गुरुवार, 22 अगस्त 2024

‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति।’

समूचा भारतीय साहित्य मानव-प्रकृति-साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यति। यह देवस्यकाव्यं है क्या ?प्रकृति— उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिए हैं । यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती है । चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट,तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास,सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल । सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं; आखिर इनके युग भी तो अलग हैं । और, हर युग की अलग संवेदना होती है । यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है । वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजनक नहीं लगती कि कविता आदिम मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है । आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं । उसमें जटिलता बढ़ी है और सहजता का धीरे-धीरे लोप होता चला गया है । इसी के साथ रागात्मकता, लयात्मकता और और अन्विति धीरे-धीरे दूर होती जा रही है ।
राम का वन-गमन : राम का रामत्व प्रकृति के सहचर्य में विकसित हुआ
                हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है । यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से  में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं । आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है ।  उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा । आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए  शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात की है— संगीत और व्यायाम । व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो,लेकिन सार्थक होने के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादाश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता मनुष्य की सहजात वृत्ति है और यह प्रकृति के साहचर्य में उपजी है । मनुष्य प्रकृति से जितना दूर होगा, उसके जीवन से लयात्मकता का लोप हो जाएगा और वह कृत्रिम होता जाएगा।

कला और सहित्य : अंतर्सम्बंध


 कला मानवीय चेतना के उदात्त्ततम और उदारतम रूप की अभिव्यक्ति है . मनुष्य जो भी श्रेष्ठ और सनातन मूल्य अर्जित करता है उन्हें वह अपने विभिन्न कला रूपों में संग्रहित, संरक्षित और अपने वंशजों की ओर प्रवृत्त करता है.  इसी अर्थ में कला संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण और सुंदरतम घटक है, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, विद्या, संगीत, नृत्य तथा जीवनोपयोगी कौशल आदि मनुष्य द्वारा अर्जित उपादान, उसकी संस्कृति को आकार देते हैं और कला उसी संस्कृति का परिष्कृत और अभिव्यक्त रूप है. इसीलिए भारतीय ज्ञान परंपरा इसे आत्मसंस्कार का माध्यम मानती है: आत्मसंस्कृतिर्वावशिल्पानि. छंदोमयं वा. इतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते. (अर्थात्, छंद और शिल्प यानि काव्य और कला आत्मसंस्कार का माध्यम है). 


    यदि प्राचीन वैदिक शब्दावली का आधार लें तो संस्कृति को हम ऋत और कला को धर्म कह सकते हैं. जिस तरह ऋत, धर्म और आध्यात्म अव्यक्त सत्य के त्रिगुणात्मक रूप हैं, उसी तरह संस्कृति की प्रत्यक्ष अनुभूति साहित्य, कला और संगीत के त्रिक के रूप में होती है. जो अनृत् है, धर्म विरुद्ध है या आत्मा का परिस्कार नहीं करता वह असत्य है. उसी तरह जो साहित्य कला और संगीत से हीन है, वह असंकृत है; पशुवत है: 

     साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।

                      तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

साहित्य, कला और संगीत को भारतीय मानस एक साथ रखता आया है और उन्हें ही मनुष्य की मनुष्यता के मूल्यांकन का मानदंड मानता है. चित्रकला, वास्तुकला, संगीत कला, नृत्य कला, अभिनय कला, काव्य कला आदि के रुप में विभिन्न विशेषणों के साथ प्रयुक्त 'कला' अपने विशेषीकृत रूप और अपनी व्याप्ति दोनों को व्यक्त करती है.  इसकी व्याप्ति जीवन के संपूर्ण कार्य व्यापार में है मानवीय क्रियाकलाप का कोई भी प्रत्यक्ष या मानवीय चेतना का कोई भी अमूर्त रूप बिना कला के अधूरा है. सृष्टि में जो भी व्यक्त-अव्यक्त अथवा  गोचर-अरगोचर है, वह कला का विषय है. जीवन व्यापार के लिए आवश्यक शिल्प हों या दर्शन और अध्यात्म. कला की गति इन सभी में समान है.

वैशाख नंदन का एकालाप


 बैशाख फिर आ गया। यह जब भी आता है तो मेरे लिए अपनी झोली में उल्लास भर लाता है। बैशाख और उल्लास ! अजीब बात है न। दुनिया जहाँ को तो सारा राग-रंग, सारा उल्लास फागुन-चैत की अंजुरी से मिलता है और मुझे बैशाख की झोली से। क्या कहूँ ?   मेरा मन बैशाखनंदन जो ठहरा। जहाँ कवियों-रसिकों को रस नहीं मिलता, वहाँ भी यह रस खोज लेता है। जब चैती की कटिया-दँवरी के बाद सारा सिवान बियाबान पडा हो और धूप किसी क्रुद्ध अवधूत की तरह पूरे ब्रह्मांड को अपनी धुनी में झोंक देने पर आमादा हो तो भला रस का संधान कहाँ संभव?  लेकिन यह अर्द्ध सत्य है। ताप का भी अपना एक स्वाद होता है। इसका आस्वाद रसना नहीं मन से होता है। वैसे भी रसना तो आस्वाद का माध्यम भर है, उसका असल भोक्ता तो मन ही है। अगर मन को न रुचे तो मेवा-मिश्री मिश्रित मक्खन में भी उबकाई आने लगे और रुचे तो बाजरे की हथरोटिया भी नमक तेल प्याज की संगत में मैक्डॉनल के पीज्जा को मात दे दे। दुनिया का सारा व्यापार मन का है— एनेदं भूतं भुवनं भविस्यत् परिग्रहीतममृतेन सर्वं। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु। आत्मा तो निर्लिप्त है, देह कर्ता है और मन भोक्ता। बिना भोग के जीवन भला कैसे चले ? प्राण की पुष्टि भला कैसे हो ? ऋषि, मुनि महत्माओं का जीवन भोग के बिना चल जाता होगा, पर हम तो ठहरे दुनियादार—भोगी। हमने तो अपने देवतओं के भोग भी अपने स्वाद के अनुरूप ही तय किये हैं। जो हमारे मन को भावे वही हमरे ईश्वर को भी भाएगा क्योंकि भक्ति भाव आश्रित है— “भाव भगति हित बोहिया सद्गुरु खेवनहार।“ ईश्वर का भोग तो भाव ही है, चाहे वह हनुमान जी के आगे लड्डू बन कर प्रस्तुत हो जाय या श्री कृष्ण के आगे माखन-मिश्री या फिर शिव जी के सम्मुख भाँग धतूरा। उन्हें इनके स्वाद से क्या ? वे ईश्वर हैं— विदेह हैं। 

