हिंदी पाठकों के सम्मुख कुबेरनाथ राय की पहली पहचान ललित निबंधकार के रूप में बनी । उनके आरंभिक निबंध, जो ‘प्रिया नीलकंठी’ ‘रस आखेटक’ और ‘गंधमादन’ में संकलित हैं, इसी विधा से संबद्ध हैं । इसी अर्थ में वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय के रूप में एक त्रयी भी बनाते हैं । किन्तु, यह उनकी अधूरी पहचान है । वे सर्वांशतः एक भारतीय लेखक हैं । भारतीयता उनके लेखन का मेरुदंड है, जिसपर उनका समूचा चिंतन और सृजन टीका हुआ है । यह संस्कार-लब्ध और भारतीय आर्ष-चिंतन की परंपरा तथा लोक मन के गहन अनुशीलन और तादात्मीकरण से सहज-संपुष्ट भारतीयता है । उन्हें अपने भारतीय होने का ‘औसत से अधिक घमंड’ है । वे कहते हैं कि‘इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा, ‘अहं भारतोSस्मि’।‘भारतीयता’ न केवल भूगोल है न इतिहास है, न केवल चिंतन या संस्कार-प्रवाह । यह इन तीनों का संश्लेष है । इन्हें ही कुबेरनाथ राय क्रमशः ‘मृण्मय भारत, शाश्वत भारत और चिन्मय भारत’ कहते हैं । इनका आपस में पूर्वापर या रैखिक संबंध नहीं, बल्कि अंग-अंगी-संबंध है । ‘मृण्मय भारत’ से ‘चिन्मय भारत’ तक की यात्रा देह से आत्मा की ओर ऊर्ध्वगमन है । और, यह संयोग ही है कि रचना-क्रम की दृष्टि से उनकी अंतिम पूर्ण कृति भी ‘चिन्मय भारत’ ही है । यह अपने प्रकाशित रूप में ठीक उसी दिन उनके परिवार के हाथ में आयी, जिस दिन (5 जून 1996 को) वे अपनी मृण्मय सत्ता को त्याग कर चिन्मय सत्ता में विलीन हो चुके थे ।पहली कृति ‘प्रिया नीलकंठी’ के प्रकाशन (1971 ई.) से लेकर ‘आगम की नाव’ (2005 ई.) तक कुबेरनाथ राय की अबतक 21 कृतियाँ प्रकाशित हैं और बाइसवीं कृति ‘महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ प्रकाशन-क्रम में है । इनके कुछ आलोचनात्मक निबंध तथा अन्य रचनाएँ इतस्ततः पत्रिकाओं-पुस्तकों में बिखरी हुई हैं। ‘स्वाहा-शिखा’ शीर्षक से इनके एक अन्य संकलन का प्रकाशन प्रस्तावित था, किन्तु प्रकाशक के प्रमादवश न आ सका और उसकी अंधिकांश सामाग्री भी अब अनुपलब्ध है । अपनी समग्रता में ये सभी रचनाएँ भारतीय चिंतन-परंपरा और लोक-मन के बीच संवाद का उपक्रम हैं । इनके बीच लेखक ‘नेरेटर’ या दुभाषिये की भूमिका में नहीं है, बल्कि दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व कर रहा है । उसके रचना-कर्म की साधारण प्रतिज्ञा तो ‘पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे परिमार्जित भव्यता देना’ है, लेकिन वह साथ-साथ स्वयं भी क्रमशः विस्तृत और उदात्त होता गया है । सत्य, ऋत और शील कुबेरनाथ राय के चिंतन की धुरी हैं । जो असत्य है, दुःशील है, अनृत है, वह उन्हें ग्राह्य नहीं है । उनकी जीवन-दृष्टि और सौंदर्य-दृष्टि औदात्य के साथ-साथ माधुर्य के साहचर्य पर टिकी है । आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी साहित्य तथा चिंतन के गंभीर अध्येता होने के बावजूद उनका मन भारतीय किसान के गृहस्थ-लोक का वासी है, जहाँ ‘अति’ या ‘चरम’ के लिए कोई स्थान नहीं है, चरम विराग या चरम राग दोनों उसके लिए अग्राह्य हैं । ‘महाश्रमण इतना विराग असह्य है’ शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने यह साफ-साफ लिखा भी है । बहु-अधीत और शास्त्रज्ञ होने का कारण उनके पास कहने के अन्य तरीके भी थे और अनेक प्रसंगों में इस बात को उन्होंने अलग-अलग तरह से कहा भी है; जैसे ‘रघुवंश की कीर्ति बांसुरी’ में राम के शील को ‘भारत का राष्ट्रीय शील’ कहना या कई स्थलों पर ‘मधु वाता ऋतायते’ का उल्लेख आदि । अतः अनायास नहीं कि उनके साहित्य-नायक राम, गांधी और बुद्ध हैं । राम और गाँधी को केंद्र में रखकर तो उनके स्वतंत्र निबंध-संग्रह भी हैं । ‘पत्रमणि पुतुल के नाम’ महात्मा गाँधी पर केंद्रित है और ‘महाकवि की तर्जनी’, ‘त्रेता का वृहतसाम’ तथा ‘रामायण महा तीर्थम्’ राम-केंद्रित । इसके अतिरिक्त भी इन दोनों पर उनके अनेक निबंध विभिन्न संग्रहों में संकलित हैं ।
