गुरुवार, 23 मार्च 2023

पंडिता रमा बाई : जूझती हुई स्त्री का स्वर

 


पंडिता रमा बाई के लेखन को भारतीय नवजागरण का एक सशक्त स्त्री-स्वर माना जा सकता है। उनका जीवन अत्यन्त सक्रिय रहा, जिसका एक बड़ा हिस्सा नारी जागरण, सामाजिक-धार्मिक जकड़बंदियों से उसकी मुक्ति और इन सभी के निमित्त स्त्री-शिक्षा के प्रसार के प्रति समर्पित रहा। उन्होंने स्वयं स्त्रियों की मुक्ति के लिए प्रयास ही नहीं किये बल्कि उन्हें अपनी मुक्ति के लिये प्रोत्साहित और प्रशिक्षित भी किया। वे एक ही साथ स्त्री-मुक्ति के आंदोलन की कार्यकर्त्री, नेतृत्वकर्त्री और गुरु तीनों थीं। अपने वैदुष्य और तर्क-शक्ति के कारण वे बंगाल में अपने समकालीन चिन्तकों और सुधारकों के बीच रमाबाई सरस्वतीऔर महाराष्ट्र के प्रबोधनकालीन विचारकों के बीच पंडितारमा बाई के नाम से जानी जानी गईं। तत्कालीन समाज में होने वाले बदलावों के नब्ज को पहचानने की क्षमता के साथ ही उनमें गहन परम्परा-बोध और विवेकसम्मत आधुनिक अन्तर्दृष्टि दोनों अपने समन्वित रूप में उपस्थित थे। इन्हीं के सहारे वे नवजागरणकालीन सामाजिक सन्दर्भों और उनमें होने वाले नए परिवर्तनों के कमजोर और सशक्त पहलुओं को देख-परख कर उनके बीच भारतीय स्त्री के लिए एक मजबूत जगह तलाश रहीं थीं। यही कारण है कि वर्तमान स्त्री-अस्मिता को अभिव्यक्त करने वाली अनेक-अनेक आवाजों के बीच भी उस अकेली आवाज की अनुगूँज सुन पाना आज भी सहज है।

भारतीय ज्ञान की परम्परा थी तो दूसरे में पश्चिम का ज्ञान-विज्ञान

पंडिता रमा बाई के एक हाथ में भारतीय ज्ञान की परम्परा थी तो दूसरे में पश्चिम का ज्ञान-विज्ञान। इसके अलवा उनके पास भारत की लम्बी पदयात्राओं से अर्जित अनुभव भी था और युरोप-अमेरिका की यात्राओं से अर्जित पश्चिमी जीवनपद्धति का बोध भी। इस तरह उनका चिन्तन परम्परा, आधुनिकता तथा अनुभव के एक मजबूत त्रिक् के आधार पर टिका था। अदालत द्वारा रुख्माबाई के विरुद्ध और उसके पति के पक्ष में सुनाए गए फैसले पर टिप्पणी करते हुए, रमा बाई ने लिखा था- हम ब्रिटिश सरकार को एक असहाय स्त्री की रक्षा नहीं करने का दोष नहीं दे सकते, क्योंकि वह तो मात्र भारत के पुरुषों के साथ की गई संधियों को ही पूरा कर रही है। मुक्तिदाता के वाक्य कितने सत्य हैं,‘तुम एक साथ ईश्वर और धनकुबेर दोनों को खुश नहीं रख सकते।क्या प्राचीन संस्थाओं के सिद्धान्तों एवं ताकतों के विरोध में जाकर इंग्लैंड एक असहाय औरत की सहायता करेगा ? धनकुबेर इससे निश्चय ही अप्रसन्न हो जएगा तथा भारत में ब्रिटिश शासन और लाभ खतरे में पड़ जाएगा।”1जाहिर है कि रमा बाई परंपरा की जटिलता और साम्राज्यवाद की नीतियों तथा इन दोनों के बीच की दुरभिसंधियों को उनके यथार्थ रूप में समझ रहीं थीं। रजनी पामदत्त ने भी इसकी ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है- भारतीय समाज के पीछे की ये बुराइयाँ केवल साम्राज्यवादी शासन से व्युत्पन्न नहीं हुईं, बल्कि वे भारत के इतिहास-प्रसिद्ध अतीत से भी विरासत में मिली हैं।...जहाँ तक साम्राज्यवाद की बात है, वह अपनी भूमिका और अपने सामजिक आधार की मूलप्रकृति के अनुसार बुराइयों को जारी रखने और यहाँ तक कि उन्हें बढ़ावा देने के लिए विवश होता है।”2 ऐसी स्थिति में रमा बाई का संघर्ष केवल परंपरागत रूढियों सामाजिक संकीर्णताओं और पितृसत्तात्मक समाज की पुरुषवादी व्यवस्था के साथ ही नहीं, बल्कि उन ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों से भी था, जो खुद को कायम रखने के लिए रूढ़िवादियों के साथ खड़ी थीं।

स्त्री का सामाजिक वजूद

पंडिता रमा बाई उनींसवीं सदी के भारतीय समाज की उपज थीं जहाँ स्त्रियाँ दोयम दर्जे की हैसियत रखती थीं। बचपन में पिता, युवावस्था में पति और बृद्धावस्था में पुत्रों द्वारा रक्षणीय मानी जाती थीं।3 उनकी सामाजिक स्थिति ‘धरोहर’ या ‘सम्पत्ति’ मात्र से अधिक न थी। परिवार के लिए वे मर्यादा की ‘वस्तु’ थीं, लेकिन परिवार के भीतर या बाहर उनका अपना कोई वजूद नहीं था। रमा बाई के ही शब्दों में, “ऊँची जाति की स्त्री के लिए विवाह वेद पाठ के उच्चारण के साथ किया जाने वाला एक मात्र संस्कार है। यह धारणा है कि यह पाठ उस व्यक्ति के सम्मान में बोले जा रहे हैं जिससे स्त्री शादी कर रही है। बिना पवित्र सिद्धान्तों के कोई सिद्धान्त स्त्री के लिए नहीं हैं। अबसे लड़की उस व्यक्ति की है, वह (स्त्री) न केवल उसकी सम्पत्ति है अपितु निकटतम रिश्तेदार भी।...अब से वह एक प्रकार से निर्वैयक्तिक वस्तु हो जाती है ( जिसका अपना व्यक्तित्व नहीं होता)। वह कोई गुण या योग्यता नहीं रख सकती।”4 यहाँ दो शब्द- ‘सम्पत्ति’ और ‘निर्वैयक्तिक वस्तु’ तत्कालीन सामाज व्यवस्था में स्त्री की अवस्था का बोध कराने के लिए पर्याप्त हैं। राजा राममोहन राय ने तो अपने समय के बंगाल में विवाह के लिए स्त्रियों के परिजनों द्वारा धन लेकर कन्या के विक्रय का भी उल्लेख किया है और साथ ही यह भी जोड़ा है कि लड़कियाँ परिवार में आमदनी का जरिया थीं।5 इस तथ्य को उपर्युक्त उद्धरण के साथ जोड़ दिया जाय तो इस बात में संदेह नहीं रह जाता कि भारतीय समाज में उस समय स्त्री का व्यक्ति के रूप में कोई वजूद या अधिकार नहीं था। उन्नीसवीं सदी में ही नहीं, कालिदास के समय में भी लड़की पितृकुल के लिए पराया धन ही मानी जाती थी। शकुन्तला को विदा करते हुए महर्षि कण्व कहते हैं-

अर्थात् कन्या वस्तुतः दूसरे की सम्पत्ति होती है। आज उस कन्या (शकुन्तला) को उसके पति के पास भेजकर मेरा अन्तर्मन उसी प्रकार प्रसन्न हो गया है जैसे किसी की धरोहर को उसे (न्यासकर्ता) को सौंप देने वाले व्यक्ति का होता है।

