बुधवार, 4 सितंबर 2024
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मंगलवार, 27 अगस्त 2024
हान कांग: मानवता की जटिलताओं को उकेरती लेखिका
हान कांग, दक्षिण कोरिया की प्रमुख साहित्यकार, अपनी गहन और संवेदनशील रचनाओं के लिए विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान रखती हैं। उनके लेखन का केंद्र मानवीय जटिलताएँ, ऐतिहासिक आघात, और समाज की विडंबनाएँ हैं। 2024 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हान कांग ने न केवल दक्षिण कोरिया के साहित्य को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई, बल्कि मानव जीवन की गहराई को भी एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।
प्रारंभिक जीवन और प्रेरणाएँ
हान कांग का जन्म 27 नवंबर 1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू शहर में हुआ। उनका परिवार 1980 में ग्वांगजू विद्रोह से ठीक पहले सियोल स्थानांतरित हो गया। यह विद्रोह दक्षिण कोरिया के इतिहास का एक हिंसक अध्याय था, जिसने उनके लेखन को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने इसे "बचावकर्ता के अपराध" की भावना के रूप में वर्णित किया है।
हान का बचपन किताबों के बीच गुजरा। उनके पिता, जो एक शिक्षक और उपन्यासकार थे, ने उन्हें साहित्य से परिचित कराया। छोटी उम्र में ही उन्होंने किताबों को "जीवित चीज़ें" मानना शुरू कर दिया। एस्ट्रिड लिंडग्रेन की द ब्रदर्स लायनहार्ट और रूसी लेखकों जैसे फ्योडोर दोस्तोयेव्स्की और बोरिस पास्टर्नक ने उनके लेखन को प्रारंभिक रूप से प्रभावित किया।
साहित्यिक यात्रा
हान ने सियोल की योनसेई यूनिवर्सिटी से कोरियाई भाषा और साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1993 में उनकी पहली कविताएँ प्रकाशित हुईं, और 1995 में उनकी पहली लघु कहानियों का संग्रह येओसु सामने आया। उनका पहला उपन्यास, ब्लैक डियर (1998), उनके साहित्यिक प्रयोगों की शुरुआत थी।
उनकी रचनाओं की विशेषता उनके गहन रूपक, प्रयोगात्मक शैली, और मानवीय हिंसा व पीड़ा की पड़ताल है। उन्होंने 2016 में द व्हाइट रिव्यू को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, "मानवता का व्यापक स्पेक्ट्रम—जो उदात्त से लेकर क्रूर तक फैला हुआ है—बचपन से ही मेरे लिए एक कठिन पहेली रहा है।"
प्रमुख कृतियाँ और विषय
1. द वेजिटेरियन (2007)
हान कांग का यह उपन्यास एक महिला की कहानी है, जो मांस खाना छोड़ देती है और सामाजिक दमन का सामना करती है। यह उपन्यास मानसिक बीमारी, शरीर पर नियंत्रण, और सामाजिक पितृसत्ता की आलोचना करता है। इसने 2016 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान बनाई।
2. ह्यूमन एक्ट्स (2014)
यह उपन्यास ग्वांगजू विद्रोह की स्मृतियों को उजागर करता है। यह मानवीय हिंसा, पीड़ा और संघर्षों का दार्शनिक और संवेदनशील चित्रण है।
3. द व्हाइट बुक (2016)
यह पुस्तक उनकी मृत नवजात बहन को समर्पित है। इसमें जीवन और मृत्यु की सीमाओं की पड़ताल की गई है। इस पुस्तक को 2018 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था।
4. ग्रीक लेसन्स (2011)
हान की इस पुस्तक में दुःख और भाषा के बीच संबंध की पड़ताल की गई है। इसमें एक महिला, जो अपनी आवाज खो चुकी है, और एक पुरुष, जो अपनी दृष्टि खो रहा है, के माध्यम से मानवीय संघर्ष को दिखाया गया है।