हमें तो अपने मन के रुचने से मतलब है। जो रुचेगा इंद्रियों को स्वाद भी उसी में आएगा। मन उसी में रमेगा। जो नहीं रुचेगा लाख जतन कर लें मन उचट ही जएगा और अपनी रुचि के अनुरूप आस्वाद की तलाश में भटकने लगेगा। बचपन में एक कहानी सुनी थी, एक कृपण की। अतिसम्पन्न होते हुए भी जो अपना धन बचाने के लिए वह अपने मन को मार देता था। एक दिन मन ने उससे विद्रोह कर दिया। वह सपने में उडकर आम के पेड पर जा बैठा और उसकी आम न खाने की शपथ भंग कर दी। उसकी कृपणता हार गई और मन जीत गया। मन ही जीवन का अधार है। मन मर गया तो देह जीवित रहकर भी क्या करेगी? सो हमने अपने संयम की वल्गाएँ छोड रखी हैं, और मन को खुला हाँक दिया है । वह निर्द्वंद्व हो गाँव, गाँव, खेत खेत घूम रहा है और मन उसके काँधे चढ साथ साथ डोल रह है। सबेरे से दुपहरिया तक सिवान के इस छोर से उस छोर तक चरते टूँगते वह जब गाँव की किसी सघन बँसवारी में आ खडा होता है तो गला फाड कर अपना गर्दभ तान छेड देता है। जिह्वा का स्वाद भले दब जाय मन का आस्वाद भला कहाँ दबने का ? धूप के आतंक से दबे-सहमे लोग अचानक सक-पका कर नींद से जाग पडते हैं। कभी द्रुत कभी सम और कभी विलम्बित। संगीत के जितने भी सुर और ताल हैं सबकी समन्वित तान उस बँसवारी से फूट पडती है। संगीत के सारे सुर-ताल एक साथ मिल जो प्रभाव पैदा करते हैं उसे ही अबुधजन रेंकना कहते हैं। सूर्य की बहुरंगी किरणों का समंवित प्रभाव यदि स्वेत हो सकता है तो सभी ध्वनियों का सम्मिष्रण गर्दभ गान क्यों नहीं? सूर्य हमारे लिए उपयोगी है। इसलिए उसपर शोध कर लिया लेकिन बेचारा गधा ! उसे कौन पूछे ? वह ठहरा निरीह प्राणी। आज के मशीनी युग में निरर्थक। विज्ञान भला उसकी ध्वनि पर शोध क्यों करे। जो उपयोगी है वह विज्ञान का विषय है, लेकिन मन का क्या ? उसे उपयोग से क्या लेना-लादना? वह तो भाव का भूखा है? उसे यदि गधे से भाव मिल जाय तो गधा ही सही। यदि फूहड गद्यात्मक ‘रैप’ हमारे मन को रुच सकता है और हमारा जमाना शस्त्रीय संगीत का-सा सम्मान दे सकता है, तो भला गर्दभ-गान में क्या कमी ? कम से कम उसमें सुर ताल तो होता ही है।

गोपियों ने ऊद्धव से कहा कि ‘ऊधो मन न होत दस-बीस / एक हुतो सो गयो स्याम रंग को आराधे ईस।“ अपने पास भी एक ही मन है और वह बैशाख में रमता है। वैशाख मतलब गर्मी की छुट्टियों के आने की खुशी। मैं ठहरा आजन्म प्रवासी। जन्म घर से दूर हुआ। पला बढा भी गाँव-घर से दूर ही। फिर पढाई-लिखाई और बेरोजगारी के भटकाव और अंत में यह नौकरी। सब घर से दूर-दूर ही रही। इसलिए छुट्टी-छपाटी में गांव जाना अपने आप में किसी आनंदोत्सव से कम न था। समुद्र मंथन में देवताओं ने शयद अमृत की उतनी प्रतीक्षा न की हो जितनी बेकली से हम गर्मी की छुट्टियों की प्रतीक्षा करते हैं। छुट्टियाँ शुरू होते ही मन और अधीर हो उठता। कभी बैशाख के नाम से ही महुए की मादक गंध नथूने भर जाती और टिकोरों की खट्टे स्वाद से जीभ लार-लाए हो उठती। अब वे बाग न रहे। उसे या तो हमरी जरूरतों ने लील लिया या मौसम के बदलते चक्र ने। अब तो कहीं कहीं खुँटवारी-बँसवारी ही बची है। वह भी कच्चे मकानों और छन-छाप्पर की बिदाई के बाद एक गैरजरूरी वस्तु की तरह। दूर-दूर तक सिवान में कोई नीम-बबूल तक नहीं, पीपल बरगद की कौन कहे? अब हम भी उतना छतनार कहाँ रहे जो किसी को छया दे सकें या खुद किसी से छाँव की चाह रखें? लेकिन मन का क्या वह तो अब भी कभी पुरनका पोखरा के पाकड के नीचे जा कर अटक जाता है तो कभी नयका पोखरा के गूलर के नीचे और कभी दमोदर बाबा के बरगद की कोई डाल पकड लटक जाता है या बूढे बट दादा की लम्बी-लम्बी दाढियों को पकड झूलने लगता है। मन निर्बंध है। वह कोई बंधन नहीं मानता। गोपियों का शरीर उसे नहीं बाँध सका न उनकी पारिवारिक-सामाजिक मर्यादाएँ। वे तो योगेश्वर की सहचरी थीं और उन्हें योग शिक्षा देने भी उनके प्रिय सखा उद्धव गए थे, फिर हम तो माया-जीव ठहरे तो भटक जाना और भटक-भटक कर पुरानी स्मृतियों में जा उलझना कोई विचित्र बात नहीं। 

कल अचानक मुहल्ले के पार्क में खडे नए-नवेले पीपल ने बाँह थाम ली। मैंने चौंक कर उसे देखा तो बच्चे की तरह ताली बजा खिल-खिला पडा। वह शहर की भीड-भाड में धक्का खाते भी अचानक बस में देख कर भी खिडकी पर खडा खिल-खिला पाडता है । कही कभी जब किसी फुर्सत के पल में मिल जाता है तो गलबहियाँ डाल पूछ बैठता है, वह घेघरा का पुराना ठूँठ याद है? मैं उसी की संतान हूँ। तुम्हारा गोतिया तुम्हारा भाई सहोदर्। जिस मिट्टी की खाद-पानी में तुम पले-बढे, उसी में मैं भी जन्मा, तुम्हारे पुरनियों की तरह ही हमारे पुरनियों को भी तुम्हारे ही गाँव की हवा पानी मिली । तुम ठहरे मनुष्य और मैं वृक्ष। मेरा शरीर तुमसे स्थूल है, पर मन तुम्हारी ही तरह कोमल्। वह भी इस शहरी आबोहवा से ऊब गया है और कभी गाँव की खुली हवा में साँस लेना चाह्ता है। अपने उन वंधुओं से मिल आना चाहता है, जिन्हें गाँव में अकेला छोड आया था, उनकी नियति के हवाले। 

वह जब अपनी बाँहें फैला मुझे घेर लेता है तब मेरे भीतर उसी की तरह की शाखएँ-प्रशाखाएँ फूटने लगती हैं। उसकी जडें मेरे मन में उतरने लगती हैं । मैं उसी की तरह शतभुज और सहस्रबाहु हो उठता हूँ। मेरी धमनियों और शिराओं में उसकी ऊर्जा उसका रस उसकी प्रण्वायु और चेतना उतर आती है। मेरे होठों से स्वतः ही फूट पडता है, “अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां।” मऐं सभी वृक्षों में ‘अश्वत्थ’ हूँ। मैं विराट हूँ। मेरा अस्तित्व इस सृष्टि के आदि और अनादि से मुक्त है। प्रलयकाल में जल-विहार करते हुए नारायण की आधार-शय्या अश्वत्थ-पत्र मैं ही हूँ। उस चैतन्य परब्रह्म की चिति ही मेरा मूल है और शखाओं-प्रशाखओं में फूटता संपूर्ण ब्रह्मांड ही देह है। मैं ही कल्प वृक्ष हूं। मैं ही वासुदेव हूं और मैं ही ऋषि-प्रत्यक्ष वह अश्वत्थ वृक्ष मैं ही हूँ— ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । । (कठोपनिषद्-2.3.1)  तब यह महसूस कर पाता हूँ कि कृष्ण ने अर्जुन से गीता में स्वयँ को अश्वत्थ क्यों कहा होगा? विराटता का दूसरा रूपक भला हो भी क्या सकता था? जितना विशाल आकार उतनी ही सहज भार हीन गति। थोडी सी हवा चली नहीं कि सारे पत्ते सह्ज ही डोल गए। अपनी उपस्थिति का आभास और अपनी उपादेयता का अंश सबको बिना भेद-भाव के बाँट आए। इस वायु-रुद्ध दुपहरिया में पसीने से लथ-पथ सृष्टि को अपने स्पर्श से सहला दे। क्या-छोटा क्या बडा ? क्या मानव क्या मानवेतर? सबको प्राणवायु बाँट आए। 

