मंगलवार, 17 सितंबर 2024

कदंब और कृष्ण


कृष्ण स्वयं माधुर्य रुप हैं। उनका सौंदर्य और सम्मोहन अद्वितीय है, लेकिन उनकी की सौन्दर्य दृष्टि उससे भी अनूठी है। कहां कृष्ण का कोमल मधुर व्यक्तित्व और कहां कदंब के वृक्ष पर वंशी बजाना, करील के वन में विहार और कुब्जा का वरण। तीनों ही उनके व्यक्तित्व से बेमेल जान पड़ते हैं, लेकिन यह मेल बिठा लेना ही कृष्णत्व है। उनका पूरा व्यक्तित्व ही विरुद्धों का अद्भुत सामंजस्य है। राम आदर्श या मर्यादा की लीक से रंच मात्र नहीं डुलते लेकिन कृष्ण अपनी मर्यादाएं और प्रतिमान स्वयं गढ़ते हैं और उसे समाज के लिए प्रतिमान बना देते हैं । सहज इतने की भारतीय देव समूह में अकेले शिव ही इनके गोतिया नजर आते हैं। 
    यह महूए, आम और जामुन के निझा जाने के बाद कदंब के फलने की ऋतु है। प्रकृति की रीति भी अद्भुत है। महुए की मादक मिठास के बाद आम की कुछ खट्टेपन वाली मिठास,जामुन की कसैली मिठास से होते हुए कदम के कसैलेपन पर आ टिकती है। जीवन की यात्रा भी भला इससे अलग कहां है? मेरे बचपन में गांव में केवल एक कदम्ब का पेड़ था। विद्यालय के दिनों स्कूल बंक करने वाले या एकाध कालांशों के लिए कक्षा से गायब होने वाले विद्यार्थियों का आरामगाह। वहां से लौटते हुए वे कदंब के फल ले आते और एक पुड़िया स्याही के भाव में हमें बेच देते। यही उनका 'बिजनेस ब्लास्टर' था। 
बड़े होकर कदंब की कृष्ण से यारी का पता विद्यापति के मार्फत चला । तबसे कदंब की याद आते ही कृष्ण और विद्यापति दोनों स्मृति में एक साथ कौंध उठते हैं: 
नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।

मेरा मन भले गंगातीरी हो पर तन तो अब अपना भी यमुना तीरी हो चला है। राधा की तरह की अनुरक्ति या निष्ठा अपने भीतर नहीं और न हमारी यमुना ही कृष्ण की यमुना है जो इसका तीर देख उनकी सहज याद आ जाय। कभी-कभी लगता है कालिया नाग कृष्ण से पराजित हो खांडव वन में अपने मित्र तक्षक के यहां आ बसा था। सो अपने हिस्से की यमुना कुछ वैसी ही है काली और विषाक्त। पांडवों ने भले ही खांडवप्रस्थ का नाम बदल कर इंद्रप्रस्थ कर डाला हो लेकिन गुण अभी भी यथावत है। राज्य और नगर का नाम बदलने से प्रजा थोड़े बदल जाती है, वह तो पूरे गुण-धर्म के साथ वैसी ही रह जाती है। फिर आजादी के बाद तो देश की जनता ने चुन-चुन कर सारे तक्षक, सारे कालिया, सारे वासुकि इस खांडवप्रस्थ में भेज दिए हैं। विडंबना यह है कि अब न कृष्ण हैं न अर्जुन और न जन्मेजय। इनसे मुक्ति कैसे मिले?

रविवार, 15 सितंबर 2024

हिंदी की जय जय


आओ बच्चों सुनो कहानी 
बात नहीं है बहुत पुरानी l
अंग्रेजों का बड़ा तमाशा 
गिट फिट गिट पिट उनकी भाषा ll

बात-बात पर हमें डराते 
अंग्रेजी का धौंस जमाते 
काले गोरे का भेद बताते 
हम सबको नीचा दिखलाते  ll

जाग गई जनता दीवानी 
लिख कर रख दी नई कहानी 
जन जन में जब क्रांति जगाया 
अंग्रेजों को मार भगाया ll

अब तो भाषा की थी बारी 
हिंदी बनी उसकी अधिकारी 
सैंतालिस आजादी पाई
फिर उनचास में हिंदी आई ll

बंटा  रेवाड़ी और बताशा 
खड़ा हुआ फिर नया तमाशा 
दासी निकली बड़ी सयानी 
 खड़ी रह गई फिर से रानी l

हिंदी को वनवास दिलाई 
अंग्रेजी ने चाबी पाई 
रानी बनी रही अंग्रेजी 
देखो भाई उसकी तेजी ll 

जनता की फिर शामत आई 
शुरू हो गई जेब भराई 
लूट-लूट कर हो गए लाल 
अंग्रेजी के सभी दलाल l

सत्ता मद में चूर हो गए 
न्याय नीति से दूर हो गए 
ये काले अंग्रेज देश के 
गोरों से भी क्रूर हो हो गए l