विवाह को स्त्री के बंधन का एक कारण

भारतीय समाज की यह मनोरचना सहस्राब्दियों से चली आ रही है। पंडिता रमा बाई विवाह को स्त्री के बंधन का एक कारण मानती हैं। उन्हीं के शब्दों में,“हिन्दू स्त्री के जीवन का स्वर्णयुग बचपन ही होता है। वह अन्दर बाहर जाने के लिए आजाद होती है। जाति या अन्य सामाजिक बन्धनों का कोई भार नहीं होता।... वह चार साल के घोड़॓ के बच्चे से थोड़ी सी भिन्न होती है, जिसके दिन पूर्णतः आजादी से बीतते हैं। तब देखिए, अचानक शादी के बंधन की घोषणा होती है तथा जुआ हमेशा के लिए उसकी गर्दन पर डाल दिया जाता है।7 रमा बाई के इस कथन की तुलना मेरी वोल्स्टन क्राफ़्ट के इस कथन से की जा सकती है- जिस लड़की के उत्साह को अकर्मण्यता की सीलन न लगी हो या जिसकी निष्पाप्ता को झूठी लज्जा का ग्रहण नहीं लगा हो वह हमेशा ही अलमस्त रहेगी।”8 पहले उद्धरण में विवाह को बंधन का कारण और स्त्री स्वतन्त्रता में बाधक माना गया है और दूसरे में लज्जा को। ध्यातव्य है पहले उद्धरण का सन्दर्भ भारतीय है और दूसरे का यूरोपीय, लेकिन दोनों में ही स्त्री की एक सी स्थिति का जिक्र हैं। जर्मेन ग्रीयर यह स्वीकार करती हैं कि स्त्रियाँ इस तरह के बंधन को बिना प्रतिरोध के और पूरा पूरा स्वीकार नहीं करती हैं- अगर मैं इंगित करूं कि लड़कियां अपने संस्कृतीकरण को पूरा-पूरा, बिना प्रतिरोध के स्वीकार कर लेती हैं तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। जितना दबाव माएँलड़कियों पर साफ़-सुथरा और नज़र चोर होने पर डालती हैं, उससे लड़कियों का प्रतिरोध भी कुछ कम नहीं होता।”9 लेकिन उन्नीसवीं सदी के भारतीय समाज में इस तरह के प्रतिरोध का कोई अवसर नहीं था। कमलकुमार मजूमदार के बंगला उपन्यास अन्तर्जली यात्राका कथानक इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसका दूसरा उदाहरण भारतेंदु युग की एक हिन्दी लेखिका मल्लिका कीचन्द्रप्रभावा पूर्णप्रकाश शीर्षक लघु उपन्यासिका में देखा जा सकता है, जिसमें इस स्थिति का प्रतिवाद किया गया है।10

भारतीय समाज-विधान में स्त्री

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’(मनु स्मृति) और जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’(बाल्मीकि रामायण)के उच्चादर्शों की घोषणा के बावजूद भारतीय समाज-विधान में स्त्री अपनी निम्नतम् अवस्था के लिए विवश है। पंडिता रमा बाई ने इस तथ्य को हिन्दू-समाज की धार्मिक संरचना और भारत के सामाजिक संगठन के संदर्भ में बार-बार और अलग-अलग ढंग से रेखांकित किया है। इस संदर्भ में उन्होंने यह माना है कि इस स्थिति के लिए प्राचीन संस्कृत साहित्य, शास्त्र और विधि-ग्रंथ उस सीमा तक जिम्मेदार नहीं रहे हैं जितनी वर्तमान पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था और कर्मकाण्डीय पौरोहित्य। इस बात की पुष्टि में उन्होंने अपनी पुस्तक हाई कास्ट वुमनमें प्राचीन संस्कृत साहित्य, शास्त्रीय मतों और वैदिक संदर्भों से प्रमाण भी उद्धृत किए हैं। सती-प्रथा के संबंध में उन्होंने लिखा कि सती की चिता में विधवाओं का आत्मदाह ऐसी प्रथा है जो स्पष्टतः मनु की आचार संहिता के संकलन के बाद पुरोहितों द्वारा ईजाद की गई। अपस्तम्ब,अश्वलायन तथा दूसरे धर्मसूत्र, जो मनु से पहले के हैं इस नियम का उल्लेख नहीं करते और न मनु-संहिता ही।”11 बंगला नवजागरण के अग्रदूत माने जाने वाले राजा राममोहन राय भी सती-प्रथा का विरोध करते हुए लगभग ऐसी ही बात कहते हैं। फ़िर भी, रमा बाई ने इन ग्रंथों को स्त्री-अधिकारों का पवित्र घोषणा-पत्र नहीं माना। उन्होंने इनके उन पक्षों की तार्किक ढंग से आलोचना भी की है जहाँ वे स्त्री के हितों में बाधक की भूमिका में हैं। उन्होंने मनु-स्मृति,संहिताओं और शास्त्रों के स्त्री-संबन्धी विचारों को उद्धृत करते हुए लिखा- “ऐसा अविश्वास और सामान्य स्त्रियों की प्रकृति और चरित्र का इतना निम्न मूल्यांकन ही भारत में स्त्रियों को अलग रखने के रिवाज की जड़ है।....लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ऐसे विवाद छठवीं सदी से ही अस्तित्व में हैं। सभी पुरुषों को नियम द्वारा आदेश दिया गया कि वे घरेलू स्त्री को सभी स्वतन्त्रताओं से वंचित कर दें।”12 अपने मत के साक्ष्य में प्राचीन साहित्य और शास्त्र से प्रमाण देना और आवश्यक होने पर उन्हीं शास्त्रों के मतों की आलोचना करना यह सिद्ध करता है कि उनका ‘स्त्री-पराधीनता’ के प्रति प्रतिवादी स्वर तर्क-सम्मत और वस्तुनिष्ठ चेतना से सम्पन्न था, केवल भावुक प्रतिवाद नहीं। प्राचीन साहित्य एवं शास्त्रों के प्रमाणों का तर्क सम्मत प्रयोग और उनकी विवेक-सम्मत आलोचना रमा बाई की विशिष्टता है। इस संबंध में एक दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण है, वह है भारतीय मानस पर धर्म और शास्त्र का प्रभाव। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने लिखा है- “यदि केवल युक्ति को आधार माना जाय तो इस देश के लोग कभी इसे कर्म के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इस प्रकार के विषय के लिए इस देश में शास्त्र ही प्रमाण माना जाता है...।”13 यह मान्यता केवल एक विचारक या चिन्तक की नहीं,बल्कि पूरी नवजागरणकालीन चेतना के ऊपर छाया हुआ एक सार्वभौम विचार था- भारतीय जनता को धर्म से अलग करना संभव नहीं था। इसलिएए नवजागरण की सबल अन्तर्धाराओं में धर्म के भीतर रह्कर ही उसकी आलोचना हुई।”14 यही नहीं बाद के लेखकों और विचारकों में भी ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएँगे। जयशंकर प्रसाद के ‘ध्रुव-स्वामिनी’ नाटक का अन्तिम अंश हिन्दी समाज का सबसे परिचित उदाहरण माना जा सकता है। इसीलिए भारतीय नवजागरण में धर्म और शास्त्र के प्रश्न की उपस्थिति बराबर दिखाई पड़ती है। पंडिता रमा बाई भी इससे मुक्त नहीं थीं।

