टिप्पणी : आज विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) है । हमारी प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है । अन्न,जल,वायु,तेज ही नहीं, कला, संगीत, चिंतन और साहित्य जैसे चेतना की अभियक्ति उच्चतर माध्यमों के विम्ब,प्रतीक और लय,गति,यति और कल्पना (वैज्ञानिक खोजों/स्थापनाओं की पूर्वपीठिका परिकल्पना भी) आदि भी उसी का दान हैं। हम अपने भौतिक और चैतन्य दोनों रूपों में इसके ऋणी हैं । हमें इसका आभारी होना चाहिए, तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और संरक्षण शील होना चाहिए । इसी संकल्प के साथ पिछले लगभग एक महीने के में लिखे गए तीन लेखों की एक शृंखाला (नवभारत,भोपाल) का यह तीसरा लेख अपने मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत है ।
सोमवार, 5 जून 2017
कुबेरनाथ राय : स्मृति की कुछ धुंधली रेखाएँ
कुबेरनाथ राय ललित निबंध के अमिट हस्ताक्षर । यों, एक लेखक से पहले उनसे मेरी
मुलाक़ात एक व्यक्ति के रूप में ही हुई । मुलाकातें पहले भी हुई होंगी, पर उनकी स्मृतियाँ मेरे मानस से लुप्त हैं, केवल एक
को छोड़कर जिसकी एक हल्की-सी स्मृति आज भी मन के कैनवास पर अंकित है । एक व्यक्ति
के रूप में उन्हें याद करने और जानने का अवसर मेरे पास केवल उसी एक स्मृति की कुछ
रेखाओं को टटोलने से संभव हो सकता है । वे भी बहुत धुँधली हैं। तब मैं बहुत छोटा
था और माँ के साथ अपने ननिहाल गया था । बचपन में मेरे आस-पास के लोगों में ख्याति
अस्थिर-चित्त चंचल बच्चे के रूप में ही अधिक रही है, बड़ों की
डांट का मैं तब अभ्यस्त हो चुका था । इसके विपरीत उनके परिवार के बच्चों (उनकी
पौत्री अपराजिता और पौत्र अनंत विजय जो मुझसे क्रमशः डेढ़ साल बड़ी और दो साल छोटे हैं) की गिनती एक सौम्य, संयमित और समझदार बच्चों में होती थी । इसलिए उस परिवार में मेरी चंचलता लोगों
को खटकती थी (इस खटकने में उनलोगों का अतिरिक्त स्नेह और सावधानी शामिल भी थी), अवश्य ही, बड़ी मामी को छोड़कर । एक पुरानी कहावत को
याद करूँ; जिस तरह कंधे पर बैठी बाल-वधू को किसी पंडित जी ने
याही में बेटा, याही में बेटी बताया था, कुछ उसी तरह मैंने उन्हीं में नानी और उन्हीं में मामी देखा था और पाया
भी। बाद के दिनों में मेरा मतसा (कुबेरनाथ राय का गाँव) जाने का आकर्षण, वे ही होती थीं । कुछ संयोग ही है कि उनके अंतिम समय और उनके जाने के बाद
के अब तक मैं वहाँ न जा सका । यह अवांतर प्रसंग है अवश्य,
लेकिन मेरी उस मुलाक़ात की पृष्ठभूमि में यह सब भी शामिल था । शायद, अन्य लोगों के अतिरिक्त स्नेह और चिंता के कारण ही मेरा संकोची मन उनके भी
बहुत पास न जा सका और स्मृतियाँ बहुत गहरी न बन पाईं । तब तक बड़े मामा यानी
स्वर्गीय कुबेरनाथ राय नलबारी (असम) से अध्यापन छोड़कर गाज़ीपुर में प्राचार्य का पद
ग्रहण कर चुके थे और रविवार की छुट्टी बिताने घर-परिवार के पास मतसा आ जाते । मैं
जिस मुलाक़ात का जिक्र कर रहा हूँ, वह शायद सप्ताह के बीच के
किसी दिन की शाम थी । वे माँ को घर आया जान कर गाजीपुर से घर आए थे । माँ उनकी
सबसे छोटी बहन हैं और उन्हें पुत्री की तरह प्रिय भी थीं । मैंने उन्हें पहली बार
उनके घर के पूरबी बरामदे में देखा था, जहां दुआर और घर के
बीच का प्रवेश द्वार पर । मैंने उनका पैर छूआ और बिना आशीर्वाद या किसी संवाद का
इंतजार किए किसी दूसरी ओर भाग गया । इस तरह हमारे बीच की यह पहली मुलाक़ात अबोली ही
रही । रात की कोई खास बात मुझे याद नहीं । सुबह मेरे जगाने तक वे फिर वापस गाजीपुर
चले गए थे । उसके बाद केवल उनकी बातें ही सुनता रहा । एक बार ननिहाल गया भी तो
दो-एक दिन में माँ के साथ वापस आ गया । अबकी मेरी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई । यों, पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में माँ भी मायके कम ही जा पातीं थीं ।
अगर कभी जातीं भी थीं तो अकेले क्योंकि मैं उनके साथ नहीं रहता था । इस पहली
मुलाक़ात के समय संभवतः मेरे उम्र साढ़े चार साल थी और इस उम्र के बाद आज तक मैं
हमेशा माँ से दूर ही दूर रहा हूँ ।
उसके बाद उनसे बस
एक ही मुलाक़ात हुई । वह भी तब, जब वे रिश्ते से एक पार्थिव शरीर में बदल चुके थे । वह आज ही की तिथि थी
। 5 जून 1996 । तब मैं अपने छोटे मामा के घर उनके नवासे पर था और रात बारह बजे
मझले मामा की बीमारी की सूचना मिली थी । सुबह हम सब लोग भागते हुए मतसा पहुंचे थे
और देखा मझले मामा सामने स्वस्थ बैठे थे, लेकिन चेहरा उदास
था । किसी अनहोनी की की आशंका से हमारे कलेजे अचानक कुछ पलों के लिए धड़कना भूल गए
थे । बगल में बरामदे में चौकी पर लिटाया हुआ बड़े मामा का पार्थिव शरीर एक दम शांत
था । वे पिछली रात की आरंभिक बेला में ही चिर-निद्रा में जा चुके थे, फिर भी देखने पर
ऐसा लगता था, जैसे अभी उठकर बोल पड़ेंगें । हम स्तब्ध थे ।
उनके गाजीपुर से सेवानिवृत्ति का अभी यह पहला ही साल था और वय भी मात्र 63 साल । 63
साल मात्र इसलिए कि उनका जीवन नितांत संयमित था और प्रायः निरोग भी । आसान, व्यायाम और प्राणायाम उनकी दिनचर्या का अनिवारी हिस्सा था, वैसे ही जैसे ध्यान और पूजा । उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैष्णव-शाक्त
सम्मीश्रित थी । इसीलिए उनके लेखन में शाक्त परंपरा,
तंत्राचार और और चंडी तथा कामाख्या का उल्लेख तो बार-बार आता है, लेकिन अपने आचार-व्यवहार में वे पूर्णतः वैष्णव थे । स्नेहिल, शांत और संयमित ।
शायद इस अबोले
परिचय की ही देन है कि मैंने हमेशा उन्हें उनकी पुस्तकों में खोजने की कोशिश की ।
उनसे मेरा वास्तविक संवाद उनकी पुस्तकों के रास्ते ही होता गया । ज्यों-ज्यों उनके
करीब जाता गया,
यह महसूस करता रहा कि उनका नैकट्य सहज तो है, पर संयम मांगता
है । स्नेहिल तो है, पर है बड़ा शांत । कुछ संकोची भी है, खासकर अपने बारे में । इसीलिए अपने लेखन में ‘मैं’ की बात करते हुए भी, वह अपने मैं के प्रति पर्याप्त
सजग होकर चलता है । लालित्य उनके लेखन के पोर-पोर में बसा है, लेकिन बहुत शांत और गंभीर रूप में संप्रेषित होता है । एक बाहरी आदमी की
तरह उनको पढ़ना, समझना उस लालित्य से वंचित होना है । उस
लालित्य का पान एक संयमित और शांत मन से नैकट्य अर्जित करके ही किया जा सकता है ।
वहाँ क्षिप्रता, चंचलता और उद्वेग के लिए कोई स्थान नहीं है
। उनके लेखन में यदि कहीं आदिम आखेट-वृत्ति जागृति भी होती है तो वह रस का आखेट
करेगी, न कि एषणा-प्रेरित ऐंद्रिक सुखों का । उनमें कहीं
अभिसार की सुप्त आकांक्षा भी जागृत होती है तो उसके लिए वहाँ दृष्टि-अभिसार से
अधिक की गुंजाइश नहीं । उसके प्रेम की अभिव्यक्ति भी ‘उत्तराफाल्गुनी
के नाम पत्र’ में ही होगी, किसी
प्रेयसी के लिए नहीं । उनके लिए इस प्रकृति का समूचा स्त्री-तत्व या तो देवी है या
माँ, बहन और पुत्री । प्रेयसी तो केवल एक ही है, प्रकृति । जिसके प्रति अनन्य राग उनके साहित्य में जहाँ तहां फूट पड़ते
हैं । यह राग भी बंगाल और आसाम की आबो हवा से आया या उनके भीतर बैठे संस्कारी
किसान मन की सहज अभिव्यक्ति कहना मुश्किल है । ब्रह्मपुत्र और बंगाल की धरती से
उनका नाता केवल शिक्षा और नौकरी तक का नहीं था, वह उससे कहीं
गहरा था । उनकी पत्नी बंगाल की ही थीं, उनके पूर्वज बहुत
पहले बलिया से बंगाल जा बसे थे । मालदा जिले में उनके पिता की जमींदारी थी और
विवाह से पूर्व का उनका पूरा समय बंगाल में ही बीता था । इसलिए वे अपने रूप और संस्कार
में नब्बे प्रतिशत बंगाली थीं। कहीं-न-कहीं इसका प्रभाव भी कुबेरनाथ राय की चेतना
पर अवश्य रहा होगा । तभी उन्हें बाउलों के गीत और शंकर देव की कविताओं के साथ काली
और कामाख्या; अर्थात वैष्णव और शाक्त भावबोध में संगति
बैठाने में उतनी मुश्किल नहीं हुई होगी । वैसे, इन परस्पर दो
विपरीत ध्रुवांतरों के बीच समन्वय का संस्कार उन्हें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से
भी पर्याप्त मिला था । इसलिए वे अपने समूचे लेखन में इन दोनों को समन्वित रूप से
लेकर चल सके हैं । उनका ‘शील-बोध’ या
सामान्य चलताऊ शब्दों में कहें तो नैतिक बोध इन्हीं तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ
है । उनके लेखन में शील-बोध का जिक्र बार-बार आया है । ‘शील
गंधों अनुत्तरो’ उनका की प्रिय सूक्ति है । इसे उन्होंने
बौद्ध चिंतन से ग्रहण किया है ।
यह सच है कि
कुबेरनाथ राय के लेखन में वैसा सहज आमंत्रण नहीं है, जैसा हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों में है ।
उनमें उत्सुकता है, वैचारिक गहराई है,
परंपरा और संस्कृति का गहरा बोध है अध्ययन का गहनाता है,
लेकिन द्विवेदी जी की तरह भाषा के सूत्र में बाँधकर पाठक चेतना को ज्ञान या परंपरा
के इस से उस टीले पर ले जाकर छोड़ देने की दक्षता नहीं है । उन्हें पढ़ते हुए खद्दर
की खुरदुरे धोती कुर्ते में छिपे हुए एक सहज और संवेदनशील भारतीय मन का साक्षात्कार
होता है । हाँ, कहीं-कहीं इस धोती-कुर्ते में छिपा हुआ
अँग्रेजी अध्यापक भी सामने खड़ा होता है, जिसके ज्ञान और
संदर्भों के खुले पिटारे के सामने पाठक की बुद्धि लाचार नजर आती है । उनकी भाषा का
यह खुरदरापन और अँग्रेजी की अध्यापकी तभी तक नजर आता है,
जबतक आपने अपने और उनके संकोच की दीवारें तोड़कर सहज आत्मीयता का रिश्ता नहीं बनाया
है । यह रिश्ता अगर बन गया तो वे पक्के संघतिया की तरह हर ऊबड़खाबड़ जगह पर अपना हाथ
बढ़ाए खड़े मिलेंगे । तब आपको पहल नहीं करनी होगी, उन्हें
रुककर पुकारना नहीं होगा, पहल वे खुद करते चलेंगे। आपको बस
अपना हाथ बढ़ाने का संकोच त्यागना होगा ।
गुरुवार, 25 मई 2017
मैं तीसरे गांव का आदमी हूं
जेठ-बैशाख की नीम दुपहरिया में मेरा गांव गपिया रहा है । खटिया पर उठंगकर, सुर्ती मलते हुए, खैनी से भरे हुए लार वाले मुंह को आगे कर पिच्च से थूकते हुए या फिर ताश के पत्ते फेंटते हुए मेरा गांव गपिया रहा है । गांव के पूरब पुरनका पोखरा के भीटे पर, लाला जी के बैठका में, पंडी जी के दुआर पर, बाबा के बरगद के नीचे या दक्खिन टोला की नीम के तले जगह-जगह, जहां भी ढरकने की, बिलमने की, घड़ी-आध घड़ी टेक लेने की जगह है, वहां टिककर मेरा गांव गपिया रहा है । कोई ताश फेंट रहा है, कोई ताश बाँट रहा है, कोई बाजी समेट कर उत्साह से सीना चौड़ा कर रहा है और कोई केवल और केवल गपिया रहा है । किसी के पास कहकहे हैं तो किसी के पास अपने रोजमर्रे की बातें, किसी के पास बेटे बहू की कहानियाँ तो किसी के कूल्हे या घुटने के दर्द और किसी के पास डांड़-मेढ़, गोतिया-दायाद और भाई-बंधु । सबके पास वक्ता हैं, सबके पास श्रोता हैं और सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ हैं । सब उसे कहने और सुनने में मशगूल हैं।
इस गपियाते हुए गांव के पीछे भी एक गांव है । वह दरवाजे के पल्ले भिड़ा कर घर में उठंघा हुआ है । वह दो पहरों की आपाधापी के बाद अब थोड़ा सुस्ता लेना चाहता है । घर-बासन, चूल्हा-चौका और लड़के-बच्चे के बाद अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेना चाहता है । गप्प उसे भी पसंद है । वह भी गपियाना चाहता है, लेकिन इस चिपचिपाती हुई दोपहर में सोए हुए बच्चे को भला कैसे जागा सकता है ? उसके पंखा झलते हुए हाथों में दर्द होने लगा है, लेकिन बच्चा ! पंखे के रुकते ही कुनमुना उठता है । फुसफुसा कर बतियाते हुए भी उसके जगने का डर उसे बोलने नहीं देता । थकान से आँखें झपक रही हैं लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट उसे फिर सचेष्ट कर देती है और वह नींद की शिथिलता में हाथ से छूटे पंखे को फिर संभालकर और तेजी से झलने लगता है ।
इन दोनों से अलग एक तीसरा गाँव भी है । उस गाँव के पांव दुपहरिया से बहुत पहले ही गाँव की चौहद्दी और सिवान को पार कर सड़क पर जा टिकते हैं । किसी चाय की दुकान के जलते टप्पर या छान के नीचे धूनी रमाए वह अनंत ज्ञान साधना में लीन है । वह दुनिया-जहां की हर बात जानता है, हर क्षेत्र में दखल रखता है । वह अपना दुक्खम-सुक्खम नहीं बतियाता । गांव-जवार की तो उसे फुरसत ही नहीं । वह राष्ट्रनीति का व्याख्याता है, विदेशनीति का परम आचार्य है और ज्ञान-विज्ञान की नाना शाखाओं का प्रकांड पंडित। जो उसकी जद में नहीं है, वह ज्ञान-विज्ञान की किसी दूसरी शाखा-प्रशाखा में भी नहीं है । वह महाअवधूत है । श्मशान-सी सुनसान सड़क के किनारे बैठ पूरी दुपहरिया ज्ञान-साधना करता है । दुपहरिया ही क्यों तिझरिया और शाम, बल्की देर रात; जब तक कि कालभैरव का महाप्रसाद पा स्वयं महाभैरव न हो जाय और उसके मुंह से मोहन, उच्चाटन और मारण के मंत्रों का भैरव नाद न होने लगे, तब तक निरंतर यह मसान उससे सेवित ही रहता है ।
पहला गाँव मेरे बचपन के साथ विदा हो गया और दूसरा बंद किवाड़ों के भीतर बंद । कभी-कभी उससे उठती सिसकियाँ, गाली-गलौज के स्वर या कभी-कभार मंगलगान की मधुर आवाजों से अधिक उस गाँव की परिधि में प्रवेश की अनुमति घर के बाहरी आदमी को नहीं है । वह तो दरवाजे पर खड़ा होकर आवाज दे सकता है । उस आवाज का जवाब भी पहले या तीसरे गांव का आदमी ही देगा, दूसरे गाँव ने तो सनातन चुप्पी साध रखी है; ऐसा लगता है गोया वह जबान हिलाना ही नहीं जानता । वह जन्मजात गूंगा और बहरा है । या फिर, उसकी जबान पहले या तीसरे के पास गिरवी है और उसीके कर्ज की रोटी खा कर सूद में पहले या दूसरे गाँव की पौधें तैयार कर रही है । हाँ, कभी-कभी भूलवश किसी ‘खेझरा’ धान का बीज इस्तेमाल कर लेने से नर्सरी में दूसरे गाँव की पौध भी तैयार हो जाती है । समझदार किसान उसे रोपाई से पहले ही छांट देता है । जब ऐसा नहीं होता तो समझदारी इसी में है कि उसे समय से पहले काट-पीट कर गोदाम में रख दो, नहीं तो झरंगा की तरह वह जल्दी पककर झड़ जाएगी और किसान हाथ मलता रहा जाएगा खेत और किसान का हर्जा करेगा सो अलग ।
बहरहाल, मैं तीसरे गांव का आदमी हूं । इसलिए उसी की बात करूंगा । मेरी ये बहकी-बहकी बातें सुनकर आप पूछ सकते हैं मेरे इस गांव का नाम क्या है ? गांव ! कोई भी हो सकता है । मेरा, आपका, इनका, उनका । किसी का भी । अजी, छोड़िए भी क्या फर्क पड़ता है ? किसी का हो । कहीं का हो । पते की जरूरत डाक पहुँचने तक है । जब यह डाक आप तक पहुंच ही जाएगी तो पते की भला क्या जरूरत । लिफाफे और मजमून तो खिलंदड़ों के भाँपने के लिए होते हैं । अपन को न खिलंदड़ी आती है और न खिलंदड़ों से वास्ता ठहरा । अपन तो ठहरे ठेठ गंवई आदमी । जैसा मेरा गाँव वैसा आपका । वैसा ही इनका और उनका भी । सुबह उठाकर दिशा-फरागत, खैनी-गुटखा और सांझा को ठर्रा । बीच का दौर झक्क उज्जर नील-टिनोपाल पड़े कुर्ते, चाय की चुस्कियों और आग के गोलों की तरह उछलती बहसों का । भला जेठ की दुपहरिया की धूप में वह ताप कहाँ जो इन आग के गोलों में है । अमेरिका की बड़ी-बड़ी मिसाइलें हों या चीन और रूस के आणविक हथियार सब उसके ताप में गलकर तरल और कभी-कभी हवा भी हो जा रहे हैं । बीच-बीच में पान की पिच्च और ताम्बूल रंजीत ठहाकों के कहने ही क्या ? वे तो संक्रामक रोग की तरह गांव के एक ताश अड्डे से दूसरे ताश अड्डे और एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ तक हवा में तैर रहे हैं । यह बात अलग है की इस घोर दुपहरिया में हवा भी पेड़ों की छाँव में दुबक जाती है, अन्यथा यह बीमारी डेंगू चिकनगुनिया आदि-आदि से अधिक तेजी से पूरी दुनिया में फैल गई होती ।
यह तीसरा गांव पहले और दूसरे से अधिक पढ़ा लिखा और हुशियर है । अखबार बांच सकता है , देश जहान की बातें कर सकता है, बात-बात में देश की राजनीति, विदेशनीति और युद्ध-नीति पर बहसें कर सकता है, चौराहे पर बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेते हुए सीरिया-लेबनान तक टहल कर आ सकता है, (कभी-कभार मंगल और चंद्रमा तक भी उड़ाने भर सकता है, लेकिन उसके लिए एनर्जी ज्यादा लगती है), गाँव-घर की मरनी-जियानी से लेकर दुनिया जहां की बातें कर सकता है । और तो और, सामने वाले से कमतर महसूस होते ही दूसरी सूचनाओं की जगह अपनी डिगरियाँ गिनाकर सामने वाले पर धौंस दिखा सकता है । लब्बोलुआब यह, वह दुनिया में कोई भी करणीय और अकरणीय काम कर सकता है; सिवाय एक काम, घर में दो जून की रोटी के इंतज़ाम के । सानी-पानी, फावड़ा-कुदाल चलाना कौन कहे ? खेत की डाँड-मेढ़ तक उसके लिए अछूत हैं । देश-दुनिया में अस्पृश्यता भले कम हुई हो, उसे क्या ? उसके लिए तो ये सब सनातन अस्पृश्य चीजें हैं । भला, सारी पढ़ाई-लिखाई या कलम घिसाई इसी की खातिर की थी ! नहीं न ! फिर ! खेती रही होगी बाप दादों के लिए उत्तम चीज, पर उसके लिए वह अपमानजनक है । खेतिहर भी क्या कोई मानुष्य होता है; दिनभर खेत में घिसाई और रात को मौसम की चिंता में उनींदी आँखें ।
देखि दुपहरी जेठ की छाहों चाहत छाँह
मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछाए टिकोरों की आस में पूरी दुपहिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली है, कुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहे? शहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गांव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँह' की कल्पना कर रहे थे, वह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है, और उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ताल नृत्य कर रही हैं, गोया यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकर, कोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैं, हमारी अबाध आकांक्षाएँ।
हम असभ्य थे, वनचर थे, खाद्यसंग्रही थे, हमने आग की खोज
नहीं की थी; तब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने उमग कर हमें दिया, हमने अपना पेट भरने को फल मांगे इसने
अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं, हमने तन ढंकने
को वस्त्र माँगा, इसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब
पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दिया, ये स्वतः उसके पात्र बन गए- खुद अपना
तन हमारे लिए समर्पित कर दिया। जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए
लकड़ी दी, पत्ते दिए ।
और-तो-और, मानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान
है। जब पहले-पहल
इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी
पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजा काटे हैं। यहाँ तक कि विकास के सारे
महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हुए । चेतना, कला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र
इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली
पहचान, हवा में लहराते
पत्तों के संगीत, हवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज
वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटट कर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात
सत्त्ता में आस्था —यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा। यह अनायास नहीं की
दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन का गुरुत्व सिद्धांत दोनों की
प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक
रहा और हमेशा हाथ फैलाए वह
वृक्षों के सामने खड़ा रहा है। वृक्ष ही
क्यों, समूची प्रकृति
उसके तृण-तृण और रोम-रोम के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है। अपनी सारी
उपलब्धियाँ, सारा
सभ्यता-व्यापर और सारा ज्ञान-विज्ञान सामने रखकर भी, वह हमेशा अदना
ही रहा। यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर
प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को अदना ही
पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी
बाँहों वाला बौना मैं, बड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर
बाँह करके हंसी का पात्र ही बनूँगा'। पर, यह आत्मदैन्य कालीदास
जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव था; हम जैसे
रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनाई' तो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे। पेड़ों को कौन
कहे, पूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम
(अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास है, मनुष्य । इसलिए वह प्रकृति से
श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनाकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता है
। ‘सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएं प्रस्तुत करती है और मनुष्य
इनका कुशल दोहन करता है।’ इसक्रम में,
कुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई यह हम
नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँ, सारी चिंताएँ
और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते
रहे, हम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखा, कोई सहचर या कोई मित्र भी है; ‘मनुष्य धरती की संतान है, वह इसी की धूल-माटी में
पल-सनकर बड़ा हुआ है’ —ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके
थे। परिणाम, प्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी
में सिमटता गया और हम अपनी विजय का उत्सव मनाते रहे ।
निश्चित रूप से आरंभ में
मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता इतना सरल, इतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था । मनुष्य लेता तब भी था और अब भी है, लेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का
सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर
उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य
मिलते रहे हैं, वे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं
हैं, बल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं । भारत को ही
लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहीं, अपनी पोषक-वृत्ति के
कारण उपास्य हैं, श्रेष्ठ हैं या माँ हैं । इसी तरह पीपल
देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की
रक्षा का हेतु बन जाता था । आज हम
वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हैं और उन पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानते, लेकिन उसके भीतर निहित प्रकृति के प्रति सम्मान-भाव हमारे लिए आज भी उतना
ही अनिवार्य है, जितना तब था । सच कहूँ, मेरा मन आज भी गर्मी की तपती दोपहर में रोहीनयवा आम या नयका पोखरा के उचे
भीटे की उस गूलर के नीचे बिलम जाता है, जहां कभी गाँव के
बच्चे गूर-गोटी और बाघ-बकरी खेला कराते थे और चरवाहे गमछा बिछाकर उसकी छाँव में
लेते गलचौर कराते थे । वह गूलर आज भी है, लेकिन पूरी दुपहरिया
उदास बैठी गाँव की ओर ताकता रहता है; कोई बच्चा, कोई गवैया, कोई किस्सा-गो उसकी छाँव में बैठ
दुपहरिया मनसायन नहीं करता । रोहिनियावा आम की कंचन आभा अब धूप के तेज को चुनौती
नहीं देती और न ही अब उसे पकाकर टपकने में वह आनंद आता है,
जो टकटकी लगाए देखने वाली दो चार-छह जोड़ी आँखों की उत्सुकता देखकर होता है । अब वह
सूखे पत्तों में बेमन ढुलक जाता है । उसके साथी कटहरियावा,
ठोरहवा, मिठका, करुयसना, सेनुरियावा सिरफलियावा आदि की ‘गाछें’ तो जाने कब की ढुलक गईं, पर जाने यह किसकी
प्रतीक्षा में अब भी खड़ा है, अब भी बसंत आते महमहा उठता है
और रोहिणी नक्षत्र के आते-आते पूरी गांछ पियारा उठती है । बाबा के जमाने में
समाहूत के दिन इस आम का विशेष सम्मान था । दही, अक्षत, रोली, समहूती लाठी और कुदाल के साथ-साथ एक कटोरे या
थाली में चौके पर यह आ बिराजता था । अब बाबा तो नहीं रहे,
लेकिन यह आम अब भी है और हर रोहिणी नक्षत्र में इसके हरे-हरे पत्तों के बीच से
चमकती बाबा की स्मृति झांक उठती है ।
मातृ दिवस
'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । मेरी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहीर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा दिया । उन्होने मेरे भविष्य के लिए बहुत कम वय में मुझे अपने से दूर जाने दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
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