मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय




बचपन में जब हिंदी  की वर्णमाला सीख रहा था तब यह सवाल कई बार ज़हन में उठा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘आ’ ‘इ’ या ‘उ’ से बारहखड़ी की शुरुआत की जाय तो क्या होगा? बात तो ठीक भी थी, क्रम बदलने से भाषा का भला बिगड़ता भी क्या? हां स्कूल या घर में डांट ज़रूर पड़ती, शायद अध्यापक की छड़ी की मार भी। यह डर ही था जिसके कारण इस कल्पना को मूर्त रूप न दे सका। आगे जब व्याकरण और भाषा विज्ञान पढ़ा तब भी यही बात आई।



हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार पाणिनी के माहेश्वर सूत्र, जो भगवान शंकर के डमरू से निकली 14 ध्वनियां मानी जाती हैं वो भी ‘अ इ उ ण’ से ही शुरू होती है। आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि बिना ‘अ’ की सहायता के हिंदी के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि ‘अ’ सभी स्वरों में सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए हिंदी वर्णमाला का पहला वर्ण है।



मानव ने जब अपनी सभ्यता की शुरुआत की तो उसके पास जो सबसे ज़रूरी चीज थी जल। चाहे सिंधु सभ्यता हो अथवा नील नदी या दजला-फरात की या कोई अन्य सभ्यता उसका विकास नदी के तट पर हुआ जिसकी वजह थी जल की उपलब्धता। शायद इसलिए ही ये नदियां इन संस्कृतियों के लिए पूजनीय भी थीं। सिंधु और नील के पूजा के प्राचीन प्रमाण तो मिलते ही हैं, गंगा और नर्मदा आज भी भारत में पूजनीय हैं। उन्हें मान माना जाता है। क्यों किसी रूढ़ि के कारण नहीं, अपने सांस्कृतिक महत्त्व और अपनी उपादेयता के कारण।



पौराणिक कथाओं में भी जलाशय का महत्त्व इस बात से पता चलता है कि कालीदास ने शकुंतला की विदाई प्रसंग में कण्व ऋषि द्वारा किसी प्रिय जन को जलाशय के पास छोड़ने का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि जलाशय शुभता के प्रतीक हैं और इनका दर्शन मात्र शुभ होता है। इसीलिए हमारे घरों में यात्रा से निकलते समय जलपूरित पात्र रखने का चलन भी है। इसका संदर्भ अभिज्ञानशकुंतलम के चतुर्थ अंक में भी है , जब शकुंतला विदा होती है तो पिता कण्व उसे छोड़ने जलाशय तक आते हैं । 



लगभग दो-तीन पीढ़ी पहले तक जलाशयों को खुदवाना लोककल्याण का काम था। ये जलाशय हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम थे और हम उनपर आश्रित थे। इतना ही नहीं हमारे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक काम भी इनके तट पर संपन्न होते थे। पूर्वजों का तर्पण हो या बच्चे का मुंडन दोनों ही जलाशय पर ही सम्पन्न होते थे। ये चलन भी हमारे देश और हमारी संस्कृति में जल के महत्त्व को दिखाता है।



जलाशय एक सांस्कृतिक घटक के रूप में  महत्त्वपूर्ण भी रहा है और हमारे समाज में उनकी भूमिका वही रही है, जो नागरी वर्णमाला में ‘अ’ की है। इसलिए हम जलाशयों को मानवीय संस्कृति का ‘अ’कार कह सकते हैं।



लेकिन, स्वतंत्र भारत में जिस तरह जल के नए स्रोतों का विकास हुआ और उनका प्रयोग बढ़ा, हमने उन जलाशयों की उपेक्षा आरंभ कर दी और क्रमशः वे हमारे लिए महतत्वहीन हो गए। कुएं-तालाब भी धीरे-धीरे मृतप्राय हो गएं और हम उन्हें भूलते गए। भोजपुरी भाषा (चाहें तो बोली कह लें) में एक कहावत है ‘घर के पुरनिया के झापीं में बंद करके रखे के चाहीं।’ अर्थ यह कि हमें घर के बुज़ुर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जाने कब उनका अनुभव हमारे काम आ जाए और हम मुश्किल से मुश्किल संकट से निकल जाएं।