सतीप्रथा और ‘स्त्रियों के प्रति अविश्वास

रमा बाई ने ऊपर उद्धृत किए गए दो अंशों में दो महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, इनमें से पहले का संबंध सतीप्रथा से है और दूसरे का ‘स्त्रियों के प्रति अविश्वास’ और ‘उनके चरित्र एवं प्रकृति के निम्न कोटि से मूल्यांकन’ से। इन दोनों के संबंध में रमा बाई ने विस्तार से चर्चा का है। उन्होंने लिखा है- “हिन्दुओं के मध्य से एक पुरुष- राजा राममोहन राय ने इस प्रथा (सतीप्रथा) के खिलाफ़ आवाज उठाई तथा यह घोषित किया कि यह वेदों द्वारा स्वीकृत नहीं है.....वह सरकार द्वारा उसे समाप्त कराने में सफ़ल हो गए।”15 इससे यह स्पष्ट होता है कि रमा बाई के समय तक सतीप्रथा प्रायः ‘समाप्त’ हो गई थी। फ़िर भी उन्होंने सतीप्रथा के पीछे के जिन दो कारणों का उल्लेख किया है, वे महत्वपूर्ण है। पहला कारण उन्होंने पुरोहित्वादी व्यवस्था को बताया है- “पुरोहितों और अन्य साथियों ने स्वर्ग के विचार को जिस तरह रंगीन एवं सभी प्रकार के आनन्द से युक्त जगह बताया कि बेचारी विधवाएँ अपने पति के साथ उस जगह को पाने के लिए अधीर हो उठीं।”16 यहाँ ऐसा लगता है कि विधवाएँ स्वेच्छा से और खुशी-खुशी बलिदान के भाव से जल मरती थीं। जबकि, राममोहन राय ने इसे स्वैच्छिक कृत्य न मानकर विधवाओं की हत्या का सुनियोजित प्रयास कहा है।17 रमा बाई ने दूसरा कारण यह माना है कि “वैधव्य के बाद विधवा जीवन की दुर्गति और कष्टों के चलते स्त्री तत्काल आग की लपटों में क्षणिक कष्ट को बेहतर समझते हुए खुद को समर्पित करना उचित समझती है।”18 यहाँ भी सती प्रथा को एक स्वैच्छिक प्रक्रिया ही माना गया है, लेकिन उसके प्रेरक के रूप में वैधव्य जन्य कष्टों का उल्लेख है। सतीप्रथा की समाप्ति को अपर्याप्त मानते हुए देरेजियो ने हिन्दू विधवा की जो स्थिति बंगाल में बताई थी, वह भी इसकी प्रेरक शक्ति होने की पर्याप्त क्षमता रखती है- “ वे विधवाएँ जो सती होने से इन्कार करती हैं ..... घरेलू जीवन में उनका स्थान नितान्त अपमान जनक और निकृष्ट होता है। उन्हें उतने से ज्यादा भोजन एकदम नहीं दिया जाता जिससे महज उनका जीवन रक्षण हो सके।उन्हें नंगी जमीन पर सोना पड़ता है और परिवार के कनिष्ठतम् व्यक्ति का रुतबा भी उनसे ऊपर होता है।”19 लगभग इसी तरह का जिक्र महाराष्ट्र के संदर्भ में ज्योति बा फूले ने भी किया है- “वह अपने सारे आभूषण उतार देती हैं। उनके निकट सम्बन्धी बलात उसका सिर मुडवा देते हैं । उसे न भर पेट भोजन मिलता है न तन ढकने को कपडॆ मिलते हैं।....यहाँ तक कि उसके साथ एक अपराधी या पशु जैसा व्यवहार किया जाता है।”20 रमा बाई ने विधवा जीवन के कष्टों का जो उल्लेख किया है, उनका कुछ संकेत यहाँ मिल जाता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि ‘सती-प्रथा’ और ‘विधवा-दुर्दशा’ केवल ब्राह्मणों और ऊची जातियों की समस्या थी लेकिन रमा बाई ने लिखा है कि “दक्षिण के ब्राह्मणों में हर पखवाडे सभी विधवाओं के सिर नियमित रूप से मुडवाए जाते हैं, कुछ नीची जातियों ने भी विधवाओं के सिर मुडवाने की प्रथा को स्वीकार कर लिया है तथा अपने ऊचि जाति के भाइयों की नकल उतारकर वे खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।”21 इसका तात्पर्य यह है कि रजत के. रे शेखर वन्द्योपाध्याय ने जिस तरह ब्राह्मणेत्तर और नीची कही जानेवाली जातियों तक में सती प्रथा का विस्तार माना है, उसी तरह रमा बाई ने विधवा की दुर्दशा का। अन्यत्र उन्होंने विधवाओं की स्थिति की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि “विधवा को ‘मनहूस’ कहा जाता है। ‘रांड’ वह नाम है, जिसके द्वारा विधवा सामन्यतः जानी जाती है। यह शब्द चरित्रहीन लड़की या वेश्या की संतान के लिए प्रयुक्त होता है।”22

सती-प्रथा’ और ‘विधवा-दुर्दशा

‘सती-प्रथा’ और ‘विधवा-दुर्दशा’ के साथ ही बालविवाह, बहुविवाह और बेमेल विवाह पर भी रमा बाई ने अपने विचार रखे है। उन्होंने लिखा है- “पूर्वी भारत के ब्राह्मण अपनी गरीबी के बावजूद कई सौ वर्षों से भ्रांत धारणाओं को सफ़लता पूर्वक निभाते आ रहे हैं। वे ऐसा बहुविवाह के रिवाज का फ़ायदा उठा कर कर चुके हैं। ऊँचे गोत्र का ब्राह्मण दस, ग्यारह, बीस, देढ़ सौ लड़कियों तक से शादी करेगा। वह इसे व्यवसाय बनाता है।”23 ऐसी स्थिति में बेमेल विवाहों की संख्या बढना तय है और साथ ही विधवाओं की भी। राजा राममोहन राय ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है- “कुलीन ब्राह्मण दस-बीस-तीस लड़कियां तक व्याह लाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि बंगाल में आत्महत्या करने वाली स्त्रियों की संख्या अन्य ब्रिटिश प्रान्तो की तुलना में १० गुनी है।”24 बात एकदम स्पष्ट है कि राम मोहन राय और रमा बाई के अलग-अल्ग देश-काल के होने के बावजूद स्थितियों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं दिखाई पडता।
पंडिता रमा बाई के कई समकालीनों ने विधवाओं के विवाहों पर जोर दिया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में विधवा पुनर्विवाह के प्रचार के लिए आंदोलन किया। महाराष्ट्र में भी उस तरह के आंदोलन हुए। सरकारी स्तर पर १८५६ ई. में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली लेकिन इन सबके बावजूद रमाबाई इन प्रयासों से संतुष्ट नहीं थीं। उनके अनुसार, “सुधारकों का एक वर्ग यह सोचता है कि वे पुनर्विवाह व्यवस्था की स्थापना कर विधवाओं की स्थिति को सुधार सकेंगे। इस व्यवस्था को निश्चित ही बाल-विधवाओं की हित में शुरु करना चाहिये, जो आगे की उम्र में शादी को इच्छुक हैं लेकिन इसी तरह यह याद रखना चाहिये कि यह प्रयास उनकी स्थितियों को सुधारने के लिए अपर्याप्त है।”25 विवाह को एक ‘बंधन’ मानना और ‘विधवा पुनर्विवाह’ को ‘अपर्याप्त’ मानना दोनों ही एक दूसरे से जुडे तथ्य हैं। दूसरी बात यह है कि पुनर्विवाह का विकल्प पुरुष-वर्ग की सलाह थी, जो पूर्ण्तः ‘सहानुभूति’ पर आधारित थी । अतः इस संदर्भ में जान स्टूवर्ट मिल का यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि “जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उनके बारे में हासिल करते हैं, भले ही वह उनकी संचित संभावनाऒं के बारे में न हो कर सिर्फ़ उनके भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो; तब तक अधूरा और उथला रहेगा, जबतक कि स्त्रियाँ स्वयं वह सब कुछ नहीं बता देतीं, जो उनके पास बताने के लिए है।”26 लूसी कैरोल ने विधवा पुनर्विवावाह से संबंधित एक और समस्या की ओर ध्यान दिलाया है- “१८५६ का कनून लागू होने से देश भर में उन जातियों की स्त्रियों को काफ़ी नुकसान पहुंचा जिनकी प्रथाएँ द्विजों से अलग थीं। उन्हें अब मृत पति की संपत्ति से वंचित रखे जाने के फ़ैसले होने लगे।”27 इसी कारण रमा बाई स्त्री की मुक्ति के व्यापक संदर्भों की बात कर रही थीं।