कुबेरनाथ राय का लेखन भारतीय संस्कृति के ‘अस्ति-पक्ष’ के साथ-साथ ‘भवति-प्रवाह’ को लेकर चला है । ‘चिन्मय भारत’ के साथ ही ‘शाश्वत भारत’ भी यहाँ मौजूद है। शाश्वत भारत अर्थात् इतिहास-प्रवाह, जिसकी धार के से छिल-मँज कर ‘चिन्मय भारत’ का भव्य प्राकार खड़ा हुआ है। उसका सौंदर्य और उसकी चमक उसी की देन है। इसके चिह्न हमारे लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद हैं और सबसे बढ़ कर हमारी दृष्टि और बोध में। हमारे महाकाव्य, हमारे कला-प्रतीक, हमारे जीवन-मूल्य और हमारे मिथक सब उसीके रचे हैं। श्री राय ने अपनी रचनाओं में भारतीय प्रतीकों की व्याख्या इसी संदर्भ में की है। ‘कामधेनु’ संग्रह के निबंध इस दृष्टि से खास महत्त्व रखते हैं। ‘निषाद बांसुरी’ ‘मन पवन की नौका’ और ‘उत्तरकुरु’ के निबंध भी इसी क्रम की रचनाएँ हैं। दरअसल, उनका बल भारतीयता के ‘अस्ति-पक्ष’ के बजाय ‘भवति-प्रवाह’ पर अधिक रहा है। वे स्थिरता के बजाय गतिशीलता में विश्वास रखते हैं। इसलिए यह उनके रचना-कर्म की मुख्य दिशा है। वे भारतीय संस्कृति की संरचना को जिस तरह ग्रहण करते हैं या व्याख्यायित करते हैं, उसे देखकर संभव है किसी को भ्रम हो कि लेखक अतीतोन्मुखी है; खासकर उनको, जिन्हें गतिशीलता उनके खास रास्ते पर ही नज़र आती है; अन्यत्र नहीं ।
कुबेरनाथ राय ‘इतिहास’ का प्रयोग न करके ‘भवति-प्रवाह’ का प्रयोग कराते हैं तो उसका भी कुछ खास अर्थ है । इतिहास में बीत चुके का भाव है, जबकि बीतता कुछ नहीं; स्थितियाँ परिवर्तनशील होती है और समय के अनुसार अपने रूपाकार में परिवर्तन भर कर लेती हैं । लेकिन, उनकी रेखाएँ आसानी से नहीं मिटती । एक रचनाकार के लिए भारत जैसे समृद्ध अतीत वाले देश की हर स्थिति या घटना और उसके प्रभाव को दर्ज़ कर पाना संभव नहीं है, फिर भी इतिहास कि कई महत्वपूर्ण स्थितियों और उनके प्रभावों के चित्र श्री राय की रचनाओं में सहज ही मिल जाते हैं । चाहे वह ‘भारतीय इतिहास कि अप्सरा नाभि’ या ‘अगस्त तारा’ निबंधों की तरह साहित्य या लोक-आख्यान के आश्रय से ही क्यों न हो । आधुनिक काल में महात्मा गाँधी को लेकर उन्होंने जो निबंध लिखे हैं, उसका एक कारण संभवतः यह भी है । हमारे निकट अतीत में गाँधी इस भवति-प्रवाह की सबसे सशक्त धारा रहे हैं । सतह पर उनकी भूमिका केवल भारत के राजनीतिक मुक्ति आंदोलन तक दिखती हो, पर उनकी लहरों की रगड़ भारतीय जीवन और मनोरचना पर बहुत बाद तक महसूस कि जाएगी ।
आलोच्य पुस्तक महात्मा गाँधी के ही समकालीन ‘किसान गुरु’ स्वामी सहजानंद सरस्वती पर केंद्रित है । वे एक साथ ही किसान आंदोलन के गुरु, नेता और सेनानी तीनों थे । वे संस्कारतः किसान थे और व्यवहारतः संन्यासी । सामाजिक नेतृत्व तो उनके ‘कर्म-वेदान्त’ का हिस्सा था । संभव है, किसी को उन्हें व्यवहारतः संन्यासी मानने में आपत्ति हो तो उसे अंत तक अपने हाथ में धरण किए हुए दंड और अपने अंतिम दिनों में अखिल भारतीय विरक्त महामंडल की अध्यक्षता को याद करना चाहिए; साथ ही, उनके भाषणों को भी जो वहाँ दिए गए । उसमें उन्होंने संन्यासियों को अपने समान ही ‘लोक-संग्रह’ का अर्थ-विस्तार उन्हें ‘कर्म-वेदान्त’ से जुड़ने की सलाह दी थी । वे राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में ‘लोक-संग्रह’ के इसी अर्थ को मूर्त करने की प्रेरणा से जुड़े और निरंतर जुड़ते चले गए । घर-परिवार छोड़ा आरंभ में जिससे सामाजिक पहचान और सहयोगी मिले वह जाति-सभा छोड़ी पर एक बार जुड़ने के बाद अंत तक जो नहीं छूट सका वह था ‘किसान’। इसके अन्य तमाम कारण हो सकते हैं, पर एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका संस्कार था । वे किसान-कुटुंब में जन्मे थे । उनका परिवार एक खाता-कमाता माध्यम किसान था । उन्होंने परिवार त्यागा पर ‘देस’ (परिवेश) नहीं त्यागा । वैराग्य के बाद वे विरागी होने के बाद विशिष्ट रागी होते गए । कई अवसरों पर किसानों को उन्होंने ‘भगवान’ तक कहा है ।
किसान और उसका आंदोलन स्वामी जी के जीवन का ‘धर्म’ बन गया । इसे राजनीति कि तुलना में ‘धर्म’ कहना इसलिए समीचीन है कि यह उनके लिए अस्तित्व का प्रश्न बन था । वे तत्कालीन राजनीति की अनेक धाराओं और नेताओं के संपर्क में आए; कांग्रेसी तो वे अंतिम वर्षों तक रहे, सोसलिस्टों से भी एक समय में ताल-मेल बैठाने कि कोशिश की और मार्क्सवाद की सतीर्थ्यता का रंग तो ‘गीताहृदय’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा, ‘किसान क्या करें ?’ ‘किसान कैसे लड़ते हैं?’ आदि पुस्तकों में काफी गहरा है। परन्तु, नीभी किसी से नहीं । सदैव अकेले रहे । निभाती भी कैसे ? कहाँ तो स्वामी जी की ‘किसान’ में अनन्या आस्था थी और कहाँ दूसरी ओर पार्टियों और उनके धड़ों की ‘किसान राजनीति’! कुबेरनाथ राय ने अपनी पुस्तक ‘मराल’ में और आलोच्य पुस्तक में भी स्वामी जी को जो किसान गुरु कहकर संबोधित किया है, वह इस दृष्टि से सर्वथा तर्क-संगत है । आजके प्रचलित अर्थ में वे नेता नहीं हो सकते । उन्होंने किसानों को संघर्ष की दीक्षा दी, उनका पग-पग पर मार्गदर्शन किया और उनकी उन्नति कि शुभेच्छा से उनसे अंत तक जुड़े रहे । किसान-सभा का रथ बिखर गया, फिर भी (आजादी के बाद) नए ‘धर्म-युद्ध’ में अंत तक अकेले अभिमन्यु की तरह रथ का पहिया उठाए रहे ।
