बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

महात्मा गांधी

 महात्मा गांधी पिछली सदी में दुनिया की सर्वाधिक चर्चित हस्तियों में से एक रहे। वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल दार्शनिक और सच्चे जननेता थे। वे अपने सच्चेअर्थों में 'वैष्णव जन' और भारतीय किसान की मनोयात्रा के सहयात्री भी थे। वैष्णवता और किसान दोनों ही पूरक तथा भारतीय मन की शाश्वत धुरी हैं और दोनों ही अपनी मूल वृत्ति में अहिंसक हैं। इसलिए 'अहिंसा' उनके लिए राजनीतिक हाथियार से अधिक जीवन-व्यवाहार रही।

'हिंद स्वराज' के गांधी उन अर्थों में राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, जैसे वे दक्षिण-अफ्रीका से लौटने के बाद थे। फिर भी उनके उठाए गए सवाल और उसके उत्तर खांटी भारतीय वैष्णव जन के उहापोह की ही उपज हैं। वे वहां वकील, डॉक्टर या रेल की भूमिका को लेकर जो बातें करते हैं, उसमें 'अहिंसा' का सीधा जिक्र भले न हो, पर अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी अलोचना के संदर्भ अहिंसा से ही जुड़े हैं।
वे पिछली सदी के अकेले चिंतक रहे जो भारतीय चित्त और मानस से पूर्ण तादात्म्य कर सके। वे बीसवीं शताब्दी में तर्क और आस्था दोनों के संतुलन कसौटी हैं। इसीलिए भारतीय जन मानस का जितना कुशल राजनितिक उपयोग वे कर सके दूसरा कोई भी आजादी का सिपाही वैसा नहीं कर सका।
वे ईश्वर या अवतार नहीं थे। न उन्होंने कभी इसका दावा किया और न उनके अनुयायियों ने। इसलिए उन्हें निर्विवाद या निष्कलंक मानना या उनसे किसी दैवीय चमत्कार की अपेक्षा करना गलत होगा और अंध आलोचनाएं एक स्वस्थ बौद्धिक समाज के लिए खतरनाक। यह खतरा मूर्तिपूजक और मूर्तिभंजक दोनों विचारधाराओं की ओर से है। दोनों के लिए ही स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी उपस्थिति की तलाश में वे खड़ी पाई की तरह अड़े दिखाई देते हैं। इसलिए आवश्यक है कि खड़ी पाई से अटक कर समय नष्ट करने या उसे काट-पिट कर आगे वाक्य-विस्तर कर करने की ऊल जुलूल कोशिश के बजाय पूर्व-वाक्य के 'गैप' (यदि कोई लगता है) को पूरा करते हुए अगला नया वाक्य रचा जाय।

बसंत की बहार से सुखद है शरद की बयर

 दशहरे के आवन की एक अलग खुशबू है। दिल्ली जैसे धूल-धक्कड और प्रदूषण भरे शहर में आज भोर की हवा गाँव की याद दिला गई। ठुनकती-खुनकती सी यह हवा मुझे बसंती बयार से ज्यादा प्रिय है। गर्मियों की तपन और बरसात की पिचपिचाती रातों के बाद की यह हल्की ठंडी... जूही, चंपा मोगरे और हरसिंगार की संगति से छनी हुई...

मादक नहीं, गहरी परितृप्ति से भर देने वाली हवा..
यह हमेशा मुझे गाँव की याद दिलाती है। बुलाती है।
बचपन से प्रवासी रहा। गांव-घर से बहुत दूर का। साधन और संचार तब आज के से सुलभ न थे, इसलिए दूरियां और अधिक लगती थी। गर्मी की छुट्टियों से लौटने के बाद दशहरे की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती। गांव की रामलीला, मेला और मेले में दूर-दूर शहरों कस्बों से लौटे हुए बहरवांसू और उनके बच्चे। इन दिनों हमारा छोटा-सा गांव भी फैल कर बड़ा हो जाता। दिल्ली-कलकत्ता, सूरत-बंबई सब के सब इस गांव में आ जुटते। मेरा गांव ही क्यों? आस-पास के गांवों के बहरवासू और उनके हिस्से के बंबई-लकत्ता भी। बिना उनके मेरे गांव के मेले की खुशबू भला कहां? यह इत्र फुलेल की खुशबू नहीं। उड़ती धूल और पसीने के बीच चाचा, दादा, भइया, दीदी जैसे रिश्तों की खुशबू थी।
भगवान राम की रजगद्दी के बाद गांव धीरे-धीरे खाली होने लगता । रिश्ते मेहमान और सवारियां बन अपने-अपने गांवों कस्बों और शहरों की ओर लौट जाते। जो बाकी बचते वे हंसुआ, खुरपी और धान के खेत होते। उनके जोतने, बोने, निराने और गोडने से ही शहरों-कस्बों में रोपे हुए हरसिंगार, चम्पा और जूही हर रात लॉनों में महक पाते हैं।
पिछले कुछ सालों से धान के खेत भी वही हैं, हँसुआ और खुरपी भी लेकिन रिश्तों के हर सिंगार वहां नहीं खिलते। भगवान राम का दरबार अब पहले-सा नहीं भरता। इसलिए वह खुशबू भी यहां दिल्ली में भटकती हुई आ मिली। उसे शायद किसी नए दर की तलाश हो।