उन्नीसवीं सदी की स्त्री को समाज में दोयम दर्जे की स्थिति प्राप्त थी। आज की स्थिति भी बहुत उत्साहप्रद नहीं है। स्त्री उन तमाम अधिकारों से आज भी महरूम है जो पुरुष समुदाय को सहज ही प्राप्त है उसके लिए अब भी तमाम तरह की बंदिशें हैं । उन्हें तर्क द्वारा सही ठहराने की कोशिशें भी की जाती हैं। राजा राम मोहन राय ने सती-प्रथा के समर्थकों के एक ऐसे ही कुतर्क का उल्लेख किया है- “स्त्री-जाति जन्म से ही मन्द-बुद्धि होती है, स्त्री संकल्प-हीन, विश्वास न करने योग्य, कामनाओं से सहज वशीभूत होनेवाली तथा पवीत्र ज्ञान से शून्य होती है।”28 राजाराम मोहन राय ने इस आरोप का तर्क सहित विरोध किया- “स्त्रियों पर जो लांछन तुमने लगाए हैं, वे उनकी प्रकृति में जन्म से नहीं होते। अतः केवल संदेह के आधार पर उन्हें मृत्यु की ओर धकेलना पाप है। उनके चरित्र पर लांछन लगाकर आपलोगों ने निश्चित रूप से हिन्दू समाज के सकक्ष उन्हें हीन और दुष्ट प्रमाणित करने में सफ़लता प्राप्त की है, जबकि जीने के लिए उन्हें निरंतर कष्ट सहन करना पडता है।”29 रमा बाई ने इसी बात को इस तरह कहा- “कुछ लोगों का कहना है कि स्त्रियाँ अबोध, अल्प-ज्ञानी तथा पराधीन होती हैं इसी लिए वे नहीं जानतीं कि उन्नति और ज्ञान प्राप्त करने के कौन से रास्ते हैं , ऐसी स्थिति में वे कर ही क्या सकती हैं? लेकिन अच्छी तरह से परिवार-विमर्श करने से यह ज्ञात होता है कि ऐसे संदेहों के लिए कोई जगह नहीं है।”30 राममोहन राय अपने ही समुदाय(पुरुषों) को सम्बोधित कर रहे थे अतः उनके प्रतिवाद में स्त्रियों के प्रति एक दया और पश्चाताप का भाव था। रमा बाई में ऐसा कत्तई नहीं था। वहाँ प्रतिवाद है लेकिन दया, पश्चाताप या आत्म ग्लानि नहीं। इसलिए वे कहीं अधिक दृढता से कह सकीं, ‘ऐसे संदेहों की कोई जगह नहीं है।’ यहीं वे अपने समय और पूर्ववर्ती तमाम समाज सुधारकों से अलग दिखतीं हैं वे सीधे ‘स्त्री’ को संबोधित करती थीं, जबकी प्रायः सुधारकों का सम्बोधन पुरुष समुदाय के प्रति होता था। वे पुरुषों से स्त्री के ‘उद्धार’ की बात करते थे। जबकि रमाबाई ने ‘जागरण’‘उत्थान’ और ‘प्रेरणा’ के लिए सीधे सामान्य स्त्रियों से उनकी भाषा में बात की- उनकी बात की।

जूझती हुई स्त्री का स्वर

राजा राममोहन राय, ईश्वारचन्द्र विद्यासागर, राना डे, ज्योति बा फुले- जैसे नवजागणकालीन चिन्तकों के यहाँ स्त्री-प्रश्न सहानुभूतिपूर्ण ‘स्त्री-दृष्टि’ का परिणाम था, जबकि रमाबाई की आवाज उन स्थितियों से स्वयं जूझती हुई स्त्री का स्वर था। उन्होंने ‘स्त्री-प्रश्न’ से जुडे तमाम पहलुओं को अपने स्वयं के जीवन में और निकट सम्बन्धियों के साथ घटित होते देखा था इस लिए उनका स्वर अत्यन्त आत्मीय और सहज है। उन्होंने जिस तरह खुल कर स्त्रियों का आह्वान किया, वह एक पुरुष के लिए सम्भव नहीं था। ‘बुनियाद’ में उन्होंने लिखा है- “अधिकतर महिलाएँ यह कहती हैं कि उनके मन में उन्नति करने की अभिलाषा है, परन्तु अवसर के अभाव में वे इस दिशा में कुछ नहीं कर पातीं। वे पुरुषों पर निभर हैं।....लेकिन आत्म-सुधार का मामला केवल अपने पर निर्भर रहता है। ईश्वर ने मनुष्य में बडा बनने की अभिलाषा दी है तो उसे पूर्ण करने की क्षमता भी दी है। आत्म-सुधार के सभी उपाय प्रायः मनुष्य के कर्मों पर निर्भर करते हैं, न कि दूसरी चीजों पर।....यदि स्त्रियाँ ऐसा करें तो वह भी थोडे समय में ही प्रगति कर जाएँगी।”31 रमाबाई जिस गुरुभाव से यह सहज आत्मीय संवाद स्त्रियों से करती हैं, वह पूरे नवजागरणकाल में दुर्लभ है।
रमाबाई केवल उपदेशों, भाषणों और उद्बोधनों तक सीमित नहीं थीं, स्त्री-मुक्ति की व्याव्हारिक कार्य-योजना और उसके सक्रिय रुपांतरण सॆ भी वे शिद्द्त के साथ जुडीं थीं। १३ दिसम्बर, १८८७ को उन्होंने ‘रमाबाई एसोसिएशन’ की स्थापना की। ‘शारदा सदन’ (१८८९ ई.), ‘अनाथ बालिकाश्रम’ (जून १८९६ ई.), और ‘कृपा सदन’ की स्थापना में भी उनका सक्रिय एवं रचनात्मक योगदान रहा। उनहोंने विधवाश्रम खोला, अनाथ बालिकाश्रम खोला और पथ-भ्रष्ट स्त्रियों के लिए उद्धार-आश्रम भी चलाया। इन सबके लिए वे रूढिवादियों की ही नहीं, बल्कि अपने समकालीन सुधारवादियों के आलोचना की भी शिकार हुईं, परन्तु वे विचलित नहीं हुईं और स्त्रियों के विकास एवं उनको शिक्षित और आत्म निर्भर बनानने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील और प्रतिबद्ध रहीं। उनका जीवन वर्जीनिया वुल्फ़ के इस कथन का मुर्तिमान रूप रहा है कि “ आप चाहें तो पुस्तकालयों में ताले डाल दें, लेकिन मेरे मस्तिष्क की स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगाने के लिए न कोई दरवाजा है न ताला और कुंडी।”32 उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने के लिए विद्यालय खोले, उनका संचालन किया और शिक्षिका के रूप में अध्यापन भी किया। ‘द हाई कास्ट वुमन’ में उन्होंने स्त्रितों के सामाजिक उन्ननयन पर जोर दिया है और शिक्षा के प्रसार तथा आत्मनिभरता के रास्ते बताए। नारी-जाति के अभ्युत्थान के संदर्भ में उन्होंने लिखा- “यदि हमें दीन स्त्री-जाति के उत्थान के उपाय करने हैं तो उसकी बुनियाद है- आत्म-निर्भरता। प्रत्येक स्त्री के हृदय में यह भावना पनपनी चाहिए। यदि सभी स्त्रियाँ अपनी उन्नति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर ध्यान दें, उन्हें हटाने का निरन्तर प्रयास करें तो वे भी समाज में वही ऊँचा दर्जा पा लेंगी जो पुरुषों का है।”33 यहाँ वे समकालीन सुधारकों की तुलना में स्त्री की अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्रता- पुरुषों की बराबरी की बात कर रही हैं, जो सामन्यतः पुरुष सुधारकों के लेखन में नहीं दिखता।

राष्ट्रीय उत्थान और साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता से मुक्ति का प्रश्न

रमा बाई ने स्त्री की मुक्ति और आत्म निर्भरता को संदर्भ-निरपेक्ष नहीं माना, बल्कि इसे राष्ट्रीय उत्थान और साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता से मुक्ति जैसे व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखा। ब्रिटेन और अमेरिका में प्रवास के बावजूद, ‘रमाबाई एसोसिएशन’ को अमेरिका से मिलने वाले वाले आर्थिक सहयोग के बावजूद और ब्रिटिश नागरिकों से संबंध और सहकार के होते हुए भी वे भारत में साम्राज्यवादी सत्ता के चरित्र को भली-भांति समझती थीं, तभी तो उन्होंने यह लिखा है- “वे हमारे देश पर शासन करते हैं, हमारी सम्पत्ति, हमारे जीवन और हमारे देश की छब्बीस करोड जनता के आत्म-सम्मान पर राज करते हैं। मुट्ठि भर अंग्रेजों ने भारत में राजकुमारों से लेकर कंगालों तक सभी लोगों को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है।”34 उनके अनुसार, युरोप की इस ताकत के मूल में स्त्री-पुरुष-समानता है। अतः उन्होंने भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग को बेहद जरूरी माना यह सहयोग-भाव सशक्त पुरुष और अशक्त स्त्री के बीच संभव नहीं है अतः स्त्रियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा- “विदेशी लोग हमपर इसलिए शासन कर पाते हैं क्योंकि हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं और क्षुद्र जीव की तरह छोटी से छोटी बात के लिए उनका मुँह ताकते हैं।”३५ उन्होंने आगे लिखा है- “उन्हें (विदेशी लोगों को) यदि अवसर मिल जाय, वे हमारे सिर पर लात मारने में तनिक संकोच नहीं करेंगे।”36 विदेशी सत्ता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ रमा बाई ने यह आवाज उस समय उठाई जब हिन्दी के कवि और लेखक अपनी बात दृढ़ता से कह पाने का नैतिक बल नहीं जुटा पा रहे थे। उनकी स्थिति सीधे-सीधे आवाज उठा पाने की नहीं थी। भारतेन्दु युगीन कवि और लेखक प्रताप नारायण मिश्र की इन पंक्तियों में तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों की इस झिझक की झलक देखी जा सकती है-

ऐसे अगनित दुःख नित सहत रहत दिन राति।
तेहिं भारत दीन गति, कही कौन विधि जाति॥
महरानी विक्टोरिया यद्यपि महा दयाल ।
चाहत कियो प्रजान को पुत्र सरिस प्रतिपाल॥
-प्रताप नारायण मिश्र

ऐसे दौर में रमा बाई का साम्राज्यवाद विरोध उनके साहस की मिशाल है। वे विदेशी सत्ता की सीधे-सीधे आलोचना कर रही थीं। वस्तुतः वे स्त्रियों को केवल शिक्षा और आत्म निर्भरता का संदेश ही नहीं दे रहीं थीं, बल्कि उन्हें राजनैतिक चेतना-संपन्न भी बना रही थीं। वे उनकी मात्र सामाजिक-आर्थिक मुक्ति से संतुष्ट नहीं थीं बल्कि उनकी राजनैतिक मुक्ति की भी समर्थक थीं। उन्हें इस बात का बोध था कि उनकी तत्कालीन स्त्री पराधीनता केवल आन्तरिक नहीं बल्कि बाहरी भी है- वह केवल पुरुष वर्चस्ववादी समाज-व्यवस्था की पराधीनता से व्याकुल नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता में भी पिसी जा रही है। वे यह महसूस कर रही थीं कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में वंचितों के प्रति साम्राज्यवाद समर्थकों की सहानुभूति ऊपरी प्रदर्शन मात्र है। जो बात अम्बेडकर ने दलित वर्ग के अखिल भारतीय अधिवेशन(सन् १९३०) में अपने अध्यक्षीय भाषण में कही थी – “मुझे आशंका है कि ब्रिटिश सरकार हमारी दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों का विज्ञापन इसलिए नहीं करती कि वह इन्हें दूर करना चाहती है, बल्कि इसलिए करती है ताकि इसको वह भारत की राजनैतिक प्रगति को खींचकर पीछे ले जाने का बहाना बना सके।”37 वही बात रमा बाई उससे बहुत पहले महसूस कर चुकी थीं। इस तरह वे स्त्री-मुक्ति आंदोलन की नेतृत्वकर्त्री ही नहीं, राष्ट्रीय जागरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी हैं। उक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने स्त्री समुदाय का आह्वान करते हुए लिखा- “यदि हर समझदार और सात्विक स्त्री मेरी बात को मान ले और कहे कि चाहे अन्य स्त्री यह करे न करे लेकिन वह स्वयं अपना तथा अप्ने परिवार की अन्य महिला सदस्यों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी तो इससे लगातार पिछड़ रहा नारी समुदाय तथा देश दोनों ही उन्नति करेंगे।”38 स्त्री-मुक्ति और राष्ट्र-मुक्ति की कामना से समन्वित उनका यह आह्वान नवाजागरण की चेतना का ही एक हिस्सा है, जिसने ‘व्यक्ति’ को महत्वपूर्ण माना। उनके इस स्वर की अनुगूंज रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता में भी सुनी जा सकती है-
‘ एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे,
यदि तोर डाक शुने केउना आशे, तबे एकला चलो रे।’
-रवीन्द्रनाथठाकुर
रमाबाई का व्यक्तित्व रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता और उनके अपने वक्तव्य की जीवन्त मिसाल है। तमाम विरोधों और असहमतियों के बावजूद वे स्त्री की मुक्ति के लिए अकेले संघर्ष करती रहीं। उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया और स्वयं उसपर चलते हुए, दूसरों को उसपर चलने का संदेश दिया। अपने जीवन और आंदोलन के तमाम मोर्चों पर अकेले पड़ जाने के बावजूद उन्होंने लक्ष्य तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश की। अकेली होते हुए भी उनकी आवाज सदियों तक हजार-हजार कण्ठों से प्रतिध्वनित होती रहेगी।
संदर्भ:
1. रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-72
2. पामदत्त,रजनी आज का भारत, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण-1977,पृष्ठ-38
3. पंडिता रमा बाई ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू स्त्री का जीवन’ में इसे इस तरह उद्धृतत किया है- “स्त्री की रक्षा बचपन में पिता करता है, युवावस्था में पति करता है और वृद्धावस्था में पुत्र करते हैं: स्त्री स्वतंत्र रूप से रहने योग्य नहीं है।”
4. रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-55
5. बंगाल में जो नीची श्रेणी के ब्राह्मण हैं और जिनकी संख्या बहुत अधिक है और जो ऊंची श्रेणी के कायस्थ हैं, वे अपनी बेटी या बहन को इस तरह ब्याहते हैं कि उससे उनको काफ़ी आमदनी होती है, बहन या बेटी आमदनी का जरिया बनती है....अक्सर उन्हें ऐसे लिगों से ब्याह देते हैं जो सबसे अधिक धन दे सकें।”
- राममोहन राय, उद्धृत; राम विलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-319
6. कालिदास, अभिज्ञान शाकुन्तलम्,4/22
7. रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-57
8. क्राफ़्ट, मेरी वौल्स्टन, (उद्दृत) जर्मेन ग्रीयर, बधिया स्त्री, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2008, पृष्ठ-75
9. वही,७५
10. देखें, कमलकुमार मजूमदार, अन्तर्जली यात्रा, साहित्य अकादेमी,संस्करण-2006
तथा
चन्द्रप्रभा वा पूर्ण प्रकाश,नागरी प्रचारिणी पत्रिका,
11. रामाबाई, पंडिता (अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-75
12. वही,६३
13. विद्यासागर, ईश्वरचन्द्र विधवा विवाह (सम्पादक) शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-97
14. वही,25
15. रामाबाई, पंडिता, वही,78
16. वही,76
17. शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-२००६, पृष्ठ-76
18. रामाबाई, पंडिता, वही,76
19. देरेजियो, हिन्दू विधवा, (सं.) शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-२००६, पृष्ठ-76
20. ज्योति बा फ़ूले, बैधव्य, वही,786
21. रामाबाई, पंडिता, वही,79-80
22. वही,80
23. वही,46
24. राय, राजा राममोहन, दि इंग्लिश वर्क्स आफ़ राजा राम मोहन राय,पृष्ठ-379
25. रामाबाई, पंडिता, वही,84
26. ग्रीयर जर्मेन, बधिया स्त्री, पृष्ठ-15
27. तलवार, वीर भारत, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-186
28. शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-54
29. वही,54-55
30. वही,849
31. वही,849
32. वुल्फ़, बर्जीनिया अपना कमरा,पृष्ठ-13
33. शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-842
34. वही,843
35. वही,847
36. वही,847
37. पामदत्त,रजनी आज का भारत, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण-1977,पृष्ठ-56
38. वही,843
साभार : अनामिका , वाराणसी, जनवरी-दिसंबर, 2016

बुधवार, 15 मार्च 2023

मंदिर-मंदिर प्रति कर सोधा : यूरोपीय चर्चवाद और भारतीय धर्म-संस्थान


जिस मध्यकाल में धर्म के नाम पर मठवाद पूरे यूरोप को अंधकार की ओर धकेल रहा था, उसी समय धर्म का आलंबन लेकर ही अल्वार संत सामाजिक मुक्ति और समानता का संदेश दे रहे थे।

 

शंकराचार्य अद्वैतवेदांत की मशाल लेकर पूरे भारत को जागा रहे थे और धर्म पीठों की स्थापना कर रहे थे।  रामानुज, रामानन्द, बल्लभ, नामदेव, नानक, दादू, रैदास, चैतन्य देव और शंकरदेव देश के कोने-कोने में इसी अछूत 'धर्म’ का निदर्शन करा रहे थे। यदि यूरोप के नकल पर पूरे मध्यकाल को अंधकार युग के अंधकूप में धकेल दिया जाए तो यह इस पूरी परंपरा को नकार देने की मूर्खता होगी।

हर्षवर्धन के अवसान के बाद उत्तर भारत में एक केन्द्रीय सत्ता का अभाव जरूर हुआ और राज-सत्ता विभिन्न सामंतों में विभाजित हो गई। राजनीतिक तौर पर भले इसका लाभ विदेशी आक्रान्ताओं को मिला हो, लोक मानस का चेतना प्रवाह अखंड रहा। संस्कृत साहित्य और साहित्य-चिंतन से लेकर दर्शन और कला का विकास और विस्तार अनवरत जारी रहा। इसका कारण यह था कि भारत की उस उस तरह कि एक केन्द्रीय सत्ता कभी नहीं रही, हालांकि यूनानी नगर राज्यों की तरह अत्यंत छोटे और परस्पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार वाले राज्य भी नहीं रहे। ध्यान से देखा जाए तो भारत में युद्ध केंद्रित महत्वपूर्ण वीर-काव्यों की रचना चौहान वंश के पतन के बाद होती है। उसमें भी प्रायः शृंगार का भरपूर छौंका है। इससे पता चलता है कि साम्राज्य-विस्तार या युयुत्सा की प्रवृत्ति यहाँ यवनों और म्लेच्छों की तुलना में काम पायी जाती है। समुद्र-गुप्त का दिग्विजय और उनकी उत्खाद प्रतिच्छेद तथा वैवाहिक सबंध आधारित साम्राज्य संयोजन इसका उदाहरण है। महाभारत में विदुर ने कहा है : 

भारत में सत्ता बहुकेंद्रीय रही है, हाँ बोध या मानस सत्ता का केंद्र अवश्य एक रहा है 'भारत'। इसलिए भारतीय इतिहास का अर्थ उत्तर भारत या केन्द्रीय भारत का इतिहास नहीं, बल्कि दक्षिण भारत की समृद्ध विरासत का इतिहास भी है।

 

इसे इतिहासकारों द्वारा उतना महत्व नहीं दिया गया तो उसके भी अनेक कारण थे। उत्तर-दक्षिण के बीच फाँक, मंदिरों की प्रतिगामी भूमिका दिखाना और कुछ हद तक मध्यकाल इतिहासकारों का मुस्लिम समाज से होना भी था, जिनके लिए मध्यकाल के इतिहास का अर्थ उनके कुनवे का इतिहास रहा है। 

 

मध्यकाल के एक प्रख्यात इतिहासकार इरफान हबीब भक्ति आंदोलन को इस्लाम के आगमन और  केवल तकली-कमानी की ताल पर नाचा देते हैं। यदि उनके पूर्वजों द्वारा तकली कामायनी मात्र को भारत लाने से शिल्पी जातियों का उद्धार और उनके भीतर का आत्मगौरव पूरे के पूरे भक्ति मूवमेंट का बीज बन सकता है तो दक्षिण भारत के कला और स्थापत्य के केंद्र मंदिरों के निर्माण और विकास से शिल्पी जातियों का कितना विकास हुआ होगा, समझ सकते हैं।

 

दक्षिण के मंदिर भी केवल जाति, सत्ता और असामानता के केंद्र न थे, वे कला, शिक्षा, संगीत, वास्तु और स्थापत्य के संरक्षक और विस्तारक भी थे। भारतीय इतिहास और समाज का ककहरा जानने वाला भी यह जनता है कि कला, शिल्प, संगीत, वास्तु और स्थापत्य का संबंध भारतीय जाति और वर्ण-व्यवस्था के अनुसार किसकी वृत्ति का आधार रहा है।  तो मंदिरों के निर्माण, विकास और उनके द्वारा कला-स्थापत्य के प्रश्रय और प्रसार द्वारा कितनी बड़ी सामाजिक क्रांति हुई होगी समझा जा सकता है और यह क्रांति निश्चित तौर पर संस्कृति-कर्म नहीं बल्कि धार्मिक सदेच्छा से प्रेरित थी। 

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

तमासो मा ज्योतिर्गमय

प्रसुप्ति की संकल्पना और पुनर्जागरण का मिथक  


वैज्ञानिकता की जिद कई बार हमें गणितीय समीकरणों में उलझा देती है और हम बीजगणितीय शब्दावली में सोचने लगते हैं। हम 'माना कि' 'चूँकि' 'इसलिए' यदि शब्दावलियों का इस्तेमाल करते हुए तमाम सूत्रों और समीकरणों के सहारे हम वह सिद्ध कर ले जाते हैं, जिसकी हिपोथीसिस हमने तैयार की है । शोध में नकारात्मक फाइंडिंग्स विज्ञान में संभव है, पर सामाजिक विज्ञान के शोधों में प्रायः ऐसा नहीं होता। सामाजिक विज्ञान उन अर्थों में विज्ञान भले न हो, जिनमें प्राणी विज्ञान, जीव विज्ञान, भटिक विज्ञान या रसायन विज्ञान, किन्तु आगे विज्ञान लगा होने से एक समाज विज्ञानी भाषा, साहित्य और कला के अध्येता के सम्मुख स्वयं को अधिक श्रेष्ठतर मानता है और कई बार विज्ञान की संकल्पनाओं को अनावश्यक रूप से समाज पर लागू करने लगता है। डार्विन के विकासवाद के बाद यूरोप के समाज विज्ञानियों में स्वयं को अधिक वैज्ञानिक सिद्ध करने की होड़ लग गई। मार्क्सवाद भी ऐसी ही एक होड़ का परिणाम थी। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सम्पूर्ण संकल्पना उसी पर टिकी है और उसी पर टीका है ऐहसिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक साम्यवाद। डार्विन ने जिस तरह जैविक विकास की अवधारणा मानी उसी तरह मार्क्स ने ऐतिहासिक विकास की। चूँकि डार्विन का विकासवाद जैविक विकास को एक सार्वभौमिक अवधारणा मान्यता है। इसलिए मार्क्स के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा भी उसी तरह सार्वभौमिक होनी चाहिए और इसी 'चूँकि...इसलिए के सूत्र के अनुरूप भारत में भी अंधकारयुग की कल्पनाएं की गईं। 

     वैज्ञानिक इतिहासकारों की दृष्टि में भारत और यूरोप में मध्यकाल और धार्मिक जड़ता का एक ही तरह का पैटर्न अनिवार्य है। इसीलिए एक बड़ा वर्ग यूरोपीय मध्यकाल के अनुकरण पर भारत में भी मध्यकाल और उसी की तरह के इतिहास के भारत में भी घटित होने की कल्पना करता आया है। उसके लिए धर्म एक ‘अछूत’ शब्द है। धर्म और मध्यकालीनता का यह अन्तः संबंध और अछूतपन पूर्वधारणा या पूर्वज्ञान का पक्ष है, जो आधुनिक किताबों में हमने पढ़ा-समझा है। जबकि, भारत में कभी कोई पोप या खलीफा जैसी सत्ता नहीं रही, जो धर्म पर एकाधिकार कर उसे जकड़ लेती और उसे जबरिया थोपकर समाज को अज्ञान के अंधकार में धकेल देती। हाशिए के प्रगतिशील इतिहासकार यदि सूरदास और तुलसीदास से असहमत भी हों तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस समय यूरोप में अंधकार युग था या जिस समय भारत में ऐतिहासिक उथलपुथल का काल था अंधकार युग की अवस्था होनी चाहिए थी, उस समय दक्षिण लेकर से उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक  जो आंदोलन चल रहे थे चाहे वे नाथ हों, सगुण हों, निर्गुण हों, वैष्णव हों, शैव हों, भक्त हों या शैव हों सब के सब धर्म की आधारशिला पर ही खड़े थे और समाज को चेता रहे थे/ जागा रहे थे/ प्रबुद्ध कर रहे थे। संभव है यह भी कहा जाए कि जगाया उसी को जाता है जो सोया हो । यह बात सोलहों आने सच होने पर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में प्रसुप्ति जैसी स्थिति कभी आई ही नहीं। एक की पीठ पर दूसरा दूसरे के पीछे तीसरा दार्शनिक, चिंतक या प्रवर्तक यहाँ निरंतर 'धर्म-मार्ग' को प्रशस्त करते रहे। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन बौद्ध, जैन और वैष्णव परंपराओं के से निकले हुए निकालने वाली धाराओं एक नया सम्मिलित  प्रवाह था। उद्गम स्थल के आस-पास ऊबड़-खाबड़ में प्रदेश में गोरखनाथ, कबीर, दादू, नानक जैसे हिमनद थे तो आगे समतल प्रदेश में सूर-तुलसी-मीरा की प्रांजल भक्ति धारा, जिसमें  अवगाहन करना आज भी एक सामान्य भारतीय के लिए गर्व की बात है।  

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भक्ति आंदोलन के ठीक पीछे आचार्य शंकर और उनके व्याख्याकार भी खड़े थे । इसलिए केवल इसे लोक-जगरण (लोक को सीमित अर्थों में ग्रहण करने वालों के लिए) कहकर उसे सीमित करना होगा। शंकर, रामानुज, रामानंद, बल्लभ, माध्व जैसे आचार्य इसे शास्त्रीय आधार भी दे रहे थे। इस लिए भक्ति आंदोलन केवल भाव-प्रवाह नहीं शास्त्रीय गरिमा से भी समन्वित था। लोक और शस्त्र को आमने सामने रखकर भिड़ा देना द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों के द्वन्द्व-प्रमाण के लिए अधिक आसान काम था, इसलिए उन्होंने यही किया। पहली-परंपरा और दूसरी परंपरा, शास्त्रवाद और लोकवाद या कबीर और तुलसी का द्वन्द्व कांड रचना इस विचारधारा के 'जीन' में था। सेमेटिक परंपरा में यहूदी, ईसाई और इस्लाम का जन्म एक ही उद्गम से होते हुए भी वे आज भी लड़ रहे हैं मार्क्स की शब्दावली में सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है। फिर वही सूत्र चूँकि सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है इसलिए भारत में ब्राहमण और श्रमण परंपराओं के बीच द्वन्द्व चलता रहा, कबीर और तुलसी भक्त और संत प्रतिद्वंदी हैं। यदि यह पूर्वग्रह निकाल दिया जाए तो कबीर जहाँ से चले थे तुलसी उसकी स्वाभाविक परिणिति थे। संतों की सहज बानियों और शंकर तथा उनके परवर्ती व्याख्याकारों का परस्पर समन्वित विकास हमें गोस्वामी तुलसी दास के यहाँ दिखाता है।

इस सारे माया जाल के रचे जाने के पीछे एक बड़ी वजह और है। सत्य को तथ्य में दबाकर ओझल कर देने की प्रवृति। इसका एक नमूना इरफान हबीब की भक्ति काव्य के उदय संबंधी अवधारणा है। संत कविता के पीछे वे इस्लाम के आने साथ तकली कमानी के चलन और कामगार जातियों की आर्थिक स्थिति में सुधार और समाज में अपनी स्थिति के प्रति उपाजे असंतोष को उन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संत कवियों के उभार का कारण मानते हैं। यदि यह सच है तो इस्लाम में नव दीक्षित कबीर जैसे संत के इस्लाम विरोधी वचनों को वे किस रूप में लेंगे? वे अल्लाह की जगह बार बार राम,गोविंद,हरि आदि पदों का प्रयोग कर रहे थे और खुदा, अल्लाह, या पैगंबर का जिक्र नहीं कर रहे थे, तो क्या किसी खास 'एजेंडे' के तहत ऐसा कर रहे थे? इसका जवाब कबीर के माया संबंधी साखियों में मिलेगा। इनसे पता चलता है कि वे साम्राज्य विरोधी थे और यह साम्राज्य निश्चित तौर पर मुस्लिम साम्राज्य ही था। वे के भी हिंसा विरोधी थे और हिंसा इस साम्राज्य की जीवन-वृत्ती थी। यदि वे इस साम्राज्य के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति रखते तो सूफी कवियों की तरह शाहेवक्त की वंदना करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाकी के भक्ति कालीन कवि भी प्रायः बाहरी आक्रमणों पर चुप ही दिखते हैं, इसका मतलब ये समय और समाज से बेफिक्र लोग थे, लेकिन यह मानना गलत होगा। अपनी बाकी रचनाओं में इस्लाम के प्रति गहरी सहानुभूति के बावजूद मलिक मुहम्मद जायसी 'पद्मावत' में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ विजय पर जिस तरह "जौहर भईं इस्तरी पुरूष भए संग्राम। /पात साहि गढ़ चूरा चितउस भा इस्लाम।" कहते हैं, वह इस बात की साफ गवाही है कि वे चित्तौड़ में जो हुआ उससे सहमत नहीं थे । वे अलाउद्दीन से ही असहमत नहीं हैं, बल्कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर जनसंहार और लूट किया जाए इससे भी असहमत हैं। बल्लभाचार्य और तुलसी ने तो स्पष्टतः समकालीन शासन की आलोचना की है।  इससे यह पता चलता है कि भारत में इस्लाम ने भक्तिकालीन समाज को अचानक चौंका दिया था।                                                                                                                इसके उलट प्रगतिशील कही जाने वाली परम्पराएं मठवादी थीं और बहुत दूर तक राजनीतिक परिस्थितियों से प्रेरित संचालित या संचालक की भूमिका में। श्रमण परंपरा का या अकेले महात्मा बुद्ध का जितना गहरा संबंध राजघरानों से था और जितना उनका उनपर भाव पड़ा, उतना शायद ही किसी एक परंपरा या व्यक्ति ने अपने समय की राजनीतिक धारा को प्रभावित किया हो। सम्राट अशोक की एकनिष्ठता और बौद्ध-शिक्षा के वैश्विक-प्रसार का उपक्रम भारतीय इतिहास में अद्वितीय है और आधुनिक काल के नव-बौद्धों की चेतना धर्म और अध्यात्म के बजाय राजनीतिक अस्मिता से जुड़ी है। कबीर या अन्य संत कवियों की गद्दियाँ आज भी देश भर में मौजूद हैं, सूफियों का कहना ही क्या ? जिस तरह दक्षिण भारत में मंदिरों की केन्द्रीय भूमिका रही, उत्तर भारत में उनकी उस तरह की भूमिका कभी नहीं रही। यहाँ मंदिर शासन और संपत्ति के एकाधिकारी केंद्र नहीं रहे।  दक्षिण भारत में भी एकमात्र मंदिर और उनसे जुड़ी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएं ही नहीं, उनके इतर परम्पराएं और आंदोलन भी रहे।

धर्मं यो बाधते धर्मो





अपने संकुचित अर्थ में भी भारत में ‘धर्म’ किसी एक परंपरा विशेष का वाचक कभी नहीं रहा । केवल ब्राह्मण-परंपरा और ब्राह्मण-ग्रंथों से अनुशासित नहीं रहा, बल्कि श्रमण परंपरा और लोक-मान्यताएं आरंभ से ही उसकी सहधर्मिणी रही रहीं। यहाँ वेद को अपौरुषेय मानते हुए भी उसे अव्याख्येय नहीं माना गया, बल्कि उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना ही इनकी समयानुकूल व्याख्या के लिए हुई। जिसतरह आज यह कहा जाता है कि भारत में एक सतत सांस्कृतिक प्रवाह सुदूर अतीत से चला आ रहा है, कुछ उसी तरह पुरानी शब्दावली में उसे सनातन माना जाता था।

यहाँ बुद्ध के साथ मनुस्मृति का उद्धरण सोद्देश्य दिया गया है। इन्हें आधुनिक और प्रगतिशील इतिहास में भारतीय धर्म की दो स्वतंत्र और परस्पर द्वन्द्वात्मक प्रकृति वाली परंपराओं के रूप में प्रस्तुत करने का चलन रहा है। मनु-स्मृति को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नियामक ग्रंथ माना जाता है । इसके विपरीत ब्राह्मण जड़ता का प्रतिवाद बौद्ध प्रगतिशीलता में है। परंतु, ये दोनों ही परम्पराएं ‘धर्म’ की सनतानता की बात कर रही हैं। यह वही ‘धर्म’ है जो मानव की उपस्थिति से अब तक सतत प्रवाहमान रहा है। सातत्य में निरन्तरता का भाव तो है, पर सनातन में निरन्तरता के साथ नित-नवीनता का भाव भी समाहित है। इस समझ के अभाव में ही ब्राह्मण-परंपरा श्रमण-परंपरा और उसके द्वन्द्व की बात तथा पहली-दूसरी परंपरा जैसे भ्रांत पदों को भाषा के टकसाल में ढाल कर बाजार में चलाने के प्रयत्न हुए।



दुनिया की किसी भी ‘सांस्कृति-चेतना’ की तुलना में हमारा यह ‘धर्म-बोध’ अधिक प्रगतिशील है। इसका प्रमाण यह है कि भारतीय परंपरा में धर्म के लिए स्तम्भ जैसे स्थिर या रैखिक प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों का प्रयोग नहीं होता। बल्कि उसे गतिशील प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों के रूप में ही व्यक्त किया गया हो।

वृषभ के रूपक के रूप में देखती है (हिन्दू धर्म जीवन में सनातन की खोज का उद्धरण) । वह शास्त्र-धर्म के साथ ही लोक-धर्म और आपद धर्म को भी लेकर चलती है। उसकी मूल मान्यता ही है— ‘अनंतो वै वेदा’ अर्थात विद्या के मार्ग अनेक है । यह एकेश्वरवादियों की तरह किसी एक को स्वीकारने और अन्य को रिजेक्ट करने की बात नहीं करता, बल्कि ईश्वर स्वयं ‘एकोहं बहुस्याम:’ की बात करता है । यह तथ्य किसी जड़ता के बजाय स्वस्थ और विकसनशील स्वभाव की ओर ही इंगित करता है। राजा राम मोहन राय आदि जैसे यूरोप परस्त विचारकों को यह बात समझ में नहीं आई, जबकि यह ई संकल्पना ही लोकतान्त्रिक और उदार चिंतन की उपज है ।

हिन्दू धर्म बाद में प्रयोग में आने लगा, पुराने ग्रंथों में केवल धर्म या समतन धर्म ही प्रयुक्त मिलता है और उसपर भी किसी एक परंपरा का एकाधिकार नहीं रहा, बल्कि एक ही समय में चलाने वाली अनेक धाराएं ‘सनातन धर्म’ का प्रयोग करती हैं। बुद्ध और मनु दोनों ही इस पद का प्रयोग समान अधिकार से करते हैं । आधुनिक शब्दावली में इसे ही इस धर्म की लोकतांत्रिकता कह सकते हैं और पुरानी शब्दावली में ‘भारत का धर्म’ (आज की प्रचलित शब्दावली में ‘संस्कृति’)। यहाँ उस भारत की बात की जा रही है, जहां महाभारतकार स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं —

धर्म यो बाधते धर्मों न स धर्मः कुधर्म तत् ।

अविरोधातु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः ॥

माया-मृगों का (औपनिवेशिक) सांस्कृतिक पाठ

 स्वातंत्रोत्तर भारत में संस्कृति-चिंतन या कहें तो अकादमिक बौद्धिक व्यापार का जिम्मा मार्क्सवाद प्रभावित विचारकों के हाथ में रहा। ये ‘मैटर’ और ‘द्वन्द्व’ केन्द्रीय तत्त्व मानते हैं। मैटर उनके लिए प्राथमिक है और चेतना द्वितीयक। मार्क्स के अनुसार सृष्टि का विकास भौतिक पदार्थों के द्वन्द्व से हुआ और फिर उससे चेतना का विकास हुआ । चेतना का विकास भी द्वन्द्वात्मक होता है। संस्कृति और धर्म का संबंध चेतना से है। इसलिए इनका ध्यान भी धर्म के आचार पक्ष और संस्कृति के द्वन्द्वात्मकता पर ही अधिक रहा। जहाँ उनके लिए इस पैरामीटर पर भारत को नापना-तोलना असंभव हुआ वे इसे ‘अजायब घर’ (दामोदर धर्मानंद कोसम्बी) कह कर आगे बढ़ गए। उनके लिए संघर्ष केन्द्रीय बात थी। अतः उनके लिए वर्ग-संघर्ष, वर्ण-संघर्ष या नृजातीय संघर्ष जैसे संदर्भ ज्यादा अनुकूल थे।

       हालाँकि इस तरह की सोच की शुरुआत औपनिवेशिक इतिहासकारों ने की। उन्होंने आर्य-अनार्य, हिन्दू-बौद्ध, हिन्दू-इस्लाम, हिन्दू-ईसाई या भारतीय वर्ण औ जाति-संघर्षों की अतिरंजनापूर्ण गाथाएं रचीं। औपनिवेशिक/ यूरोपीय इतिहास दृष्टि की एक सबसे बड़ी खामी उसकी श्रेष्ठता की ग्रन्थि थी। हो भी क्यों न ? दुनिया ने उसकी ताकत का लोहा माना और ‘आधुनिकता’ का सेहरा उसी के माथे बंधा। आर्य-भाषा या भारोपीय भाषा के रूप में भारत की श्रेष्ठता का प्रकारांतर से स्वीकार भी उनकी इसी ग्रन्थि का हिस्सा था।  भाषाई आधार पर जातीय समुदायों की कल्पना और भारतीय परम्परा के सर्वश्रेष्ठ अंश को अपनी विरासत से जोड़ने का मोह संवरण करना उनके लिए मुश्किल था। वह ‘आर्य’ शब्द जो भारत में सम्मान और लोक कल्याण या शुभता का वाचक था, वह पौर्वात्यवादी इतिहासकारों के लिए अहंकार और वर्चस्व का वाचक हो गया । औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा इसे आधार बनाकर भारत में ‘आर्य-अनार्य-संघर्ष’ और ‘आर्य-वर्चस्व’की गाथाएं रचीं गईं और उसी पहचान और सांस्कृतिक अभिमान के राजनीतिक इस्तेमाल का नंगानाच हिटलर शाही और महायुद्धों के रूप में पूरी दुनिया के सामने खड़ा है। उन्होंने आर्य जाति (Race) के रूप में ऊँची नाक चौड़े माथे और लंबे कद श्वेत वर्ण वाले किसी समुदाय की कल्पना की, जिसने शताब्दियों पहले भारत में आकार यहाँ के मूल निवासियों के ऊपर अपना आधिपत्य जमाया था। यह बात ठीक उसी तरह थी जैसे जर्मनों का शेष यूरोप और यूरोप का अमेरिका तथा दुनिया के अन्य देशों आधिपत्य और मूल निवासियों का विनाश। उनकी दृष्टि में यूरोप दुनिया के श्रेष्ठ क्षेत्रों में है और सेमेटिक धर्मों यूरोशलम है, इसलिए स्वाभाविक था कि श्रेष्ठ जाति का जन्म भी उन्हीं की भूमि पर होगा । इसलिए आर्य यूरोप से भारत आए और साथ में इंडो-योरओपियाँ भाषा और संस्कृति साथ लाए। भला हो सिंधु घाटी सभ्यता का जो उनके इन तर्कों से संगत नहीं बैठी। लेकिन उसके विनाश का कारण न मिलना आर्य-अनार्य संघर्ष की एक गल्प कथा का आधार जरूर बन गया। परजन्य-शंबार आदि की वैदिक कथाओं के भाष्य द्वारा इसे प्रामाणिकता का जामा भी पहना दिया गया।


आर्यों की विजय और अनार्य सभ्यता सिंधु घाटी का पतन की अवधारणा और भारत पर समय-समय पर पश्चिमी सीमांत से होने वाले आक्रान्ताओं की विजय गाथाओं से पश्चिम से आने वालों की श्रेष्ठता की गाथाएँ इतनी जोर-जोर से दोहराई गईं कि उनकी आवाज उत्तरापथ से दक्षिणापथ तक गूँज उठे।  फिर क्या था ? आधुनिकता की मार से बिलबिलाये उत्तरापथ के संस्कृत और फारसी के पोथी पंडितों को मानों नवजीवन मिल गया। जिनसे उत्तरापथ के संस्कृत ज्ञान, शिक्षा और धर्म की परंपरा नहीं संभल रही थी, उनके लिए दक्षिणापथवालों से ज्यादा सगे मैक्समूलर और जर्मन हो गए। यह सब एक सुनियोजित प्रयास था और इसके दूरगामी प्रभाव पड़े। आधुनिकता और सुधार के आवेग में आगे बढ़ते हुए उस युग के तमाम विचारकों की निगाह इस ओर नहीं गई या उन्हें इस ओर देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। वे अपने समय की तमाम विसंगतियों के लिए प्रायः आक्रांत और पीड़ित भारतीय समाज को ही दोषी मानते रहे, लेकिन स्वामी विवेकानंद उनकी तुलना में कहीं अधिक सजग थे।