बैशाख फिर आ गया। यह जब भी आता है तो मेरे लिए अपनी झोली में उल्लास भर लाता है। बैशाख और उल्लास ! अजीब बात है न। दुनिया जहाँ को तो सारा राग-रंग, सारा उल्लास फागुन-चैत की अंजुरी से मिलता है और मुझे बैशाख की झोली से। क्या कहूँ ? मेरा मन बैशाखनंदन जो ठहरा। जहाँ कवियों-रसिकों को रस नहीं मिलता, वहाँ भी यह रस खोज लेता है। जब चैती की कटिया-दँवरी के बाद सारा सिवान बियाबान पडा हो और धूप किसी क्रुद्ध अवधूत की तरह पूरे ब्रह्मांड को अपनी धुनी में झोंक देने पर आमादा हो तो भला रस का संधान कहाँ संभव? लेकिन यह अर्द्ध सत्य है। ताप का भी अपना एक स्वाद होता है। इसका आस्वाद रसना नहीं मन से होता है। वैसे भी रसना तो आस्वाद का माध्यम भर है, उसका असल भोक्ता तो मन ही है। अगर मन को न रुचे तो मेवा-मिश्री मिश्रित मक्खन में भी उबकाई आने लगे और रुचे तो बाजरे की हथरोटिया भी नमक तेल प्याज की संगत में मैक्डॉनल के पीज्जा को मात दे दे। दुनिया का सारा व्यापार मन का है— एनेदं भूतं भुवनं भविस्यत् परिग्रहीतममृतेन सर्वं। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु। आत्मा तो निर्लिप्त है, देह कर्ता है और मन भोक्ता। बिना भोग के जीवन भला कैसे चले ? प्राण की पुष्टि भला कैसे हो ? ऋषि, मुनि महत्माओं का जीवन भोग के बिना चल जाता होगा, पर हम तो ठहरे दुनियादार—भोगी। हमने तो अपने देवतओं के भोग भी अपने स्वाद के अनुरूप ही तय किये हैं। जो हमारे मन को भावे वही हमरे ईश्वर को भी भाएगा क्योंकि भक्ति भाव आश्रित है— “भाव भगति हित बोहिया सद्गुरु खेवनहार।“ ईश्वर का भोग तो भाव ही है, चाहे वह हनुमान जी के आगे लड्डू बन कर प्रस्तुत हो जाय या श्री कृष्ण के आगे माखन-मिश्री या फिर शिव जी के सम्मुख भाँग धतूरा। उन्हें इनके स्वाद से क्या ? वे ईश्वर हैं— विदेह हैं।
हमें तो अपने मन के रुचने से मतलब है। जो रुचेगा इंद्रियों को स्वाद भी उसी में आएगा। मन उसी में रमेगा। जो नहीं रुचेगा लाख जतन कर लें मन उचट ही जएगा और अपनी रुचि के अनुरूप आस्वाद की तलाश में भटकने लगेगा। बचपन में एक कहानी सुनी थी, एक कृपण की। अतिसम्पन्न होते हुए भी जो अपना धन बचाने के लिए वह अपने मन को मार देता था। एक दिन मन ने उससे विद्रोह कर दिया। वह सपने में उडकर आम के पेड पर जा बैठा और उसकी आम न खाने की शपथ भंग कर दी। उसकी कृपणता हार गई और मन जीत गया। मन ही जीवन का अधार है। मन मर गया तो देह जीवित रहकर भी क्या करेगी? सो हमने अपने संयम की वल्गाएँ छोड रखी हैं, और मन को खुला हाँक दिया है । वह निर्द्वंद्व हो गाँव, गाँव, खेत खेत घूम रहा है और मन उसके काँधे चढ साथ साथ डोल रह है। सबेरे से दुपहरिया तक सिवान के इस छोर से उस छोर तक चरते टूँगते वह जब गाँव की किसी सघन बँसवारी में आ खडा होता है तो गला फाड कर अपना गर्दभ तान छेड देता है। जिह्वा का स्वाद भले दब जाय मन का आस्वाद भला कहाँ दबने का ? धूप के आतंक से दबे-सहमे लोग अचानक सक-पका कर नींद से जाग पडते हैं। कभी द्रुत कभी सम और कभी विलम्बित। संगीत के जितने भी सुर और ताल हैं सबकी समन्वित तान उस बँसवारी से फूट पडती है। संगीत के सारे सुर-ताल एक साथ मिल जो प्रभाव पैदा करते हैं उसे ही अबुधजन रेंकना कहते हैं। सूर्य की बहुरंगी किरणों का समंवित प्रभाव यदि स्वेत हो सकता है तो सभी ध्वनियों का सम्मिष्रण गर्दभ गान क्यों नहीं? सूर्य हमारे लिए उपयोगी है। इसलिए उसपर शोध कर लिया लेकिन बेचारा गधा ! उसे कौन पूछे ? वह ठहरा निरीह प्राणी। आज के मशीनी युग में निरर्थक। विज्ञान भला उसकी ध्वनि पर शोध क्यों करे। जो उपयोगी है वह विज्ञान का विषय है, लेकिन मन का क्या ? उसे उपयोग से क्या लेना-लादना? वह तो भाव का भूखा है? उसे यदि गधे से भाव मिल जाय तो गधा ही सही। यदि फूहड गद्यात्मक ‘रैप’ हमारे मन को रुच सकता है और हमारा जमाना शस्त्रीय संगीत का-सा सम्मान दे सकता है, तो भला गर्दभ-गान में क्या कमी ? कम से कम उसमें सुर ताल तो होता ही है।
