मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछाए टिकोरों की आस में पूरी दुपहिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली है, कुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहे? शहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गांव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँह' की कल्पना कर रहे थे, वह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है, और उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ताल नृत्य कर रही हैं, गोया यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकर, कोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैं, हमारी अबाध आकांक्षाएँ।
हम असभ्य थे, वनचर थे, खाद्यसंग्रही थे, हमने आग की खोज
नहीं की थी; तब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने उमग कर हमें दिया, हमने अपना पेट भरने को फल मांगे इसने
अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं, हमने तन ढंकने
को वस्त्र माँगा, इसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब
पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दिया, ये स्वतः उसके पात्र बन गए- खुद अपना
तन हमारे लिए समर्पित कर दिया। जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए
लकड़ी दी, पत्ते दिए ।
और-तो-और, मानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान
है। जब पहले-पहल
इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी
पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजा काटे हैं। यहाँ तक कि विकास के सारे
महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हुए । चेतना, कला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र
इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली
पहचान, हवा में लहराते
पत्तों के संगीत, हवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज
वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटट कर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात
सत्त्ता में आस्था —यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा। यह अनायास नहीं की
दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन का गुरुत्व सिद्धांत दोनों की
प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक
रहा और हमेशा हाथ फैलाए वह
वृक्षों के सामने खड़ा रहा है। वृक्ष ही
क्यों, समूची प्रकृति
उसके तृण-तृण और रोम-रोम के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है। अपनी सारी
उपलब्धियाँ, सारा
सभ्यता-व्यापर और सारा ज्ञान-विज्ञान सामने रखकर भी, वह हमेशा अदना
ही रहा। यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर
प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को अदना ही
पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी
बाँहों वाला बौना मैं, बड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर
बाँह करके हंसी का पात्र ही बनूँगा'। पर, यह आत्मदैन्य कालीदास
जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव था; हम जैसे
रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनाई' तो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे। पेड़ों को कौन
कहे, पूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम
(अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास है, मनुष्य । इसलिए वह प्रकृति से
श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनाकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता है
। ‘सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएं प्रस्तुत करती है और मनुष्य
इनका कुशल दोहन करता है।’ इसक्रम में,
कुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई यह हम
नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँ, सारी चिंताएँ
और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते
रहे, हम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखा, कोई सहचर या कोई मित्र भी है; ‘मनुष्य धरती की संतान है, वह इसी की धूल-माटी में
पल-सनकर बड़ा हुआ है’ —ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके
थे। परिणाम, प्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी
में सिमटता गया और हम अपनी विजय का उत्सव मनाते रहे ।
निश्चित रूप से आरंभ में
मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता इतना सरल, इतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था । मनुष्य लेता तब भी था और अब भी है, लेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का
सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर
उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य
मिलते रहे हैं, वे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं
हैं, बल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं । भारत को ही
लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहीं, अपनी पोषक-वृत्ति के
कारण उपास्य हैं, श्रेष्ठ हैं या माँ हैं । इसी तरह पीपल
देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की
रक्षा का हेतु बन जाता था । आज हम
वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हैं और उन पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानते, लेकिन उसके भीतर निहित प्रकृति के प्रति सम्मान-भाव हमारे लिए आज भी उतना
ही अनिवार्य है, जितना तब था । सच कहूँ, मेरा मन आज भी गर्मी की तपती दोपहर में रोहीनयवा आम या नयका पोखरा के उचे
भीटे की उस गूलर के नीचे बिलम जाता है, जहां कभी गाँव के
बच्चे गूर-गोटी और बाघ-बकरी खेला कराते थे और चरवाहे गमछा बिछाकर उसकी छाँव में
लेते गलचौर कराते थे । वह गूलर आज भी है, लेकिन पूरी दुपहरिया
उदास बैठी गाँव की ओर ताकता रहता है; कोई बच्चा, कोई गवैया, कोई किस्सा-गो उसकी छाँव में बैठ
दुपहरिया मनसायन नहीं करता । रोहिनियावा आम की कंचन आभा अब धूप के तेज को चुनौती
नहीं देती और न ही अब उसे पकाकर टपकने में वह आनंद आता है,
जो टकटकी लगाए देखने वाली दो चार-छह जोड़ी आँखों की उत्सुकता देखकर होता है । अब वह
सूखे पत्तों में बेमन ढुलक जाता है । उसके साथी कटहरियावा,
ठोरहवा, मिठका, करुयसना, सेनुरियावा सिरफलियावा आदि की ‘गाछें’ तो जाने कब की ढुलक गईं, पर जाने यह किसकी
प्रतीक्षा में अब भी खड़ा है, अब भी बसंत आते महमहा उठता है
और रोहिणी नक्षत्र के आते-आते पूरी गांछ पियारा उठती है । बाबा के जमाने में
समाहूत के दिन इस आम का विशेष सम्मान था । दही, अक्षत, रोली, समहूती लाठी और कुदाल के साथ-साथ एक कटोरे या
थाली में चौके पर यह आ बिराजता था । अब बाबा तो नहीं रहे,
लेकिन यह आम अब भी है और हर रोहिणी नक्षत्र में इसके हरे-हरे पत्तों के बीच से
चमकती बाबा की स्मृति झांक उठती है ।