आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:
शनिवार, 8 जुलाई 2023
अर्द्रा में भींगा मन
प्रकृति रही दुर्जेय
जीवन हमेशा उत्तान होकर नहीं चलता। जब-तब जहां-तहां करवटीयाता रहता है। अगर ऐसा न हो तो अच्छे खासे आदमी का हाजमा खराब हो जाय। लेकिन जब वह बात बे बात करवटियाया ही रहे तो गंभीर समस्या हो सकती है। पिछले कुछ सालों से मौसम भी ऐसे ही लगातार करवटिया रहा है। प्रकृति भयंकर पीड़ा में है। वह बेचैन है, पर हमें क्या? अब तो मनुष्य की घुटती हुई सांसे भी हमें बेचैन नहीं करती। हम उसके भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं। पहले प्रकृति हमारी अदम्य इच्छाओं की पूर्ति का टूल थी अब मनुष्य स्वयं उसका टूल है। कृत्रिम सूरज और कृत्रिम बरसात तक हम पहुंच चुके हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स मनुष्य बुद्धि और क्रिया के विकल्प बन चुके हैं। आर्टिफिशियल जीवन और सामाजिकता तो पहले ही जी रहे हैं।
शोध बता रहे हैं कि भूगर्भ के असीमित जल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आ रहा है। इस लिए किउम्मीद है हम जल्द ही नई धरती भी बना लेंगे। लेकिन यह सब कब तक चलेगा? मनुष्य के अंत या धरती के अंत तक ? क्या तब भी कोई मनु कामायनी के मनु की तरह अपनी जाति और संस्कृति के विनाश पर इस तरह विलाप करता हुआ मिलेगा :
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में;
भोले थे, हाँ तिरते केवल,
सब विलासिता के नद में।
बहुरूपिया समय
इस बहुरूपिया समय में हम एकरूपता के आदी होगए हैं। आम खाना है तो लंगड़ा दशहरी मलदहिया केसर जैसे दो चार नाम, पार्टी करनी है तो कुछ फास्टफुड या मटन-चिकन पनीर जैसा कुछ। एक आयोजन और दूसरे आयोजन के व्यंजनों में बहुत फर्क नहीं। यहां विवाह हो या मृत्युभोज कोई फर्क नहीं। देश भर के होटलों के मेन्यू देख जाइए रेट को छोड़कर सबकुछ एक दूसरे से कॉपी किया हुआ। कहीं बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। व्यस्त भागम भाग की जीवन चर्या में ब्रेड सैंडविच जैसी चीजें स्थाई रूप से घर कर गईं हैं। यहां तक की किसी के घर जाना है तो काजू और मेवा की मिठाइयां स्टेटस सिंबल बन गई हैं। लोकल या लोक के नाम पर भी सिंबल सेट हो गए हैं। जैसे हर बिहारी जन्म से मृत्यु तक सिर्फ बाटी चोखा खाता है और पंजाबी मक्के दी रोटी सरसों दा साग। राजस्थानी नास्ते से लेकर रात को सोने तक सिर्फ दाल बाटी चूरमा खाता है और साउथ इंडियन डोसा और इडली। हम अपने स्थानीय खान पान से बाहर निकल देश दुनिया के खान पान से परिचित हो रहे हैं यह अच्छा है, लेकिन खाद्य संस्कृति का एक प्रतिनिधित्व सेट करना और आयोजनों में एक खास भोजन को अनिवार्य कर देना हमारे जीवन में एकरसता के साथ हमारी सोच के एकरूपता की ओर झुकते चले जाने की निशानी है। ये हालत शहरों ही नहीं गांवों के भी हैं। गांव के छोटे मोटे हाटों और नुक्कड़ों पर भी 'चौमिंग'(स्थानीय उच्चारण) और बर्गर के ठेले इठलाते न नजर आजाएंगे और शहरों में उसके बगल में मोमोज के काउंटर
शनिवार, 20 मई 2023
यात्रा...
यात्रा जीवन का एक आनंददायक अनुभव है। वह जीवन का हो, सृजन का हो या खांटी घुमक्कड़ी का। यात्रा तो यात्रा ही है। वह भी जब यात्री नीरा यायावर और गप्पी हो तो उसका कहना ही क्या ? फिर तो यात्रा कर्म भी है और लक्ष्य भी। गीता में कृष्ण ने जिस कर्म योग की बात की है: कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन। उसका असल अधिकारी वही है।...
मंगलवार, 4 अप्रैल 2023
साम्राज्यवादी पराधीनता और पंडिता रामा बाई
रमा बाई ने स्त्री की मुक्ति और आत्म निर्भरता को संदर्भ-निरपेक्ष नहीं माना, बल्कि इसे राष्ट्रीय उत्थान और साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता से मुक्ति जैसे व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखा। ब्रिटेन और अमेरिका में प्रवास के बावजूद, 'रमाबाई एसोसिएशन’ को अमेरिका से मिलने वाले वाले आर्थिक सहयोग के बावजूद और ब्रिटिश नागरिकों से संबंध और सहकार के होते हुए भी वे भारत में साम्राज्यवादी सत्ता के चरित्र को भली-भांति समझती थीं, तभी तो उन्होंने यह लिखा है-
“वे हमारे देश पर शासन करते हैं, हमारी सम्पत्ति, हमारे जीवन और हमारे देश की छब्बीस करोड जनता के आत्म-सम्मान पर राज करते हैं। मुट्ठि भर अंग्रेजों ने भारत में राजकुमारों से लेकर कंगालों तक सभी लोगों को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है।”
उनके अनुसार, युरोप की इस ताकत के मूल में स्त्री-पुरुष-समानता है। अतः उन्होंने भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग को बेहद जरूरी माना यह सहयोग-भाव सशक्त पुरुष और अशक्त स्त्री के बीच संभव नहीं है अतः स्त्रियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा- “विदेशी लोग हमपर इसलिए शासन कर पाते हैं क्योंकि हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं और क्षुद्र जीव की तरह छोटी से छोटी बात के लिए उनका मुँह ताकते हैं।”३५ उन्होंने आगे लिखा है-
“उन्हें (विदेशी लोगों को) यदि अवसर मिल जाय, वे हमारे सिर पर लात मारने में तनिक संकोच नहीं करेंगे।”
विदेशी सत्ता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ रमा बाई ने यह आवाज उस समय उठाई जब हिन्दी के कवि और लेखक अपनी बात दृढ़ता से कह पाने का नैतिक बल नहीं जुटा पा रहे थे। उनकी स्थिति सीधे-सीधे आवाज उठा पाने की नहीं थी। भारतेन्दु युगीन कवि और लेखक प्रताप नारायण मिश्र की इन पंक्तियों में तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों की इस झिझक की झलक देखी जा सकती है-
ऐसे अगनित दुःख नित सहत रहत दिन राति।तेहिं भारत दीन गति, कही कौन विधि जाति॥महरानी विक्टोरिया यद्यपि महा दयाल ।चाहत कियो प्रजान को पुत्र सरिस प्रतिपाल॥
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर