार निबन्ध हैं। इसी भाग में एक पाँचवा निबन्ध ‘युग सन्दर्भ में मानस’ भी है। इसके अतिरिक्त मानस पर अन्य छिटपुट निबन्ध भी अन्य संग्रहों में संकलित हैं। ‘वाणी का क्षीर सागर’ के ‘मानस, सुरधुनी के उसपार’ और ‘मानसः दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

दूसरी कृति है, ‘त्रेता का वृहत्साम’। इसमें उनकी मान्यता है कि बाल्मीकि रामायण का मूल स्वरूप सूर्यात्मक है। यह अपने मूलरूप में एक सूर्य गाथा है। इस महाकाव्य के भीतर निहित सूर्य-प्रतीकों और सूर्योपासना के तत्वों का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। साथ ही राम के चरित्र में त्याग, तप, संकल्प, पुरूषार्थ, तेज से समन्वित उनके तेजोदीप्त सौन्दर्य का उद्घाटन किया गया है। इस कृति में उनकी मूल-स्थापना यह है कि रामायण ‘जिजीविसा-करूणा-अभय’ का त्रिकोण त्यक्त करता है। यही इसकी मूल्यवत्ता का आधार है। उनके अनुसार यह संकल्प प्रधान महाकाव्य है।

तीसरी कृति ‘रामायण महातीर्थम्’ राम-कथा में उनके अवदान की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। इसमें उन्होंने राम कथा के स्वरूप के क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वैदिक और याजक परम्पराओं से जोड़ते हुए उन्होंने इसकी कथा रूढ़ियों और प्रतीकों के विकास का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन्द्र, पूषा, सीता, सविता, आदि वैदिक देवताओं के बीच से रामकथा के महत्त्वपूर्ण पात्रों के चारित्र-विकास की प्रक्रिया को पहचानने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ में एक अन्य स्तर पर राक्षस और बानर जातियों की वास्तविक पहचान का भी प्रयास किया गया है। राक्षस और यक्ष को यहाँ उन्होंने निषाद ;आॅस्ट्रिक जातिद्ध का ही दिव्य रूप बताया है और बानर-समाज को निषाद-द्रविड़-विमिश्र जाति का प्रतिनिधि। यहाँ उन्होंने ‘रामायण’ को आदिम आर्यत्व और नव्य आर्यत्व को बीच का संघर्ष माना है। रावण को वे आदिम आर्यत्व का प्रतिनिधि मानते हैं और राम को नव्य-आर्यत्व का। उन्होंने यहाँ आदिम और नव्य के बीच के अन्तर को नृजातीयता के बजाय मूल्य बोध और संस्कृतियों से जोड़ा है। उनके अनुसार राम नये मूल्योंµशीलµके प्रतिनिधि हैं और रावण आदिम परम्पराओं का। वे राम को भारत के राष्ट्रीयशील का प्रतीक मानते हैं और राम-कथा को भारतीय शील का महाकाव्य।

कुबेरनाथ राय का सहित्य -चिंतन

 

कुबेरनाथ राय ने भारतीय साहित्य पर दो दृष्टियों से विचार किया है µ मूल्यपरक और नृतात्त्विक। मूल्य की दृष्टि से साहित्य में दो प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखना आवश्यक है µ रस और भूमा। रस को उन्होंने अपने में डूब जाने µ समाधिस्थ हो जाने की स्थिति का कारण माना है। वे रसविज्ञानियों द्वारा निर्मित रस से आनंद के संबंध µ' रसोवैसः' µ को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आनन्द का ही एक रूप मोक्ष है। इसे वे भारत की चिन्मय सत्ता का प्रतीक मानते हैं। मोक्ष और निर्वाण की अलग-अलग व्याख्याएँ दी गई हैं। उनके अनुसार इसके लिए मृत्यु का रहस्य नहीं है। यह इसी जीवन और इस लोक में भी किया जा सकता है। नृत्य , गीत , कला आदि के माध्यम से। वे इसके प्रमाण में 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' के एक अंश 'अहोल्ब्ध उत्सव निर्वाणम्' का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यहाँ उत्सव निर्वाण का अर्थ आखों का विनाश नहीं होना चाहिए। यहां इसका अर्थ है चरम सुख या महासुख की प्राप्ति। इसका आधार लौकिक है- शकुंतला का रूप। दूसरा तत्व भूमा का अर्थ वे विस्तृत होने की इच्छा मानते हैं। उन्हें साहित्य के लिए आत्मविभोरता और भूमा का विस्तार दोनों का रस आवश्यक लगता है। वे इन दोनों से समन्वित साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य मानते हैं। उन्होंने कहा कि एकता को समन्वय का आधार माना जाता है। इस रूप में वे )ळिप्रधान कहते हैं।

कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य की तीन कोटियाँ हैं µ रसप्रधान , ) ळी तथा रसप्रधान और )ळीप्रधान। बिहारी और गालिब को पहली बार कोटि में रखा गया है। उनके अनुसार ये दोनों ही रस प्रधान कवि हैं। दूसरी कोटि में उन्होंने व्यास वाल्मिकी , सुर कबीर और तुलसी को धारण किया है। ये रस , भूमा और शील से समन्वित)ळिप्रधान कवि हैं। वे इस वर्ग के सिद्धांत को राष्ट्रीय शील के प्रशिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं। तीसरी कोटि में वे कालिदास , सूरदास और रवीन्द्र नाथ टैगोर शामिल हैं। ये रस और )ळी दोनों तत्त्व की एक साथ उपस्थिति हैं। उन्होंने इस सूची में कहा है कि कवि के छोटे से बड़े कलाकार के अस्तित्व का आधार न जीवित कवि की प्रकृति की पहचान का आधार माना जाता है। उन्होंने वाल्मिकी , व्यास , कालिदास , भवभूति , जयदेव , तुलसी से लेकर आधुनिक विद्वानों में प्रेमचंद , दिनकर और मुक्तिबोध तक के साहित्य पर विचार किया है, शंकरदेव और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे हिन्दी से लेकर अन्य विद्वानों ने भी अलग-अलग सिद्धांतों पर विचार किया है। है.

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

दीपावली : मिट्टी का त्यौहार

दीपावली मुझे चंदेव बाबा के आंगन में पहुंचा देती है। जहां घुरली, घंटी, भोंभा, जाँत और तरह तरह के खिलौनों से भरी एक दूसरी ही दुनिया होती थी। दिवाली पर जब किसी मुहल्ले में भोंभे की आवाज सुन पड़ती तो हम अपने दरवाजे पर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगते। स्कूल से आने के बाद आस पास के घरों में ताक झांक कर आते कि अभी तक उनके घर दिए आए या नहीं। एकाध बार गांव में कहीं मिल जाने पर उनसे भी जल्दी अपने घर आने की गुजारिश कर आते। जब वे दरवाजे पर आते तो अपना ध्यान उनकी टोकरी के बजाय उनके साथ वाले की टोकरी पर होता। वे जब तक दिवाली का दिया और गोधन की घुरली गिनकर देते तब तक अपना ध्यान उसी ओर लगा रहता। अंत में इन खिलौनों की बारी आती। तब गांवों के किसान परिवार में आतिशबाजी का चलन उतना नहीं था। कुछ बनिए और सुनारों के घरों में जरुर खूब पटाखे चलते थे। मिट्टी के खिलौने, मिठाइययों के अलावा दिवाली पर जो नयी बात होती, वह नए धान का चिउड़ा। उसकी मिठास और सोंधापन पैकेट बंद पोहे और मशीन से कूटे गए चिउड़ा में भला कहां। तब चिउड़ा कूटना, धान कूटना, जांत पीसना सामूहिक और समाजिक क्रियाएं होती थीं। उसी तरह गोवर्धन पूजा और पिंडिया जैसे दीपावली से जुड़े त्यौहार भी। शहरों में सामाजिकता प्रदर्शन की चीज रही है और गांवों में जरूरत। जैसे-जैसे जरूरत बदल रही है गांवों की सामाजिकता भी बदल रही है। चाक मिट्टी के बर्तन और उनसे जुड़े लोगों की अगली पीढ़ियों के हाथों में हुनर नहीं तसला और फावड़ा है, वे शहर के किसी मोड़ पर दिहाड़ी के लिए जुटे हैं। गुजर तब भी मुश्किल थी और अब भी मुश्किल है। तब कम से कम उनके पास हुनर तो था, अब तो वे भी भीड़ का हिस्सा हैं।
'उत्तम खेती मद्धम बान अधम चाकरी भीख निदान' वाली उस पीढ़ी की जीवन शैली को जी पाना हमारी पीढ़ी के लिए असंभव है। अभावों और सीमित संसाधनों के बावजूद आत्मनिर्भरता की जो ठसक उनके पास थी, वह रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकने वाले हम प्रवासियों को कहां नसीब ? गांव की नई पीढ़ी के हाथ से तो मिट्टी के खिलौने ही छुटे यहां तो मिट्टी ही छूट गई। आसमान में त्रिशंकु बने जी रहे हैं।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

