'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस के दिन फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहिर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ, जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा कर अल्पवयस में ही घर से सैकड़ों मील दूर जाने दिया दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी ।
अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
हमारी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन ! इतना अहंकार अपने उसी वजूद पर, जिसे स्वयं उसी ने सिरजा, रचा और आकार दिया— ‘माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं ।’ अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप’ कविता के ये शब्द मुझे माँ से अपने रिश्ते को व्यक्त करने के लिए सबसे सटीक शब्द लगते हैं । पर यह हमारी अहमन्यता ही है कि हम अपने जीवन के व्यस्ततम वर्षों में उसके लिए एक दिन नियत कर उसके प्रति अपने दायित्व की इतिश्री समझ लें । वस्तुतः वह ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ है भी नहीं । जीवन के अंतिम पड़ाव तक, जब घर के सारे पुरुष सारे संबंध अपने वय की विवशता में पारिवारिक दायित्वों से विरत हो अगली पीढ़ी की तरफ उम्मीद के साथ आँख उठा कर देखने लगते हैं, तब भी वह मान ही है जो अपनी संतान के लिए कभी नहीं थकती । हारी-बीमारी ही नहीं नाउम्मीदी की तमाम रातों में जब आप अकेले कमरे की चक्कर लगा रहे होते हैं तो वह माँ ही है जो रात भर जाग कर हमारेके सोने की प्रतीक्षा करती है और जब आप बिस्तर पर धारक जाते हैं तो वह अपनी बूढ़ी निःशक्त अंगुलिया आपके बालों में डालकर आपके भीतर की उम्मीद को जगाती है जिलाती है । वह मृत्यु की चौखट पर पहुँचने-पहुँचने तक अपनी संतान के हित और शुभ के लिए घिसटती रहती है । निश्चित तौर पर सुविधा सम्पन्न परिवारों की बात थोड़ी अलग हो सकती है, पर भारत की बहुलांश जनसंख्या सुविधा हीं, वंचित या अल्पवञ्चित है । इसलिए खा-अधाकर मचिया पर बैठ पंखा झलती हुई बूढ़ी माएँ हमारी पिछली पीढ़ियों का स्वप्न जरूर रही हैं, यथार्थ नहीं । अधिकांश माएँ मृत्यु की चौखट तक अपनी संतानों के लिए खटते और घिसटते हुए ही इस दुनिया विदा होती हैं और हम संताने हमेशा उनसे इसी उम्मीद में बंधे रहते हैं—
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
संतान की यह उम्मीद और उसके अक्षुण्ण और अनाहत व्यक्तित्व का संस्कार ही हर माँ की नियति है । चाहे वह घूरहू-कतवारू की माँ हो या सर्वसुविधासम्पन्न किसी अभिजात कुल की माँ । वह आजीवन सजग और सचेष्ट रूप से अपनी इसी ज़िम्मेदारी के निर्वहन में रत रहती है । तब भला वह हमारी ज़िम्मेदारी या दायित्व कैसे हो सकती है, जिसके लिए हम जीवन भर जिमीदारी या दायित्व रहे । यह बात अलग है कि उसने कभी इस बोध के साथ इस रिश्ते को जिया ही नहीं । उसके जीवन में इन शब्दों को गढ़ने या रचने की फुर्सत ही कब रही ? वह तो हम हैं जो उसी की रची हुई बुद्धि के बल पर इन शब्दों से खेलना सीख गए हैं, अन्यथा वह हमेशा खुद के लिए जीती रही और उस खुद का अविभाज्य हिस्सा, बल्कि सर्वांश हम सन्तानें थीं। उसकी हँसी-खुशी, सुख-दुख हमसे अलग हुआ ही नहीं, फिर भी उसे हमेशा यह सालता रहा, हमने अपने बच्चों के लिए किया ही क्या, जबकि दूसरी माएँ बहुत कुछ करती रहीं हैं। हम समर्थ ही नहीं थे । उसकी यह समर्थता और सबकरके भी अपने को न करने वाला समझना काश हम संतानों ने भी उससे सीख लिया होता । तब हम उसे ज़िम्मेदारी या दायित्व की तरह नहीं, बल्कि अपने उसे वजूद की तरह स्वीकार करते हुए सहज रूप से जीना सीख पाते; उसे अपने जीवन का सर्वांश भले न बनाते, एक अविभाज्य हिस्से की तरह उसकी जिंदगी को जी पाते । और, तब हम उस अहमन्यता और कर्ता भाव से कुछ मुक्त हो पाते, जो ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ शब्द के प्रयोग में है ।
रिश्ते शब्दों से नहीं बयान होते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं। शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं।
माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी ।
भारतीय परंपरा में जो भी पोषक और धारक है, वह माँ है । हम धरती की गोद में पैदा होते, खेलते और जीते हैं । वह अतः हमें धारण करती है । उसकी नदियां, उसके वृक्ष, उसकी हवा, उसके जल, उसके फल, उसकी गायें सब हमारे लिए हैं, वे हमें पोषण देते हैं और प्राण-रक्षा करते हैं । इसलिए वह पोषक है । इसीलिए उसके जिक्र के साथ ही ‘माताभूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ का घोष करने वाला हमारा आदिम ऋषि आज भी कहीं न कहीं किसी मन कोने में जाग उठता है।
धरती ही क्यों ? नदी भी स्रोतस्विनी है, पयस्विनी है, जीवन दायनी है, हमारी फसलों हमारे फलों और हमारी गायों में ‘रस’ भरने वाली रसवंती है, इसलिए वह भी हमारे प्राणों को धारण करने और पोषण देने वाली है और वह भी माँ है । भारतीय कला और साहित्य का एक प्राचीन प्रतीक है जिसपर आधुनिक मन इसपर असहमत है, भ्रांत है और उसका मातृत्व संदेह के घेरे में है, फिर भी भारत का बहुलांश उसे मातृवत ही मानता है (कभी-कभी धर्मांधता या रूढ़ि के रूप में भी सही ) वह है ‘गो’ । पुरानी आत्मवादी शब्दावली में कहें तो वह हमारे शरीर को आत्मा और प्राण-तत्त्व को धारण करने की क्षमता देती है और आधुनिक शब्दावली में कहें तो उसके दूध में पूर्ण आहार की वह पोषकता है, जो एक शिशु को एक माँ से मिलता है । यही क्यों इन सबकी समेकित ‘अभिव्यक्ति’ प्रकृति भी मातृ-स्वरूप है । भारतीय चिंतन, कला या साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति जिस भी रूप में हुई है, उसे मातृका या माँ की संज्ञा ही दी गई है । चाहे वह आदिम कल्पना की सप्त मातृकाओं की पाषाण पिंडियाँ हों या शक्ति-स्वरूपा दुर्गा, काली आदि रक्षक और धारक देवियाँ या विश्व को पोषण देने वाली अन्नपूर्णा, पार्वती और लक्ष्मी । ये उत्तर वैदिक देवियाँ ही क्यों ? ठेठ वैदिककाल की ‘वाक्’ भी पोषण, रक्षण और धारण के गुणों से समन्वित है और इसीलिए उत्तर-वैदिक काल में वाणी भी माँ ही मानी गई और उसकी अधिष्ठात्री सरस्वती भी ।
धरती के उलट आकाश पिता है । वह रोशनी दिखाता है, वह मार्ग प्रशस्त करता है, वह हमें जल (जीवन) देता है, लेकिन उसकी रोशनी का संरक्षण, उसके जल का धारण और उसके मार्ग का आधार धरती है । उसके बिना उसका तेज व्यर्ध है, उसका जीवनांश निराधार है और उसका सारा प्रशस्ता-भाव अर्थहीन है । संभावत: इसीलिए भारतीय परंपरा में धरती अधिक पूज्य है । लोक परम्पराओं में उसके पूजन के अनेक स्थानीय त्यौहार और अवसर हैं तथा शास्त्रीय परंपरा में जलपूरित घट उसी का प्रतीक है । यह सारा कुछ उस मातृत्व के पूज्य और सम्मान्य भाव की ही अभिव्यक्ति है।
फिर भी, जीवन और व्यवहार के धरातल पर हमारे परिवारों की सबसे उपेक्षित और नगण्य स्थिति माँ की ही है । वह स्त्री है । अपने घर के प्रत्येक पुरुष से वय और रिश्ते में भले ही बड़ी हो पर अपने अधिकार और जीवन स्तर में सबसे बाद में आती है । यह सच है । वह मातृ-दिवस की तरह ही सर्वथा नैपथ्य में ही सिमटी रहती है और उसे तभी याद किया जाता है जब कि उसकी हमें कोई जरूरत हो । ठीक वैसे ही जैसे टूटते और बिखरते परिवारों तथा हाशिये पर खिसकते वृद्धों वाले समाज हमें खुद को सभ्य और मानवीय दिखाने के लिए मातृ या पितृ दिवस की हमें और ‘सेलिब्रेशन’ का रूप देकर कमाना हमारे बाजार की जरूरत है । दरअसल जरूरत से अधिक के लिए हमारे पास रिश्तों के कोई अवकाश नहीं है और बाजार हमारी इन जरूरतों को भुनाना बखूबी जनता है । देश-विदेश की तमाम ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियाँ हफ्तों से मातृदिवस को बेच रही हैं ।