‘महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ कुबेरनाथ राय ने एक विशेष उद्देश्य से लिखी थी। सन् 1990-91 में स्वामी जी के रचना-कर्म को संग्रहीत कर ‘समग्र’ साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी और उसमें कुबेरनाथ राय को भूमिका लेखन की ज़िम्मेदारी दी गई । समग्र साहित्य पाँच खंडों में में विभाजित था और उसके अनुसार ही श्री राय ने पाँचों की अलग-अलग भूमिका लिखी हैं । किन्तु, यह योजना साकार न हो सकी । इसलिए यह भूमिका भी अप्रकाशित ही पड़ी रही। बाद में, स्वामी सहजानंद सरस्वती कि ग्रंथावली उस पूर्व-योजना से इतर प्रकाशित भी हो गई। किन्तु, उनके जीवनकाल या उसके बाद भी यह इतस्ततः पत्र पत्रिकाओं में या इधर-उधर अधूरे रूप में भले ही प्रकाशित हुई; इसका समग्र रूप में प्रकाशन अब तक प्रतीक्षित है ।
कुबेरनाथ राय के लेखन को देखते हुए यह मानना ठीक नहीं होगा कि इसे उन्होंने केवल किसी योजना या आग्रह के कारण लिखा था । वे मांग आधारित लेखन करने वाले लेखक नहीं थे । इसीलिए उनका समूचा लेखन अत्यंत व्यवस्थित और सूचिन्तित है, यहाँ तक कि ये भूमिकाएँ भी । संभवतः इसका कारण उनके द्वारा उत्तर भारत की किसान-चिंता में स्वामी जी की केंद्रीय उपस्थिति और उसके प्रभाव को भारतीय इतिहास की एक अनिवार्य घटना की तरह देखना ही है । स्वामी जी को ‘महाजागरण का शलाका पुरुष’ कहने का कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है—
“1889 में महा शिवरात्रि को स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ ।....महज कुछ मास पूर्व या बाद में इस भारत वर्ष में पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अंबेडकर, आचार्य नरेन्द्र देव और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार महाशय का भी जन्म हुआ था । एक तरह से देखा जाय तो भारतीय इतिहास के उन्नीसवीं शती के पुनर्जागरण के शलाका पुरुषों की यह आखिरी पीढ़ी है । अपने-अपने दृष्टि-भेद और कर्म-भेद के बावजूद ये पाँचों महापुरुष ही भारतीय पुनर्जागरण के शलाका पुरुष रहे हैं और इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के धक्के से इतिहास का चक्र चालित हुआ है । इन पाँचों में स्वामी सहजानंद सरस्वती तो विशेष रूप से उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं ।”
इसके अतिरिक्त 1857 के आंदोलन और उत्तर भारत में नवजागण के पीछे कुछ लेखकों ने जो ‘किसानों’ की भूमिका को भी रेखांकित किया है, उनका प्रतिनिधित्व सन् 1930 बाद सही अर्थों में स्वामी सहजानंद ही कर रहे थे । इसलिए उन्हें नवजगरण (महाजागरण) का शलाका पुरुष कहना तर्कसंगत ही है । अपने ‘सहजानंद’ शीर्षक पहले लेख में श्री राय ने स्वामी जी की इसी भूमिका को रेखांकित किया है ।‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर का मंथन’ और ‘हिंदू संस्कार विधि का प्रयोजन और कर्मकलाप’ दोनों ही स्वामी जी के जीवन के पूर्व-पक्ष से संबंधित लेख हैं। उन्होंने अपने जीवन के दो-फाड़ होने का उल्लेख जहाँ-तहाँ खुद भी किया है—
‘पूर्व-पक्ष’ और ‘उत्तर-पक्ष’ के रूप में । उनके कुछ भक्तों (जातिवादी) के लिए पूर्व-पक्ष और कुछ (वामपंथी) के लिए उत्तर-पक्ष महत्त्व और चर्चा का विषय रहा है । इसलिए दोनों ही अपनी-अपनी सुविधा से इसकी चर्चा करते हैं। इसे ही ‘धूर्तश्रद्धा’ कहा है । दरअसल यह ‘आराम का मामला है ।’इसमें वे स्वामी जी की जय भी बोल लेते हैं और उनकी अपनी जमीन भी सुरक्षित रह जाती है । इस पूरी पुस्तक का महत्त्व ही इस बात में है कि वह अंध-श्रद्धा और धूर्त-श्रद्धा दोनों से मुक्त है । लेखक ने अपनी असहमतियों को दबाया या छुपाया नहीं है; उनके कर्म-योगी रूप के प्रति अपने सम्मान के बावजूद, खुलकर व्यक्त किया है । इस ‘पूर्व-पक्ष’ के बिना स्वामी जी की न तो ऐतिहासिक भूमिका तय होती है और न ही पूरा स्केच बन पाता है । और, उसके बिना लेखक की यह स्थापना भी भला कैसे प्रमाणित हो पाती कि — ‘उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं’।
‘गीताहृदय और मार्क्सवाद’ श्रीमद्भगवत गीता पर स्वामी सहजानंद का भाष्य है, जिसकी भूमिका में उन्होंने मार्क्सवाद और गीता की स्थापनाओं में साम्य दिखाने की कोशिश की है और शंकराचार्य तथा अपने भाष्य को तिलक के भाष्यों से विलक्षण बताया है ।
कुबेरनाथ राय की स्वामी जी से असहमति बहुत-साफ साफ देखी जा सकती है। जिस तरह से गीता हृदय की भूमिका में स्वामी जी की शास्त्रार्थ-प्रतिभा का साक्षात्कार होता है, उसीतरह यहाँ कुबेरनाथ राय की आलोचकीय प्रतिभा का। वे स्वामी जी और मार्क्सवाद दोनों के सामने अपनी ‘आस्तिक’ बुद्धि और और खाँटी भारतीय मनोरचना के साथ अकेले अड़े हुए हैं।अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी ने तत्कालीन वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उक्त पुस्तक में गीता को ठोंक-पीट कर बैठाने कि असाध्य चेष्टा भर की है; वह भी केवल भूमिका में । बाकी तो बस शांकर अद्वैत वेदांती और कर्मयोगी का भाष्य है । स्वामी जी गीता ने यहाँ स्वयं जिए गए कर्म-योग को, अर्थात् उनके अपने जीवन में भोगी गयी गीता को द्वापरकालीन गीता से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे । यहाँ उनकी मूल स्थापना है कि ‘वे आजीवन हथियार गढ़ते रहे, किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर । एक से एक तेज धारदार हथियार । उनका हर ग्रंथ सामाजिक भूमिका लेकर उतारा है । परंतु, हर ग्रंथ के भीतर वे स्वयं भी स्थित हैं अपने स्वानुभूत यथार्थ के साथ । गीता हृदय भी इसका अपवाद नहीं । इसे वे सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के हथियार के रूप में रचते हैं ।”
‘सहजानंद का किसान साहित्य’ में स्वामी जी के उस साहित्य की चर्चा है, जिसे उन्होंने अपने आंदोलन के नीति-निर्देशन या पुनरावलोकन के लिए लिखा। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ तथा ‘क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा’। इनमें से पहली को कुबेरनाथ राय ने ‘सिंहावलोकन’ कहा है और इस शब्द-बिम्ब कि व्याख्या भी की है । यह व्याख्या और बिंब सचमुच स्वामी सहजनन्द सरस्वती के व्यक्तित्व और कर्म के सर्वथा उपयुक्त है । दूसरी बात जो लेखक ने कही है वह यह कि यह आत्मकथा न होकर ‘आत्म-जीवनी’ है । स्वामी जी ने इसे अपने जीवन और किसान सभा तथा राजनीति से जुड़ी घटनाओं के ब्योरे तक ही सीमित रखा है, इसलिए लेखक को ‘निजता’ का अभाव यहाँ खटकता है और एक विधा के रूप में आत्मकथा की जो विशेषता है, वह नहीं पाता।
‘आत्मजीवनी’ कहने का अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मकथा में जो अंतरंगता होनी चाहिए, वह इसमें नहीं है । लेकिन, लेखक इसे आजादी के दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों में शुमार करता है । जिस अर्थ में स्वामी जी की ऐतिहासिक भूमिका असंदिग्ध है, उसी अर्थ में उनकी ‘आत्मकथा’ की भी ।‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा’ की आलोचना में कुबेरनाथ उसी मुद्रा का सहारा लेते हैं, जिसमें स्वामी जी ने ‘गीताहृदय’ की भूमिका में तिलक के सामने खड़े हैं । वहाँ स्वामी जी के हाथ में मार्क्सवाद का डंडा था, पर कुबेरनाथ राय निहत्थे उनसे जूझ पड़े हैं। गुत्थम-गुत्था तो भरपूर ही हुए हैं, लेकिन खेल-भावना का पूरा खयाल रखा है । हालाँकि, स्वामी जी ‘गीताहृदय’ और ‘मेरा जीवन संघर्ष’ में दंड-प्रहार करते हुए कई जगह इसे भी भूल गए हैं । ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा’ में स्वामी जी ने मार्क्सवाद का ‘उत्खाद प्रतिरोपण’ ही किया है, फर्क यह है कि समुद्रगुप्त राजाओं को जहाँ पराजित करता था, वहीं पुनः स्थापित भी कर देता था । यही था उनका ‘उत्खाद प्रतिरोपण’ । लेकिन, स्वामी जी ने उखाड़ा कहीं से और रोप भारतीय धरती पर दिया है । कुबेरनाथ राय ने उचित ही रेखांकित किया है कि वे ‘महान सर्वहारा’ के किसान का ख़याल भी नहीं रखते । यह अनायास नहीं, उनकी कम्युनिस्ट राजनीति के सतीर्थ्य बनने के आग्रह का ही प्रतिफलन था । इन पार्टियों जिन सर्वहारा मिलमजदूरों की बात उस समय कि जा रही थी और स्वामी जी स्वयं जिनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे थे, वे तब संख्या में ही अत्यल्प थे । उनकी तुलना में किसानों की संख्या कहीं अधिक थी । लेखक ने कई बार यह रेखांकित किया है कि यह मैत्री स्वाभाविक न होकर ‘विवश-मैत्री’ थी जो बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अनिवार्य-सी हो गई थी । स्वामी जी का कांग्रेस में रहते हुए भी मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों से मोहभंग और समाजवादियों के ‘अवसरवादी’ रुख के बीच और रास्ता भी क्या था ?
अंतिम लेख ‘महाजागरण के शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद’ दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । एक तो इसमें स्वामी जी के कर्म-पक्ष की आलोचना है, जिसके आधार पर कुबेरनाथ राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी ‘किसान गुरु’ हैं । दूसरा यहाँ इस सवाल का उत्तर भी मिल जाता है कि स्वामी जी के पास मार्क्सवादी पार्टी से जुड़ाव का विकल्प क्या था ? वस्तुतः यह उस पराजेय योद्धा की अंतिम नियति का भी व्योरा है, जो अपने लक्ष्य के लिए सभी मोर्चों पर अकेले-अकेले लड़ रहा है । वह न तो किसी से समझौता करना चाहता है और न लक्ष्य से च्युत होना; परिणामतः अपनी समूची ईमानदारी, निष्ठा और सचाई के बावजूद आवाह निरंतर युद्ध कर रहा है और अंत में नए रास्ते और सहचर की तलाश भी उसके लिए युद्ध का विषय बन जाता है । इस पुस्तक को समाप्त करते हुए कुबेरनाथ राय के ही एक अन्य निबंध का शीर्षक जेहन में उभरता है, ‘वत्स! में निरंतर युद्ध कर रही हूँ’ । यह वाक्यांश ही संभवतः इस पूरी पुस्तक का निचोड़ भी है, जिसे श्री राय ने स्वामी सहजानंद के कृतित्व के माध्यम से पाठकों को दिखने की कोशिश की है।
स्वामी सहजानंद के लोकनायकत्व का सम्मान के बावजूद, कुबेरनाथ राय उन्हें वह सहानुभूति नहीं दे पाए हैं, जो ‘पत्र मणिपुतुल के नाम’ में गाँधी जी को सहज-लब्ध है।लेकिन, इससे स्वामी जी का भला ही हुआ है। ‘अंधभक्तों’ और एकाकांगी आलोचकों के बीच उन्हें एक ऐसा आलोचक मिला है, जो उनकी एक ‘रेडीमेड’ छवि बनाने के बजाय पाठकों के सम्मुख उनके व्यक्तित्व की विभिन्न गांठों (Ambiguities) और ऐठनों को खोलकर रख देता है, फिर कबीर की तरह कहता है ‘ऐसा लो नहीं वैसा लो’ और अंत में यह ‘अनूठा’ है या नहीं इसका विवेक पाठकों पर छोड़ देता है । एक बहुलता-विश्वासी लोकतान्त्रिक लेखक के लिए यही उपयुक्त रास्ता भी है।
मंगलवार, 4 अप्रैल 2023
कुबेरनाथ राय का सहजानंद विषयक चिंतन
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी : कुछ चिंतन कुछ विचार
‘साहित्य का स्वधर्म’ डॉ. विश्वनाथप्रसाद तिवारी के निबंधों और कुछ विशिष्ट व्याख्यानों का संकलन है। इसमें मुख्यतः दो तरह के निबंध संकलित हैं। पहले, साहित्य और उसके बुनियादी प्रश्नों से जुड़े अवधारणात्मक और आलोचनात्मक निबंध तथा दूसरे, विशुद्ध वैचारिक निबंध । दूसरी कोटि के निबंध पहली कोटि के निबंधों की पूर्व-पीठिका प्रस्तुत करते हैं और लेखक के विचार-जगत और उसकी बनावट और बुनावट को आरेखित करते हैं, लेकिन पुस्तक का लक्ष्य मुख्यतः ‘साहित्य का पाठक’ और प्रतिपाद्य विषय ‘साहित्य का स्वधर्म’ है, इसलिए लेखक ने इन्हें पुस्तक के परवर्ती हिस्से में स्थान दिया है। इन निबंधों में पर्याप्त विषय-वैविध्य है । इनके लेखन-काल में भी अधिक अंतराल है । इस कारण पाठक पहली नज़र में पुस्तक के ‘संकलन’ होने को ही रेखांकित कर पाता है, लेकिन जब वह निबंधों के अध्ययन में प्रवृत्त होता है तो इनकी पारस्परिक अन्विति उसे आकर्षित करती है। उसे आभास होता है कि वह एक खास अंतर्दृष्टि से परिचित हो रहा है, जो प्रत्येक निबंध में विषय की बहुरूपता के कारण और अधिक स्पष्ट होती जा रही है। रचना-समय के अंतराल के कारण इन निबंधों के भीतर ही इस अंतर्दृष्टि को क्रमशः विकसित और पुष्ट होते हुए भी देखा जा सकता है। इसलिए इन निबंधों में एक जैविक रिश्ता-सा है और सभी निबंध इस पुस्तक के भीतर अंग-उपांग रूप में समन्वित हैं।
डॉ. तिवारी ने पुस्तक का आरंभ एक सवाल के साथ किया है , “साहित्य का अपना धर्म या उसकी विशिष्टता क्या है?” यहाँ स्व-‘धर्म’ पद का प्रयोग सुविचारित है। एक ओर जहाँ यह भारतीय साहित्य चिंतन की पूर्व-परिचित शब्दावली है, वहीं मूल्य, प्रतिमान, निकष या अन्य किसी भी आधुनिक पद की तुलना में अधिक अर्थवान भी। ‘मूल्य’ के साथ कहीं न कहीं उपयोगिता, प्रतिमान में कृत्रिमता और निकष में तुलना का अर्थ ध्वनित होता है, और ये तीनों ही बाहरी या आरोपित तत्त्व हैं। ‘धर्म’ इनसे अलग है। वह सहज-वृत्ति है। उन्होंने इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए ही ‘स्वधर्म’ और कहीं-कहीं ‘स्वभाव’ भी कहा है। वे यह मानते हैं कि ‘अन्य ज्ञानानुशासनों के लेखक की दृष्टि विषय के साथ बँधी होती है’, जबकि साहित्यकार की दृष्टि इस बंधन को नहीं मानती। वह इससे परे भी जाती है। उसमें यथार्थ तो होता है, पर रागदीप्त संवेदना के साथ— “साहित्य सर्जक की दृष्टि तथ्यों, तिथियों और घटनाओं पर नहीं, विभिन्न चरित्रों की भावनाओं और उनकी मनोवृत्तियों पर केन्द्रित होती है। उन्हीं के माध्यम से वह यथार्थ को संवेद्य बनाता है।” उसके लिए इतिहास के साथ ही लोकचित्त भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए तुलसी के ‘रामचरित मानस’ या ‘जायसी’ के ‘पद्मावत’ के पात्र इतिहास-सम्मत भले न हों, एक सर्जक के लिए उनका महत्त्व है। साहित्यकार रागदीप्त सत्य को प्रकट करता है और यही साहित्य की विशिष्टता का वास्तविक कारण है— “ रचनात्मक साहित्य ज्ञान के अन्य उपकरणों की तुलना में इसलिए विशिष्ट होता है कि वह भावदीप्त सत्य को प्रकट करता है। यथार्थ को राग से पकड़ना, उसे अनुभूति का विषय बनाना और अस्तित्व की गहराइयों से प्राप्त भाषा में उसे व्यक्त करना, यही रचना की विशिष्ट प्रक्रिया है ।” साहित्य की स्वायत्तता को डॉ. तिवारी उसकी इसी विशिष्टता का पर्याय मानते हैं। उसे ‘कलावादी मुहावरा’ मानकर विरोध करने वालों का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने लिखा है— “कुछ मित्र साहित्य की विशिष्टता को उसकी स्वायत्तता मानकर उसका विरोध करते हैं। उन्हें यह एक कलावादी मुहावरा प्रतीत होता है, मगर क्या साहित्य का स्वरूप इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म आदि से भिन्न नहीं होता? क्या सूरदास का ‘सूरसागर’ वही है, जो वल्लभाचार्य का दर्शन ?”विश्वनाथप्रसाद तिवारी के अनुसार, “साहित्य का महाभाव करुणा तथा न्याय हैं।” आचार्य शुक्ल ने भी लोकमंगल की साधनावस्था की चर्चा करते हुए करुणा को सर्वाधिक महत्व दिया है। किन्तु, यहाँ करुणा के साथ न्याय को भी साहित्य के साहित्य होने लिए जरूरी माना गया है। तुलसीदास केवल अपनी करुणा के कारण बड़े कवि नहीं हैं, बल्कि वे ‘बालि के वध के प्रसंग में अपने आराध्य राम को भी कठघरे में खड़ा कर देते हैं—धरम हेतु अवतरेउ गुसाईं ।/मारेसि मोहिं ब्याध की नाईं॥’ अतः साहित्य हिंसा का विकल्प भी है। यही कारण है कि कट्टर सत्ताएँ प्रायः साहित्य की शत्रु बन जाती हैं। यह सत्ता चाहे राजनैतिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक अथवा वैचारिक। किन्तु, साहित्य की अपनी सत्ता है, जो अक्षुण्ण रहती है। इसीलिए अपने समकालीन राज्याश्रित इतिहासकारों की उपेक्षा के बावजूद तुलसीदास और उनका ‘रामचरित मानस’ आज भी लोकचित्त में प्रतिष्ठित है और कई शताब्दियों के अंधकार युग के बावजूद ईसाई-पूर्व यूनानी साहित्य यूरोप में साहित्य के पुनर्जन्म का आधार बना।
साहित्यकार की स्वतंत्र सत्ता होती है। इस जमीन पर खड़ा होकर ही वह अपने समलीन यथार्थ के समानान्तर एक स्वप्न या मनोराज्य की रचना करता है। उसके सहारे वह समाज को अपने समय के संत्रास या वेदना से मुक्ति का मार्ग दिखाता है और उसके भीतर न्याय के प्रति आस्था को और अधिक दृढ़ करता है। इसीलिए डॉ. तिवारी स्वतंत्रता को सृजनात्मकता का पर्याय मानते हैं। उन्हीं के शब्दों में “जहाँ स्वतंत्रता नहीं, वहाँ सृजन भी नहीं हो सकता । दुनिया में जो कुछ भी सर्जनात्मक संभव होता है, वह स्वतंत्रता के ही कारण होता है, किन्तु स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखल व्यक्तिवाद नहीं है। ऐसा हो जाने पर तो सारा समाज आदिकालीन बर्बर हो जाएगा। स्वतंत्रता का अर्थ दायित्वहीनता भी नहीं है। उसका सीधा अर्थ है साहस। व्यक्ति-स्वातंत्र्य और सामाजिक दायित्व दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। लेखन जितना स्वाधीन होगा उतना ही दायित्वपूर्ण भी।”
इसलिए लेखक ने स्वाधीनता को साहित्य का बुनियादी मूल्य माना है। उसके अनुसार, “स्वाधीनता, लोकतन्त्र, शांति और सामाजिक न्याय, ये रचना के बुनियादी सरोकार हैं । कविता के केंद्र में सदा से मनुष्य रहा है । उस मनुष्य और समाज-व्यवस्था की धड़कन को महसूस करना और उसे रूपायित करना ही कविता का धर्म है और यही कविता का मुख्य सरोकार । कविता मनुष्य के पक्ष में एक बयान है । वह उसके दुःख-सुख, उसकी आशा-आकांक्षा, उसके असमंजस, उसकी ट्रेजडी, उसके हालात को उजागर करती है, पूरी तरह निष्पक्ष और विवेक-सम्पन्न होकर। कविता का स्वभाव सीमाओं से मुक्त होना है। वह मुक्ति की दिशा में अग्रसर होती है, रोकने वाली ताकतों से संघर्ष करते हुए। वह विवेक दृष्टि देती है, अनुभव की गहराइयों में प्रवेश करती है। भावुकता या आवेश में विध्वंसात्मक आवेश नहीं फैलाती”।