नोबेल पुरस्कार और वैश्विक पहचान
2024 में, हान कांग को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नोबेल समिति ने उन्हें "ऐतिहासिक आघातों का सामना करने वाली और मानव जीवन की नाजुकता को उजागर करने वाली उनकी गहन काव्यात्मक गद्य" के लिए सराहा। यह पुरस्कार उन्हें दक्षिण कोरिया की पहली नोबेल विजेता लेखिका बनाता है।
हान कांग का योगदान
हान कांग का साहित्य न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक अनुभवों का दस्तावेज़ है। उनका लेखन हमें यह याद दिलाता है कि मानवता अपने उदात्त और क्रूर दोनों रूपों में कितनी अद्भुत और जटिल है।
उनकी कहानियाँ केवल कोरियाई समाज तक सीमित नहीं हैं; वे वैश्विक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करती हैं। उनके लेखन का हर पृष्ठ हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि दर्द और करुणा के बीच मानवता कैसे जीवित रहती है।
निष्कर्ष
हान कांग की लेखनी उनके समय की गवाही है। वह केवल एक लेखिका नहीं हैं; वह इतिहास, दर्द, और मानवता की आवाज़ हैं। उनकी रचनाएँ हमें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती हैं और यह याद दिलाती हैं कि साहित्य वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने समय के सत्य को समझ सकते हैं।
उनकी रचनाओं की गहराई और संवेदनशीलता ने उन्हें न केवल दक्षिण कोरिया बल्कि वैश्विक साहित्य का अमूल्य हिस्सा बना दिया है।
सोमवार, 26 अगस्त 2024
कृष्ण जन्माष्टिमी : रावरे रूप की रीति अनूप
कृष्ण धीर ललित नायक हैं। सम्मोहन कला में प्रवीण। उनकी बाल और शृंगार लीलाएं समूची भारतीय साहित्य परंपरा में अनूठी हैं। मथुरा और वृंदावन की धरती के कान्हा, गोपाल और नंदलाल। उनकी ये छवियां भारतीय लोक मानस के स्नेह और ममत्व की अद्भुत उपलब्धि हैं। पता नहीं दुनिया के किसी दूसरे धर्म या साहित्य में ऐसा कोई रूप हमें क्यों नहीं दिखता, जबकि यह मानवीय संवेदना का सबसे जीवंत पक्ष है ।
आज का आनंदोत्सव उसी कन्हैया लाल को समर्पित है।
उनकी एक छवि लोक नायक की भी है जो वैदिक देवता पर्जन्य के अहम को खंडित कर गोवर्धन पर्वत की पूजा को प्रचलित करता है। यहां वे प्रकृति और मनुष्य के सनातन साहचर्य-साधर्म्य को शास्त्रीय जड़ता से मुक्त कर लोक सामान्य की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। वे धर्म की गतिशील संकल्पना में विश्वास करते हैं स्थिर या रूढ़िवादी नहीं और यह गतिशील लोक का आधार लेकर ही हो सकता है। इसी लिए लोक विमुख धर्म उन्हें स्वीकार्य नहीं। महाभारत में भीष्म, विदुर, बालराम, धृतराष्ट्र और दुर्योधन सभी धर्माज्ञ थे | महाभारत का सब्से खल पात्र दुर्योधन भी यह स्वीकार करता है :
युधिष्ठिर तो धर्मावतार ही थे, किन्तु कृष्ण धर्म संस्थापक के रूप में सामने आते हैं क्योंकि उनके जैसी लोक संपृक्ति किसी और में न थी। ग्वाल-चरवाहा रूप में उन्होंने जिस लोकायत को जिया था, उसे उन्होंने अपने धर्म-कर्म-पथ का आधार बना लिया।
