खुले
में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है,
उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान
पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता
अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े
कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय
हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के
निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि
शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना
पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान
बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर
रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग
सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए
किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का
स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और
मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार को शौचालय निर्माण प्रचार के साथ या भी बताना चाहिए कि मल-जल के
प्रवाह के लिए उसने क्या क्या प्लान तैयार किए हैं और कितना लागू किया है ?
खेतों में अपघटित होने वाले अपशिष्ट की तुलना में बिना ट्रीटमेंट के
नदियों में बहने वाला यह दूषित जल कितना अधिक फायदेमंद होगा ? कितने गांवों में सरकार ने सीवर की व्यवस्था की है ताकि शौचालयों के टैंक
से निकलने वाला दूषित जल खुली नालियों में बहकर आस-पास गन्दगी न फैलाए। गाँव के
पुराने जल केंद्रीकरण के स्रोत (गड्ढे,ताल,पोखरे, सामुदायिक जमीन आदि) दबंगों के कब्जे में गई।
फिर बाधा हुआ पानी कहाँ जाएगा ?
सोमवार, 2 अक्टूबर 2017
सोमवार, 5 जून 2017
पर्यावरण, संस्कृति और हम
·
राजीवरंजन
आज पर्यावरण दिवस है
। दुनिया भर के लोगों का एक साथ मानव और प्रकृति के रिश्ते को याद करने का दिन।
संसाधनों को भावी पीढ़ी के लिए बचाने के लिए आह्वान करने का दिन । हमारे देश-गाँव
के तमाम लोगों को इसके बारे में अब भी बहुत पता नहीं है । वे नहीं जानते की यह
पर्यावरण दिवस क्या है ? मीडिया के खबरों से जानते भी
हैं तो हद से हद उसे पढ़कर भूल जाते हैं। यह एक सच बात है। इसमें न उनका दोष है, न मीडिया का और न 5 जून को पर्यावरण दिवस घोषित
करने वाले और मानाने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ का। फिर,
किसका दोष है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है, लेकिन इसका उत्तर बहुत जटिल है जो कहने या बताने से कहीं अधिक महसूस करने
से पाया पाया जा सकता है।
सदियों
पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा
याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब
निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस
करोड़ देवताओं में सब हैं— वर्षा के देवता मेघवान, परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के
कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे,
जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में
ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संताने हैं, जिसके साथ क्रीडा कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव
और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाय तो क्या यह कल्पना
प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति
नहीं है ? निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएं थीं और उन
सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया,
वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएं टूट चुकी हैं, तब हम
चाहें तो उसे ही पदार्थ कह लें। यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य रहा है; उन्होंने
पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची
सृष्टि पंचतात्विक है, मानुष्य भी और पेड़-पौधे भी। अगर दायरा
थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि
भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक
उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या
का था। वहाँ पाँच नहीं केवल चार तत्त्वों की बात की गई है;
पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि। आकाश उनके
चिंतन में अनुपस्थित है। यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में
यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी और भारतीय खगोलविद बराहमिहिर
ने यूनानियों को उनके खगोलीय ध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और
उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है। फिर भी, आकाश को
अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या
ये संदर्भ में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ? निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद
तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है। प्रकृति और मनुष्य के बीच का
अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है। बाकी, अनुभूतियाँ
तो सब में होती हैं। मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने
में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते
को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है।
हमारी परंपरा और संस्कृति में यह
समझ बहुत गहरी रही है। भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व,
अर्थात उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के
रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ईशावस्य उपनिषद का पहला
मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है— ‘इस पृथ्वी पर जो
भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है। इसलिए हमें
त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो।’ त्याग पूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके
प्राप्य का त्याग हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ
है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव। दूसरे शब्दों में, यह
सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना
चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है।
एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के संबंध में लिखा है। उन्होंने ‘हिंदस्वराज’ में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा
है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले
मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी भूख होती थी , लेकिन अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से
मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त
है। वस्तुतः यह भी मनुष्य में बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी।
गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है। गांधी ने यह
बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह
केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है;
उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का
अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई,
मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की
उपज और मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर
हिंसक प्रहार है। सच कहा जाय तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही
हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के
मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी
गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी। संभव है उनके शैशव का दम घोंटकर
उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें अपनी उस लोभवृत्ति और हिंसावृत्ति को रोकना होगा जिसकी
फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंक लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही,
अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव उपस्थित रहता
है।
भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी इस साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है—
‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यती।’ यह ‘देवस्यकाव्यं’ है क्या ? प्रकृति।
उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी
संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिये हैं। यह आश्चर्य नहीं कि भारत