गोसाईं जी ने मानस के अयोध्याकांड में कैकेयी के वर मांगने से विचलित पिता से मिलने पहुँचे राम और उनके सम्मुख दशरथ की मनः स्थिति को व्यक्त करने के लिए ‘पीपर पात’ की ही उपमा दी है— “अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥/ रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।” यह केवल राजा की मानसिक विकलता को व्यक्त नहीं करता, अश्वत्थ की तरह उनके विराट व्यक्तित्व और स्थिर चरित्र के सम्मुख उनकी प्रेम विवश दुविधा को व्यक्त करता है। एक ओर राम के प्रति प्रेम की पुरवाई है तो दूसरी ओर कैकेयी से किए गए प्रण की पछुआ। राम के प्रति प्रेम का वेग अधिक है, परंतु कैकेई से किए गए प्रेम और प्रण और लोक मर्यादा की रक्षा का दबाव भी कम नहीं था। राम इस आवेग का अनुभव कर रहे थे और इसीलिए मातु अनुमानी के आधार पर ही आज्ञा लेकर चल पडे। पर वेग भला कहाँ रुकता ? दशरथ रूपी विशाल-वृक्ष राम के प्रति स्नेह के आवेग में धराशायी हो गया। ‘पीपर पात’ की व्यंजना केवल ‘मन की विकलता’ नहीं है, दशरथ के व्यक्तित्व से उसकी संगति भी इसका हेतु है। जब दशों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला या दशों दिशाओं पर राज करने वाला राजा उसके आवेग के सम्मुख न टिक सका तो अपना क्या ? हम जैसों के लिए विचलित हो जाना कोई बडी बात नहीं। मैं न तो प्रतपी राजा हूँ और न इंद्रीयजयी। फिर उस सनतन सहचर, उस अत्मीय मित्र, उस अश्वत्थ के राग में रंग जाने उसके प्रेम के आवेग में बह जाने या तादात्म्यीकृत हो जाने से भला खुद को कैसे रोक पाता ? अनजाने ही मैं उसकी विराटता के सम्मुख समर्पित हो जाता हूं— मैं ही तो /तेरी गोद बैठा मोद भरा बालक हूं/, ओ तरु तात सँभाल मुझे, मेरी हर किलक/ पुलक में डूब जाए:/ मैं सुनूँ/गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ/ तेरे अनुभव का एक एक अंतः स्वर/ तेरे दोलन की लोरी पर मैं झूमूँ तन्मय—गा तू:./तेरी लय पर मेरी साँसे भरे, पुरें, रीतें विश्रांति पाएँ।“  (असाध्य वीणा/अज्ञेय) और मेरा लघु मानस स्वतः ही उस परम मानस में लीन हो जाता है। मैं अपनी तथता भूल विदेह हो जाता हूँ । फिर तो गाँव की वह बँसवार भी नंदन वन ही है और बैशाख भी वसंत ही है। 



मंगलवार, 6 अगस्त 2024

हान कांग का जीवन परिचय


हान कांग, कोरियाई साहित्य की चमकती हुई शख्सियत, का जन्म 1970 में ग्वांगजू, दक्षिण कोरिया में हुआ। जीवन की कड़ी चुनौतियों और मानवीय भावनाओं के गहन विश्लेषण ने उनकी लेखनी को ऐसा आयाम दिया, जिसने न केवल कोरिया बल्कि पूरी दुनिया को उनकी कहानियों से जोड़ दिया।

शुरुआत से सफलता तक
10 साल की उम्र में, हान का परिवार ग्वांगजू से सियोल के सुयुरी इलाके में आ बसा। वहाँ की हलचल भरी जिंदगी और बदलाव के अनुभवों ने उनके भीतर गहराई से सोचने की आदत डाली। योनसेई विश्वविद्यालय से कोरियाई साहित्य में पढ़ाई करते हुए, उन्होंने जीवन और समाज के जटिल पहलुओं को समझा।

1993 में उनकी पाँच कविताएँ, जिनमें प्रमुख थी विंटर इन सियोल, मुन्हाक-ग्वा-साहो पत्रिका में प्रकाशित हुईं। यह उनकी रचनात्मक यात्रा की शुरुआत थी। एक साल बाद, उनकी लघु कहानी रेड एंकर ने सियोल शिनमुन स्प्रिंग लिटरेरी कॉन्टेस्ट जीतकर उन्हें एक उपन्यासकार के रूप में पहचान दिलाई।

रचनात्मकता और मानवीय संवेदनाएँ
हान कांग की कहानियों में इंसानी जज्बात, दर्द, और संघर्ष की गहराई दिखाई देती है। उनके उपन्यास द वेजिटेरियन ने न केवल साहित्य जगत को हिला दिया, बल्कि 2016 में मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार भी जीता। यह कहानी एक ऐसी महिला के इर्द-गिर्द घूमती है, जो समाज की बंदिशों को तोड़ते हुए शाकाहारी बनने का निर्णय लेती है, लेकिन इसके पीछे छिपे गहरे मानसिक और सामाजिक संघर्ष को बारीकी से उकेरा गया है।

उनकी अन्य मशहूर रचनाओं में ह्यूमन एक्ट्स, द व्हाइट बुक, और आई डू नॉट बिड फेयरवेल शामिल हैं। ये सभी रचनाएँ पाठकों को मानवता, अस्तित्व और स्मृतियों के सवालों से रूबरू कराती हैं।

अंतरराष्ट्रीय पहचान और पुरस्कार
हान कांग के लेखन ने उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार दिलाए:

1999 में बेबी बुद्धा उपन्यास के लिए कोरियाई उपन्यास पुरस्कार।
2000 में कोरिया के संस्कृति मंत्रालय से "आज का युवा कलाकार" सम्मान।
2017 में ह्यूमन एक्ट्स के लिए इटली का मालापार्ट पुरस्कार।
2019 में द वेजिटेरियन के लिए स्पेन का सैन क्लेमेट पुरस्कार।
उनकी प्रतिभा का एक अनोखा पक्ष 2019 में देखने को मिला, जब उन्हें नॉर्वे के फ्यूचर लाइब्रेरी प्रोजेक्ट के लिए चुना गया। इस प्रोजेक्ट के तहत उनकी अप्रकाशित रचना डियर सन, माई बिलवेड को 2114 में प्रकाशित किया जाएगा।

लेखन की शैली
हान कांग की लेखनी काव्यात्मक और गहराई से भरपूर होती है। उनकी कहानियाँ न केवल पाठकों को जोड़ती हैं, बल्कि उनके भीतर भावनाओं का तूफान खड़ा कर देती हैं। चाहे वह किसी की निजी पहचान की खोज हो या ऐतिहासिक त्रासदी का चित्रण, हान अपनी लेखनी के माध्यम से हर विषय को जीवंत बना देती हैं।

जीवन और साहित्य का संगम
हान कांग का जीवन उनके लेखन की तरह ही प्रेरणादायक है। सादगी और गहराई से भरा उनका सफर यह सिखाता है कि मानवीय भावनाएँ और अनुभव कितने अद्भुत और पेचीदा हो सकते हैं।

हान कांग की कहानियाँ पढ़ने वाले हर व्यक्ति को यह अहसास होता है कि साहित्य सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि जीवन का आईना है।

हान कांग की भाषा का विश्लेषण करें तो यह गहराई और भावनात्मक गूंज से भरी हुई है। उनके लेखन में सहजता के साथ काव्यात्मकता भी है, जो उनके साहित्य को अद्वितीय बनाती है। उनकी शैली में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं:



1. सरलता और गहराई का संतुलन:

हान कांग अपनी कहानियों में सरल भाषा का उपयोग करती हैं, लेकिन उनकी यह सादगी गहन भावनात्मक और दार्शनिक परतों से भरपूर होती है। उनकी भाषा पाठकों को एक आंतरिक यात्रा पर ले जाती है, जहाँ शब्द कम होते हैं, लेकिन प्रभाव गहरा होता है।



2. काव्यात्मक शैली:

उनकी पंक्तियों में कविता की प्रवृत्ति झलकती है। चाहे वह प्रकृति का चित्रण हो या किसी पात्र की मानसिक स्थिति, उनके वाक्य शिल्प में लय और गूंज होती है। यह उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि (कविताओं से शुरुआत) का परिणाम है।



3. भावनात्मक तीव्रता:

उनकी भाषा में अक्सर असहज भावनाओं और आघात का ईमानदार चित्रण होता है। उदाहरण के लिए, द वेजिटेरियन और ह्यूमन एक्ट्स में दर्द, हिंसा और मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने के लिए उन्होंने सीधी लेकिन शक्तिशाली भाषा का उपयोग किया है।



4. विवरणात्मकता और बिंबात्मकता:

हान कांग की लेखनी में प्रकृति और मानवीय परिस्थितियों के सजीव चित्र मिलते हैं। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिंबात्मकता से भरी हैं, जो पाठकों को घटनाओं और भावनाओं को महसूस करने में सक्षम बनाती हैं।



5. सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव:

उनकी भाषा कोरियाई संस्कृति और इतिहास की जड़ें दिखाती है। ग्वांगजू नरसंहार जैसे ऐतिहासिक घटनाओं को संदर्भित करते हुए उनकी भाषा में दर्द और प्रतिरोध का स्वर मुखर होता है।



6. मानवीय संघर्ष की गहराई:

उनकी रचनाओं की भाषा उन सवालों पर केंद्रित होती है, जो अस्तित्व, पहचान, और मानवता के संघर्ष को केंद्र में रखते हैं। उदाहरण के लिए, द व्हाइट बुक में श्वेत रंग को माध्यम बनाकर उन्होंने जीवन और मृत्यु के बीच की धुंधली रेखा को खूबसूरती से उजागर किया।



हान कांग की भाषा उनकी कहानियों का दिल है। यह पाठकों को केवल पढ़ने तक सीमित नहीं करती, बल्कि उन्हें अनुभव करने, महसूस करने और सोचने पर मजबूर करती है। यही उनकी रचनाओं की शक्ति और विशिष्टता है।







गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

हिंदी का ज्ञान कांड

 


आधुनिक हिंदी का जन्म और विकास भारतीय नवजागरण की कोख से हुआ। काव्य और कथा की कृतियों से पूर्व आधुनिक हिंदी वैचारिक और सामाजिक-सांस्कृतिक लेखन का माध्यम बन चुकी थी। ब्रजभाषा की सुकुमार कलाई जिन विचारों का भार वहन करने में लचक जाती थी, उसे आधुनिक हिंदी ने संभाल लिया।  आधार भाषा के रूप में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खड़ी बोली के ताने-बाने पर रची यह भाषा बंगाल से पंजाब और हिमाचल से विदर्भ तक उत्तर-मध्य भारत के समूचे वितान पर मधुमालती की तरफ फैल गई। इसका बड़ा कारण उसकी यह क्षमता ही थी। उस समय के प्रत्येक व्यक्ति, समाज सुधारक, दार्शनिक,  संस्कृति कर्मी की पहली चाहत थी एक ऐसी भाषा जो समूचे भारत को एक स्वर में संबोधित कर सके। जिसका स्वर भारत की चेतना को पुनर्गठित कर एकता दे सके। यह काम न तो तत्कालीन क्षेत्रीय भाषाएं,  आंचलिक बोलियाँ और न पुरानी सरकारी जुबान फारसी या नई सरकारी गवर्निंग लैंग्वेज अंग्रेजी ही कर पा रही थी। इस अपेक्षा को पूरी करने के लिए हिंदी का वर्तमान मानक रूप अपेक्षा और दायित्व के छेनी और हथौडी से ही तराशा गया। मध्यकालीन संत कवियों के बाद भाषा को लेकर पहली बार इतनी छटपटाहट इस दौर में दिखाई देती है। कबीर और उनके समकालीन संत कवियों के समय में अरबी या फारसी इतनी सशक्त नहीं हुई थी, इसलिए भाषा को लेकर कबीर आदि कि बेचैनी का कारण मुख्यतः अभिव्यक्ति थी जबकि नवजागरण के दौर के बौद्धिकों के समकक्ष अंग्रेजी का सर्वग्रासी रूप मुँह बाए खडा था और उनकी भाषा सम्बंधी चिंता अपनी अस्मिता को बचाए रखने की चिंता थी। अपनी एक मुकरी में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अँग्रेजी और अंग्रेजियत की ‘तारीफ’ इन शब्दों में की है:


सब गुरुजन को बुरो बतावै ।

अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।

भीतर तत्व न झूठी तेजी ।

क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।


यह उस भारतीय मेधा के लिए सांस्कृतिक क्षरण के पूर्वाभास की तरह था, जिसकी परंपरा का आदर्श यह रहा हो :


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।


भारतेंदु ने जब यह लिखा कि ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल’ तो उनका अभिप्राय भाषा-ज्ञान के साथ ही साथ भाषा में ज्ञान भी था । इसका प्रमाण उनकी रामायण sका समय, काशी, मणिकर्णिका (पुरातत्त्व), कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण, उदयपुरोदय (इतिहास), संगीत सार और जातीय संगीत (संगीत), तदीय सर्वस्व, वैष्णवता और भारत वर्ष (धर्म) आदि रचनाएँ हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना का मकसद भी यही था और महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती के अंक भी  इसके साक्षी हैं |  दयानंद सरस्वती,  भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, माधवराव सप्रे,  चंद्र शर्मा ‘गुलेरी’ अध्यापक पूर्ण सिंह पद्म सिंह शर्मा, डॉ. मोती चंद, काशी प्रसाद जायसवाल, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,  गणेश शंकर विद्यार्थी प्रभृत लेखकों के संपूर्ण लेखन का यदि एक साथ संग्रह कर उसका विश्लेषण किया जाए तो कोई संदेह नहीं रह जाता कि ‘निज भाषा’ या हिंदी को लेकर उसका उनका ‘विजन’ आज के हिंदी लेखन से कहीं ज्यादा व्यापक था । ऐसा करते हुए यह बार-बार दोहराए जाने की जरूरत होगी कि उनके लिए हिंदी ज्ञान, विचार और विमर्श की भाषा थी; केवल साहित्य भाषा नहीं। जिस निजता अथवा स्वत्व की गूँज यहाँ सुनाई पड़ती है, उसका संदर्भ अपनी भाषा के मार्ग पर खडे होकर ज्ञान-चक्षु खोलने से ही है ।  


आजाद भारत में सत्ता के रंगमंच पर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजीयत दोनों धमक एक बडा कारण था,  जिसने हिंदी को ज्ञान का माध्यम बनने से रोका;  लेकिन यह एक मात्र कारण नहीं था। हिंदी लेखकों की अन्य ज्ञानानुशासनों के प्रति उदासीनता और सहित्येतर लेखन को हिंदी के विमर्श और आलोचना से काट देना भी एक बडा कारण था। इसने हिंदी ही नहीं स्वत्व और निजता के बोध से जुडे एक बडे आंदोलन को भी क्षीण किया। आज हिंदी अपने प्रयोक्ताओं के बल पर मीडिया मनोरंजन और बाजार में अपनी बाँह पुजवाने की स्थिति में है। कुछ वर्षों के विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण के अपने अनुभव से यह कहा जा सकता है कि दुनिया में इसकी बढती माँग का कारण उसकी यह ताकत ही है । दूसरी ओर हिंदीभाषी विद्यार्थियों के लिए हिंदी के विद्यालयीय शिक्षण का वर्तमान अनुभव यह कहता है कि उक्त ताकत के बावजूद हिंदी की गत बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। अंग्रेजी माध्यम केवल दबाव और स्टेटस सिम्बल से आगे जरूरत बन गया है। ऐसा नहीं कि आजादी के पहले या आजादी के बाद हिंदी में ज्ञान का साहित्य रचा ही नहीं गया। हिंदी लेखकों के बीच उन्हें अपेक्षित मान और अकादेमिक दुनिया में समुचित प्रोत्साहन नहीं मिला। हिंदी की पत्रिकाएँ सम सामयिक-राजनैतिक पत्रिकाएँ  बन गई या विशुद्ध साहित्यिक जिनमें  कविता-कहानी को ही अधिक अधिक प्रोत्सहन मिला। आलोचना और अकादेमिक परिचर्चाओं की भी यही स्थिति रही।