यह बात शब्दशः जलाशयों पर भी लागू होती है। ये भी हमारे लिए संजीवनी शक्ति की भूमिका में आ सकते हैं। अपनी इसी समझ के कारण तालाब किसी की व्यक्तिगत संपत्ति ना होकर हमारे समूचे गांव या मुहल्ले के होते थे। हर कोई उसके मरम्मत वगैरह में बराबर सहभागी होता था। अब जबकी तालाबों का संरक्षण गांव की सार्वजनिक भूमिका के बजाय ग्रामसमाज और उसके सरकारी बजट के दायरे में आ गया है तो फंड, उपेक्षा और भ्रष्टाचार के कारण ये तेज़ी से उपेक्षित होकर धीरे धीरे हमारे खेतों, घरों या किसी अन्य स्ट्रक्चर में समाते जा रहे हैं। यह स्थिति दिन ब दिन भयावह होती जा रही है।



बुंदेलखंड, विदर्भ से लेकर उन क्षेत्रों में भी सोखे की खबरे आ रही हैं जहां जल संरक्षण के इन स्रोतों के कारण परंपरागत सूखे के दिनों में भी फसलें उगाना संभव था। अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत और स्थानीय प्रयासों से इनके संरक्षण और विस्तार के उपाय हो रहे हैं, पर ये अभी बहुत छोटे स्तर पर ही चल रहे हैं। पिछले दिनों जब ये खबरें आईं कि सरकारी प्रयासों से इनकी संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, मेरा ध्यान अचानक अपने गांव के इन परंपरागत स्रोतों की ओर चला गया और मैंने पाया कि पिछले दस सालों में हमारे गांव में जलाशयों की संख्या लगभग 1/10 रह गई है। इनमें से कुछ सूखकर किसी के खेत बाग या घर के दायरे में आ मिले और कुछ जो बच रहे थे वे सरकारी अनदेखी की वजह से सूखते गए। इस तरह गांव की परिधि बनाने वाले जलाशय गांव के भौतिक विस्तार की भेंट चढ़ गए।



इस तरह इन सांस्कृतिक इकाइयों का मारना हमारे लिए खतरनाक है। इनके बिना भारतीय संस्कृति या मानवीय संस्कृति की कल्पना वैसे ही असंभव है, जैसे अ के बिना व्यंजन वर्णों का उच्चारण। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक व्याकरण को बचाने के लिए जलाशयों का संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा निकट अतीत में मानव संस्कृति का निष्प्राण होना सुनिश्चित सत्य है।



