रविवार, 14 मई 2017

शहादतें सिर्फ सीमाओं नहीं होतीं

शहादतें सिर्फ सीमाओं पर और जंगलों में नहीं होतीं । अपने गावों और घरों में भी होती हैं । भरोसा न हो तो सहारनपुर देख लीजिए । देश में केवल सुकमा और कश्मीर नहीं सहारनपुर भी है । सर्जिकल स्ट्राइक केवल कश्मीर के मोर्चे पर क्यों ? जवाबी कारवाई केवल सुकमा और बस्तर में क्यों ? आपके घरों में क्यों नहीं ? अरे आप तो काँपने लगे, बावु साहेब! मैंने तो केवल बात की आप तो पूरी कारस्तानी कर आए हैं। तब आपके हाथ नहीं काँपे अब आपका पूरा वजूद काँप गया । यही सोच रहे हैं न कि आपके इन कोमल हाथों का प्रतिवाद अगर किसी कठोर हाथों ने दे दिया तो संभाल भी नहीं पाएंगे । फिर किस बात का दंभ है-- देश के गृहमंत्री का या प्रदेश के मुख्यमंत्री का ( आप के गोतिया हैं न दोनों 'रामराज' के भविष्य ?) या अपनी कुलीनता का? माफ कीजिएगा वो आपके लिए कुछ नहीं कर सकते और न आपकी अमानवीय नीचकर्मा 'कुलीनता' । अगर ये सब अकुलीन मिल उठ खड़े हुए तो ... अरे ! आप नाहक सोच में पड़ गए । मैं तो बस सामाजिक और मानसिक सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा हूँ। सीमा और सुकमा के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी । आप जिस मानसिकता में लोगों के घर जलाते हैं, वही मानसिकता सीमा और जंगलों में हमारे सैनिकों को शहीद करती है । जैसे आप ठाकुर और वे दलित हैं, वैसे ही सीमा पार का आदमी यह सोचता है कि वह पाकिस्तानी है और आपके सिपाही भारतीय या सुकमा के माओवादी सोचते हैं कि वे सर्वहारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सिपाही सत्ता के एजेंट तथा उसकी शक्ति हैं, इसलिए उन्हें नष्ट करना या क्षति पहुंचाना वे अपनी जन्मसिद्ध धिकार मानते हैं । पहले मनुष्य को मनुष्य मानने की तमीज तो पैदा करिए , अन्यथा सहारनपुर तो नहीं रुकेगा, सुकमा और कश्मीर भी नहीं रुकेगा । सब यूं ही चलता रहेगा और आप जैसी आकृति वाले विभिन्न जाति, गोत्र, देश और विचारधारा के लोग यूं ही कटते रहेंगे ।

मंगलवार, 9 मई 2017

शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते

शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं । शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं । माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी ।

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

परफ़ार्मिंग बनाम अंडरपरफ़ार्मिंग

देश की आजादी के बाद भारत सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आयोगों के गठन हैं । आलम यह है की सरकार यदि हंसने, रोने, छींकने आदि-आदि विषयों पर भी कोई आयोग बना दे तो भी जनता को कोई खास आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे में उच्च शिक्षा के नियमन और निर्देशन के लिए एक आयोग का होना आश्चर्य की बात नहीं । संयोग से उसका गठन भी बहुत पहले हो चुका है और यह आयोग तमाम छोटे-बड़े काम कर भी रहा है । उनमें से कुछ की जानकारियाँ सामान्य जन को हैं कुछ की नहीं । भारत के उच्च शिक्षित युवाओं के लिए इसकी सबसे अधिक उपयोगिता या प्रासंगिकता यूजीसी, नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ) के कारण है । मुझे याद है अपने छात्र-जीवन में हम उन तिथियों का इंतजार करते थे जब कि नेट की विज्ञप्ति आती, उसकी परीक्षा होती या उसके परिणाम आते थे । इसी क्रम में कभी पता लगता कि यूजीसी ने अचानक बहुत से लोगों को एकमुश्त छूट दे दी है और पहले से पात्रता अर्जित कर चुके अभ्यर्थियों में नई योग्यता वाले अभ्यर्थियों का एक रेला आ जुड़ता । तर्क यह कि पदों की तुलना में योग्य पात्रों की कमी है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इसका परिणाम भीड़ बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं हुआ । न तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ी और न देश भर के खाली पद भरे जा सके । हुआ तो केवल यह कि यूजीसी ने अपनी ही पात्रता परीक्षा को बार-बार प्रश्नांकित किया और अंततः आज अप्रासंगिक बना दिया है । एक समय वह भी आया कि यूजीसी द्वारा अनुदानित विश्वविद्यालयों के माध्यम से यूजीसी द्वारा संचालित की जाने वाली नेट परीक्षा का केंद्र लेने से कुछ विश्वविद्यालयों ने हाथ खड़ा कर दिये और फिर अराजकता और अव्यवस्था का आलम फैल गया । आयोग ने उससे उबरने के लिए पूरी परीक्षा को ठेके पर सीबीएसई को सौंपा और सुन रहा हूँ अंततः उसने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। अतः यह स्पष्ट नहीं है कि जून में होने वाली यह परीक्षा होगी भी या नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे पूरी तरह अप्रासंगिक बनाकर समाप्त करने की तैयारी हो रही है ?
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