लंबी गाड़ी ऊंचा बंगला 
अध्यक्ष है देखो अगला 
हिंदी की दुकान से सजाकर
बैठा है वह पान चबा कर l
हिंदी को गाली दे देकर 
पढ़ता अंग्रेजी में पेपर
योगदान अपना गिनवाकर
मना रहा फॉटीन सितंबर l

विद्वत्ता की धाक जमाई
ताली सबने खूब बजाई l
काट रहे हैं खूब मलाई 
हिंदी की जय -जय है भाई l

शनिवार, 14 सितंबर 2024

का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ

हिंदी दिवस पर हिंदी के संवैधानिक अधिकार, अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्वीकृति-अस्वीकृति के साथ अंग्रेजी के पैरोकारों की चर्चा खूब होती है। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद पैदा किए गए सवाल हैं। हिंदी का संघर्ष और इसका विरोध उससे अधिक पुराना है। आजादी के बाद हिंदी हिंदुस्तानी का झगड़ा और इससे भी पहले भारतेंदु के दौर के हिंदी-उर्दू का विवाद भी बहु उल्लिखित है। लेकिन सूफी कवि नूर मोहम्मद की चर्चा थोड़ी कम होती है, जिन्होंने हिंदी में सूफी काव्य को समृद्ध किया। उनके सहधर्मियों ने उनके हिंदी प्रेम को हिंदू हो जाने के रुप में प्रचारित किया और उन्होंने जवाब दिया:

जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

नूर मुहम्मद किसके सवालों से अपना बचाव कर रहे थे और किसके दबाव में 'अनुराग बांसुरी' में ऐसी बातें लिख रहे थे कि 

निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात। 
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥

सांप्रदायिकता हमारे देश में अभी नई नई नवेली आयी है और हमारे देश की गंगा जमुनी तहजीब को नष्ट कर रही है। आज से ठीक 200 साल पहले नूर मुहम्मद के सामने जो खडे थे या जो नूर मुहम्मद यहां स्वयं लिख रहे थे तो वे कौन थे? 

बात हिंदी की स्थिति और संघर्ष की हो तो भारतेंदु और आजादी की ही नहीं उनसे पहले के संघर्ष को भी याद करना चाहिए। इसके सांप्रदायिकता विरोधी चरित्र को भी याद करना चाहिए। हिंदी का महत्व राजभाषा घोषित होने में नहीं, उसके जनभाषा के रुप में कई सदियों से भारतीयों के मन मस्तिष्क पर राज करने वाली भाषा होने में है। यह अपने आरंभ से ही सत्ता नहीं संघर्ष की भाषा रही है। इसका महत्व ऑफिस में बैठा वेतन जीवी कर्मचारी न कभी समझ सका है और न समझ सकेगा।

बुधवार, 4 सितंबर 2024

हम भारत के नए प्रणेता

हम भारत के नए प्रणेता 
नई क्रांति हम लाएंगे l
घर-घर शिक्षा दीप जलाकर 
अपना फर्ज निभाएंगे 
नहीं रहेगा एक निरक्षर 
विश्व गुरु कहलाएंगे ll
हम भारत के नए प्रणेता
 नई क्रांति हम लाएंगे ll

नहीं रहेगा कोई अनपढ़ 
कौशल सभी सिखाएंगे
आसपास के जन-जन को हम 
अक्षर ज्ञान कराएंगे ll
हम भारत के नए प्रणेता
 नई क्रान्ति हम लाएंगे ll

सबका जीवन जगमग होगा 
अक्षर ज्योति जलाएंगे 
यही आज का धर्म हमारा 
भेदभाव मिट जाएंगे 
हम भारत के नए प्रणेता
नई क्रांति हम लाएंगे ll

नहीं रहेंगे भूखे नंगे 
 दर-दर घूम रहे भिखमंगे 
मिट्टी में शब्दों की खुशबू 
खेतों में तब अंक उगेंगे
हम भारत के नए प्रणेता 
नई क्रान्ति हम लाएंगे ll

 हरा भारत तब होगा 
स्वच्छ हवा हम पाएंगे 
कूड़ा-करकट झगड़ा-झंझट
मिटा चेतना लाएंगे 
हम भारत के नए प्रणेता 
नई क्रान्ति हम लाएंगे ll

ज्ञान और विज्ञान साधना 
सक्षम सब हो जाएंगे 
शिक्षा का आसेतु हिमालय 
परचम हम लहराएंगे
हम भारत के नए प्रणेता 
नई क्रान्ति हम लाएंगे ll

अक्षर की किरणें निकलेंगी 
शब्दों के बादल बरसेंगे 
होगा जग में नया सवेरा 
ज्ञान क्षितिज पर हम चमकेंगे
हम भारत के नए प्रणेता 
नई क्रान्ति हम लाएंगे ll

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

हान कांग: मानवता की जटिलताओं को उकेरती लेखिका

हान कांग, दक्षिण कोरिया की प्रमुख साहित्यकार, अपनी गहन और संवेदनशील रचनाओं के लिए विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान रखती हैं। उनके लेखन का केंद्र मानवीय जटिलताएँ, ऐतिहासिक आघात, और समाज की विडंबनाएँ हैं। 2024 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हान कांग ने न केवल दक्षिण कोरिया के साहित्य को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई, बल्कि मानव जीवन की गहराई को भी एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।