https://www.youthkiawaaz.com/2017/10/dying-water-sources-is-a-huge-worry/

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास

मध्यकाल में केशवदास नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए । उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं । अपने समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई। वे राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था कि भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था कहीं-न- कहीं उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को अस्वीकार करता है । कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी जुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं।
          कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है । यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है । पुराने जमाने के राजा,सामंत या दरबारी ही नहीं आधुनिक युग के धनाड्य, पूंजीपति, नेता और अधिकारी भी ऐसा ही व्यवहार कराते हैं । कभी संस्कृत या फारसी की जो स्थिति थी वही आज अङ्ग्रेज़ी की है । यह वर्ग सामान्य जनता से अपने को अलगाने और जन सामान्य पर अपना रोब गाँठने के हथियार के रूप में भाषा का इस्तेमाल करता है और एन-केन प्रकार से भाषा के आधार पर अपना वर्चस्व कायम रखने की हर संभव कोशिश में लगा रहता है। उयाके लिए भाषा जीवन और अनुभूति का सवाल नहीं होती, बल्कि सामाजिक वर्चस्व का एक मजबूत हथियार होती है । दुर्भाग्य यह रहा कि हमारे देश की आजादी के बाद भाषा के सवाल को हल करने की ज़िम्मेदारी इसी अभिजात वर्ग के हाथों में थी; चाहे वे राजनैतिक और प्रशासनिक दुनिया के लोग हों या अकादमिक दुनिया के लोग। वे अङ्ग्रेज़ी पढे-लिखे लोग थे। जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि अङ्ग्रेज़ी उनके लिए सुविधा की भाषा थी, गलत है। अङ्ग्रेज़ी उनके लिए वर्चस्व की भाषा थी। वे अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए  अङ्ग्रेज़ी के प्रभुत्व को कायम रखना चाहते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह अंतरराष्ट्रीय संवाद की भाषा है और दुनिया के ज्ञान का साहित्य इसी भाषा में रचा गया है। उससे परिचित होने के लिए हमें अङ्ग्रेज़ी का बोध होना जरूरी है।  पर, क्या यह सही नहीं है कि कुछ सदियों पुरानी इस भाषा ने दुनिया की सभी भाषाओं पर वर्चस्व अनायास केवल हथियार के बलपर हासिल नहीं किया, बल्कि  उसके लिए खून-पसीना भी बहाया, खाक भी छानी । अरबिक, ग्रीक और संस्कृत माध्यमों में उपलब्ध ज्ञान के पुराने साहित्य का उल्था भी किया । दर्शन, भूगोल और विज्ञान आदि के जर्मन और फ्रांसीसी विद्वानों के विचारों को भी अपनी भाषा में सुलभ बनाया । जाहीर है ऐसा करने वाले समाज के विशिष्ट और सुविधा सम्पन्न लोग ही थे । भारतीय अभिजात वर्ग के लोगों की तरह । यदि ये लोग भी दुनिया के इस साहित्य के ज्ञान को अपने व्यक्तिगत या वर्गीय वर्चस्व का माध्यम बनाए रखना चाहते तो अवश्य अपनी अनुवाद नहीं करते। यह समझना आसान है कि भारतीयों की तरह अन्य भाषाओं के टर्मो के अनुवाद करने में उन्हें मुश्किल आई होगी और उन्हें लोकप्रिय बनाना भी बहुत आसान नहीं रहा होगा। लेकिन, यह काम केवल इस लिए हो सका कि वे अपनी भाषा से प्रेम कराते थे । उन्हें उसकी पहचान की चिंता थी या अपने अतिलघु इतिहास के बावजूद समझ सकते थे कि उनकी सांस्कृतिक पहचान उनकी भाषाई अस्मिता से अनिवार्यतः जुड़ी है और भाषिक समृद्धि ही उन्हें सांस्कृतिक पहचान देगी, वर्ना ग्रीक और रोमन संस्कृतियों के सामने उनकी शिशु-संस्कृति का भला क्या वजूद ? अपनी इस पहचान की चिंता, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से लगाव ही उन्हें वैश्विक स्तर पर भाषाई वर्चस्व देने में कामयाब हुआ।
          भारत की स्थिति इसके ठीक उलट है। यहाँ हमारे अपने पुराने सांस्कृतिक इतिहास पर सीना फूलाने की पर्याप्त सुविधा है, ब्रिटेन की तरह हम सांस्कृतिक रूप से फकीर नहीं हैं । हमारा अभिजात वर्ग इसे जनता है और जब-तब अपने सीने चौड़े करके इसका दंभ भी भरता है, लेकिन बात जब उस सांस्कृतिक पहचान को नयापन देने की होती है, तो वह आधुनिक विश्वभाषा औरहमें  ज्ञान-विज्ञान की शरण में जा खड़ा होता है और इनकी दुहाई देता हुआ यह दावा करता है कि भारतीय भाषाओं में इस तरह का ज्ञान अनुपलब्ध है। इसलिए हमें अनिवार्यतः अङ्ग्रेज़ी की शरण में जाना होगा। गोया भाषा ज्ञान का माध्यम न हो, स्वयं ही ज्ञान का सृजन करती हो और अङ्ग्रेज़ी अपने जन्म के साथ ही सारा ज्ञान-संभार लेकर पैदा हुई हो। आधुनिक भारतीय भाषाएँ एक समृद्ध सांस्कृतिक उत्तराधिकार के बावजूद आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से कंगाल हैं, यह बात हमें स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं, लेकिन मुझे आपत्ति इस बात पर है कि इतना सांस्कृतिक उत्तराधिकार, इतनी विभिन्नता और इतना भाषाई वैविध्य होने के बावजूद हमारी कोई भी भाषा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने में सक्षम क्यों नहीं हुई? भाषाई राजनीति के कारण? नहीं, यह भाषाई वर्चस्व बनाए रखने का एक हथियार-भर है। इसमें भाषा को समझ, बोध या राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न से जोड़ने के बजाय भावनात्मक उबाल को बढ़ाने के एक जरिया के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, ताकि ये प्रश्न उसके भाप में सहज ही उड़ा दिए जाएँ ।

                   विडंबना यह है कि यह शाजिश भाषा-निरपेक्ष है। इसमें क्या हिन्दी, क्या बंगला, क्या तमिल— सभी भाषाओं के अभिजातवर्गीय लोग शामिल हैं जो समाज पर भाषा के सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए भाषाई आंदोलन भुस के पुतले साबित हुए हैं । हाँ इन्होंने इन वर्चस्ववादियों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक ज्ञान को पहुँचने से रोकने के लिए एक सेफ़्टी वाल्व जरूर दे दिया है । भसहा दिवस माने और सरकारी आयोजनों में आपनी जैसा फैसी बहाने से अधिक जरूरी है इन सेफ़्टीवाल्वों के चरित्र का उदघाटन और ज्ञान के साहित्य की भारतीय भाषाओं में सुलभता को सुनिश्चित करना। इस विश्वहिंदी दिवस पर यह संकल्प ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी । 

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती


भारत में जातिगत विद्वेष के आधार पुराने हैं, न केवल विभिन्न वर्णों के भीतर बल्कि एक ही वर्ण के भीतर भी । वस्तुतः जातियों का उदय ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता के कारण हुई । सच तो यह है कि न तो जाति और न ही वर्ण कभी स्थिर रहे हैं । इसके प्रमाण तैतरीय उपनिषद, महाभारत-संहिता के शांति-पर्व, मनुस्मृति आदि तमाम पुराने ग्रन्थों में बिखरे पड़े हैं । पूरी मनुस्मृति को अगर अच्छी तरह पढ़ा जाय तो हम पाते हैं कि उसमें एक छटपटाहट है, न कि व्यवस्था का पालन कराने का बल। मनु ने जिस तरह जाति और वर्ण की पूरी व्यवस्था रची है, वह मार्गदर्शक कम पीड़ा-व्यंजक अधिक है । इसमें एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा और छटपटाहट है, जो असफल है। जो कुछ सहेजना और बचाना चाहता है, लेकिन असफल है । 
इसलिए जहां-तहां तिक्त और कठोर व्यवस्थाओं की बात करता है । यह तिक्तता और कठोरता ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता की गवाह और उसे बचाने की चाहत रखने वालों की असहायता को व्यक्त करती है। यादी उसका ईमानदार पाठ किया जाय तो इसतरह के रूढ़िवादी वर्ग की असफलता उसमें साफ महसूस की जा सकती है, जो वर्णव्यस्था को बल-पूर्वक लागू करना चाहता है । 
जब ऐसा नहीं कर पाता तो वह जातियों की व्यवस्था देता है; उदाहरण के लिए क्षत्रिय और शूद्र के सम्मिलन से नाई जाति और ऐसी ही तमाम जातियाँ । मनु शुद्धतावादी हैं जरूर, लेकिन यह शुद्धता समाज में नहीं है, इस बात का भी प्रमाण उनके लिखे से हमें मिलता है । यह बात उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि मनु ने क्या व्यसथा दी है । वह व्यसथा मनु द्वारा रचा गया उनका एक आदर्श है, न कि सामाजिक यथार्थ । सामाजिक यथार्थ तो वह है जिसके समानान्तर मनु इसकी रचना कराते हैं और वह यथार्थ है सांजीक शिथिलता ।
       मनु स्मृति या महाभारत एक ही समय की रचनाएँ हैं, यह तथ्य प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता पर एक बात प्रामाणिक रूप से कहीं जा सकती है कि दोनों के रचना काल में वर्णशंकरता थी। 