लेखक ने यहाँ यह बात कविता के संदर्भ में कही है, किन्तु वह साहित्य की सभी विधाओं और उनके सर्जकों पर भी लागू होती है । साहित्यकार जब भावुकता या वैचारिक अथवा राजनीतिक आग्रहों के वशीभूत होता है तो वह अपनी स्वच्छंदता, विवेक या सरोकारों से किस तरह विरत हो जाता है इसका उदाहरण लेखक ने इसी पुस्तक के एक निबंध ‘छायावाद के विरुद्ध सुनियोजित षड्यंत्र’ में दिया है,“ ‘छायावाद’ पुस्तक को ध्यान से पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है कि इसमें आलोचक कहता तो कुछ और है, पर कहना कुछ और चाहता है, अर्थात उसकी तान जिस बात पर टूटती है, वह उसके पूर्व कथन के विरुद्ध है । ऐसा लगता है, जैसे उसके आस्वादन और पूर्वाग्रहों में द्वंद्व और असमंजस की स्थिति है ।” ऐसे में आलोचक सत्य और न्याय, जिसे डॉ. तिवारी साहित्यकार का स्वधर्म मानते हैं, से च्युत हो जाता है।
साहित्य के स्वधर्म की चर्चा करते हुए लेखक ने प्रसंगतः साहित्य और अन्य ज्ञानानुशासनों के साथ-साथ साहित्य और कला के अंतर्संबंधों पर भी विचार किया है। उसके अनुसार सभी कला-माध्यमों के मूल में एक ही तरह की सर्जनात्मक चेतना निहित रहती है, परंतु माध्यम के परिवर्तन के साथ अभिव्यक्ति की क्षमता और उसके स्वरूप में बदलाव आ जाता है । यह जरूरी नहीं की जिस तथ्य या घटना को एक माध्यम बहुत आसानी से व्यक्त कर सकता है, दूसरा भी उसे उसी सहजता से व्यक्त कर ले । अभिव्यक्ति के हर माध्यम की अपनी सीमा होती है, किन्तु ‘शब्द’ इनमें सर्वाधिक सशक्त माध्यम है । इसीलिए साहित्य अन्य विधाओं की तुलना में सर्वाधिक अभिव्यक्तिक्षम है ।
इस पुस्तक की एक खास बात यह भी है, कि लेखक ने साहित्य को लेकर केवल अवधारणात्मक लेख नहीं लिखे, बल्कि आलोचना में उन्हें कसौटी के रूप में इस्तेमाल कर एक प्रतिदर्श भी प्रस्तुत किया है । इसमें सूर, तुलसी और मीरा जैसे मध्यकालीन कवियों के साथ ही छायावादी काव्य तथा अज्ञेय, मुक्तिबोध और कुंवरनारायण जैसे आधुनिक लेखकों पर विचार किया गया है। इन्हीं के साथ आधुनिक हिंदी कविता पर एक स्वतंत्र निबंध भी है, जिसे पढ़कर इस तथ्य की स्वतः पुष्टि हो जाती है, कि जिन विषयों की ओर अन्य ज्ञानानुशासन ध्यान भी नहीं देते, उसे साहित्यकार अपनी रचना में केंद्रीय स्थान देता है । हिंदी साहित्य के इतिहासकारों द्वारा उपेक्षितप्राय उत्तरछायावादी काव्य पर लेखक ने जिस मनोयोग से विचार किया है, वह इसका उदाहरण है । ‘विवशता और विषाद से भरी होने के बावजूद बच्चन की कविता में जीने की प्यास बहुत है’ और ‘उनकी (सुभद्रा कुमारी चौहान की) कविता को जो शक्ति देती है, वह है लोक मन की सहजता और सादगी’— ये दोनों टिप्पणियाँ मेरी सीमित जानकारी में इन दोनों कवियों के संदर्भ में अब तक की सबसे सटीक टिप्पणियाँ हैं ।
इसी तरह इस पुस्तक में रवीन्द्रनाथ ठाकुर और सीताकान्त महापात्र पर निबंध संकलित हैं ।
पुस्तक के परवर्ती भाग में वैचारिक निबंध संकलित हैं जिनमें बुद्ध, गांधी, लोहिया आदि विचारक तथा भारत में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता एवं आधुनिक विकास जैसे विषयों पर निबंध शामिल हैं । ये ऐसे विषय हैं, जिनसे किसी भी आधुनिक भारतीय लेखक का अनिवार्य सरोकार है । इनसे परे जाकर समाज और साहित्य ही क्यों आधुनिक काल के किसी भी कला-माध्यम को नहीं समझा जा सकता । इन्हें लेकर लेखक की दृष्टि जितनी ही स्पष्ट होगी, किसी भी साहित्य-चिंतक या आलोचक के लिए साहित्यालोचन का काम उतना ही सुगम और सहज होगा ।