फागुन आ गया

·        राजीवरंजन

लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है । पुरवा-पछुवा की हवा के साथ झोंके की झोंके गंध गाँव के गली-कूचों में भी उतर आई है। गाँव की धूल-धूसरित गालियां अचानक महमहा उठी हैं । ऐसा लग रहा है कि यह गंगा तट का एक सामान्य मैदानी गांव न होकर गंधर्व लोक का कोई कोई पुर हो, याकि अचानक धरती की सतह तोड़कर अचानक सुगंध का कोई सोता फूट पड़ा हो;  चहुं ओर सुगंध ही सुगंध है । और, इसकी गंध से मदमस्त समूची प्रकृति का पोर-पोर झूम उठा है । फागुन की हवा एक अल्हड़ बालिका की तरह बिना किसी अवरोध के पूरे गाँव में कुँलाचें भर रही है। हर एक घरहर एक आँगन उसका अपना है। वह कहीं भी बिलम कर सुहता लेती हैबिना किसी सोच-संकोच के। सारी सरेह (खेत) उसके छोटे-छोटे कदमों के ताल पर थिरक उठी है। चतुर्दिक ऊल्लास की आभा फूट रही है। बूढ़ा से बूढ़ा वृक्ष भी पुलकित हो उठा है। उसके जीर्ण पत्रहीन शरीर से भी नए-नए किल्ले फूट पड़े हैं। फिर युवाकिशोर और बाल वृक्षों का कहना ही क्यासब मगन हैं। पीपल ताली बजा-बजाकर नाच रहा हैआम और महुए  उसकी संगत कर रहे हैं। पाकड़ लाल-लाल चुनर पहन इधर उधर मटक रही है। बेला और चम्पा इत्रदान लिए खड़ी हैं। रातरानी और हरसिंगार फूलों से होली खेल रहे हैं। अमलतास के हाथ में पीला गुलाल हैतो पलाश के हाथ में लाल रंग की पिचकारी। प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर फागुन उतर आया है।
                    फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी हैमानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथारसारी सरेहिबाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है।  इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरसबेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुतसम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदुकटुतिक्तकाषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगाररौद्रकरुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुरअपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यतिगति और लय में अपूर्व मोहकता हैशब्द-शब्द में सघन अनुभूति हैआरोह-अवरोह में अनंत संगीत हैऔर समग्र अन्विति में एक अखंड रस हैजो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही हैऔर अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगीयह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,/पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार/ जिसे पूरा पकड़ पाया नहीं—/ किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता/ तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता ?’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती हैकबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।