शांति पर्व में युद्धधिष्ठिर भीष्म से शिक्षा लेने जाते हैं तो भीष्म उनसे यह पूछते हैं कि आप किसी के वर्ण का निर्णय कैसे करेंगे? युधिष्ठिर का सीधा जवाब है कि उसके गुणों से क्योंकि सभी वर्णों में वर्ण शंकर हैं । इसी तरह मनु भी समूची जाति-व्यवस्था की बात करने के बाद हथियार डालते हुए से कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि जाति और कूल से हीं हो और कर्म से उत्तम तो उसे उसके कर्म से जानाना चाहिए ।
       सवाल यह है कि हम इतिहास का पाठ केवल उसके नकारात्मक पक्षों को उभारने और टकराव पैदा करने के लिए ही क्यों करते हैं, उस समय के उस सच को तलाशने की कोशिश क्यों नहीं करते जो हमारे लिए अधिक प्रासंगिक हैं। उन कृतियों को छोड़ दें तो 
ठेठ नवजागरण का दौर ही देखें तो दक्षिण से उत्तर तक अनेक निचली कही जाने वाली जातियों ने अपना जाति उन्नयन और वर्ण उन्नयन किया है । 
बंगाल और बिहार की कायस्थ जाति कभी शूद्र मानी जाती थी, नवजागरणके दौर में इसने अपना उन्नयन कर क्षत्रियत्व का दावा पेश किया । इसी तरह बिहार उत्तरप्रदेश की एक जाति भूमिहार जो वर्ण व्यस्था की दृष्टि से कहीं भी उल्लखित नहीं होते, लेकिन इसी दौर में उसने भी अपने ब्राह्मणत्व का दावा पेश किया । दक्षिण भारत कुछ जातियों में आधे लोग जो सशक्त थे ब्राह्मणत्व के उच्च सोपान पर जा पहुंचे और दूसरे शूद्र बने रहे । 
स्वयं ज्योति बा फुले क्षत्रियत्व का दावा पेश करते हैं और उनके अनुयायियों का एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश में क्षत्रिय के रूप में स्वीकृति पाने में सफल भी रहा । गुजरात के पाटीदार अभी हाल ही में चर्चा में थे ।
    समाज जाति और वर्ण की लौह शृंखला में न पहले जकड़ा था और न अब जकड़ा जा सकता है। उसका लचीलापन और नमनीयता पहले भी उसका प्रांतत्त्व थी और अब भी है । हाँ ऐठने वाले तब भी थे अब भी हैं। मनुओं की जमात हर समय में पायी जाती रही है । दुर्भाग्य वश इस प्रवृत्ति को अधिक बढ़ावा ब्रिटिश काल में तब मिला जब मनुस्मृति को द जेन्दू लॉज के नाम से अनूदित कर हिन्दू धर्म और समाज का एक मात्र नियामक ग्रंथ बना दिया गया, अन्यथा प्रमाण तो याज्ञवल्क्य स्मृति और वृहस्पति संहिता के भी मिलते हैं, जो हिन्दू समाज संहिता के ग्रंथ थे। इसके साथ ही यह मान लिया गया कि हिन्दुत्व/ भारतीयता का सीधा अर्थ है जाति व्यवस्था । जो गलत था । और इस भ्रम का प्रचार आरत ही नहीं पूरी दुनिया में यूरोप के ज्ञानिजनों द्वारा फैलाया गाया। एक दौर में भारत पूरे यूरोप के लिए एक अजायब घर था । जहां वे तमाशा देखने आते थे । इसलिए संपेरे, जादूगर, पोंगा पंथी पंडितों और जाति-पांति के अंबार ही उन्हें दिख सकते थे । दुभाग्य से हमने आधुनिक काल में अपने समाज को देखने की आँख भी वहीं से पाई । इसलिए हमें भी वही दिखा ।
       
