गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं । 

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

खुले में शौच सवाल ज्यादा जवाब कम



खुले में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है, उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार को शौचालय निर्माण प्रचार के साथ या भी बताना चाहिए कि मल-जल के प्रवाह के लिए उसने क्या क्या प्लान तैयार किए हैं और कितना लागू किया है ? खेतों में अपघटित होने वाले अपशिष्ट की तुलना में बिना ट्रीटमेंट के नदियों में बहने वाला यह दूषित जल कितना अधिक फायदेमंद होगा ? कितने गांवों में सरकार ने सीवर की व्यवस्था की है ताकि शौचालयों के टैंक से निकलने वाला दूषित जल खुली नालियों में बहकर आस-पास गन्दगी न फैलाए। गाँव के पुराने जल केंद्रीकरण के स्रोत (गड्ढे,ताल,पोखरे, सामुदायिक जमीन आदि) दबंगों के कब्जे में गई। फिर बाधा हुआ पानी कहाँ जाएगा ?

सोमवार, 5 जून 2017

पर्यावरण, संस्कृति और हम

·       राजीवरंजन


आज पर्यावरण दिवस है । दुनिया भर के लोगों का एक साथ मानव और प्रकृति के रिश्ते को याद करने का दिन। संसाधनों को भावी पीढ़ी के लिए बचाने के लिए आह्वान करने का दिन । हमारे देश-गाँव के तमाम लोगों को इसके बारे में अब भी बहुत पता नहीं है । वे नहीं जानते की यह पर्यावरण दिवस क्या है ? मीडिया के खबरों से जानते भी हैं तो हद से हद उसे पढ़कर भूल जाते हैं। यह एक सच बात है। इसमें न उनका दोष है, न मीडिया का और न 5 जून को पर्यावरण दिवस घोषित करने वाले और मानाने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ का। फिर, किसका दोष है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है, लेकिन इसका उत्तर बहुत जटिल है जो कहने या बताने से कहीं अधिक महसूस करने से पाया पाया जा सकता है।
                सदियों पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस करोड़ देवताओं में सब हैं वर्षा के देवता मेघवान, परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संताने हैं, जिसके साथ क्रीडा कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाय तो क्या यह कल्पना प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति नहीं है ? निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएं थीं और उन सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया, वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएं टूट चुकी हैं, तब हम चाहें तो  उसे ही पदार्थ कह लें। यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य  रहा है; उन्होंने पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची सृष्टि पंचतात्विक है, मानुष्य भी और पेड़-पौधे भी। अगर दायरा थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या का था। वहाँ पाँच नहीं केवल चार तत्त्वों की बात की गई है; पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि। आकाश उनके चिंतन में अनुपस्थित है। यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी और भारतीय खगोलविद बराहमिहिर ने यूनानियों को उनके खगोलीय ध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है। फिर भी, आकाश को अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या ये संदर्भ में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ?  निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है। प्रकृति और मनुष्य के बीच का अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है। बाकी, अनुभूतियाँ तो सब में होती हैं। मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है।
                हमारी परंपरा और संस्कृति में यह समझ बहुत गहरी रही है। भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ईशावस्य उपनिषद का पहला मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है— इस पृथ्वी पर जो भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है। इसलिए हमें त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो। त्याग पूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके प्राप्य का त्याग हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव।  दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है। एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के संबंध में लिखा है। उन्होंने हिंदस्वराज में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी भूख होती थी , लेकिन अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह भी मनुष्य में बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी। गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है। गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और  मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है। सच कहा जाय तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी। संभव है उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें अपनी उस लोभवृत्ति और हिंसावृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंक लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव उपस्थित रहता है।
                भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी इस साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यती। यह देवस्यकाव्यं है क्या ? प्रकृति। उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिये हैं। यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती हो। चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट, तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास, सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल। सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं तो इनके युग भी तो अलग हैं और हर युग की अलग संवेदना होती है, यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजन नहीं लगती कि कविता आदिम मानुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है। आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं। यह गद्यात्मकता कविता की तुलना में आसान-सी दिखती है, पर है नहीं। इसने निरंतर मनुष्य को  उसकी सहजात वृत्तियों की अभिव्यक्ति से उसे रोका है। यह सच है कि हम बोलते गद्य में हैं, कविता में नहीं। लेकिन, हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है। यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से  में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं। आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है।  उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा। आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए  शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात करते हैं— संगीत और व्यायाम। व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो। अपनी सार्थकाता के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता तथा मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य  दोनों ही मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं। इन दोनों से दूरी मनुष्य को कृत्रिम बनाती है।
                 जैसे ऊपर से सपाट और निर्लिप्त सा दिखने वाला मनुष्य भीतर से उतना ही जटिल और कृत्रिम होता है, उसी तरह गद्य भी ऊपरी आवरण में सपाट और सरल होते हुए भी अपनी बुनावट में तमाम जटिलताओं को समेटे रहता है और इसीलिए आधुनिक जटिल मनुष्य के लिए यह माध्यम अधिक प्रिय रहा है। कविता में वह अपने को छिपा नहीं सकता, लेकिन गद्य में भाषा के आवरण के भीतर वह अपने को समूचे रचना कर्म में छिपाए रख सकता है। कथनी और करनी के भीतर के अभेद की जितनी सटीक अभिव्यक्ति कविता में होती है, गद्य में बिलकुल नहीं हो सकती। इसीलिए यह प्रकृत नहीं है और जो प्राकृत नहीं है, वह प्रकृति के साथ तादात्म्य की अभिव्यक्ति भाला कैसे करेगा? इसीलिए कविता से दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रकृति से भी हमारी दूरी निरंतर बढ़ती गई। आज फिक्सन का युग है। कविता ही क्यों नाटक, निबंध आदि गद्य की तमाम विधाएँ भी हाशिये की ओर खिसक रही हैं। दरअसल एक छद्म की सृष्टि जितनी आसानी से फिक्सन में संभव है, उतनी दूसरी किसी गद्य विधा में भी नहीं।  यह बात अलग है कि अपने उदय के साथ ही कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति का जिस तरह का दावा किया, वह न भूतो न भविष्यति है। यथार्थ की वारिस होने का दावा करने वाली यह विधा वस्तुतः यथार्थ के ऊपरी आवरण में उलझी रह जाती है और उसकी भीतरी परतों तक उतर ही नहीं पाती। इस आंतरिक यथार्थ की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति या तो काव्य और सबसे अधिक गीतिकाव्य में संभव है, या फिर नाटकों में और ये दोनों ही आदिम विधाएँ हैं। आदिम जीवन का अर्थ केवल पिछड़ा जीवन नहीं होता, वह मानव जीवन की सहजता की भी पहचान है। इसीलिए गद्यकारों की तुलना में कवियों के यहाँ प्रकृति के प्रति आत्मीयता और लगाव अधिक दिखाई देते हैं। कवि इन्हीं अर्थों में कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू है। संस्कृत साहित्य में गद्य और पद्य दोनों को काव्य और दोनों के रचने वाले को कवि कहते थे, पर यहाँ कवि का सीमित अर्थ ही लिया जा रहा है; क्योंकि हिंदी गद्य संस्कृत गद्य से अपनी बनावट और संवेदना से पर्याप्त दूर है।
                प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह एकात्म, ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान, दर्शन या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही विकसित और पुष्ट हुआ है और दार्शनिकों, कवियों और चिंतकों ने वहीं से उपजीव्य ग्रहण किया इसलिए वे उसके कर्जदार हैं। हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं। लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं। वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और पीपल, बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं। ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले बच्चे के लिए वह बट दादा है,  सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़ पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रश्म है पित्तर नेवतल अर्थात पितर-गण को निमंत्रण।  तिलक के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य रश्में होती हैं जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं। इन अनुष्ठानों में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है।  यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है जो अब अवशेष मात्र बनकर महिला संगीत के शार्टकट फार्म और मेंहदी की नव-आयातित सेलिब्रेशन संस्कृति के हवाले हो चली है ।  

                आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते में तेजी से गिरावट आई है। इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और और प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है। अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय हो गई है। ये दिल मांगे मोर के फलसफे वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या जरूरत। हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं की इन पर्वतीय अंचलों, समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं, हम अपनी ही आबो हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका  दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है की पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है। इसलिए इनके बिना पर्यावरण सुरक्षा एक मोहक स्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। 

