आधुनिक समजसुधारकों के उत्तराधिकारियों तथा महात्मा गांधी के अनुयायियों को भी धर्म में उलझन दिखायी पड़ी और ‘संस्कृति’ एक ‘सेक्युलर’ पद के रूप में अधिक अनुकूल लगी और वे अंग्रेजी के ‘कल्चर’ के समानांतर उसके भारतीय अनुवाद की तरह इसका इस्तेमाल करने लगे। जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधा कृष्णन डी डी कोशाम्बी, दिनकर प्रभृति विद्वानों ने इसपर व्यवस्थित किताबें भी लिखीं। दिनकर सभ्यता और संस्कृति का अंतर बताते हुए यह तो कहते हैं कि ‘सभ्यता वह है जो हमारे पास है और संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।’ ऐसा लगता है कि उनके मानस पटल पर धर्म की ही आकृति उभरी, पर युगीन संदर्भों के दबाव में वे उसे ‘संस्कृति’ से प्रतिस्थापित कर रहे दिया। जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी व्यवस्थित किताब लिखने बैठते हैं तो वे पूरी तरह नेहरू के संस्कृति-बोध से आक्रांत नज़र आते हैं। वे ‘सामासिक संस्कृति’ की बात करते हैं। यह सामासिक शब्द भी संस्कृति की तरह ही गढ़ा गया और भ्रांतिपूर्ण है। यह व्याकरण से आया है। भाषा के विद्यार्थी इससे अच्छी तरह परिचित होंगे। दो शब्दों को जोड़ने वाले चिह्न (हाइफ़न) को सामासिक चिह्न कहा जाता है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘सम्’ उपसर्ग के साथ ‘आस्’ धातु में इक प्रत्यय के मिलने से हुई है। जिसका सहज बोध्य या ग्राह्य अर्थ है जोड़ना या साथ बैठाना। इसके लिए कमसे काम दो का होना अनिवार्य है। जिस संदर्भ से इसे लिया गया है, वहाँ समास से बनने वाले पद को समस्त पद कहते हैं, जिनका प्रयोग की सुविधा के लिए विग्रह भी किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि सामासिक संस्कृति कहते ही दो की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है, जिनके बीच समास और विग्रह दोनों संभव है। यहाँ भारतीयता के समग्र-बोध में दरार या फाँक रह ही जाती है, जिसके भीतर सांप्रदायिकता का बारूद भरकर जब-तब धमाके किए जाते रहे। भारत-पाक विभाजन से लेकर आज तक जीतने भी सांप्रदायिक दंगे हुए वे इसी कारण से हुए । इस समझ ने ही द्विराष्ट्र सिद्धांत को भी हवा दी, जिनके कारण भारत और पाकिस्तान दो राजनीतिक नई इकाइयां बनीं और दोनों अपने को स्वतंत्र राजनीतिक देश बन गए। अन्यथा सदियों से अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभक्त होकर भी भारत एक ही राष्ट्र रहा, जिसकी पहचान थी :
अस्युत्तरस्यां दिशीदेवतात्मा हिमालयोनाम नागाधिराजः।
पूर्वापरो तोयनिधीवग्राह्य: स्थितिः पृथिव्या: इव मानदण्डः।।
हमारी स्वाभाविक राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति ‘एकम् सत् विप्र बहुधा बहुधा वदंति’ या ‘एकोहं बहुस्याम:’ जैसे आप्त वाक्यों में होती है। जो भारत को बहु राष्ट्रीय या बहु सांस्कृतिक कहते हैं या समझते हैं, उनके लिए राष्ट्र के दो मॉडल हैं एक तो जर्मन-प्रांस की-सी राष्ट्रीयता का जिसमें इकहरापन है और दूसरा अमेरिका, कनाडा, यू के जैसे देशों का ‘संयुक्त’ राष्ट्रीयता। सामासिक संस्कृति में मुझे इसी संयुक्त-संस्कृति की ध्वनि सुनाई पड़ती है।
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023
राष्ट्र का धर्म और धर्म का राष्ट्र