विवेकी राय के निबंधों भारत-बोध

 


विवेकी राय का भारत ग्रामीण भारत है और उनकी भारतीयता का वास इसी ग्राम्य जीवन के भीतर है। गाँव भारतीय समाज संस्कृति और अर्थव्यवस्था तीनों की रीढ है।  भारतीय समाज व्यवस्था की कमजोरियाँ और ताकत दोनों के बीज इसी के बीतर मौजूद हैं। ग्रामीण समाज की व्यवस्था के भीतर ऊँच नीच का जैसा घटाटोप इस व्यवस्था के भीतर है
, वैसा नगर जीवन-क्रम नहीं । सामूहिकता और साहचर्य का रूप हमें ग्राम्य जीवन में दिखाई देता है, वह भी अन्यत्र दुर्लभ है।  विवेकी राय के निबंधों में इन दोनों ही रूपों के दर्शन होते होते हैं। फिर बैतलवा डाल पर निबंध संग्रह के सोने की लूट निबंध में किसान (गिरहत्त) और कामगार (प्रजा) के पारंपरिक संबंधों के दर्शन के साथ-साथ ग्रामीण जाति व्यवस्था के संबंध में उनके विचारों का परिचय भी मिलता है “दरवाजे पर आया तो हलवाहा हल बैल के साथ तैयार मिला। बोला आज विजयादशमी है न । उसका तात्पर्य यह स्पष्ट था । उसे पैसा चाहिए। मिठाई आज वह भी खायेगा। धन्य हैं वह राम जिनके प्रताप से एक दिन के लिए ही इन्हें भी मिठाई खाने को मिल जाती है। दुनिया के सर्व प्रकार के सुस्वाद भोज्य पदार्थों से पूर्णतया वंचित संसार के सबसे महत्वपूर्ण जीव ! मार्क्स-युग के पूज्य-पुरोहित और गाँधी-युग के हरिजन।

विवेकी राय के लेखन से अपरिचित होने पर इस उद्धरण के अंतिम पंक्तियाँ लेखक की सामंती मानसिकता अथवा गांधीवाद और मार्क्स्वाद की विरोधि लग सकती हैं, लेकिन लेखक यहाँ भारतीय समाज की विडंबना और भारतीय राजनीति के कड़वे यथार्थ दोनों को एक साथ व्यक्त करना चाहता है। समाज का वह अंत्यज वर्ग, जो अस्पृश्यता के दंश को सदियों से झेलता रहा है, वह केवल महिमामंडन और राजनीतिक नारों से ऊपर नहीं उठ सकता। उसे ऊपर उठाने के लिए आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता की जरूरत है। गाँधीवाद और मार्क्सवाद समेत भारतीय राजनीति के तमाम आंदोलन से आगे बढ़ा पाने में असफल रहे हैं। वे प्रायः उनकी स्थिति का राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे। विवेकी राय ये पक्टियाँ ठीक उसी समय लिख रहे थे जब धूमिल अपनी लम्बी कविता पटकथा और मोची रामलिख रहे थे। भारतीय राजनीति पर उनकी टिप्पणियों की तुलना में विवेकी राय की ये टिप्पणियाँ अधिक सभ्य और शालीन हैं।

विवेकी राय गँवई लेखक हैं। वे बडे-बडे नारों. स्लोगनों या ग्राम्यजीवन से अपरिचित उपमानों का प्रयोग प्रायः नहीं करते। इसी लिए ग्रामीण कामगार वर्ग की बदहाली का चित्र खींचते हुए उसी वर्ग के सुपरिचित मिथकों को उपमान बनाते हैं, ”यहाँ तो भूख का रावण, गरीबी का मेघनाद और मूर्खता का कुंभकरण पूरे ज़ोर पर है। रामराज्य दूर है।  श्रमिक देवता खून दे-देकर एक क्षीण-प्राण हो रहे हैं। पूरी दुनिया लंका हो गई है। एक ओर सोने का संसार है, दूसरी ओर दानवी चक्र में पीसी गरीब प्रजा के आंसुओं का समुद्र है। कहाँ है मानवता? कहाँ है धर्म ? कहाँ है मानवीय गुण?”



शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

मधुवन तुम कत रहत हरे


ताजे चुए हुए महुए से सुंदर मुझे कोई फूल नहीं लगता
; जूही रातरानी या हर्सिंगार का झरना भी नहीं । महुआ रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श पाँचों से से लबा-लब भरा है । किसी प्रेमी के सरस हृदय की तरह यह सहज ही निचुड जाता है और अपनी पोर-पोर, बल्कि  अपने रूपाकार को भी घुला देता है।  महुआ स्वभावतः मधुर ही नहीं मदिर भी है।  इसके बाग से गुजरते हुए गंध यदि माथे में चढ जाय तो नशा-सा तारी हो जाता है। बसंत की खुमारी का सारा कारोबार महुए के फूलों और आम की बौर ने सम्भाल रखा है। हो भी क्यों न मधुमास का जिम्मा मधूक न ले तो भला और कौन लेगा? महुए के फूल चैत्र-बैशाख में खिलते और टपकते हैं। यह वातावरण में अपूर्व मिठास का समय है। पूरा बाग ही मिठास से चिट-चिटा उठता है। आम की बौर और महुए की संगति में माधुर्य में मत्त बाग से गुजरते हुए मन अपने पुरनियों की तरह स्वतः बोल उठता है :

आपस्तस्तंभिरे चास्य समुद्र मभियास्यतः।

पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्।।

अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्धन्त्यन्नानि चिंतया।

सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु।।

          आज नागर जीवन जीते हुए यह अनुमान भी लगभग असम्भव है कि आम की बौर और पत्तों पर जमी हुई मधुआकी मिठास से बच्चों की जीभ किसी जमने में कितनी परिचित थी। अब तो आम-महुए के बागों में दिन-दिन भर भटकने वाली पीढी लगभग दुनिया से बिदा हो गई और साथ ही वे बाग भी जिनकी सघन छाया में गर्मियों की दोपहर गांव के बडे-बुढे बछे आसरा पाते थे। उसी पीढी के एक भोजपुरी गीत में नायिका के लाल-लाल होठों से टपकते माधुर्य से आम्र मंजरी से ट्पकते हुए रस की तुलना की गई है[1] लोकगीत ही क्यों शिष्ट काव्य भी इसपर मुग्ध है । यहाँ तक कि दरबारी कहा जाने वाला रीति काव्य भी  इसके माधुर्य को अनदेखा नहीं कर सका है । और तो और आलोचकों से कठिन काव्य के  प्रेत और हृदय हीन कवि की उपाधि प्राप्त केशव दास भी इससे अछूते नहीं। सखी नयिका से कहती है कि जब से नायक तेरे होठों का किसी प्रकार धृष्टता करके थोड़ा सा रस ले गए हैं तब से छुहारा, अनार, अंगूर नहीं खाते । मक्खन की चाह भी छोड़ दी है। ऊख और शहद की भी निंदा करते हैं ।  उन्होंने तो उसी दिन से पृथ्वी के मीठे पदार्थों को छोड़ दिया है। सुधा को भी उन्होंने मधुरों की श्रेणी से हटा दिया है ।[2] बिहारी और देव के यहाँ तो कई प्रसंग मिलते हैं। लेकिन जितना सुंदर चित्रण गाथा सप्तशतीमें हाल ने किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है: अग्घाइ छिवइ चुम्बइ ठेवइ हिअअम्मि जणिअ रोमंचो ।

जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअ पुफ्फं ॥



[1] लाले लाले ओठवा से चूए ला ललैया हो कि रस चुए ला

जैसे अमवा के मोजरा से रस चुए ला

[2] खारिक खात न दारयौंइ दाख न माखनहूँ सहुँ मेटी इठाई ।

केसव ऊख महूखहु दूखत आई हों तो पहँ छाँडि जिठाई

तो रदनच्छद को रस रंचक चाखि गए करि केहूँ ढिठाई ।

ता दिन तें उन राखी उठाइ समेत सुधा बसुधा की मिठाई ॥