        सारे परिवेश में एक अद्भुत उमंग है। सारी प्रकृति भँग की तरंग में झूम रही हैनीति-अनीतिकरणीय-अकरणीयउचित-अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। तृणतरुलतागुल्मपशुपक्षीमनुज सब अपनी-अपनी मौज में हैं और बिना ढोल-मजीरे के हीफाग गाए जा रहे हैं। अलग-अलग राग,अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापनविसंगति और बिखराव नहीं है। सब मिलकर एक ऐसे महाफाग की सृष्टि कर रहे हैं,जिसकी ताल पर कोई अवघड़ देवता अनादि काल से नृत्य कर रहा है। इस सृष्टि का सारा कार-बार — सृजन-लय और उन्मीलन-निमीलन इसीकी नृत्य-भंगिमाएँ हैं। कबीराजोगीड़ा और फगुआ सब उसी अवघड़ की महिमा के गान हैं। इसीलिए समाज के लिए जो असंगतअस्वीकृतअश्लील और अशोभन हैवह सब यहाँ लोक-स्वीकार्यश्लील और शुभ हो जाता है। यह अवघड़ ही इस परमाप्रकृति का सनातन प्रेमी है और प्रकृति का सारा शृंगार-पटारकिसलयकोंचेबौर और पुष्प अपने इस प्रियत्म को ही रिझाने के उपादान हैं। यह अवघड़ देवता ही 'पुरुष और प्रकृतिके युग्म का 'पुरुष', 'शिव और शक्तिके युग्म का 'शिवतथा अमिताभ बुद्ध और प्रज्ञा-पारमिता' के युग्म का शिव हैजो इस नवयौवना प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित कर नई सृष्टि की रचना करता है। यह अनायास नहीं कि पौराणिक आख्यानों में भी फागुन की महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख है। यह किसी आदिम लोक-कल्पना को शास्त्र-सम्मत ठहराने का उपक्रम है। परंपरागत हिंदू-मानस के लिए बिना दांपत्य के प्रेम की कल्पना अग्राह्य है। वह राधा-कृष्ण के लुका-छिपी वाले प्रेम को ईश्वरीय लीला मानकर एक हद तक भले सहन कर लेलेकिन बिना विवाह के नव-सृजन (संतान-उत्पत्ति) उसके लिए असह्य है। हाँयह बात अलग है कि उसे बूढ़े शिव और नवयौवना पार्वती के बेमेल विवाह में उतनी असंगति नहीं दिखती। वैसे भीजब ‘फागुन में बुढ़वा देवर लागे’, तो इस बेमेल विवाह की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती?
            रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं; चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, आलसी, यहाँ तक कि बाँस और दूब तक सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले  रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा, ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं।
        प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो हैजितना है सब समर्पित है। वह कहींअतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता हैउसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधुलो दूधलो अन्नलो फललो जललो वायु। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता हैन वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्तिकोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब हैन नास्तिकता सेन हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरानवेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब,फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगरमार्खेजरोलांबार्थदेरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहींवह सहज है। उसकी शिक्षाउसका आचारउसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करनावह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जातिवर्णरंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरबपश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगीवह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ? दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।
         दिशा-कुदिशा का बोध मानवीय मस्तिष्क की उपज है। सबको जात-कुजात के खानों में बाँट कर देखना मनुष्य की फितरत है। ऊँच-नीचछोटा-बड़ा,अमीर-गरीब का भेद मनव-मन की कल्पनाएँ हैँ। जातिधर्मवर्णगोत्रआदि के तमाम भेद-उपभेद तो मनुष्य ने गढ़े है। यहाँ हर ओछा से ओछा मनुष्य अपने से भी तुच्छ दो-एक आदमी तलाश लेता है। भला प्रकृति का इससे क्या वास्ता ? वह इन बँटवारों को नहीं मानती। वह दिशा-कुदिशा का भेद नहीं करती। वह पुरवा,पछुआउतरहिया और दखिनहिया उसके लिए सब समान हैं। वह माँ हैसब उसके प्रिय हैं। वह ममतामयी और समदर्शिणी हैवह सबको समान प्रेम करती है। वह हम हैं जो उसे भोग्य-भोजक भाव से देखते हैंउसके प्रेम पर अपना एक छ्त्र राज्य समझते हैंउसकी सारी सम्पत्तिउसका सारा स्नेहसारा संचित कोश अकेले-अकेले हजम कर जाना चाहते हैं। उसे राष्ट्र और राज्य की चौहद्दियों में बाँधकर उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। उसका दिया सारा दूधसारा मधुसारा जलसारा अन्न अकेले-अकेले हथिया लेना चाहते हैं । हम मनुष्य महुएआमपीपल और पलाश की तरह सहज रूप से अपने स्वाद और रुचि के अनुरूप महाभोज का आनंद नहीं ले सकते । हमें अपने ‘मन-भोग’ में कंकड़ी दिखने लगी है और दूसरे के पत्तल का रूखा-सूखा भी छप्पन भोग लगने लगा हैउसे भी हड़प जाना चाहते हैं । हमारी लिप्सा के करोड़-करोड़ मुख हैंजिससे वह सबकुछ लील जाना चाहती है। वह खाद्य और अखाद्य के बोध से रहित है। तरुपादपजीवजंतुकंकड़-पत्थर और यहाँ तक कि मनुष्य भी उसके लिए अभक्ष्य नहीं। हमारी ऐषणा हिंसा-अहिंसा की सीमाओं से परे जा रही है । उसके सामने ‘गला काट प्रतियोगिता’ जैसे मुहावरे आउटडेटेड हो चुके हैं। सच कहें तो अब हमें उन मुहावरों और प्रतीकों की भाषा से कोई वास्ता नहीं। अब हम सीधे और सपाट शब्दों में ‘मनुष्य के अंत’, ‘इतिहास का अंत’ और ‘विचार का अंत’ की बातें कर रहे हैं। हमारा कोई अतीत नहींहमारा कोई वर्तमान नहीं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भविष्य भी नहीं। हमने इन सबकी खुले बाजार नीलामी कर दी है। यह बाजार ही हमारा नियामक है। वह चाहे तो मुझेआपकोहम सबको टके के बल पर खरीद सकता है और न चाहे तो आप कूड़े के ढेर में निबटाए जाने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है। हमारी हवाहमारा पानीहमारी जमीनउसके भीतर और बाहर बिखरे असंख्य रत्न और धातु ही नहींहमारी गरीबीहमारी बेकारी और हमारी भूख-प्यास सब बिकाऊ है। सरेआम चौराहे पर नीलाम हो रही हैं और हम अपने कलेजे पर हाथ रखे डालररूबल और पौंड के उतार-चढ़ाव नाप रहे हैं। ऐसे में फगुनहटा के बयार की फुदक पर सम्मोहित होने के बजाय संसेक्स की उछालों के साथ हमारे उछलने में क्या आश्चर्य है
            पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता हैडूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं;अतलवितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। इस डूबने में अनंत सुखअनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़ेतिरे ते बूड़े सब अंग। यह हवा मन को विकुंठ कर देती है; अपनी सारी चिंता, सारा राग-द्वेष सारा मनोमालिन्य भूलाकर तथा स्व और पर संकुचित राग-मंडल ऊपर उठाकर एक अखंड राग में लीन कर देती है । यह लय ही जीवन की चरम साधना है, चरम तृप्ति या चरम सुख है और इसकी प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य । यह अनायास नहीं कि हमारे पुरनियों ने इस लय में ही वर्षांत की कल्पना की; भारत जैसी आनंदवादी जीवन-दर्शन की प्रसव-भूमि के लिए यह सर्वथा अनुकूल भी है ।