नवजागरण या धर्म जागरण
धर्म स्वभावगत होता है। इसे मनुष्य ही नहीं, कोई भी जड़-जंगम अपने जन्म के साथ ही धारण करता है और परिस्थिति या समय के साथ उसके भीतर वह और अधिक संपुष्ट होता जाता है। इसीलिए अपने प्राचीन ग्रंथों में संस्कृति की जगह ‘धर्म’ पद ज्यादा उपयुक्त समझा गया। आधुनिक चिंतकों ने धर्म को केवल उसके कर्मकांडगत रूप तक सीमित कर दिया और उसके ‘हीर’ को गढ़-छील कर बाजारू शब्द ‘मूल्य’ में अटा दिया। नतीजा धर्म हर चौराहे पर फूंकने वाला पुतला बन गया और मूल्य हर रेहड़ी-खोमचे पर कौड़ी का तीन माल। बात-बे-बात चौराहे पर खड़ा कर फूंके जाने वाला धर्म उसी तरह निर्जीव है, जिस तरह पुतला निर्जीव होता है और वह धर्म का प्रतिनिधित्व भी उसी तरह करता है, जैसे पुतला किसी का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिक काल में जिसे धर्म कहकर उसपर हमले हुए, वह आचार-पक्ष था। धार्मिक सुधार आंदोलन या जातिगत आंदोलन का धर्म-शोधन या विरोध इस ढांचे पर ही टिका था। इसीलिए किसी ने बहुदेववाद का विरोध करते हुए ‘एकेश्वरवाद’ का रुख किया और यूरोपीय पैटर्न की प्रार्थना सभाएं स्थापित कीं तो किसी ने धर्मांतरण की विजातीय परंपरा को आत्मसात कर शुद्धि के लिए आंदोलन चलाए। कोई उपनिषद की ओर लौट चला तो कोई वेद की ओर। किसी ने मंदिर, विधवा-जीवन और अस्पृश्यता को ही धर्म की पहचान मान लिया और उसके विरोध में जोर-जोर से नारे लगाने को ही धार्मिक जागरण और धार्मिक सुधार मान लिया । हालाँकि इन्होंने धर्म का पल्ला तब भी नहीं छोड़ा। विरले उदाहरणों को छोड़ कर सीधे-सीधे विदेशी ‘धर्म’ का पल्ला प्रायः किसी ने नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि ज्योति बा फुले का सत्यशोधक समाज या आंबेडकर का बौद्धान्तरण भी धर्म के भीतर ही आवाजाही थी। ‘धर्म’ से ‘रिलीजन’ की यात्रा माइकेल मधुसूदन दत्त और पंडिता रमा बाई जैसे कुछ अपवादों ने ही की।
भारतीय जनता ‘धर्म-भीरु’ (धर्म-प्राण?) थी, इसलिए आधुनिक-चेतना में नव दीक्षित भारतीयों का धर्म- मात्र के विरुद्ध खड़ा होना खुद के लिए अस्वीकार्यता का संकट खड़ा करना था। इसलिए उन्हें आयातित ज्ञान को मूल भारतीय चेतना में क्षेपक की तरह डालकर काम चलाना पड़ा। यही उनकी सबसे बड़ी सीमा बनी और इसी लिए कोई भी नवजागरणकालीन ‘सुधारक’ राष्ट्रीय फलक पर नहीं उभर सका अपने क्षेत्रीय और स्थानीय दायरे में ही प्रभावी रहा। आज जिस आंबेडकरवाद की बात की जाती है, उसके प्रेरणा-पुरुष डॉ. आंबेडकर स्वयं एक सुधारक या चिंतक के रूप में अपने समुदाय के बीच भी राष्ट्रीय स्वीकृति नही पा सके थे; बाद में उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों या हितजीवियों ने उनके विचारों को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया। अतः लगभग समूचा ‘नवजागरण काल’ धर्म के अवमूल्यन और नए क्षेपकों के अंतःप्रवेश का काल है। इस दौर के विचारकों में विवेकानंद और गांधी दो अपवाद हैं। भक्ति आंदोलन ने भारतीय धर्म-साधना को जहां ला खड़ा किया था, ये दोनों उसे अंगुली पकड़ कर आगे ले चलने वाले विचारक थे। गांधी जिस ‘रघुपति राघव राजा राम..’ की बात करते हैं वह रामायण (और राम चरित मानस) के राम हैं और ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ में महाभारत की अनुगूँज है। ये दोनों ही दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिन्हें साथ रखकर भारतीयता का एक समग्र चित्र उकेरा जा सकता है।