इन सबसे आगे और अधिक उल्लेख्य उनका कर्म योगी रूप है। यह उन्हें लोक नायक से महानायक बनाता है। युद्ध भूमि में खड़े होकर धर्म को परिभाषित करना तथा ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिक में उसे समन्वित करना भी उनकी विलक्षणता ही है। यहां यह स्थापित होता है कि कर्म शून्य ज्ञान और भक्ति निरर्थक हैं। स्वयं उनका जन्म भक्ति और ज्ञान के प्रसार के लिए नहीं धर्म की रक्षा और उसकी पुनर्प्रतिष्ठा के लिए हुआ । यह एक कर्म-पथ से संभव है निष्क्रियता से नहीं है। इसलिए कृष्ण कर्म योगी हैं। उनके इस रूप के बिना उनकी चर्चा, उनका स्मरण या उनकी उपासना अधूरी है। कृष्णोपासना के विभिन्न पंथों ने उनकी ललित छवि पर तो ध्यान दिया पर उनकी कर्मयोगी छवि पीछे छूट गई । कृष्णोपासना के लिए केवल भक्ति नहीं उनके लोक धर्म और कर्मयोग की प्रेरणा भी आवश्यक है। जन्माष्टमी की कृष्ण की झांकियों में केवल बाल रूप पर्याप्त नहीं, उनका कर्म योगी रूप भी दिखाना चाहिए।
बाकी तो उनके बारे में घनंद की इस उक्ति के सहारे ही कुछ कहा जा सकता है:
रावरे रूप की रीति अनूप, नयो-नयो लागत ज्यौं-ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै॥
गुरुवार, 22 अगस्त 2024
‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति।’
राम का वन-गमन : राम का रामत्व प्रकृति के सहचर्य में विकसित हुआ |
कला और सहित्य : अंतर्सम्बंध
कला मानवीय चेतना के उदात्त्ततम और उदारतम रूप की अभिव्यक्ति है . मनुष्य जो भी श्रेष्ठ और सनातन मूल्य अर्जित करता है उन्हें वह अपने विभिन्न कला रूपों में संग्रहित, संरक्षित और अपने वंशजों की ओर प्रवृत्त करता है. इसी अर्थ में कला संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण और सुंदरतम घटक है, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, विद्या, संगीत, नृत्य तथा जीवनोपयोगी कौशल आदि मनुष्य द्वारा अर्जित उपादान, उसकी संस्कृति को आकार देते हैं और कला उसी संस्कृति का परिष्कृत और अभिव्यक्त रूप है. इसीलिए भारतीय ज्ञान परंपरा इसे आत्मसंस्कार का माध्यम मानती है: आत्मसंस्कृतिर्वावशिल्पानि. छंदोमयं वा. इतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते. (अर्थात्, छंद और शिल्प यानि काव्य और कला आत्मसंस्कार का माध्यम है).
यदि प्राचीन वैदिक शब्दावली का आधार लें तो संस्कृति को हम ऋत और कला को धर्म कह सकते हैं. जिस तरह ऋत, धर्म और आध्यात्म अव्यक्त सत्य के त्रिगुणात्मक रूप हैं, उसी तरह संस्कृति की प्रत्यक्ष अनुभूति साहित्य, कला और संगीत के त्रिक के रूप में होती है. जो अनृत् है, धर्म विरुद्ध है या आत्मा का परिस्कार नहीं करता वह असत्य है. उसी तरह जो साहित्य कला और संगीत से हीन है, वह असंकृत है; पशुवत है:
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥
साहित्य, कला और संगीत को भारतीय मानस एक साथ रखता आया है और उन्हें ही मनुष्य की मनुष्यता के मूल्यांकन का मानदंड मानता है. चित्रकला, वास्तुकला, संगीत कला, नृत्य कला, अभिनय कला, काव्य कला आदि के रुप में विभिन्न विशेषणों के साथ प्रयुक्त 'कला' अपने विशेषीकृत रूप और अपनी व्याप्ति दोनों को व्यक्त करती है. इसकी व्याप्ति जीवन के संपूर्ण कार्य व्यापार में है मानवीय क्रियाकलाप का कोई भी प्रत्यक्ष या मानवीय चेतना का कोई भी अमूर्त रूप बिना कला के अधूरा है. सृष्टि में जो भी व्यक्त-अव्यक्त अथवा गोचर-अरगोचर है, वह कला का विषय है. जीवन व्यापार के लिए आवश्यक शिल्प हों या दर्शन और अध्यात्म. कला की गति इन सभी में समान है.