दशहरे के आवन की एक अलग खुशबू है। दिल्ली जैसे धूल-धक्कड और प्रदूषण भरे शहर में आज भोर की हवा गाँव की याद दिला गई। ठुनकती-खुनकती सी यह हवा मुझे बसंती बयार से ज्यादा प्रिय है। गर्मियों की तपन और बरसात की पिचपिचाती रातों के बाद की यह हल्की ठंडी... जूही, चंपा मोगरे और हरसिंगार की संगति से छनी हुई...
बुधवार, 25 अक्टूबर 2023
बसंत की बहार से सुखद है शरद की बयर
शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023
आजादी का उत्तराधिकार है खादी
आजादी का उत्तराधिकार है खादी
‘ खादी वस्त्र नहीं विचार है।’ खादी ग्रमोद्योग विभाग के विपणन केंद्रों पर परदर्शित यह वाक्य कोई ध्येय वाक्य
या स्लोगन नहीं एक ऐतिहासिक सच है। भारतीय राष्ट्रीय अंदोलन की वह हर आवाज जो बीसवीं
सदी में देश के परिवेश में गूंजती है, उसकी संवेदना के तार खादी के धागों के बने हैं और उसकी कताई स्वदेसी के चरखे पर
हुई है, चाहे उसकी तकली क्रांतिकारी हो या अहिंसक।
यह हमारा राष्ट्रीय उत्तराधिकार है, जो हमें देश के लिए बलिदान होने वाले बलिदानियों, सत्याग्रहियों, क्रंतिकारियों और सामाजिक सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूतों
से विरासत में मिला है। यह एक ऐसे जन आंदोलन का प्रतीक है, जिसने 1947 में 33 करोड भारतीयों के सिर पर आजाद भारत
का ताज रख दिया। इसकी साखी हमें राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की इन पंक्तियों में मिलती
है :
खादी में कितनी ही
नंगों-भिखमंगों की है आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख
छिपी, कितनों की इसमें प्यास
छिपी।
खादी ही भर-भर देश
प्रेम का प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।
खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना
लेगी,
खादी ही भारत से रूठी
आज़ादी को घर लाएगी।
उन्हीं के समकलीन और छायावाद के प्रवर्तक सुमित्रनंदन
पंत ने भी ‘चरखा गीत’ में कुछ इसी तरह के विचार दिए हैं :
भ्रम, भ्रम, भ्रम—
'धुन रूई, निर्धनता दो धुन,
कात सूत, जीवन पट लो बुन;
अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन,
थम, थम, थम!'
'नग्न गात यदि भारत मा
का,
तो खादी समृद्धि की
राका,
हरो देश की दरिद्रता
का
तम, तम, तम!'
यहाँ खादी के प्रति जो विश्वास दिखाई दे रहा है, वह भारत की जनता का विश्वास है, क्योंकि ये कविताएँ गुलाम भारत की जन-संवेदना का अंकित
दस्तावेज है। 1905 में खडा हुआ बंग-भंग विरोधी आंदोलन ब्रिटिश सत्ता
पर ‘स्वदेशी’ की पहली चोट थी। 1920 के असहयोग अंदोलन में महत्मा गांधी
ने इसे विस्तार दिया और खादी राष्ट्रीय मुक्ति का प्रतीक बन गयी। खादी और चरखे का प्रचार-प्रसार
गाँव-गाँव तक हो गया। घर-घर में चरखे और गाँव-गाँव में करघे की जो बयार चली, उसने आजादी को भावनात्मक आधार दिया।
घरों की चहारदिवारियों में कैद स्त्रियों ने पहली बार अर्थिक आत्म-निर्भरता का स्वाद
चखा और धिरे-धिरे नैपथ्य से निकल कर आजादी की लडाई के अग्रिम मोर्चे पर खडी हुईं और
राजनीतिक के साथ-साथ देश सामाजिक और लैंगिक विभेद की मुक्ति की राह भी बढ चला। संसद
ने ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम भले 2023 में भले पास हुआ हो, चरखा और खादी ने पर्दे के पीछे बैठी
देश की आधी आबादी की आजादी की लडाई में सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित कर दी। चरखा कातती
औरतों के बीच आजादी के तराने तमाम लोकगीतों की धुन पर गूँजने लगे :
मोरे चरखे का टूटे न तार चरखवा चालू रहे ।
महात्मा गाँधी दूल्हा बने हैं दुल्हन बनी सरकार । चरखवा…
X X X
गौर्मेंट ठाढी बिनती करे
जीजा गवने में देबो सुराज, चरखवा चालू रहे ।
इनके माध्यम से खादी, चरखे और स्वदेशी ने भारत में ब्रिटिश सत्ता को प्रतिस्थपित
कर आजाद भारत का स्वप्न और सरकारी अर्थव्यवस्था के समानांतर एक देसी अर्थव्यवस्था का
विकल्प प्रस्तुत किया और भारतीयों में आत्मनिभरता का बीज डाला। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया
शासन से पूर्व मुर्शिदाबाद, ढाका, बनारस जैसे आर्थिक केंद्रों चमक जो
सरकार के कडे प्रतिबंधों से फीकी पड गई थी, वह फिर से कुछ-कुछ निखरने लगी। देशी कुटीर उद्योगों की
पुनर्स्थापना भी उसी पृष्ठभूमि में हुई, क्योंकि महत्मा गांधी चरखा और खादी के साथ-साथ ऐसे उद्योगों के भी हिमायती थे।
भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के वर्तमान दौर में ग्लोबल साउथ के देशों के सम्मुख एक
बार फिर सस्ते और गटिया माल की डम्पिंग एक समस्या है और नवउपनिवेशवाद एक नई चुनौती
के रूप में सामने खडा है । ये वे देश हैं जिनके पास सीमित संसाधनों के कारण दुनिया
की बडी अर्थव्यवस्थाओं से लोहा लेना आसान नहीं और देश दिवलियापन की कगार पर आ गए हैं।
उनके पास न रोजगार है और न उद्योग या व्यापार की बडी संभावनएँ। अपनी अर्थव्यवस्था को
डूबने से बचाने के लिए उन्हें आयात सीमित करने के साथ-साथ उन्हें ‘आत्म-निर्भर’ बनना होगा। सीमित संसाधनों में अपनी
अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित और पुनर्जीववित करने का सबसे अच्छा विकल्प लघु एवं कुटीर
उद्योगों को प्रोत्साहन है। यद्यपि भारत प्रत्यक्षतः अर्थव्यवस्था के स्तर पर एक मजबूत
राष्ट्र बनकर उभरा है, तथापि इसे बरकरार रखने के लिए विशाल जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराना एक बडी
चुनौती है । लघु एवम कुटीर उद्योगों का प्रोत्साहन और परिवर्धन इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण
है।
जिस तरह औद्योगिक क्रांति ने दुनिया को औपनिवेशिक शोषण का उपहार दिया ठीक उसी प्रकार उत्तर-औपनिवेशिक दौर ने प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पारिस्थितिकीय असंतुलन जैसी तमाम चुनौतियाँ हमें उपहार में दीं हैं। ये अंधाधुंध मशीनीकरण और बडे उद्योगों की देन हैं। विकसित देश जहाँ कर्बन क्रेडिट और कर्बन टेक्स की बात कर रहे हैं, वहीं विकासशील देश इसमें अपने वधिक की छवि देख रहे हैं । ऐसे में खादी ग्रमोद्योग जैसे प्रयास दुनिया को भारत के अनमोल उपहार हो सकते हैं, क्योंकि इनकी उत्पादन प्रक्रिया परिस्थितिकि के अनुकूल और पर्यवरण-प्रदूषण से मुक्त है । उत्पादन-सामग्री में जूट-कपास आदि जैविक पदार्थों के प्रयोग के कारण यह शरीर और स्वास्थ्य के लिए भी अधिक उपयोगी और पूर्णत: जैविक रूप से नष्ट होने योग्य है।
बुधवार, 27 सितंबर 2023
हिंदी एक औघड़ भाषा
रविवार, 17 सितंबर 2023
वासुदेव शरण अग्रवाल : चयन और मूल्यांकन की दो दृष्टियाँ
शनिवार, 2 सितंबर 2023
अमृत-क्रांति-संतान : मंगल पांडेय
हे भारत के प्रथम पूज्य ! हे वीर पुत्र धरती के !
प्राण वायु तुम, महाकाय इस भारत की संस्कृति के ।
सुप्त धरा में जीवन-रस के संचारक, हे स्वातंत्र्य प्रणेता !
नव भारत के भाग्य-विधाता प्रथम क्रांति के नेता ।
धर्म-राष्ट्र-संस्कृति के रक्षक प्रथम पूज्य वलिदानी !
महाकाव्य से विशद चरित की कैसे कहूँ कहानी ?
रज कण की या कहूँ वृंत की या हिमवान-सरित की
किस-किस की भाषा में विरचित तेरे वीर चरित की ?
भारत के कण-कण से मुखरित त्तेरी सुरभित गाथा
सुन हिमवान द्रवित होता मृगराज झुकाते माथा ।
क्रांति, तेज, जय की यह आरोहित त्रिगुण पताका
लहराती नभंडल में हो भले दिवस या राका ।
मंगल यश के उद्गाता तुम जननी के शृंगार
कुसुम नहीं जीवन का तुमने चढा दिया था हार
बैरकपुर की चिनगारी तुम बने अग्नि विकराल
मंगल पांडेय नाम तुम्हारा अंग्रेजों के काल ।
राजा की संतान नहीं तुम नहीं मुगल की शान
तुममें बसती सोंधी माटी खेती और किसान
सेना के तुम वीर सिपाही भारत माँ की आन
अट्ठारह सौ सत्तावन के अमृत-क्रांति-संतान ।
तीस वर्ष की अल्प वयस में होकर तुम कुर्बान
पराधीनता महातिमिर के बने मध्य दिनमान
राष्ट्र प्रेम से जग-मग जीवन भारत-भाग्य-विहान
कोटि-कोटि भारत-जन के हित तुमने किया प्रयाण ।
सुन ललकार तुम्हारी रण की जाग उठा था जन-जन
गूँज उठी भारत की धरती तलवारों से झन-झन
अवध और पंजाब उठे थे बाँधे सिर पर काल
गांव-गांव में डगर-डगर में जला क्रंति का ज्वाल ।
वीर कुँवर सिंह तत्या नाना जागी सब में आन
क्रांतिगीत जब तुमने गाया देकर के बलिदान
मेरठ झांसी और कानपुर गए सभी थे जाग
कांप रहा था ईस्ट इंडिया भडकाई जो आग ।
शाह जफर को ललकारा जब गा कुर्बानी गीत
तख्त हिला था लाल किला का जन-जन की थी जीत
यमुना का पानी खौला था धँसक गई थी भीत
जनता के शासन की आई तब भारत में रीत ।
भारत भर में बजा हुआ था दुंदुभियों का साज
हुँकारों में बदल गई थी जनता की आवज
काँप उठा सुन लंदन पेरिस वर्लिन रोमन राज
सहम गया क्रांति-विगुल सुन विक्टोरिया ताज ।