के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा
सकती हो। चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट, तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास, सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल।
सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित
तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं तो इनके युग भी तो अलग हैं और हर युग की अलग
संवेदना होती है, यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर
भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की
परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में
यह उक्ति आश्चर्यजन नहीं लगती कि कविता आदिम मानुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की
दूरी बढ़ी है। आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी
संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं। यह
गद्यात्मकता कविता की तुलना में आसान-सी दिखती है, पर है नहीं।
इसने निरंतर मनुष्य को उसकी सहजात
वृत्तियों की अभिव्यक्ति से उसे रोका है। यह सच है कि हम बोलते गद्य में हैं, कविता में नहीं। लेकिन, हमारी मूल वृत्ति लयात्मक
है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है। यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के
किसी हिस्से में अकेले गुनगुनाते हुए
देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है जो नगरीय जीवन में थोड़ी
मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं। आधुनिक शिक्षा के तमाम
नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों
का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है। उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी
व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को
दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना
अधिक आसान होगा। आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य
(रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए शिक्षा में
आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात करते हैं— संगीत और व्यायाम।
व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों
द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत
ही एकदम निर्थक हो। अपनी सार्थकाता के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या
कविता का यादश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि
लयात्मकता तथा मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य दोनों ही मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं। इन
दोनों से दूरी मनुष्य को कृत्रिम बनाती है।
जैसे ऊपर से सपाट और निर्लिप्त सा दिखने वाला
मनुष्य भीतर से उतना ही जटिल और कृत्रिम होता है, उसी
तरह गद्य भी ऊपरी आवरण में सपाट और सरल होते हुए भी अपनी बुनावट में तमाम जटिलताओं
को समेटे रहता है और इसीलिए आधुनिक जटिल मनुष्य के लिए यह माध्यम अधिक प्रिय रहा
है। कविता में वह अपने को छिपा नहीं सकता, लेकिन गद्य में
भाषा के आवरण के भीतर वह अपने को समूचे रचना कर्म में छिपाए रख सकता है। कथनी और
करनी के भीतर के अभेद की जितनी सटीक अभिव्यक्ति कविता में होती है, गद्य में बिलकुल नहीं हो सकती। इसीलिए यह प्रकृत नहीं है और जो प्राकृत
नहीं है, वह प्रकृति के साथ तादात्म्य की अभिव्यक्ति भाला
कैसे करेगा? इसीलिए कविता से दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रकृति से
भी हमारी दूरी निरंतर बढ़ती गई। आज ‘फिक्सन’ का युग है। कविता ही क्यों नाटक, निबंध आदि गद्य की
तमाम विधाएँ भी हाशिये की ओर खिसक रही हैं। दरअसल एक छद्म की सृष्टि जितनी आसानी
से ‘फिक्सन’ में संभव है, उतनी दूसरी किसी गद्य विधा में भी नहीं।
यह बात अलग है कि अपने उदय के साथ ही कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति
का जिस तरह का दावा किया, वह न ‘भूतो न
भविष्यति’ है। यथार्थ की वारिस होने का दावा करने वाली यह
विधा वस्तुतः यथार्थ के ऊपरी आवरण में उलझी रह जाती है और उसकी भीतरी परतों तक उतर
ही नहीं पाती। इस आंतरिक यथार्थ की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति या तो काव्य और सबसे
अधिक गीतिकाव्य में संभव है, या फिर नाटकों में और ये दोनों
ही आदिम विधाएँ हैं। आदिम जीवन का अर्थ केवल पिछड़ा जीवन नहीं होता, वह मानव जीवन की सहजता की भी पहचान है। इसीलिए गद्यकारों की तुलना में
कवियों के यहाँ प्रकृति के प्रति आत्मीयता और लगाव अधिक दिखाई देते हैं। कवि
इन्हीं अर्थों में ‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’ है। संस्कृत साहित्य में गद्य और पद्य दोनों को काव्य और दोनों के रचने
वाले को कवि कहते थे, पर यहाँ कवि का सीमित अर्थ ही लिया जा
रहा है; क्योंकि हिंदी गद्य संस्कृत गद्य से अपनी बनावट और
संवेदना से पर्याप्त दूर है।
प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह
एकात्म, ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान, दर्शन
या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह
लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही विकसित और पुष्ट हुआ है और दार्शनिकों, कवियों और चिंतकों ने वहीं से उपजीव्य ग्रहण किया इसलिए वे उसके कर्जदार
हैं। हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं। लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं।
वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से
लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके
फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और
पीपल, बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी
लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं।
ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के
हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले
बच्चे के लिए वह बट दादा है, सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़
पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की
अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र
के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रश्म है ‘पित्तर नेवतल’ अर्थात पितर-गण को निमंत्रण। तिलक
के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य
रश्में होती हैं जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं। इन अनुष्ठानों
में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न
करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है। यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों
को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित
होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती
है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है जो अब अवशेष मात्र बनकर
महिला संगीत के ‘शार्टकट फार्म’ और मेंहदी
की नव-आयातित ‘सेलिब्रेशन’ संस्कृति के
हवाले हो चली है ।
आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते
में तेजी से गिरावट आई है। इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और और
प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है। अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय
हो गई है। ‘ये दिल मांगे मोर’ के फलसफे
वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी
सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या
जरूरत। हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर
आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार।
हमें इससे कोई लेना-देना नहीं की इन पर्वतीय अंचलों,
समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ
या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं,
हम अपनी ही आबो हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है की पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए
प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति
रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से
स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के
परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है। इसलिए इनके बिना ‘पर्यावरण सुरक्षा’ एक मोहक स्वप्न के अतिरिक्त कुछ
नहीं हो सकता।
पर्यावरण दिवस
टिप्पणी : आज विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) है । हमारी प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है । अन्न,जल,वायु,तेज ही नहीं, कला, संगीत, चिंतन और साहित्य जैसे चेतना की अभियक्ति उच्चतर माध्यमों के विम्ब,प्रतीक और लय,गति,यति और कल्पना (वैज्ञानिक खोजों/स्थापनाओं की पूर्वपीठिका परिकल्पना भी) आदि भी उसी का दान हैं। हम अपने भौतिक और चैतन्य दोनों रूपों में इसके ऋणी हैं । हमें इसका आभारी होना चाहिए, तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और संरक्षण शील होना चाहिए । इसी संकल्प के साथ पिछले लगभग एक महीने के में लिखे गए तीन लेखों की एक शृंखाला (नवभारत,भोपाल) का यह तीसरा लेख अपने मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत है ।
कुबेरनाथ राय : स्मृति की कुछ धुंधली रेखाएँ
कुबेरनाथ राय ललित निबंध के अमिट हस्ताक्षर । यों, एक लेखक से पहले उनसे मेरी
मुलाक़ात एक व्यक्ति के रूप में ही हुई । मुलाकातें पहले भी हुई होंगी, पर उनकी स्मृतियाँ मेरे मानस से लुप्त हैं, केवल एक
को छोड़कर जिसकी एक हल्की-सी स्मृति आज भी मन के कैनवास पर अंकित है । एक व्यक्ति
के रूप में उन्हें याद करने और जानने का अवसर मेरे पास केवल उसी एक स्मृति की कुछ
रेखाओं को टटोलने से संभव हो सकता है । वे भी बहुत धुँधली हैं। तब मैं बहुत छोटा
था और माँ के साथ अपने ननिहाल गया था । बचपन में मेरे आस-पास के लोगों में ख्याति
अस्थिर-चित्त चंचल बच्चे के रूप में ही अधिक रही है, बड़ों की
डांट का मैं तब अभ्यस्त हो चुका था । इसके विपरीत उनके परिवार के बच्चों (उनकी
पौत्री अपराजिता और पौत्र अनंत विजय जो मुझसे क्रमशः डेढ़ साल बड़ी और दो साल छोटे हैं) की गिनती एक सौम्य, संयमित और समझदार बच्चों में होती थी । इसलिए उस परिवार में मेरी चंचलता लोगों
को खटकती थी (इस खटकने में उनलोगों का अतिरिक्त स्नेह और सावधानी शामिल भी थी), अवश्य ही, बड़ी मामी को छोड़कर । एक पुरानी कहावत को
याद करूँ; जिस तरह कंधे पर बैठी बाल-वधू को किसी पंडित जी ने
याही में बेटा, याही में बेटी बताया था, कुछ उसी तरह मैंने उन्हीं में नानी और उन्हीं में मामी देखा था और पाया
भी। बाद के दिनों में मेरा मतसा (कुबेरनाथ राय का गाँव) जाने का आकर्षण, वे ही होती थीं । कुछ संयोग ही है कि उनके अंतिम समय और उनके जाने के बाद
के अब तक मैं वहाँ न जा सका । यह अवांतर प्रसंग है अवश्य,
लेकिन मेरी उस मुलाक़ात की पृष्ठभूमि में यह सब भी शामिल था । शायद, अन्य लोगों के अतिरिक्त स्नेह और चिंता के कारण ही मेरा संकोची मन उनके भी
बहुत पास न जा सका और स्मृतियाँ बहुत गहरी न बन पाईं । तब तक बड़े मामा यानी
स्वर्गीय कुबेरनाथ राय नलबारी (असम) से अध्यापन छोड़कर गाज़ीपुर में प्राचार्य का पद
ग्रहण कर चुके थे और रविवार की छुट्टी बिताने घर-परिवार के पास मतसा आ जाते । मैं
जिस मुलाक़ात का जिक्र कर रहा हूँ, वह शायद सप्ताह के बीच के
किसी दिन की शाम थी । वे माँ को घर आया जान कर गाजीपुर से घर आए थे । माँ उनकी
सबसे छोटी बहन हैं और उन्हें पुत्री की तरह प्रिय भी थीं । मैंने उन्हें पहली बार
उनके घर के पूरबी बरामदे में देखा था, जहां दुआर और घर के
बीच का प्रवेश द्वार पर । मैंने उनका पैर छूआ और बिना आशीर्वाद या किसी संवाद का
इंतजार किए किसी दूसरी ओर भाग गया । इस तरह हमारे बीच की यह पहली मुलाक़ात अबोली ही
रही । रात की कोई खास बात मुझे याद नहीं । सुबह मेरे जगाने तक वे फिर वापस गाजीपुर
चले गए थे । उसके बाद केवल उनकी बातें ही सुनता रहा । एक बार ननिहाल गया भी तो
दो-एक दिन में माँ के साथ वापस आ गया । अबकी मेरी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई । यों, पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में माँ भी मायके कम ही जा पातीं थीं ।
अगर कभी जातीं भी थीं तो अकेले क्योंकि मैं उनके साथ नहीं रहता था । इस पहली
मुलाक़ात के समय संभवतः मेरे उम्र साढ़े चार साल थी और इस उम्र के बाद आज तक मैं
हमेशा माँ से दूर ही दूर रहा हूँ ।
उसके बाद उनसे बस
एक ही मुलाक़ात हुई । वह भी तब, जब वे रिश्ते से एक पार्थिव शरीर में बदल चुके थे । वह आज ही की तिथि थी
। 5 जून 1996 । तब मैं अपने छोटे मामा के घर उनके नवासे पर था और रात बारह बजे
मझले मामा की बीमारी की सूचना मिली थी । सुबह हम सब लोग भागते हुए मतसा पहुंचे थे
और देखा मझले मामा सामने स्वस्थ बैठे थे, लेकिन चेहरा उदास
था । किसी अनहोनी की की आशंका से हमारे कलेजे अचानक कुछ पलों के लिए धड़कना भूल गए
थे । बगल में बरामदे में चौकी पर लिटाया हुआ बड़े मामा का पार्थिव शरीर एक दम शांत
था । वे पिछली रात की आरंभिक बेला में ही चिर-निद्रा में जा चुके थे, फिर भी देखने पर
ऐसा लगता था, जैसे अभी उठकर बोल पड़ेंगें । हम स्तब्ध थे ।
उनके गाजीपुर से सेवानिवृत्ति का अभी यह पहला ही साल था और वय भी मात्र 63 साल । 63
साल मात्र इसलिए कि उनका जीवन नितांत संयमित था और प्रायः निरोग भी । आसान, व्यायाम और प्राणायाम उनकी दिनचर्या का अनिवारी हिस्सा था, वैसे ही जैसे ध्यान और पूजा । उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैष्णव-शाक्त
सम्मीश्रित थी । इसीलिए उनके लेखन में शाक्त परंपरा,
तंत्राचार और और चंडी तथा कामाख्या का उल्लेख तो बार-बार आता है, लेकिन अपने आचार-व्यवहार में वे पूर्णतः वैष्णव थे । स्नेहिल, शांत और संयमित ।
शायद इस अबोले
परिचय की ही देन है कि मैंने हमेशा उन्हें उनकी पुस्तकों में खोजने की कोशिश की ।
उनसे मेरा वास्तविक संवाद उनकी पुस्तकों के रास्ते ही होता गया । ज्यों-ज्यों उनके
करीब जाता गया,
यह महसूस करता रहा कि उनका नैकट्य सहज तो है, पर संयम मांगता
है । स्नेहिल तो है, पर है बड़ा शांत । कुछ संकोची भी है, खासकर अपने बारे में । इसीलिए अपने लेखन में ‘मैं’ की बात करते हुए भी, वह अपने मैं के प्रति पर्याप्त
सजग होकर चलता है । लालित्य उनके लेखन के पोर-पोर में बसा है, लेकिन बहुत शांत और गंभीर रूप में संप्रेषित होता है । एक बाहरी आदमी की
तरह उनको पढ़ना, समझना उस लालित्य से वंचित होना है । उस
लालित्य का पान एक संयमित और शांत मन से नैकट्य अर्जित करके ही किया जा सकता है ।
वहाँ क्षिप्रता, चंचलता और उद्वेग के लिए कोई स्थान नहीं है
। उनके लेखन में यदि कहीं आदिम आखेट-वृत्ति जागृति भी होती है तो वह रस का आखेट
करेगी, न कि एषणा-प्रेरित ऐंद्रिक सुखों का । उनमें कहीं
अभिसार की सुप्त आकांक्षा भी जागृत होती है तो उसके लिए वहाँ दृष्टि-अभिसार से
अधिक की गुंजाइश नहीं । उसके प्रेम की अभिव्यक्ति भी ‘उत्तराफाल्गुनी
के नाम पत्र’ में ही होगी, किसी
प्रेयसी के लिए नहीं । उनके लिए इस प्रकृति का समूचा स्त्री-तत्व या तो देवी है या
माँ, बहन और पुत्री । प्रेयसी तो केवल एक ही है, प्रकृति । जिसके प्रति अनन्य राग उनके साहित्य में जहाँ तहां फूट पड़ते
हैं । यह राग भी बंगाल और आसाम की आबो हवा से आया या उनके भीतर बैठे संस्कारी
किसान मन की सहज अभिव्यक्ति कहना मुश्किल है । ब्रह्मपुत्र और बंगाल की धरती से
उनका नाता केवल शिक्षा और नौकरी तक का नहीं था, वह उससे कहीं
गहरा था । उनकी पत्नी बंगाल की ही थीं, उनके पूर्वज बहुत
पहले बलिया से बंगाल जा बसे थे । मालदा जिले में उनके पिता की जमींदारी थी और
विवाह से पूर्व का उनका पूरा समय बंगाल में ही बीता था । इसलिए वे अपने रूप और संस्कार
में नब्बे प्रतिशत बंगाली थीं। कहीं-न-कहीं इसका प्रभाव भी कुबेरनाथ राय की चेतना
पर अवश्य रहा होगा । तभी उन्हें बाउलों के गीत और शंकर देव की कविताओं के साथ काली
और कामाख्या; अर्थात वैष्णव और शाक्त भावबोध में संगति
बैठाने में उतनी मुश्किल नहीं हुई होगी । वैसे, इन परस्पर दो
विपरीत ध्रुवांतरों के बीच समन्वय का संस्कार उन्हें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से
भी पर्याप्त मिला था । इसलिए वे अपने समूचे लेखन में इन दोनों को समन्वित रूप से
लेकर चल सके हैं । उनका ‘शील-बोध’ या
सामान्य चलताऊ शब्दों में कहें तो नैतिक बोध इन्हीं तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ
है । उनके लेखन में शील-बोध का जिक्र बार-बार आया है । ‘शील
गंधों अनुत्तरो’ उनका की प्रिय सूक्ति है । इसे उन्होंने
बौद्ध चिंतन से ग्रहण किया है ।
यह सच है कि
कुबेरनाथ राय के लेखन में वैसा सहज आमंत्रण नहीं है, जैसा हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों में है ।
उनमें उत्सुकता है, वैचारिक गहराई है,
परंपरा और संस्कृति का गहरा बोध है अध्ययन का गहनाता है,
लेकिन द्विवेदी जी की तरह भाषा के सूत्र में बाँधकर पाठक चेतना को ज्ञान या परंपरा
के इस से उस टीले पर ले जाकर छोड़ देने की दक्षता नहीं है । उन्हें पढ़ते हुए खद्दर
की खुरदुरे धोती कुर्ते में छिपे हुए एक सहज और संवेदनशील भारतीय मन का साक्षात्कार
होता है । हाँ, कहीं-कहीं इस धोती-कुर्ते में छिपा हुआ
अँग्रेजी अध्यापक भी सामने खड़ा होता है, जिसके ज्ञान और
संदर्भों के खुले पिटारे के सामने पाठक की बुद्धि लाचार नजर आती है । उनकी भाषा का
यह खुरदरापन और अँग्रेजी की अध्यापकी तभी तक नजर आता है,
जबतक आपने अपने और उनके संकोच की दीवारें तोड़कर सहज आत्मीयता का रिश्ता नहीं बनाया
है । यह रिश्ता अगर बन गया तो वे पक्के संघतिया की तरह हर ऊबड़खाबड़ जगह पर अपना हाथ
बढ़ाए खड़े मिलेंगे । तब आपको पहल नहीं करनी होगी, उन्हें
रुककर पुकारना नहीं होगा, पहल वे खुद करते चलेंगे। आपको बस
अपना हाथ बढ़ाने का संकोच त्यागना होगा ।
गुरुवार, 25 मई 2017
मैं तीसरे गांव का आदमी हूं
जेठ-बैशाख की नीम दुपहरिया में मेरा गांव गपिया रहा है । खटिया पर उठंगकर, सुर्ती मलते हुए, खैनी से भरे हुए लार वाले मुंह को आगे कर पिच्च से थूकते हुए या फिर ताश के पत्ते फेंटते हुए मेरा गांव गपिया रहा है । गांव के पूरब पुरनका पोखरा के भीटे पर, लाला जी के बैठका में, पंडी जी के दुआर पर, बाबा के बरगद के नीचे या दक्खिन टोला की नीम के तले जगह-जगह, जहां भी ढरकने की, बिलमने की, घड़ी-आध घड़ी टेक लेने की जगह है, वहां टिककर मेरा गांव गपिया रहा है । कोई ताश फेंट रहा है, कोई ताश बाँट रहा है, कोई बाजी समेट कर उत्साह से सीना चौड़ा कर रहा है और कोई केवल और केवल गपिया रहा है । किसी के पास कहकहे हैं तो किसी के पास अपने रोजमर्रे की बातें, किसी के पास बेटे बहू की कहानियाँ तो किसी के कूल्हे या घुटने के दर्द और किसी के पास डांड़-मेढ़, गोतिया-दायाद और भाई-बंधु । सबके पास वक्ता हैं, सबके पास श्रोता हैं और सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ हैं । सब उसे कहने और सुनने में मशगूल हैं।
इस गपियाते हुए गांव के पीछे भी एक गांव है । वह दरवाजे के पल्ले भिड़ा कर घर में उठंघा हुआ है । वह दो पहरों की आपाधापी के बाद अब थोड़ा सुस्ता लेना चाहता है । घर-बासन, चूल्हा-चौका और लड़के-बच्चे के बाद अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेना चाहता है । गप्प उसे भी पसंद है । वह भी गपियाना चाहता है, लेकिन इस चिपचिपाती हुई दोपहर में सोए हुए बच्चे को भला कैसे जागा सकता है ? उसके पंखा झलते हुए हाथों में दर्द होने लगा है, लेकिन बच्चा ! पंखे के रुकते ही कुनमुना उठता है । फुसफुसा कर बतियाते हुए भी उसके जगने का डर उसे बोलने नहीं देता । थकान से आँखें झपक रही हैं लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट उसे फिर सचेष्ट कर देती है और वह नींद की शिथिलता में हाथ से छूटे पंखे को फिर संभालकर और तेजी से झलने लगता है ।
इन दोनों से अलग एक तीसरा गाँव भी है । उस गाँव के पांव दुपहरिया से बहुत पहले ही गाँव की चौहद्दी और सिवान को पार कर सड़क पर जा टिकते हैं । किसी चाय की दुकान के जलते टप्पर या छान के नीचे धूनी रमाए वह अनंत ज्ञान साधना में लीन है । वह दुनिया-जहां की हर बात जानता है, हर क्षेत्र में दखल रखता है । वह अपना दुक्खम-सुक्खम नहीं बतियाता । गांव-जवार की तो उसे फुरसत ही नहीं । वह राष्ट्रनीति का व्याख्याता है, विदेशनीति का परम आचार्य है और ज्ञान-विज्ञान की नाना शाखाओं का प्रकांड पंडित। जो उसकी जद में नहीं है, वह ज्ञान-विज्ञान की किसी दूसरी शाखा-प्रशाखा में भी नहीं है । वह महाअवधूत है । श्मशान-सी सुनसान सड़क के किनारे बैठ पूरी दुपहरिया ज्ञान-साधना करता है । दुपहरिया ही क्यों तिझरिया और शाम, बल्की देर रात; जब तक कि कालभैरव का महाप्रसाद पा स्वयं महाभैरव न हो जाय और उसके मुंह से मोहन, उच्चाटन और मारण के मंत्रों का भैरव नाद न होने लगे, तब तक निरंतर यह मसान उससे सेवित ही रहता है ।
पहला गाँव मेरे बचपन के साथ विदा हो गया और दूसरा बंद किवाड़ों के भीतर बंद । कभी-कभी उससे उठती सिसकियाँ, गाली-गलौज के स्वर या कभी-कभार मंगलगान की मधुर आवाजों से अधिक उस गाँव की परिधि में प्रवेश की अनुमति घर के बाहरी आदमी को नहीं है । वह तो दरवाजे पर खड़ा होकर आवाज दे सकता है । उस आवाज का जवाब भी पहले या तीसरे गांव का आदमी ही देगा, दूसरे गाँव ने तो सनातन चुप्पी साध रखी है; ऐसा लगता है गोया वह जबान हिलाना ही नहीं जानता । वह जन्मजात गूंगा और बहरा है । या फिर, उसकी जबान पहले या तीसरे के पास गिरवी है और उसीके कर्ज की रोटी खा कर सूद में पहले या दूसरे गाँव की पौधें तैयार कर रही है । हाँ, कभी-कभी भूलवश किसी ‘खेझरा’ धान का बीज इस्तेमाल कर लेने से नर्सरी में दूसरे गाँव की पौध भी तैयार हो जाती है । समझदार किसान उसे रोपाई से पहले ही छांट देता है । जब ऐसा नहीं होता तो समझदारी इसी में है कि उसे समय से पहले काट-पीट कर गोदाम में रख दो, नहीं तो झरंगा की तरह वह जल्दी पककर झड़ जाएगी और किसान हाथ मलता रहा जाएगा खेत और किसान का हर्जा करेगा सो अलग ।
बहरहाल, मैं तीसरे गांव का आदमी हूं । इसलिए उसी की बात करूंगा । मेरी ये बहकी-बहकी बातें सुनकर आप पूछ सकते हैं मेरे इस गांव का नाम क्या है ? गांव ! कोई भी हो सकता है । मेरा, आपका, इनका, उनका । किसी का भी । अजी, छोड़िए भी क्या फर्क पड़ता है ? किसी का हो । कहीं का हो । पते की जरूरत डाक पहुँचने तक है । जब यह डाक आप तक पहुंच ही जाएगी तो पते की भला क्या जरूरत । लिफाफे और मजमून तो खिलंदड़ों के भाँपने के लिए होते हैं । अपन को न खिलंदड़ी आती है और न खिलंदड़ों से वास्ता ठहरा । अपन तो ठहरे ठेठ गंवई आदमी । जैसा मेरा गाँव वैसा आपका । वैसा ही इनका और उनका भी । सुबह उठाकर दिशा-फरागत, खैनी-गुटखा और सांझा को ठर्रा । बीच का दौर झक्क उज्जर नील-टिनोपाल पड़े कुर्ते, चाय की चुस्कियों और आग के गोलों की तरह उछलती बहसों का । भला जेठ की दुपहरिया की धूप में वह ताप कहाँ जो इन आग के गोलों में है । अमेरिका की बड़ी-बड़ी मिसाइलें हों या चीन और रूस के आणविक हथियार सब उसके ताप में गलकर तरल और कभी-कभी हवा भी हो जा रहे हैं । बीच-बीच में पान की पिच्च और ताम्बूल रंजीत ठहाकों के कहने ही क्या ? वे तो संक्रामक रोग की तरह गांव के एक ताश अड्डे से दूसरे ताश अड्डे और एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ तक हवा में तैर रहे हैं । यह बात अलग है की इस घोर दुपहरिया में हवा भी पेड़ों की छाँव में दुबक जाती है, अन्यथा यह बीमारी डेंगू चिकनगुनिया आदि-आदि से अधिक तेजी से पूरी दुनिया में फैल गई होती ।
यह तीसरा गांव पहले और दूसरे से अधिक पढ़ा लिखा और हुशियर है । अखबार बांच सकता है , देश जहान की बातें कर सकता है, बात-बात में देश की राजनीति, विदेशनीति और युद्ध-नीति पर बहसें कर सकता है, चौराहे पर बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेते हुए सीरिया-लेबनान तक टहल कर आ सकता है, (कभी-कभार मंगल और चंद्रमा तक भी उड़ाने भर सकता है, लेकिन उसके लिए एनर्जी ज्यादा लगती है), गाँव-घर की मरनी-जियानी से लेकर दुनिया जहां की बातें कर सकता है । और तो और, सामने वाले से कमतर महसूस होते ही दूसरी सूचनाओं की जगह अपनी डिगरियाँ गिनाकर सामने वाले पर धौंस दिखा सकता है । लब्बोलुआब यह, वह दुनिया में कोई भी करणीय और अकरणीय काम कर सकता है; सिवाय एक काम, घर में दो जून की रोटी के इंतज़ाम के । सानी-पानी, फावड़ा-कुदाल चलाना कौन कहे ? खेत की डाँड-मेढ़ तक उसके लिए अछूत हैं । देश-दुनिया में अस्पृश्यता भले कम हुई हो, उसे क्या ? उसके लिए तो ये सब सनातन अस्पृश्य चीजें हैं । भला, सारी पढ़ाई-लिखाई या कलम घिसाई इसी की खातिर की थी ! नहीं न ! फिर ! खेती रही होगी बाप दादों के लिए उत्तम चीज, पर उसके लिए वह अपमानजनक है । खेतिहर भी क्या कोई मानुष्य होता है; दिनभर खेत में घिसाई और रात को मौसम की चिंता में उनींदी आँखें ।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)