पर्यावरण दिवस

टिप्पणी : आज विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) है । हमारी प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है । अन्न,जल,वायु,तेज ही नहीं, कला, संगीत, चिंतन और साहित्य जैसे चेतना की अभियक्ति उच्चतर माध्यमों के विम्ब,प्रतीक और लय,गति,यति और कल्पना (वैज्ञानिक खोजों/स्थापनाओं की पूर्वपीठिका परिकल्पना भी) आदि भी उसी का दान हैं। हम अपने भौतिक और चैतन्य दोनों रूपों में इसके ऋणी हैं । हमें इसका आभारी होना चाहिए, तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और संरक्षण शील होना चाहिए । इसी संकल्प के साथ पिछले लगभग एक महीने के में लिखे गए तीन लेखों की एक शृंखाला (नवभारत,भोपाल) का यह तीसरा लेख अपने मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत है ।







कुबेरनाथ राय : स्मृति की कुछ धुंधली रेखाएँ



कुबेरनाथ राय ललित निबंध के अमिट हस्ताक्षर । यों, एक लेखक से पहले उनसे मेरी मुलाक़ात एक व्यक्ति के रूप में ही हुई । मुलाकातें पहले भी हुई होंगी, पर उनकी स्मृतियाँ मेरे मानस से लुप्त हैं, केवल एक को छोड़कर जिसकी एक हल्की-सी स्मृति आज भी मन के कैनवास पर अंकित है । एक व्यक्ति के रूप में उन्हें याद करने और जानने का अवसर मेरे पास केवल उसी एक स्मृति की कुछ रेखाओं को टटोलने से संभव हो सकता है । वे भी बहुत धुँधली हैं। तब मैं बहुत छोटा था और माँ के साथ अपने ननिहाल गया था । बचपन में मेरे आस-पास के लोगों में ख्याति अस्थिर-चित्त चंचल बच्चे के रूप में ही अधिक रही है, बड़ों की डांट का मैं तब अभ्यस्त हो चुका था । इसके विपरीत उनके परिवार के बच्चों (उनकी पौत्री अपराजिता और पौत्र अनंत विजय जो मुझसे क्रमशः डेढ़ साल बड़ी और  दो साल छोटे हैं) की गिनती एक सौम्य, संयमित और समझदार बच्चों में होती थी । इसलिए उस परिवार में मेरी चंचलता लोगों को खटकती थी (इस खटकने में उनलोगों का अतिरिक्त स्नेह और सावधानी शामिल भी थी), अवश्य ही, बड़ी मामी को छोड़कर । एक पुरानी कहावत को याद करूँ; जिस तरह कंधे पर बैठी बाल-वधू को किसी पंडित जी ने याही में बेटा, याही में बेटी बताया था, कुछ उसी तरह मैंने उन्हीं में नानी और उन्हीं में मामी देखा था और पाया भी। बाद के दिनों में मेरा मतसा (कुबेरनाथ राय का गाँव) जाने का आकर्षण, वे ही होती थीं । कुछ संयोग ही है कि उनके अंतिम समय और उनके जाने के बाद के अब तक मैं वहाँ न जा सका । यह अवांतर प्रसंग है अवश्य, लेकिन मेरी उस मुलाक़ात की पृष्ठभूमि में यह सब भी शामिल था । शायद, अन्य लोगों के अतिरिक्त स्नेह और चिंता के कारण ही मेरा संकोची मन उनके भी बहुत पास न जा सका और स्मृतियाँ बहुत गहरी न बन पाईं । तब तक बड़े मामा यानी स्वर्गीय कुबेरनाथ राय नलबारी (असम) से अध्यापन छोड़कर गाज़ीपुर में प्राचार्य का पद ग्रहण कर चुके थे और रविवार की छुट्टी बिताने घर-परिवार के पास मतसा आ जाते । मैं जिस मुलाक़ात का जिक्र कर रहा हूँ, वह शायद सप्ताह के बीच के किसी दिन की शाम थी । वे माँ को घर आया जान कर गाजीपुर से घर आए थे । माँ उनकी सबसे छोटी बहन हैं और उन्हें पुत्री की तरह प्रिय भी थीं । मैंने उन्हें पहली बार उनके घर के पूरबी बरामदे में देखा था, जहां दुआर और घर के बीच का प्रवेश द्वार पर । मैंने उनका पैर छूआ और बिना आशीर्वाद या किसी संवाद का इंतजार किए किसी दूसरी ओर भाग गया । इस तरह हमारे बीच की यह पहली मुलाक़ात अबोली ही रही । रात की कोई खास बात मुझे याद नहीं । सुबह मेरे जगाने तक वे फिर वापस गाजीपुर चले गए थे । उसके बाद केवल उनकी बातें ही सुनता रहा । एक बार ननिहाल गया भी तो दो-एक दिन में माँ के साथ वापस आ गया । अबकी मेरी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई । यों, पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में माँ भी मायके कम ही जा पातीं थीं । अगर कभी जातीं भी थीं तो अकेले क्योंकि मैं उनके साथ नहीं रहता था । इस पहली मुलाक़ात के समय संभवतः मेरे उम्र साढ़े चार साल थी और इस उम्र के बाद आज तक मैं हमेशा माँ से दूर ही दूर रहा हूँ ।
      उसके बाद उनसे बस एक ही मुलाक़ात हुई । वह भी तब, जब वे रिश्ते से एक पार्थिव शरीर में बदल चुके थे । वह आज ही की तिथि थी । 5 जून 1996 । तब मैं अपने छोटे मामा के घर उनके नवासे पर था और रात बारह बजे मझले मामा की बीमारी की सूचना मिली थी । सुबह हम सब लोग भागते हुए मतसा पहुंचे थे और देखा मझले मामा सामने स्वस्थ बैठे थे, लेकिन चेहरा उदास था । किसी अनहोनी की की आशंका से हमारे कलेजे अचानक कुछ पलों के लिए धड़कना भूल गए थे । बगल में बरामदे में चौकी पर लिटाया हुआ बड़े मामा का पार्थिव शरीर एक दम शांत था । वे पिछली रात की आरंभिक बेला में ही चिर-निद्रा में जा  चुके थे, फिर भी देखने पर ऐसा लगता था, जैसे अभी उठकर बोल पड़ेंगें । हम स्तब्ध थे । उनके गाजीपुर से सेवानिवृत्ति का अभी यह पहला ही साल था और वय भी मात्र 63 साल । 63 साल मात्र इसलिए कि उनका जीवन नितांत संयमित था और प्रायः निरोग भी । आसान, व्यायाम और प्राणायाम उनकी दिनचर्या का अनिवारी हिस्सा था, वैसे ही जैसे ध्यान और पूजा । उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित थी । इसीलिए उनके लेखन में शाक्त परंपरा, तंत्राचार और और चंडी तथा कामाख्या का उल्लेख तो बार-बार आता है, लेकिन अपने आचार-व्यवहार में वे पूर्णतः वैष्णव थे । स्नेहिल, शांत और संयमित ।
      शायद इस अबोले परिचय की ही देन है कि मैंने हमेशा उन्हें उनकी पुस्तकों में खोजने की कोशिश की । उनसे मेरा वास्तविक संवाद उनकी पुस्तकों के रास्ते ही होता गया । ज्यों-ज्यों उनके करीब जाता गया, यह महसूस करता रहा कि उनका नैकट्य सहज तो है, पर संयम मांगता है । स्नेहिल तो है, पर है बड़ा शांत । कुछ संकोची भी है, खासकर अपने बारे में । इसीलिए अपने लेखन में मैं की बात करते हुए भी, वह अपने मैं के प्रति पर्याप्त सजग होकर चलता है । लालित्य उनके लेखन के पोर-पोर में बसा है, लेकिन बहुत शांत और गंभीर रूप में संप्रेषित होता है । एक बाहरी आदमी की तरह उनको पढ़ना, समझना उस लालित्य से वंचित होना है । उस लालित्य का पान एक संयमित और शांत मन से नैकट्य अर्जित करके ही किया जा सकता है । वहाँ क्षिप्रता, चंचलता और उद्वेग के लिए कोई स्थान नहीं है । उनके लेखन में यदि कहीं आदिम आखेट-वृत्ति जागृति भी होती है तो वह रस का आखेट करेगी, न कि एषणा-प्रेरित ऐंद्रिक सुखों का । उनमें कहीं अभिसार की सुप्त आकांक्षा भी जागृत होती है तो उसके लिए वहाँ दृष्टि-अभिसार से अधिक की गुंजाइश नहीं । उसके प्रेम की अभिव्यक्ति भी उत्तराफाल्गुनी के नाम पत्र में ही होगी, किसी प्रेयसी के लिए नहीं । उनके लिए इस प्रकृति का समूचा स्त्री-तत्व या तो देवी है या माँ, बहन और पुत्री । प्रेयसी तो केवल एक ही है, प्रकृति । जिसके प्रति अनन्य राग उनके साहित्य में जहाँ तहां फूट पड़ते हैं । यह राग भी बंगाल और आसाम की आबो हवा से आया या उनके भीतर बैठे संस्कारी किसान मन की सहज अभिव्यक्ति कहना मुश्किल है । ब्रह्मपुत्र और बंगाल की धरती से उनका नाता केवल शिक्षा और नौकरी तक का नहीं था, वह उससे कहीं गहरा था । उनकी पत्नी बंगाल की ही थीं, उनके पूर्वज बहुत पहले बलिया से बंगाल जा बसे थे । मालदा जिले में उनके पिता की जमींदारी थी और विवाह से पूर्व का उनका पूरा समय बंगाल में ही बीता था । इसलिए वे अपने रूप और संस्कार में नब्बे प्रतिशत बंगाली थीं। कहीं-न-कहीं इसका प्रभाव भी कुबेरनाथ राय की चेतना पर अवश्य रहा होगा । तभी उन्हें बाउलों के गीत और शंकर देव की कविताओं के साथ काली और कामाख्या; अर्थात वैष्णव और शाक्त भावबोध में संगति बैठाने में उतनी मुश्किल नहीं हुई होगी । वैसे, इन परस्पर दो विपरीत ध्रुवांतरों के बीच समन्वय का संस्कार उन्हें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से भी पर्याप्त मिला था । इसलिए वे अपने समूचे लेखन में इन दोनों को समन्वित रूप से लेकर चल सके हैं । उनका शील-बोध या सामान्य चलताऊ शब्दों में कहें तो नैतिक बोध इन्हीं तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ है । उनके लेखन में शील-बोध का जिक्र बार-बार आया है । शील गंधों अनुत्तरो उनका की प्रिय सूक्ति है । इसे उन्होंने बौद्ध चिंतन से ग्रहण किया है ।   