संस्कृति : कर्ता का विधान
संस्कृति : कर्ता का विधान
संस्कृति की अनेक अर्थ-छायाएं हैं। इसकी मूर्तन-अमूर्तन, व्यापक-अतिव्यापक, स्थूल-सूक्ष्म अनेक परिभाषाएं की गई हैं। दुनिया का आधुनिक चिंतन जितना अधिक इस एक अवधारणात्मक पद से टकराता रहा है, उतना शायद किसी दूसरे सवाल से नहीं टकराया। और, इन बहसों में तमाम आधुनिक चिंतनों की तरह यहाँ भी केंद्र में रहा है ‘मनुष्य’ ही। चाहे वह इहलौकिक धारणाओं से प्रेरित हो या आध्यात्मिक। परंपरागत भारतीय चिंतन आध्यात्मिक था, अतः उसके लिए संस्कृति की समझ भी आध्यात्मिक थी। यह आम धारणा है जो सही तो है, किन्तु सीमित संदर्भों में ही। कोई भी देश, संस्कृति या व्यक्ति-मात्र एकांतिक रूप से आध्यात्मिक नहीं हो सकता, उसे अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही होगी। ठीक इसी तरह केवल भौतिक भी नहीं हुआ जा सकता। भौतिकता का अतिरेक व्यभिचारी-स्वैराचारी ही नहीं, बल्कि अनुभूति-शून्य जड़िमा के गड्ढे में धकेलने वाला है। यदि कोई कहता है कि उसे प्रचलित आध्यात्मिक मूल्यों-मान्यताओं में विश्वास नहीं तो यह माना जा सकता है, पर यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह अध्यात्म शून्य है। अपनी भौतिक सीमाओं से परे जाकर आत्म-विस्तार ही मनुष्यता की पहली शर्त है। पर, यह उसकी भौतिक जरूरतों से प्रेरित हो यह आवश्यक नहीं है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर मनुष्य को कर्ता मानकर कर चलते हैं, क्योंकि पद की मूल धातु है ‘कृ’ जिसका अर्थ है करना। यहाँ हमें अपने उस पुरनिया को भी जरूर याद करना चाहिए, जिन्होंने ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में संस्कृति का प्रयोग इस रूप में किया है— ‘आत्मानं संस्कृतिर्वावशिल्पानि छंदोमयं वा। एतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते’। यहाँ संस्कृति, शिल्प, छंदादि का ‘वा’ (या) के साथ अर्थात् वैकल्पिक पद के रूप में प्रयोग हुआ है। अतः छंद शिल्पादि अभ्यास से अर्जित होते हैं, उसी प्रकार संस्कृति भी अभ्यास द्वारा अर्जित होती है। इस दृष्टि से भी मनुष्य कर्ता ही ठहरता है।
घोर नियतिवादी से नियतिवादी व्यक्ति भी स्वयं के कर्तृत्व के प्रति अहं भाव को त्याग नहीं सकता क्योंकि यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है । फिर संस्कृति को वह अपने इस अहं से मुक्त भला कैसे रख सकता है ? दुनिया के तमाम देशों के बीच आज संस्कृति के नाम पर जो संघर्ष चल रहे हैं, वे उसकी इसी अहम्मन्यता के परिणाम हैं। परंपरागत भारतीय मन आज भी इस ‘पद’ को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि इसे राजनीतिक मुहावरे के रूप में लेता है। दुर्भाग्यवश इस पद का राजनीतिकरण भी कुछ ज्यादा ही हुआ। कभी जन-संस्कृति, कभी लोक-संस्कृति तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर। अब तो इसका सही मेल भी इन राजनीतिक पदावलियों के साथ ही बैठता है। हम जैसे गँवई लोग तो अब भी ‘धरम’ ही ‘निबाहते’ हैं। ‘सुसंस्कृत’ आचरण नहीं करते। शायद इसी लिए हमारी यारी भी संस्कृति से अधिक अपने धरम-करम से है।