गांधी और लोहिया ने ‘आधुनिक’ यूरोपीय जीवन मूल्यों का ‘भारतीय’ विकल्प प्रस्तुत किया । उन्होंने यूरोप से आयातित और आरोपित आधुनिकता को अस्वीकृत कर देशज आधुनिकता की तलाश की कोशिश की है। इसके मूल्यमान भारतीय चिंतन, धर्म, साधना और जीवन-पद्धति के भीतर से तलाशे और तराशे गए हैं । इसलिए भारतीय मनोरचना के सर्वाधिक उपयुक्त भी हैं । यही कारण है कि गांधी की ‘हिंदस्वराज’ जैसी लघु-पुस्तिका अपने रचनाकाल की लगभग एक शताब्दी के बाद भी उतनी ही लोकप्रिय है । ‘हिंदस्वराज और सभ्यता की अवधारणा’ शीर्षक लेख में डॉ. तिवारी ने सभ्यता संबंधी यूरोपीय और गांधीवादी मूल्यमानों की तुलना करते हुए लिखा है, “यूरोप में विकास की अवधारणा और सभ्यता की अवधारणा एक है । गांधी के लिए ‘विकास’ और ‘सभ्यता’ की अवधारणाएँ अलग-अलग हैं । यह कोई जरूरी न हीं कि जो भौतिक, आर्थिक और यांत्रिक दृष्टि से विकसित हो, वह सभ्य भी हो । गांधी जी के अनुसार अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना सभ्य होने की बुनियादी कसौटी है । भोग से भोग की इच्छा बढ़ती है, अतः मन की चंचल वृत्तियों पर नियंत्रण होना चाहिए । यह गांधी की नैतिक दृष्टि है, जो भौतिक समृद्धि से परे देखती है, जो स्पर्द्धा के पागल दौड़ को सभ्यता नहीं मानती । गांधी यंत्र को नहीं यंत्र के मनुष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को देखते हैं, जो मनुष्य की मनुष्यता को क्षतिग्रस्त करते हैं और उसकी नैसर्गिक क्षमता का नाश करते हैं ।”
इसी पुस्तक में विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के संबंध में यह लिखा है, “आधुनिक हिंदी साहित्य का ही विश्लेषण करें तो देखेंगे कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर आज तक का हिंदी साहित्य अपनी मूल धारा में समाजोन्मुख, संघर्षशील चेतना से सम्पन्न और मानव मंगल की धारणा से अनुप्राणित है ।” यहाँ लेखक का आधुनिक साहित्य के मूल्य को आँकने का प्रतिमान वही ‘मानव-मंगल’ है, जिसकी चिंता वह गांधी के ‘हिंद-स्वराज’ में पाता है। लेखक ने उसे वैचारिक उत्तराधिकार के रूप में शायद यहीं से आत्मसात् भी किया है । डॉ. तिवारी ने साहित्य संबंधी उक्त टिप्पणी प्रगतिशीलता को परिभाषित करते हुए की है, इसलिए उन्होंने ‘समाजोन्मुख, संघर्षशील चेतना से सम्पन्न’ विशेषण का प्रयोग किया है, अन्यथा ‘मानव-मंगल’ में ये दोनों तत्त्व स्वतः समाविष्ट हैं । ऊपर जिस देशज आधुनिकता की बात गांधी और लोहिया के संदर्भ में की गई है, कुछ वही देशजता प्रगतिवाद में भी महत्त्वपूर्ण थी । जो कवि, कथाकार, लेखक या आलोचक भारतीय साहित्य की प्रगतिशील विरासत को आत्मसात् करके आगे बढ़ा, वही दीर्घजीवी हो सका; अन्य अनुकरण की बाढ़ में तिरोहित हो गए ।
गांधी और लोहिया पर ही नहीं, इस पुस्तक में बुद्ध और नेहरू पर निबंध भी हैं । बुद्ध, ‘ज्ञात इतिहास के प्रथम’ मानववादी हैं तो नेहरू आधुनिक भारतीय इतिहास के । पहले, जन्मना राजपुरुष थे और कर्मणा दार्शनिक तो दूसरे आत्मना साहित्यकार और कर्मणा राजनीतिज्ञ । पहले ने मानव-कल्याण के हित राज्य का त्याग कर प्रब्रर्ज्या धारण किया तो दूसरे ने राजनीतिज्ञ के रूप में मानव-कल्याण की चिंता की । दोनों ने भारतीय इतिहास के दो मोड़ों पर अलग-अलग तरह से, लेकिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं और वैश्विक फ़लक पर भारत की पहचान को सुदृढ़ किया । नेहरू पर केन्द्रित लेख इस दृष्टि से उल्लेख्य है कि इसमें लेखक ने न केवल नेहरू के राजनीतिक और विचारक व्यक्तित्त्व की तुलना में उनकी साहित्यिक सहृदयता को उकेरा है, बल्कि इस पक्ष ने उनके राजनेता और नीतिकार रूप को कहाँ और किस रूप में प्रभावित किया है, उन संदर्भों को भी उभारा है । यह नेहरू के मूल्यांकन का एक विशिष्ट नज़रिया है ।
‘साहित्य का स्वधर्म’ पुस्तक का फ़लक अत्यंत विस्तृत है । इसके निबंध बहुविध और बहुआयामी हैं । ये अलग-अलग समय और परिवेश में लेखक द्वारा व्यक्त विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर भी इनमें एक आंतरिक लय या अन्विति है, जो इसे संकलन मात्र बनने से बचाती है । यह एक ओर लेखक के गहन अनुशीलन के परिचायक हैं तो दूसरी ओर पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार भी करते हैं । अपनी समग्रता में यह पुस्तक लेखक द्वारा अपने पाठक को उस मूलाधार से परिचित करने की कोशिश जान पड़ती है, जहाँ खड़े होकर उसने अपने विचार और चिंतन को आकार दिया है ।
समीक्षित पुस्तक—
पुस्तक : साहित्य का स्वधर्म
लेखक : विश्वनाथप्रसाद तिवारी
प्रकाशक : सामयिक बुक्स
संस्कारण : 2018
मूल्य : 595