प्रारंभिक जीवन और प्रेरणाएँ

हान कांग का जन्म 27 नवंबर 1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू शहर में हुआ। उनका परिवार 1980 में ग्वांगजू विद्रोह से ठीक पहले सियोल स्थानांतरित हो गया। यह विद्रोह दक्षिण कोरिया के इतिहास का एक हिंसक अध्याय था, जिसने उनके लेखन को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने इसे "बचावकर्ता के अपराध" की भावना के रूप में वर्णित किया है।

हान का बचपन किताबों के बीच गुजरा। उनके पिता, जो एक शिक्षक और उपन्यासकार थे, ने उन्हें साहित्य से परिचित कराया। छोटी उम्र में ही उन्होंने किताबों को "जीवित चीज़ें" मानना शुरू कर दिया। एस्ट्रिड लिंडग्रेन की द ब्रदर्स लायनहार्ट और रूसी लेखकों जैसे फ्योडोर दोस्तोयेव्स्की और बोरिस पास्टर्नक ने उनके लेखन को प्रारंभिक रूप से प्रभावित किया।


साहित्यिक यात्रा

हान ने सियोल की योनसेई यूनिवर्सिटी से कोरियाई भाषा और साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1993 में उनकी पहली कविताएँ प्रकाशित हुईं, और 1995 में उनकी पहली लघु कहानियों का संग्रह येओसु सामने आया। उनका पहला उपन्यास, ब्लैक डियर (1998), उनके साहित्यिक प्रयोगों की शुरुआत थी।

उनकी रचनाओं की विशेषता उनके गहन रूपक, प्रयोगात्मक शैली, और मानवीय हिंसा व पीड़ा की पड़ताल है। उन्होंने 2016 में द व्हाइट रिव्यू को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, "मानवता का व्यापक स्पेक्ट्रम—जो उदात्त से लेकर क्रूर तक फैला हुआ है—बचपन से ही मेरे लिए एक कठिन पहेली रहा है।"


प्रमुख कृतियाँ और विषय

1. द वेजिटेरियन (2007)

हान कांग का यह उपन्यास एक महिला की कहानी है, जो मांस खाना छोड़ देती है और सामाजिक दमन का सामना करती है। यह उपन्यास मानसिक बीमारी, शरीर पर नियंत्रण, और सामाजिक पितृसत्ता की आलोचना करता है। इसने 2016 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान बनाई।

2. ह्यूमन एक्ट्स (2014)

यह उपन्यास ग्वांगजू विद्रोह की स्मृतियों को उजागर करता है। यह मानवीय हिंसा, पीड़ा और संघर्षों का दार्शनिक और संवेदनशील चित्रण है।

3. द व्हाइट बुक (2016)

यह पुस्तक उनकी मृत नवजात बहन को समर्पित है। इसमें जीवन और मृत्यु की सीमाओं की पड़ताल की गई है। इस पुस्तक को 2018 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था।

4. ग्रीक लेसन्स (2011)

हान की इस पुस्तक में दुःख और भाषा के बीच संबंध की पड़ताल की गई है। इसमें एक महिला, जो अपनी आवाज खो चुकी है, और एक पुरुष, जो अपनी दृष्टि खो रहा है, के माध्यम से मानवीय संघर्ष को दिखाया गया है।


नोबेल पुरस्कार और वैश्विक पहचान

2024 में, हान कांग को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नोबेल समिति ने उन्हें "ऐतिहासिक आघातों का सामना करने वाली और मानव जीवन की नाजुकता को उजागर करने वाली उनकी गहन काव्यात्मक गद्य" के लिए सराहा। यह पुरस्कार उन्हें दक्षिण कोरिया की पहली नोबेल विजेता लेखिका बनाता है।


हान कांग का योगदान

हान कांग का साहित्य न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक अनुभवों का दस्तावेज़ है। उनका लेखन हमें यह याद दिलाता है कि मानवता अपने उदात्त और क्रूर दोनों रूपों में कितनी अद्भुत और जटिल है।

उनकी कहानियाँ केवल कोरियाई समाज तक सीमित नहीं हैं; वे वैश्विक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करती हैं। उनके लेखन का हर पृष्ठ हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि दर्द और करुणा के बीच मानवता कैसे जीवित रहती है।


निष्कर्ष

हान कांग की लेखनी उनके समय की गवाही है। वह केवल एक लेखिका नहीं हैं; वह इतिहास, दर्द, और मानवता की आवाज़ हैं। उनकी रचनाएँ हमें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती हैं और यह याद दिलाती हैं कि साहित्य वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने समय के सत्य को समझ सकते हैं।

उनकी रचनाओं की गहराई और संवेदनशीलता ने उन्हें न केवल दक्षिण कोरिया बल्कि वैश्विक साहित्य का अमूल्य हिस्सा बना दिया है।