गोपियों ने ऊद्धव से कहा कि ‘ऊधो मन न होत दस-बीस / एक हुतो सो गयो स्याम रंग को आराधे ईस।“ अपने पास भी एक ही मन है और वह बैशाख में रमता है। वैशाख मतलब गर्मी की छुट्टियों के आने की खुशी। मैं ठहरा आजन्म प्रवासी। जन्म घर से दूर हुआ। पला बढा भी गाँव-घर से दूर ही। फिर पढाई-लिखाई और बेरोजगारी के भटकाव और अंत में यह नौकरी। सब घर से दूर-दूर ही रही। इसलिए छुट्टी-छपाटी में गांव जाना अपने आप में किसी आनंदोत्सव से कम न था। समुद्र मंथन में देवताओं ने शयद अमृत की उतनी प्रतीक्षा न की हो जितनी बेकली से हम गर्मी की छुट्टियों की प्रतीक्षा करते हैं। छुट्टियाँ शुरू होते ही मन और अधीर हो उठता। कभी बैशाख के नाम से ही महुए की मादक गंध नथूने भर जाती और टिकोरों की खट्टे स्वाद से जीभ लार-लाए हो उठती। अब वे बाग न रहे। उसे या तो हमरी जरूरतों ने लील लिया या मौसम के बदलते चक्र ने। अब तो कहीं कहीं खुँटवारी-बँसवारी ही बची है। वह भी कच्चे मकानों और छन-छाप्पर की बिदाई के बाद एक गैरजरूरी वस्तु की तरह। दूर-दूर तक सिवान में कोई नीम-बबूल तक नहीं, पीपल बरगद की कौन कहे? अब हम भी उतना छतनार कहाँ रहे जो किसी को छया दे सकें या खुद किसी से छाँव की चाह रखें? लेकिन मन का क्या वह तो अब भी कभी पुरनका पोखरा के पाकड के नीचे जा कर अटक जाता है तो कभी नयका पोखरा के गूलर के नीचे और कभी दमोदर बाबा के बरगद की कोई डाल पकड लटक जाता है या बूढे बट दादा की लम्बी-लम्बी दाढियों को पकड झूलने लगता है। मन निर्बंध है। वह कोई बंधन नहीं मानता। गोपियों का शरीर उसे नहीं बाँध सका न उनकी पारिवारिक-सामाजिक मर्यादाएँ। वे तो योगेश्वर की सहचरी थीं और उन्हें योग शिक्षा देने भी उनके प्रिय सखा उद्धव गए थे, फिर हम तो माया-जीव ठहरे तो भटक जाना और भटक-भटक कर पुरानी स्मृतियों में जा उलझना कोई विचित्र बात नहीं।
कल अचानक मुहल्ले के पार्क में खडे नए-नवेले पीपल ने बाँह थाम ली। मैंने चौंक कर उसे देखा तो बच्चे की तरह ताली बजा खिल-खिला पडा। वह शहर की भीड-भाड में धक्का खाते भी अचानक बस में देख कर भी खिडकी पर खडा खिल-खिला पाडता है । कही कभी जब किसी फुर्सत के पल में मिल जाता है तो गलबहियाँ डाल पूछ बैठता है, वह घेघरा का पुराना ठूँठ याद है? मैं उसी की संतान हूँ। तुम्हारा गोतिया तुम्हारा भाई सहोदर्। जिस मिट्टी की खाद-पानी में तुम पले-बढे, उसी में मैं भी जन्मा, तुम्हारे पुरनियों की तरह ही हमारे पुरनियों को भी तुम्हारे ही गाँव की हवा पानी मिली । तुम ठहरे मनुष्य और मैं वृक्ष। मेरा शरीर तुमसे स्थूल है, पर मन तुम्हारी ही तरह कोमल्। वह भी इस शहरी आबोहवा से ऊब गया है और कभी गाँव की खुली हवा में साँस लेना चाह्ता है। अपने उन वंधुओं से मिल आना चाहता है, जिन्हें गाँव में अकेला छोड आया था, उनकी नियति के हवाले।