      यह सच है कि कुबेरनाथ राय के लेखन में वैसा सहज आमंत्रण नहीं है, जैसा हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों में है । उनमें उत्सुकता है, वैचारिक गहराई है, परंपरा और संस्कृति का गहरा बोध है अध्ययन का गहनाता है, लेकिन द्विवेदी जी की तरह भाषा के सूत्र में बाँधकर पाठक चेतना को ज्ञान या परंपरा के इस से उस टीले पर ले जाकर छोड़ देने की दक्षता नहीं है । उन्हें पढ़ते हुए खद्दर की खुरदुरे धोती कुर्ते में छिपे हुए एक सहज और संवेदनशील भारतीय मन का साक्षात्कार होता है । हाँ, कहीं-कहीं इस धोती-कुर्ते में छिपा हुआ अँग्रेजी अध्यापक भी सामने खड़ा होता है, जिसके ज्ञान और संदर्भों के खुले पिटारे के सामने पाठक की बुद्धि लाचार नजर आती है । उनकी भाषा का यह खुरदरापन और अँग्रेजी की अध्यापकी तभी तक नजर आता है, जबतक आपने अपने और उनके संकोच की दीवारें तोड़कर सहज आत्मीयता का रिश्ता नहीं बनाया है । यह रिश्ता अगर बन गया तो वे पक्के संघतिया की तरह हर ऊबड़खाबड़ जगह पर अपना हाथ बढ़ाए खड़े मिलेंगे । तब आपको पहल नहीं करनी होगी, उन्हें रुककर पुकारना नहीं होगा, पहल वे खुद करते चलेंगे। आपको बस अपना हाथ बढ़ाने का संकोच त्यागना होगा ।