मुझे लगता है कि शायद गीता के बाद आज का युवा जिस एक ग्रंथ को सबसे ज्यादा जानता है तो वह है मनुस्मृति । भले पढ़ा है या नहीं। बल्कि, व्यक्तिगत तौर पर मेरा तो दावा यह है कि वह गीता से भी अधिक उसका नाम जानता है, खासकर सोशल मीडिया के दौर में । जहां सारा ज्ञान यहीं से प्राप्त होता है । इसका श्रेय भी यूरोप और उसकी आँख को ही है । उसने नए ज्ञानानुशशनों के उदय के साथ हम सभी को स्पेशलाइज्ड कर दिया और ज्ञान की अखंड सत्ता जिसे बौद्ध जीवन-दर्शन सम्यक कहता है, के लिए स्पेस लगभग खत्म हो गया । हमारे जीवन और ज्ञान की एक सीमा है और उसमें रहते हुए हम उतना ही पढ़-समझ सकते है, जितना कि हमारी सामनी जरूरत है। इसके अतिरिक्त जो भी है, उसे हम स्केन्द्री सोर्स से जानने के लिए बाध्य हैं। 
       
आजादी के बाद के राजनीतिक-परिदृश्य ने इस समूची समझ को और अधिक जटिल बनाया। जाति और उपजातियों में बनते हुए समाज को नए सिरे से वर्गीकृत कर नए तरह की वर्णव्यवस्था गढ़ी जो अधिकांशतः सुविधानुकूल और सोद्देश्य थी, खासकर पिछड़ी जातियों के मामले में। 
सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के औचित्य से जो नई व्यस्था तैयार की गई उसकी विडम्बना ही यही थी कि वह केवल पूर्वानुमानों, आग्रहों और राजनीतिक हितों पर आधारित थी । इस प्रक्रिया ने जातियों के ध्रुवीकरण को और तेज किया । जो जातियाँ राजनाइटिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से सशक्त होकर भी इस व्यवस्था की लाभ पाने वाली जातियाँ बनीं, उन्होने अपने वर्ग का झण्डा उठा कर नेतरितत्व ही नहीं किया उसकी आड़ में अपने हित का साधन भी किया । अपने ही वर्ग के भीतर की जातियों के विकास की शर्त पर अपना विकास किया।
       वर्ण और जाति निश्चित तौर पर एक लचीली व्यवस्था के रूप में समाज में विद्यमान थे। उनमें अंतरण की छूट सामान्यतः नहीं थी, लेकिन जतियों की जातियाँ वर्णान्तरित हुईं । इसका कारण यह था कि व्यक्तिगत रूप से भले अंतरण आसान नहीं रहा हो, पर सामूहिक अंतरण की प्रक्रियाँ चलती रही हैं । 
अनेक ग्रन्थों में ब्रात्य कही जाने वाली जाति दूसरे अनेक ग्रन्थों में क्षत्रियादि जातियों में शामिल हैं। यदि रगुवंशम के रघु-दिग्विजय और महाभारत के युद्ध के राजाओं के परिचय की तुलना की जाय तो यह बात बहुत साफ हो सकती है । यही नहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी जात्यांतरण का उदाहरण अनेकशः उपलब्ध है और इसके लिए संघर्ष की गाथाएँ भी। इन्हें समझने के लिए जरूरी है कि केवल पुस्तकों के सुविधाजनक पाठ न किए जाएँ, उनके अंतरपाठीय संदर्भों से भी गुजारा जाय और उन्हें एक सही ऐतिहासिक पाठ का रूप दिया जाय, अन्यथा हमारी पीढ़ियाँ खुद को एक कलंकित इतिहास की संतानों के रूप में ही देखेंगी। यह उनके इतिहास से मोहभंग का कारण होगा । दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं ।