शनिवार, 8 जुलाई 2023

अर्द्रा में भींगा मन

 आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:

आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पर अपने पूर्वांचल के गंगा मैदान में तो उनके कदम अक्सर आर्द्रा में ही पड़ते हैं। मृगशिरा के ताप से ताई हुई धरती पर वर्षा की पहली बूंदें अक्सर आर्द्रा में ही पड़ती हैं और उसकी सोंधी महक चारों ओर बिखर जाती है। समूची प्रकृति जीवन गंध से मह महा उठाती है और धरती की कुक्षी में सोए हुए बीज सहसा उसकी गोद में मुस्कुराने लगते हैं। यह मृगशिरा की लपटों से धरती के उद्धार की नक्षत्र है, जो प्रकृति में जीवन रस का संचार करती है। यह तृण-तरु सबको जीवन देती है, सबको आनंद और सुख बांटती है चाहे अपनी अकड़ में तना हुआ ताड़ हो या कहीं भी पसर जाने वाली लथेर दूब। अपन भी इस दूसरी कोटि में आते हैं सो हम भी जी भरकर पसरने का आनंद लूटते हैं।
इस के प्रिय होने का मेरे लिए एक अन्य कारण भी है। इस ऋतु का स्वागत हमारे घरों में खीर से होता है और विदाई पकवानों से। पुराने समय में बेटियों को अपने मायके से तीज की तरह ही आर्द्रा की बहँगी की भी प्रतीक्षा रहती थी। मुझ जैसे पेटू और रस लोभी व्यक्ति के लिए और क्या चाहिए? पावस और पायस की इतनी अच्छी संगति भला और कहां मिलेगी ? शायद इसी लिए नियति ने मुझे जन्म भी इसी अवधि में दिया। फिर पेटूपन और रसलोलुप होने में मेरा क्या दोष?

प्रकृति रही दुर्जेय

 जीवन हमेशा उत्तान होकर नहीं चलता। जब-तब जहां-तहां करवटीयाता रहता है। अगर ऐसा न हो तो अच्छे खासे आदमी का हाजमा खराब हो जाय। लेकिन जब वह बात बे बात करवटियाया ही रहे तो गंभीर समस्या हो सकती है। पिछले कुछ सालों से मौसम भी ऐसे ही लगातार करवटिया रहा है। प्रकृति भयंकर पीड़ा में है। वह बेचैन है, पर हमें क्या? अब तो मनुष्य की घुटती हुई सांसे भी हमें बेचैन नहीं करती। हम उसके भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं। पहले प्रकृति हमारी अदम्य इच्छाओं की पूर्ति का टूल थी अब मनुष्य स्वयं उसका टूल है। कृत्रिम सूरज और कृत्रिम बरसात तक हम पहुंच चुके हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स मनुष्य बुद्धि और क्रिया के विकल्प बन चुके हैं। आर्टिफिशियल जीवन और सामाजिकता तो पहले ही जी रहे हैं।


शोध बता रहे हैं कि भूगर्भ के असीमित जल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आ रहा है। इस लिए किउम्मीद है हम जल्द ही नई धरती भी बना लेंगे। लेकिन यह सब कब तक चलेगा? मनुष्य के अंत या धरती के अंत तक ? क्या तब भी कोई मनु कामायनी के मनु की तरह अपनी जाति और संस्कृति के विनाश पर इस तरह विलाप करता हुआ मिलेगा :

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित

हम सब थे भूले मद में;

भोले थे, हाँ तिरते केवल,

सब विलासिता के नद में।

बहुरूपिया समय

इस बहुरूपिया समय में हम एकरूपता के आदी होगए हैं। आम खाना है तो लंगड़ा दशहरी मलदहिया केसर जैसे दो चार नाम, पार्टी करनी है तो कुछ फास्टफुड या मटन-चिकन पनीर जैसा कुछ। एक आयोजन और दूसरे आयोजन के व्यंजनों में बहुत फर्क नहीं। यहां विवाह हो या मृत्युभोज कोई फर्क नहीं। देश भर के होटलों के मेन्यू देख जाइए रेट को छोड़कर सबकुछ एक दूसरे से कॉपी किया हुआ। कहीं बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। व्यस्त भागम भाग की जीवन चर्या में ब्रेड सैंडविच जैसी चीजें स्थाई रूप से घर कर गईं हैं। यहां तक की किसी के घर जाना है तो काजू और मेवा की मिठाइयां स्टेटस सिंबल बन गई हैं। लोकल या लोक के नाम पर भी सिंबल सेट हो गए हैं। जैसे हर बिहारी जन्म से मृत्यु तक सिर्फ बाटी चोखा खाता है और पंजाबी मक्के दी रोटी सरसों दा साग। राजस्थानी नास्ते से लेकर रात को सोने तक सिर्फ दाल बाटी चूरमा खाता है और साउथ इंडियन डोसा और इडली। हम अपने स्थानीय खान पान से बाहर निकल देश दुनिया के खान पान से परिचित हो रहे हैं यह अच्छा है, लेकिन खाद्य संस्कृति का एक प्रतिनिधित्व सेट करना और आयोजनों में एक खास भोजन को अनिवार्य कर देना हमारे जीवन में एकरसता के साथ हमारी सोच के एकरूपता की ओर झुकते चले जाने की निशानी है। ये हालत शहरों ही नहीं गांवों के भी हैं। गांव के छोटे मोटे हाटों और नुक्कड़ों पर भी 'चौमिंग'(स्थानीय उच्चारण) और बर्गर के ठेले इठलाते न नजर आजाएंगे और शहरों में उसके बगल में मोमोज के काउंटर

स्थानीय व्यंजन प्रायः गायब नजर आएंगे। समोसे, छोले और गोलगप्पों ने अब भी कुछ हद तक मोर्चा संभाल रखा है। हालांकि हेल्थ कंसस लोग इनसे दूर ही रहते हैं। जब हमारा स्वाद - बोध और हमारी जीवनचर्या एकरूप हो रही है तो भला संस्कृति- बोध विचार और राजनीति एक ध्रुवीय हो तो इसमें आश्चर्य कैसा ? यदि हमें बाहरी एक ध्रुवीयता से उबारना है तो हमें शुरुआत यहां से करनी होगी।

शनिवार, 20 मई 2023

यात्रा...

 यात्रा जीवन का एक आनंददायक अनुभव है। वह जीवन का हो, सृजन का हो या खांटी घुमक्कड़ी का। यात्रा तो यात्रा ही है। वह भी जब यात्री नीरा यायावर और गप्पी हो तो उसका कहना ही क्या ? फिर तो यात्रा कर्म भी है और लक्ष्य भी। गीता में कृष्ण ने जिस कर्म योग की बात की है: कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन। उसका असल अधिकारी वही है।...

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

साम्राज्यवादी पराधीनता और पंडिता रामा बाई




रमा बाई ने स्त्री की मुक्ति और आत्म निर्भरता को संदर्भ-निरपेक्ष नहीं माना, बल्कि इसे राष्ट्रीय उत्थान और साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता से मुक्ति जैसे व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखा। ब्रिटेन और अमेरिका में प्रवास के बावजूद, 'रमाबाई एसोसिएशन’ को अमेरिका से मिलने वाले वाले आर्थिक सहयोग के बावजूद और ब्रिटिश नागरिकों से संबंध और सहकार के होते हुए भी वे भारत में साम्राज्यवादी सत्ता के चरित्र को भली-भांति समझती थीं, तभी तो उन्होंने यह लिखा है-

 

“वे हमारे देश पर शासन करते हैं, हमारी सम्पत्ति, हमारे जीवन और हमारे देश की छब्बीस करोड जनता के आत्म-सम्मान पर राज करते हैं। मुट्ठि भर अंग्रेजों ने भारत में राजकुमारों से लेकर कंगालों तक सभी लोगों को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है।”

 

उनके अनुसार, युरोप की इस ताकत के मूल में स्त्री-पुरुष-समानता है। अतः उन्होंने भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग को बेहद जरूरी माना यह सहयोग-भाव सशक्त पुरुष और अशक्त स्त्री के बीच संभव नहीं है अतः स्त्रियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा- “विदेशी लोग हमपर इसलिए शासन कर पाते हैं क्योंकि हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं और क्षुद्र जीव की तरह छोटी से छोटी बात के लिए उनका मुँह ताकते हैं।”३५ उन्होंने आगे लिखा है-

 

“उन्हें (विदेशी लोगों को) यदि अवसर मिल जाय, वे हमारे सिर पर लात मारने में तनिक संकोच नहीं करेंगे।”

 

विदेशी सत्ता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ रमा बाई ने यह आवाज उस समय उठाई जब हिन्दी के कवि और लेखक अपनी बात दृढ़ता से कह पाने का नैतिक बल नहीं जुटा पा रहे थे। उनकी स्थिति सीधे-सीधे आवाज उठा पाने की नहीं थी। भारतेन्दु युगीन कवि और लेखक प्रताप नारायण मिश्र की इन पंक्तियों में तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों की इस झिझक की झलक देखी जा सकती है-
ऐसे अगनित दुःख नित सहत रहत दिन राति।
तेहिं भारत दीन गति, कही कौन विधि जाति॥
महरानी विक्टोरिया यद्यपि महा दयाल ।
चाहत कियो प्रजान को पुत्र सरिस प्रतिपाल॥
                                                    प्रताप नारायण मिश्र
ऐसे दौर में रमा बाई का साम्राज्यवाद विरोध उनके साहस की मिशाल है। वे विदेशी सत्ता की सीधे-सीधे आलोचना कर रही थीं। वस्तुतः वे स्त्रियों को केवल शिक्षा और आत्म निर्भरता का संदेश ही नहीं दे रहीं थीं, बल्कि उन्हें राजनैतिक चेतना-संपन्न भी बना रही थीं। वे उनकी मात्र सामाजिक-आर्थिक मुक्ति से संतुष्ट नहीं थीं बल्कि उनकी राजनैतिक मुक्ति की भी समर्थक थीं। उन्हें इस बात का बोध था कि उनकी तत्कालीन स्त्री पराधीनता केवल आन्तरिक नहीं बल्कि बाहरी भी है- वह केवल पुरुष वर्चस्ववादी समाज-व्यवस्था की पराधीनता से व्याकुल नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता में भी पिसी जा रही है। वे यह महसूस कर रही थीं कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में वंचितों के प्रति साम्राज्यवाद समर्थकों की सहानुभूति ऊपरी प्रदर्शन मात्र है। जो बात अम्बेडकर ने दलित वर्ग के अखिल भारतीय अधिवेशन(सन् १९३०) में अपने अध्यक्षीय भाषण में कही थी –


वही बात रमा बाई उससे बहुत पहले महसूस कर चुकी थीं। इस तरह वे स्त्री-मुक्ति आंदोलन की नेतृत्वकर्त्री ही नहीं, राष्ट्रीय जागरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी हैं। उक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने स्त्री समुदाय का आह्वान करते हुए लिखा- “यदि हर समझदार और सात्विक स्त्री मेरी बात को मान ले और कहे कि चाहे अन्य स्त्री यह करे न करे लेकिन वह स्वयं अपना तथा अप्ने परिवार की अन्य महिला सदस्यों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी तो इससे लगातार पिछड़ रहा नारी समुदाय तथा देश दोनों ही उन्नति करेंगे।”38 स्त्री-मुक्ति और राष्ट्र-मुक्ति की कामना से समन्वित उनका यह आह्वान नवाजागरण की चेतना का ही एक हिस्सा है, जिसने ‘व्यक्ति’ को महत्वपूर्ण माना। उनके इस स्वर की अनुगूंज रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता में भी सुनी जा सकती है-
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
रमाबाई का व्यक्तित्व रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता और उनके अपने वक्तव्य की जीवन्त मिसाल है। तमाम विरोधों और असहमतियों के बावजूद वे स्त्री की मुक्ति के लिए अकेले संघर्ष करती रहीं। उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया और स्वयं उसपर चलते हुए, दूसरों को उसपर चलने का संदेश दिया। अपने जीवन और आंदोलन के तमाम मोर्चों पर अकेले पड़ जाने के बावजूद उन्होंने लक्ष्य तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश की। अकेली होते हुए भी उनकी आवाज सदियों तक हजार-हजार कण्ठों से प्रतिध्वनित होती रहेगी।