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

आजादी का उत्तराधिकार है खादी

आजादी का उत्तराधिकार है खादी

खादी वस्त्र नहीं विचार है। खादी ग्रमोद्योग विभाग के विपणन केंद्रों पर परदर्शित यह वाक्य कोई ध्येय वाक्य या स्लोगन नहीं एक ऐतिहासिक सच है। भारतीय राष्ट्रीय अंदोलन की वह हर आवाज जो बीसवीं सदी में देश के परिवेश में गूंजती है, उसकी संवेदना के तार खादी के धागों के बने हैं और उसकी कताई स्वदेसी के चरखे पर हुई है, चाहे उसकी तकली क्रांतिकारी हो या अहिंसक। यह हमारा राष्ट्रीय उत्तराधिकार है, जो हमें देश के लिए बलिदान होने वाले बलिदानियों, सत्याग्रहियों, क्रंतिकारियों और सामाजिक सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूतों से विरासत में मिला है। यह एक ऐसे जन आंदोलन का प्रतीक है, जिसने 1947 में 33 करोड भारतीयों के सिर पर आजाद भारत का ताज रख दिया। इसकी साखी हमें राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की इन पंक्तियों में मिलती है :

 

खादी में कितनी ही नंगों-भिखमंगों की है आस छिपी,

कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी।

खादी ही भर-भर देश प्रेम का प्याला मधुर पिलाएगी,

खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।

खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना लेगी,

खादी ही भारत से रूठी आज़ादी को घर लाएगी।

 

      उन्हीं के समकलीन और छायावाद के प्रवर्तक सुमित्रनंदन पंत ने भी चरखा गीतमें कुछ इसी तरह के विचार दिए हैं :  

भ्रम, भ्रम, भ्रम—

'धुन रूई, निर्धनता दो धुन,

कात सूत, जीवन पट लो बुन;

अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन,

थम, थम, थम!'

'नग्न गात यदि भारत मा का,

तो खादी समृद्धि की राका,

हरो देश की दरिद्रता का

तम, तम, तम!'

यहाँ खादी के प्रति जो विश्वास दिखाई दे रहा है, वह भारत की जनता का विश्वास है, क्योंकि ये कविताएँ गुलाम भारत की जन-संवेदना का अंकित दस्तावेज है। 1905 में खडा हुआ बंग-भंग विरोधी आंदोलन ब्रिटिश सत्ता पर स्वदेशीकी पहली चोट थी। 1920 के असहयोग अंदोलन में महत्मा गांधी ने इसे विस्तार दिया और खादी राष्ट्रीय मुक्ति का प्रतीक बन गयी। खादी और चरखे का प्रचार-प्रसार गाँव-गाँव तक हो गया। घर-घर में चरखे और गाँव-गाँव में करघे की जो बयार चली, उसने आजादी को भावनात्मक आधार दिया। घरों की चहारदिवारियों में कैद स्त्रियों ने पहली बार अर्थिक आत्म-निर्भरता का स्वाद चखा और धिरे-धिरे नैपथ्य से निकल कर आजादी की लडाई के अग्रिम मोर्चे पर खडी हुईं और राजनीतिक के साथ-साथ देश सामाजिक और लैंगिक विभेद की मुक्ति की राह भी बढ चला। संसद ने नारी शक्ति वंदनअधिनियम भले 2023 में भले पास हुआ हो, चरखा और खादी ने पर्दे के पीछे बैठी देश की आधी आबादी की आजादी की लडाई में सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित कर दी। चरखा कातती औरतों के बीच आजादी के तराने तमाम लोकगीतों की धुन पर गूँजने लगे :

मोरे चरखे का टूटे न तार चरखवा चालू रहे ।

महात्मा गाँधी दूल्हा बने हैं दुल्हन बनी सरकार । चरखवा

X            X          X

गौर्मेंट ठाढी बिनती करे

जीजा गवने में देबो सुराज, चरखवा चालू रहे ।  

इनके माध्यम से खादी, चरखे और स्वदेशी ने भारत में ब्रिटिश सत्ता को प्रतिस्थपित कर आजाद भारत का स्वप्न और सरकारी अर्थव्यवस्था के समानांतर एक देसी अर्थव्यवस्था का विकल्प प्रस्तुत किया और भारतीयों में आत्मनिभरता का बीज डाला। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया शासन से पूर्व मुर्शिदाबाद, ढाका, बनारस जैसे आर्थिक केंद्रों चमक जो सरकार के कडे प्रतिबंधों से फीकी पड गई थी, वह फिर से कुछ-कुछ निखरने लगी। देशी कुटीर उद्योगों की पुनर्स्थापना भी उसी पृष्ठभूमि में हुई, क्योंकि महत्मा गांधी चरखा और खादी के साथ-साथ ऐसे उद्योगों के भी हिमायती थे।

 भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के वर्तमान दौर में ग्लोबल साउथ के देशों के सम्मुख एक बार फिर सस्ते और गटिया माल की डम्पिंग एक समस्या है और नवउपनिवेशवाद एक नई चुनौती के रूप में सामने खडा है । ये वे देश हैं जिनके पास सीमित संसाधनों के कारण दुनिया की बडी अर्थव्यवस्थाओं से लोहा लेना आसान नहीं और देश दिवलियापन की कगार पर आ गए हैं। उनके पास न रोजगार है और न उद्योग या व्यापार की बडी संभावनएँ। अपनी अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने के लिए उन्हें आयात सीमित करने के साथ-साथ उन्हें आत्म-निर्भरबनना होगा। सीमित संसाधनों में अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित और पुनर्जीववित करने का सबसे अच्छा विकल्प लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन है। यद्यपि भारत प्रत्यक्षतः अर्थव्यवस्था के स्तर पर एक मजबूत राष्ट्र बनकर उभरा है, तथापि इसे बरकरार रखने के लिए विशाल जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराना एक बडी चुनौती है । लघु एवम कुटीर उद्योगों का प्रोत्साहन और परिवर्धन इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।

जिस तरह औद्योगिक क्रांति ने दुनिया को औपनिवेशिक शोषण का उपहार दिया ठीक उसी प्रकार उत्तर-औपनिवेशिक दौर ने प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पारिस्थितिकीय असंतुलन जैसी तमाम चुनौतियाँ हमें उपहार में दीं हैं। ये अंधाधुंध मशीनीकरण और बडे उद्योगों की देन हैं। विकसित देश जहाँ कर्बन क्रेडिट और कर्बन टेक्स की बात कर रहे हैं, वहीं विकासशील देश इसमें अपने वधिक की छवि देख रहे हैं । ऐसे में खादी ग्रमोद्योग जैसे प्रयास दुनिया को भारत के अनमोल उपहार हो सकते हैं, क्योंकि इनकी उत्पादन प्रक्रिया परिस्थितिकि के अनुकूल और पर्यवरण-प्रदूषण से मुक्त है । उत्पादन-सामग्री में जूट-कपास आदि जैविक पदार्थों के प्रयोग के कारण यह शरीर और स्वास्थ्य के लिए भी अधिक उपयोगी और पूर्णत: जैविक रूप से नष्ट होने योग्य है।

बुधवार, 27 सितंबर 2023

हिंदी एक औघड़ भाषा

हिंदी एक औघड़ भाषा है। इसीलिए इसको लोक में जो अहमियत मिली वह सत्ता या संस्थानों में नहीं मिली। बिना सत्ता सहयोग के आधुनिक हिंदी के सौ साल उसके राजभाषा बनाने के 75 सालों से ज्यादा समृद्ध हैं। उसके गठन और गढ़न से लेकर साहित्य - संस्कार तक की दृष्टि से जितना तेज उस एक शताब्दी में रहा, वह इधर के वर्षों में नहीं दिखता। हिंदी के प्रचार प्रसार में लगी पुरानी संस्थाएं मरणासन्न हैं नई तो जन्मजात पक्षपात/पक्षाघात का शिकार हो गईं हैं। जब तक इन संस्थाओं में लोक की भूमिका या सहायोग रहा प्राणवान रहीं, बाद  में सरकारी अनुदानों का दीमक इन्हें चाटता गया। बाद की सस्थाएँ तो खड़ी ही दीमकों की बांबी पर हुईं सो उन्होंने उन्हें जड़ जमाने या हरियराने ही नहीं दिया। उसकी संकल्पनाओं और भूमिकाओं के बीच नियुक्त अधिकारियों के स्वार्थ, लोलुपता और संस्थागत भ्रष्टाचार की तिहरी दीवारें खड़ी हो गईं। दुर्भाग्य का आलम यह है कि हिन्दी की संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे अधिकारी हिंदी में सहज संवाद में भी अक्षम हैं। विवशता में बचकाना तोतलेपन में बोले गए उनके वाक्य सरकारी हिंदी की समृद्धि का नमूना है। यदि बंगाल में हिंदी पढ़ाने वाले के लिए बंगला, उड़ीसा में उड़िया, गुजरात में गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य है तो हिंदी की केंद्रीय और महत्वपूर्ण संस्थाओं में नियुक्ति के लिए हिंदी की दक्षता का परीक्षण अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता है या नियुक्ति के साथ कार्यकारी दक्षता हासिल करने की समय सीमा अनिवार्य क्यों नहीं की जाती? यह सही है कि सरकारी तंत्र से हिंदी के लिए आंदोलन की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन कम से कम राजभाषा के नाम पर मसखरेबाजी तो नहीं की जानी चहिए। हिंदी केवल रोजी रोटी की भाषा नहीं भारतीय भाषाओं की लोकतांत्रिक प्रतिनिधि है। राजनीतिक कारणों से राजभाषा के रुप में इसके प्रयोग का विरोध कुछ क्षेत्रों में भले होता रहा हो, उन क्षेत्रों क्षेत्रों में भी हिंदी का प्रयोग का चलन इधर तेजी से बढ़ा है।

रविवार, 17 सितंबर 2023

वासुदेव शरण अग्रवाल : चयन और मूल्यांकन की दो दृष्टियाँ

वासुदेव शरण अग्रवाल मेरे प्रिय लेखकों में एक हैं। भारतीय संस्कृति की मेरी थोड़ी बहुत समझ जिन लेखकों को पढ़कर बनी है, वे उनमें से प्रमुख हैं। दुर्भाग्यवश साहित्य के अंचल में उनकी चर्चा थोड़ी कम होती है। इसका और कोई कारण हो या न हो एक कारण यह जरूर है कि साहित्य की चर्चाएँ प्रायः कविता और कथा की देहरी पर आकर ठिठक जाती है। इनकी सरस और सम्मोहिनी भंगिमा के आकर्षण में बंध आगे निबंध, आलोचना और कथेतर गद्यविधाओं तक पहुँच ही नहीं पाती हैं, अवश्य ही अचार्य शुक्ल और अचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे अक्खड़ और फक्कड़ निबंधकर इसके अपवाद हैं। फिर,  कला और इतिहास के अध्येता होने के कारण उन्हें साहित्येतर खाते में खतियाने की पर्याप्त छूट भी मिल जाती है।
 साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी द्वार लिखित विनिबंध, 2012 में साहित्य अकादमी द्वारा ही प्रकाशित कपिला वात्स्यायन जी द्वारा संकलित - संपादित 'वासुदेवशरण अग्रवाल: रचना-संचयन' के बाद महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पुस्तक विशिष्ट लगी। कपिला जी ने अपने सम्पादित संचयन में आचार्य अग्रवाल के प्रति शिष्या भाव से श्रद्धांजलि तथा उनकी समग्र झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नए पाठक को अग्रवाल जी के साहित्य और उनके लेखन की विविधता से अधिक से अधिक परिचित कराने की चाह के कारण पुस्तक का आकर संचयन की दृष्टि से समृद्ध हो गया है। 
'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पूर्व संचयन की तुलना में संक्षिप्त है।
यहां निबंधों के चयन में प्रतिनिधित्व की तुलना में संपादक की अंतर्दृष्टि प्रभावी है, जिसका संकेत बहुत दूर तक पुस्तक के शीर्षक और फिर उसकी भूमिका में बहुत स्पष्ट मिल जाता है। भूमिका का समापन इन पंक्तियों के साथ होता है: ' भारत राष्ट्र का निर्माण और संस्कृति की भित्ति पर हुआ है। इसलिए इस संचयन का नाम 'राष्ट्र धर्म और संस्कृति' रखा गया है। इसमें द्वीपांतर से लेकर ईरान और मध्य एशिया तक तथा असेतुहिमाचल मृण्मय भारत और चिन्मय भारत से संबद्ध वासुदेव जी के लेख संकलित हैं। चिन्मय भारत सहस्र - सहस्र वर्षों से प्रवाहित अजस्र धारा का सनातन प्रवाह है, यही इन निबंधों की टेक है; प्रतिपाद्य है।"