वह जब अपनी बाँहें फैला मुझे घेर लेता है तब मेरे भीतर उसी की तरह की शाखएँ-प्रशाखाएँ फूटने लगती हैं। उसकी जडें मेरे मन में उतरने लगती हैं । मैं उसी की तरह शतभुज और सहस्रबाहु हो उठता हूँ। मेरी धमनियों और शिराओं में उसकी ऊर्जा उसका रस उसकी प्रण्वायु और चेतना उतर आती है। मेरे होठों से स्वतः ही फूट पडता है, “अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां।” मऐं सभी वृक्षों में ‘अश्वत्थ’ हूँ। मैं विराट हूँ। मेरा अस्तित्व इस सृष्टि के आदि और अनादि से मुक्त है। प्रलयकाल में जल-विहार करते हुए नारायण की आधार-शय्या अश्वत्थ-पत्र मैं ही हूँ। उस चैतन्य परब्रह्म की चिति ही मेरा मूल है और शखाओं-प्रशाखओं में फूटता संपूर्ण ब्रह्मांड ही देह है। मैं ही कल्प वृक्ष हूं। मैं ही वासुदेव हूं और मैं ही ऋषि-प्रत्यक्ष वह अश्वत्थ वृक्ष मैं ही हूँ— ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । । (कठोपनिषद्-2.3.1) तब यह महसूस कर पाता हूँ कि कृष्ण ने अर्जुन से गीता में स्वयँ को अश्वत्थ क्यों कहा होगा? विराटता का दूसरा रूपक भला हो भी क्या सकता था? जितना विशाल आकार उतनी ही सहज भार हीन गति। थोडी सी हवा चली नहीं कि सारे पत्ते सह्ज ही डोल गए। अपनी उपस्थिति का आभास और अपनी उपादेयता का अंश सबको बिना भेद-भाव के बाँट आए। इस वायु-रुद्ध दुपहरिया में पसीने से लथ-पथ सृष्टि को अपने स्पर्श से सहला दे। क्या-छोटा क्या बडा ? क्या मानव क्या मानवेतर? सबको प्राणवायु बाँट आए।
गोसाईं जी ने मानस के अयोध्याकांड में कैकेयी के वर मांगने से विचलित पिता से मिलने पहुँचे राम और उनके सम्मुख दशरथ की मनः स्थिति को व्यक्त करने के लिए ‘पीपर पात’ की ही उपमा दी है— “अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥/ रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।” यह केवल राजा की मानसिक विकलता को व्यक्त नहीं करता, अश्वत्थ की तरह उनके विराट व्यक्तित्व और स्थिर चरित्र के सम्मुख उनकी प्रेम विवश दुविधा को व्यक्त करता है। एक ओर राम के प्रति प्रेम की पुरवाई है तो दूसरी ओर कैकेयी से किए गए प्रण की पछुआ। राम के प्रति प्रेम का वेग अधिक है, परंतु कैकेई से किए गए प्रेम और प्रण और लोक मर्यादा की रक्षा का दबाव भी कम नहीं था। राम इस आवेग का अनुभव कर रहे थे और इसीलिए मातु अनुमानी के आधार पर ही आज्ञा लेकर चल पडे। पर वेग भला कहाँ रुकता ? दशरथ रूपी विशाल-वृक्ष राम के प्रति स्नेह के आवेग में धराशायी हो गया। ‘पीपर पात’ की व्यंजना केवल ‘मन की विकलता’ नहीं है, दशरथ के व्यक्तित्व से उसकी संगति भी इसका हेतु है। जब दशों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला या दशों दिशाओं पर राज करने वाला राजा उसके आवेग के सम्मुख न टिक सका तो अपना क्या ? हम जैसों के लिए विचलित हो जाना कोई बडी बात नहीं। मैं न तो प्रतपी राजा हूँ और न इंद्रीयजयी। फिर उस सनतन सहचर, उस अत्मीय मित्र, उस अश्वत्थ के राग में रंग जाने उसके प्रेम के आवेग में बह जाने या तादात्म्यीकृत हो जाने से भला खुद को कैसे रोक पाता ? अनजाने ही मैं उसकी विराटता के सम्मुख समर्पित हो जाता हूं— मैं ही तो /तेरी गोद बैठा मोद भरा बालक हूं/, ओ तरु तात सँभाल मुझे, मेरी हर किलक/ पुलक में डूब जाए:/ मैं सुनूँ/गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ/ तेरे अनुभव का एक एक अंतः स्वर/ तेरे दोलन की लोरी पर मैं झूमूँ तन्मय—गा तू:./तेरी लय पर मेरी साँसे भरे, पुरें, रीतें विश्रांति पाएँ।“ (असाध्य वीणा/अज्ञेय) और मेरा लघु मानस स्वतः ही उस परम मानस में लीन हो जाता है। मैं अपनी तथता भूल विदेह हो जाता हूँ । फिर तो गाँव की वह बँसवार भी नंदन वन ही है और बैशाख भी वसंत ही है।