शुक्रवार, 13 नवंबर 2020
रोशनी की प्रजाएँ
कुबेरनाथ राय
दीपावली अर्थात नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चन्द्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अन्धकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चन्द्र और अग्नि का प्रतिनिधि बन कर हमारे घरों में रोज अपनी देवोपम भूमिका निभाता है। उसकी देह भले ही पार्थिव धातु की हो, परन्तु है वह वस्तुत: रोशनी की प्रजा। प्रजा से हमारा तात्पर्य सन्तान से है और गांव-गांव, नगर-नगर अपनी देदीप्यमान भूमिका में प्रतिष्ठित असंख्य दीप-शिखाएं उस रोशनी की असंख्य प्रजाएं हैं, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों में निहित व्यापक देवशक्ति के रूप में सृष्टि की प्रथम उषा के साथ सक्रिय हैं। रोशनी एक भगवती शक्ति है। इसका संस्कृत रूप है ‘रोचना’। ईरानी ‘रोशनी’ और संस्कृत ‘रोचना’ के मूल में ही हिंदी आर्य-ध्वनिखंड है, जो मूलत: दीप्ति या द्युति से जुड़ा है। रोशनी के भगवती-शक्ति होने के कारण ही ‘ललितासहस्रनाम’ में देवी का एक नाम ‘रोचना’ भी है। स्वयं में ‘देवी’ शब्द का अर्थ ही होता है ‘देदीप्यमान’।
भारतीय मन नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। इसी से यहां पर नारी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के साथ ‘देवी’ शब्द जोड़ने की प्रथा है। आजकल अवश्य नई पीढ़ी की लड़कियां अब अपने नाम के आगे देवी शब्द लगाना नहीं पसन्द करतीं। परन्तु है यह बड़ा ही अर्थ-गम्भीर और महिमामय शब्द। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय कन्या ही देदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। वस्तुत: भारतीय मन रोशनी या द्युति से बड़े ही घनिष्ठ भाव से जुड़ा है। रोशनी या द्युति देवता है, जीवन, प्राण, शक्ति और चेतना का प्रतीक है। इसके प्रतिकूल अन्धकार आसुरी है, तामसिक है, मृत्यु-रूप है और चैतन्यविहीन जड़ता का, अगति का और अधोगति का प्रतीक है। रोशनी के ही परिवेश में मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ और समुचित विकास होता है, क्योंकि रोशनी के संदर्भ में दुराव-छिपाव और ग्लानि का कोई स्थान नहीं। फलत: कहीं कोई अवदमन नहीं, कहीं कोई आत्मक्षय नहीं।
इसके विपरीत अन्धकार छिपाव, दुराव, संशय, कुटिलता, कपट और व्यभिचार का सहज परिवेश रचता है। क्रूरता इसके भीतर अपने नख-दन्त निरन्तर रगड़ कर तीक्ष्णतर करती रहती है। अशुभ और अशोभन इसकी शाखा-दर-शाखा पर घोंसले बांध कर उल्टे पांव लटके हैं और निरन्तर अमंगल ध्वनि द्वारा संकेत देते रहते हैं। वैसे तो मनुष्य मात्र ही रोशनी में एक दिव्यबोध का अनुभव करता है, परन्तु हिन्दुस्तानी जाति ने अपनी दैनिक प्रार्थना ‘गायत्री’ से लेकर अपने पारस्परिक सम्बोधन ‘जी’ तक सर्वत्र ही एक रोशनी अर्थात ‘तेज’ तत्व को विशेष महत्व दिया है। ‘जी’ की बात लें। उत्तर भारत में श्रद्धा और प्रेम के साथ किसी का नामोच्चरण करते हुए ‘जी’ लगा दिया जाता है। रामजी, कृष्णजी, हनुमानजी से लेकर गांधाजी, नेहरूजी तक सभी के साथ ‘जी’ है। यह ‘जी’ भी अप्रत्यक्ष रूप से रोशनी का ही सगोत्र शब्द है।
पहले मेरी धारणा थी कि यह ‘जीव’ का रूपान्तर है और भारतीय दृष्टि में हम सब प्रत्येक ‘जीवात्मा’ हैं। परन्तु बाद में मैंने धारणा का संशोधन किया, तब इस शब्द का असली रहस्य पकड़ में आया। ‘देव’ और ‘जी’ दोनों ही संस्कृत के ‘द्यु’ से जुड़े हैं। संस्कृत ‘द्यु’, द्युति, ज्योति, दिव, देव और प्राकृत ‘जी’ आदि सारे शब्दों के मूल में ‘द्यु’ ध्वनिखण्ड का मूल प्रारूप निहित है। और ये सारे शब्द ज्योति या प्रकाश से जुड़े हैं। मध्य एशिया की शकार्य बोलियों के प्रभाव से यह ‘जी’ शब्द आया होगा, क्योंकि मध्य एशिया तथा यवन अंचलों में ‘द’ का ‘ज’ में रूपान्तर हो जाता है। संस्कृत में भी सन्धि करते समय ‘द’ का ‘ज’ हो जाता है, अत: द और ज मूलत: एक ही ध्वनियां हैं। किसी आर्यभाषा में ‘द’ चला तो किसी में ‘ज’। जैसे द्युपितर (संस्कृत) का लाटीनी रूप ‘ज्यूपितर’ है। द्यौस का ‘जेउस’ है। शायद यवन भाषा के प्रभाव से ही भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति को ‘जीव’ (जे उसका विकृत रूप) कहा जाता है।
अत: किसी कारणवश देव का देऊ, जेऊ, फिर ‘जू’ और ‘जी’ हो गया है। पुरानी हिन्दी में, राजस्थानी में ‘जू’ ही चलता है ‘जी’ नहीं। उत्तर भारतीय-भाषा और संस्कृति पर उत्तरकुरु की आर्य संस्कृति तथा कालान्तर की शक संस्कृति का प्रभाव बड़ा सघन पड़ा है और इन्हीं अंचलों में ‘जी’ या ‘जू’ चलता है, जहां यह प्रभाव विशिष्ट रहा है। असम-बंगाल में अब भी ‘देव’ चलता है। द्युति और ज्योति का अर्थ एक ही है। हमारे दैनिक जीवन में ‘जी’ का प्रयोग आर्य भावधारा में प्रतिष्ठित ‘देवता’ और द्यु तत्व यानी रोशनी के प्रति पक्षधरता का एक अच्छा सबूत है। वैसे मैं मानता हूं कि पूर्णांश भारतीय संस्कृति में केवल तेज द्युति का ही महत्व नहीं। एक और तत्व है, जो समान रूप से महत्वपूर्ण है। वह है ‘मधु’ या ‘रस’। इस मधु या सोमतत्व का मौलिक स्रोत आर्येतर अधिक है, आर्य कम। तो भी दोनों महत्वपूर्ण माने गए हैं। वैदिक भाषा में इन्हें ही अग्नि (तेज) और सोम (मधु) कहा गया है। उत्तर वैदिक काल का आर्य सांस्कृतिक-दृष्टि से विमिश्र आर्य है और इस विमिश्रता का प्रवेश उसके भीतर भारत में प्रवेश करने के पूर्व ही हो गया था।
अत: ऋग्वैदिक युग से ही भारतीय आर्य अग्नि और सोम के युग्म को सृष्टि-विकास की मूल शक्ति मानता है। परन्तु वैदिक सृष्टि-विद्या में अग्नि-सोम के द्वैत का मूल ‘उत्स’ माना गया है सविता को, जो तेज और मधु दोनों का दाता है। वस्तुत: सबसे ऊपर स्थिर द्यु-लोक में जो सविता है, वही अन्तरिक्ष में इन्द्र (आदित्य) और सोम है और वही पृथ्वी पर अग्नि है। मूल है एक ही देवता, जो द्यु का अधिदेवता है। भारतीय संस्कृति के तीन प्रधान पर्व इन देवताओं से अलग-अलग जुड़े हैं। विजयादशमी सविता का पर्व है तो दीपावली अग्नि अर्थात पार्थिव तेज का, जिसका लघुतम और सामान्यतम प्रतीक है रोशनी का नन्हा बच्चा यानी दीपक। तीसरा पर्व है होली का वसन्तोत्सव, जो स्पष्टतया सोम-प्रधान है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दीपावली का त्योहार भारतीय मनोभूमि से अत्यन्त घनिष्ठ भाव से जुड़ा है, क्योंकि प्रकाश, द्युति या रोशनी से भारतीयता का गर्भनालगत सम्बन्ध है। यही नहीं, प्रत्येक दीपक या बत्ती भारतीय जीवन आदि-साधना और केन्द्रीय पुरुषार्थ ‘क्रतु’ अर्थात यज्ञ का प्रतीक है। दीपक के लिए दो शब्द चलते हैं। एक तो है दीप या दीया, जो दीपक का ही रूपान्तर है। दूसरा बत्ती है। असमिया भाषा में यह बंती हो जाता है। बत्ती शब्द वर्तिका से निकला है। वर्तिका अर्थात बाती। यह वर्तिका तिलतिल करके जलती है, तब कहीं ज्योतिशिखा का जन्म होता है। प्रकाश बन जाना, उजाला फैलाना, घर-आंगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना अपने ‘सम्पूर्ण’ का त्याग किए, बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह सम्भव नहीं। आत्मदान जितना ही सर्वात्मक होगा, उतना ही प्रकाश प्रखर और विस्तृत होगा।
हम कहते हैं कि दीपावली के पर्व में केन्द्रीय महत्व दीप या ज्योतिर्मयी वर्तिका का ही है। यही ऐसा है तो इस त्योहार की आकृति-प्रकृति में विशुद्ध यज्ञ-भाव, आत्मदान, क्रतु का ही मौलिक महत्व है। तब इसे ज्ञान, चैतन्य और सतोगुण का त्योहार मानना चाहिए। ‘सदा दीपावली सन्त घर’ जैसी कहावतें इसी सन्दर्भ में तात्पर्यपूर्ण हो सकती हैं। सन्त का व्यक्तित्व ही क्योंकि साक्षात दीपावली होता है, उसकी आत्मा का चेतन प्रकाश उसके रोम-रोम में नित्य दीपशिखा की ही तरह जलता है। हम सभी जानते हैं कि सारा उत्तर भारत इसे ‘अर्थ’ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पांत अर्थ-गरिमा की द्योतक है। क्या यह सब धन-सम्पत्ति का गौरव-गान है! भारतीय संस्कृति के बारे में अल्प समझ-बूझ रखने वाला भी इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेगा।
ऐसा कहना ही रोशनी की असंख्य प्रजाओं का अपमान है। भारत का गरीब से गरीब आदमी भी, जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म-बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाजे के सामने इस दिन जरूर रखता है। उन दीपकों में उसका अहंकार नहीं, उसकी श्रद्धा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्धा उसके अन्तर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्धा धर्मबोध और पवित्रबोध से जुड़ी है, अत: यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है। इसे हम अहंकार का प्रदर्शन या उस अदेवता की मात्र चापलूसी कह कर टाल नहीं सकते, जिसका कि नाम ही है चंचल और जिसका वाहन है रात्रिचर पक्षी उलूक। तब यहां लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा क्यों की गई है? इसका उत्तर दीपावली की रात्रि-शेष में प्रात: से पूर्व असंख्य मातृकण्ठों से निकले उद्घोष में खोजा जा सकता है। यह उद्घोष है : ‘ईश्वर का प्रवेश हो, दारिद्र दूर हो’ (ईस्सर पइसे, दलिद्दर निकसे)। अर्थात दैन्य, ग्लानि, दारिद्र को भगा कर उसके स्थान पर जिस लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा का स्वप्न भारतवर्ष देखता है, वह है ‘ईश्वरीय लक्ष्मी’। लक्ष्मी (धन) सच्चे पुरुषार्थ द्वारा अजिर्त हो कर ही ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वह विष्णु भगवान की माधवी है।
(मराल)
सोमवार, 8 जून 2020
कुबेरनाथ राय : एक भारतीय लेखक
हिंदी साहित्य की परम्परा में कुबेरनाथ राय की गणना आचार्य हजारी प्रसाद साथ ललित-निबंध-त्रयी के रूप में होती है . किंतु, केवल इतना कहना उनके भरतीय सहित्य में दाय को एक सीमित परिधि मैं बांधना होगा . वे बीसवी सदी के उन भरतीय लेखकोन में हैं जिन्होंने भारत को एक भारतीय की दॄष्टि से देखने की दॄष्टि दी . उनके निबन्धों में व्यक्त ‘मैं’ आसेतु हिमालय भारत में बसने वाली उसकी संतति का ‘मैं’ है . इसीलिए उनके निबंधोन को पढने पर ऐसा महसूस होता है कि लेखक उद्बाहु होकर ‘अहम भरतोस्मि’ की घोषणा कर रहा है .कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च 1933 ई को गाजीपुर जनपद के मतसा गांव के एक समान्य किसान परिवार में हुआ था . पिता स्व. बैकुंठनारयण राय किसान के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता थे और छोटे बाबा पं. बटुकदेव शर्मा डॉ. राजेंद्रप्रसाद के सहयोगी, स्वातंत्र्य समर के योद्धा, पत्रकार एवम् अविवाहित अनिकेत यायावर . कुलदेवी चंडी की उपासना और ठाकुर जी का भोग-भजन उन्हें अपनी विरासत में मिला था . उनके सहज संकोची, शील-संयुत, गम्भीर किंतु स्वातंत्र्य प्रेमी व्यक्तित्व तथा भारतीय शील-बोध की सुंगंधि से भीने उनके साहित्य दोनों की बनावट और बुनावट में इन सबकी प्राथमिक भूमिका रही है .उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यलय से स्नातक के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में परास्नातक किया और नलबारी असम के एक महाविद्यलय में अध्यापन करने लगे . असम में अशांति के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने गृह जनपद गाजीपुर के सहजानंद सरस्वती महाविद्यालय में प्राचार्य नियुक्त हुए . वहाँ से सेवानिवृत्ति के बाद उनके पैत्रिक गांव में 5 जून 1996 को उनका देहावसान हो गया .
कुबेरनाथ राय हिंदी के एकनिष्ठ निबंधकार हैं. उन्होंने अपने लेखन के आरंभ से लेकर अपने जीवन के अवसान तक स्वयं को एक मात्र विधा ललित निबंध को समर्पित कर दिया. इस तरह का समर्पण हिंदी साहित्य की परम्परा में सर्वथा दुर्लभ है. अपने पूरे रचनाकाल मैं उन्होने लगभग साढे तीन सौ निबंध लिखे, जो उनके बीस निबंध संकलनों में संकलित हैं . ‘प्रिया नीलकंठी’ (भारतीय ज्ञानपीठ, 1969) से अरम्भ उनकी रचना-यात्रा का अवसान रामायण महातीर्थम (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली2002) से हुआ . इसके बीच मैं पडने वाले पड़ाव हैं- रस आखेटक (1971) .गंधमादन(1972). निषाद बांसुरी (1973), विषद योग (1974). पर्ण-मुकुट, लोक भारती (1978), महाकवि की तर्जनी(1979), पत्र मणिपुतुल के नाम (1980), मनपवन की नौका, 1983, किरात नदी में चन्द्रमधु (1983), दृष्टि-अभिसार (1984), त्रेता का वृहत्साम (1986), कामधेनु (1990) मराल(1993), उत्तर कुरु, 1993. चिन्मय भारत (1996), अन्धकार में अग्निशिखा (2000) आगम की नाव,वाणी का क्षीरसागर . ये सभी उनके निबंध संग्रह हैं . कउनका एक मत्र काव्य-संग्रह ‘कंथामणि’ उनकी देहावसान के पश्चात सप्रकाशित हुआ, जो उनकी डायरी और इधर उधर अस्त-व्यस्त पन्नों से लेकर संग्रहीत किया गया .’ पुनर्जागरण का अंतिम शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ सहजानंद सरस्वती समग्र की भुमिका के रुप में लिखी गई उनकी अन्य निबंधेतर रचना है . उनके निबंध-संग्रह ‘कामधेनु’ पर उन्हें 1993 में भार्तीय ज्ञानपीठ के मूर्ति देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया .
एक मात्र विधा के रूप में समर्पित होने के बावजूद उनके चिंतन का फलक बहुत व्यापक और लेखन बहुमुखी है . वे एक उदार चेता सजग भारतीय चिंतक थे . वे भारतीय चिंतन को 'एकोहं बहुस्यां ' और 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखः' के सूत्र के सहारे पढ़ने की बात करते हैं । प्रमाण है उनके चिन्मयभारत के निबंध, जिनमें उन्होंने अपने चिंतन को निचोड़ दिया है । निचोड़ने का अर्थ यह भी है कि यह उनके जीवन-काल में प्रकाशित उनकी अंतिम पुस्तक है । इसमें उन्होंने इन दोनों सूत्रों के साथ 'अनन्तो वै वेदाः' के सूत्र को भी जोड़कर भारतीय चिंतन और जीवन की लोकतान्त्रिक बहुलता को बड़े साफ ढंग से व्याख्यायित किया है । वे न तो द्वंद्व के सातत्य में विश्वास कराते थे और न अधिनाकीय एकात्मवाद में । शायद इसीलिए उन्हें शकराचार्य का अद्वैत उतना नहीं रुचा, बल्कि उन्होने बुद्ध के मध्यमप्रतिपदा को अधिक महत्व दिया । सत्य और धर्म की तुलना में उन्हें बौद्ध चिंतन का शील-तत्त्व अधिक ग्राह्य लगा । वे शीलानुरागी थे । उन्होने बौद्ध धर्म को भारतीय जीवन-दर्शन का अंतराष्ट्रीय संस्करण और वैष्णवता को राष्ट्रीय संस्करण कहा तो उसके पीछे भी उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि ही थी । भारतीय संदर्भ में वैष्णव धर्म सबसे अधिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी रहा है , ठीक वैसे ही जैसे अंतराष्ट्रीय संदर्भ में बौद्ध । दुनिया में बौद्ध धर्म के जीतने रूप हैं उतने शायद दुनिया के किसी धर्म में न हों, पर भारत में यह संघ बद्ध होकर सिमट गया । यहाँ वैष्णवता ने इसके लिए पर्याप्त जगह बनाई । विष्णु के वटवृक्ष के नीचे सम्पूर्ण धार्मिक बहुलता को बिलमने की पूरी छूट दी । आलवारों से लेकर नामदेव और कबीर से लेकर रैदास, सूर, तुलसीदास, हरिदास आदि मध्यकालीन संत इसके गवाह हैं ।कुबेरनाथ राय दार्शनिक स्तर पर किसी भी आधुनिक चिंतन की तुलना में गांधी से अधिक प्रभावित हैं। उन्होंने राम और गांधी इन दो को भारतीय जीवन की शीलाचारिकी समझने के लिए सबसे अहम माना, उनके राम आर्य और अनार्य भारत के बीच साहचर्य स्थापित करने वाले, प्राचीन आर्यत्व के प्रतिमान रावण का वध करने वाले और आर्यानार्य साहचर्य के आधार पर नव्य भारतीयता की नींव डालने वाले राम हैं . अपने रघुवंश की कीर्ति बांसुरी निबंध में कुबेरनाथ राय ने रघुवंश को भारतीय शील का महाकाव्य माना है और राम को इसका प्रतिमान .
वे भरतीयता को कोई बनी-बनाई चीज नहीं मानते बल्कि उसे एक ऐतिहासिक सातत्य में विकसित होता हुआ देखते हैं . अपने उत्तर कुरु संग्रह के ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’. वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुद्ध नहीं रही। सब के सब अविशुद्ध हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासत ‘कामन-वेल्थ’ है।इस तरह कुबेरनाथ राय को हम एक ऐसे सहित्यकार के रूप में पाते हैं, जो भारतीय जीवन, इतिहास और चेतना से अविभाज्य रूप से जुड़ा और उसके अनुशीलन-परिशीलन के प्रति अनन्य रूप से समर्पित रहा .