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

मनबोध मास्टर का गाँवनामा

विवेकी राय  : एक स्मरण

विवेकी राय
(19 नवम्बर 1924 से 22 नवंबर 2016)
विवेकी राय से मेरा पहला परिचय ‘फिर बैतलवा डाल पर’ के बहाने हुआ । जिस तरह एक पाठक एक लेखक से मिलता है, ठीक उसी तरह एक कृति के रास्ते। तब मेरी वय बहुत कम थी । स्कूल के दिन थे,शायद छुट्टियों के ।बचपन से ही पढ़ाई के दिनों में किताबों से कम पटी, लेकिन छुट्टियों के दिनों उनसे अपने-आप यारी हो जाती थी। चंदा मामा, नंदन और बाल हंस के रास्ते यह यारी अब थोड़ी पक्की होने लगी थी । ‘विक्रम बैताल’ की कथा मैंने पहले ही पढ़ रखी थी, सो ‘फिर बैतलवा डाल पर’ शीर्षक ने मुझे पहली ही नजर में आकर्षित किया । मैं उसे पढ़ गया । उसमें मुझे न विक्रम मिला न बैताल, लेकिन एक डाल जरूर मिल गई जिसके सहारे यह मन आज भी झूल रहा है । यह डाल थी आत्मीयता की डाल। इसे पढ़कर लगा जैसे कोई अपने ही गाँव-घर का बड़ा-बुजुर्ग हमारे आस-पड़ोस और सिवान-मथार का‘कुसल-छेम’ बतिया रहा हो और हम उसकी बतरस में डूबते जा रहे हों । शायद यह बतरस का ही सम्मोहन था कि उसके कुछ ही समय बाद मैं ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ और ‘जुलूस रुका है’ भी पढ़ गया । वहाँ भी वही निखालिस गँवईपन मिला। बतरस का वही सुख और वही आत्मीयता । यह तो बाद में जाना कि यह आत्मीयता, गँवईपन और बतरस का सुख केवल लेखन तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके व्यक्तित्व का भी हिस्सा है। मिलने के बाद । फिर तो मिलने का एक सिलसिला ही बन गया जो अचानक इस सूचना के साथ टूटा कि ‘बड़े दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि बाबा (प्रख्यात साहित्यकार डॉ. विवेकी राय जी) नहीं रहे’ ।
विवेकी राय एक गंवई रंग में रंगे हुए, सहज और आस्तिक रचनाकार हैं । उन्होंने अनेक विधाओं में रचना की है । वे एक साथ ही कवि भी हैं, कथाकर भी, निबंधकार और रिपोर्ताज लेखक भी । उनके रचना काल की तरह ही उनके विधा-वैविध्य का विस्तार भी बहुत अधिक है, लेकिन उन्हें सबसे अधिक ख्याति दो ही विधाओं में मिली— निबंध और उपन्यास । ‘बबूल’, ‘पुरुष-पुराण’, ‘लोकऋण’और ‘सोनामाटी’ उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं और ‘मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’‘जुलूस रुका है’ ‘जगत तपोवन सो कियो’, ‘उठ जाग मुसाफिर’ तथा ‘वन तुलसी की गंध’ आदि उनके चर्चित निबंध संग्रह । उन्हें पढ़ते हुए मुझे बार-बार अज्ञेय की एक कविता याद आती है । उसका शीर्षक है ‘कन्हाई ने प्यार किया’। उसमें अज्ञेय ने रचनाकार की तुलना कृष्ण से की है, जो कृष्ण के गोपियों के प्रति प्रेम की तरह जीवन भर अपनी सारी कल्पना, सारी रचनाशीलता और सारा स्नेह-दुलार अपनी रचनाओं पर लुटाता हुआ उस एक रचना की तलाश में रहता है, जो उसके चित्त की समग्र सर्जनात्मकता को अपने भीतर ढाल ले । वास्तव में ये सभी रचनाएँ उसके अखंड रचानात्मक व्यक्तित्व की ही अभिव्यक्ति होती हैं । नाम और विधा के बदलाव के बावजूद वे अलग नहीं होतीं; किसी न किसी क्षीण सूत्र के सहारे आपस में जुड़ी होती हैं और अपनी संपूर्णता में एक ही अखंड रचना की सृष्टि करती हैं । कुछ ऐसा ही अंतःसूत्र विवेकी राय की रचनाओं में भी है । वे आपस में इतनी गुँथी हुई हैं कि उनके एक रेशे, धागे या गाँठ के पकड़ में आते ही उनका सारा लेखन एक अद्भुत वातायन की तरह अपने-आप खुल जाता है । बस उसके खुलने की देर है, फिर उसके बाद तो ‘अली बाबा चालिस चोर’ की गुफा की तरह आप जितना चाहें माल-असबाब भर लें । लेखक उसे खुश-खुशी लुटाता चला जाता है; अनजाने नहीं, जानबूझकर । अपने पूरे होश-ओ-हवाश में ।
विवेकी राय के लेखन का ‘सिम-सिम दरवाजा’ गाँव है जिसके सामने खड़ा होकर पाठक एक बार कहता है— “खुल जा सिम-सिम’’ और वह दरवाजा अपने-आप सरक कर एक ओर हो जाता है । फिर, आप पैठ जाइए । न दरबान (व्याकरण) के लट्ठ का डर न गाइड (आलोचक) की जरूरत । आप बिना किसी पूर्वपरिचय के उनके लेखन की सारी कोठा-अटारी झाँक आएँगे । आपको लगेगा ही नहीं कि आप इससे अपरिचत हैं । कहना गलत न होगा कि गाँव विवेकी राय के लिए किसी अनन्य सखा की तरह है, जिससे विछोह के बावजूद उसकी स्मृति में वे जीवन भर छ्टपटाते रहे । एक महाविद्यालय की अध्यापकी ने उनका गाँव उनसे छीन लिया था । वे गाजीपुर शहर में आ बसे, लेकिन घर तब भी ‘गँवई गंध गुलाब’ ही रहा । वैसे तो, गाजीपुर भी उन अर्थों में शहर नहीं, बल्कि एक बड़ा गाँव ही है अब-भी;यदि कुछ दुकानें गाँव और शहर के निर्धारण का आधार न माना जाय तो । शायद इसीलिए वे गाँव से दूर तो हुए, लेकिन उनका गँवईपन शहर की भीड़ में खो नहीं सका; वह अंतिम साँस तक उनकी आत्मा से चिपका रहा । वे सोनवानी (विवेकी राय के गाँव) से दूर जरूर हुए, वह छूटा नहीं — “ मेरे लेखन की पृष्ठभूमि ग्राम-जीवन है । वास्तव में वही मेरा जीवन भी है । लगभग आधी उमर धुर देहत के एक गाँव में गुजारने के बाद एक अत्यन्त पिछड़े और छोटे शहर में आया भी तो शहरी नहीं बन पाया….एक पैर गाजीपुर में रहता है तो एक पैर गाँव सोनवानी में रहता है । भारत सरकार की कृपा से गाँव वाले पैर को आराम बहुत है क्योंकि गाज़ीपुर से गाँव पर जाने के लिए छोटी लाइन के पाँचवे स्टेशन ताज़पुर-डेहमा पर उतरने के बाद जाड़े-गरमी के दिनों में डेढ घंटा पदयात्रा करना अनिवार्य होती है । बाढ़-बरसात के दिनो में यह समय दुगुना से ले कर चौगुना तक हो जाता है । सड़क एक दुःस्वप्न है । भारत के लाखों गावों की भाँति अभी मेरा गाँव भी बिजली और सड़क से वंचित है ।”
विवेकी राय के लिए गाँव एक रोमानी दुनिया या एक नॉस्टेल्जिया है— यह सोच गलत है । गाँव उनका मन, प्राण या उन्हीं की तरह आत्मवादी शब्दावली का इस्तेमाल किया जाय तो ‘आत्मा’ है। अतः गाँव पर होने वाली हर चोट उनकी आत्मा पर चोट थी । वे तिलमिला उठते थे । निहत्थे साहित्यकार के पास इस चोट का जवाब देने का एक ही जरिया था, लेखन । वे जीवन भर अपने लेखन में मिटते गाँवों को बचाने की जद्दोजहद में लगे रहे । इसी से उन्हें आत्मबल मिलता था । इसी के सहारे वे निजी जीवन के दुःख-सुखात्मक अनुभवों के पार जाकर जीवन के तिरानबे बसंत देख सके और इस वय में भी स्वास्थ्य का जिक्र करने पर असहज हो जाते थे । जब भी कोई उसका जिक्र करता, वे मुस्कुराकर जवाब टाल जाते थे । उनका हाल में प्रकाशित निबंध संग्रह ‘उठ जाग मुसाफिर’ इसका प्रमाण है । इसमें उन्नीस नब्बे के बाद के गाँवों की तस्बीर खींचते हुए उन्होंने लिखा है– “ ग्राम-विकास की बढ़ती गाड़ी गाँवों के उजाड़ तक पहुंची। विकास तन्त्र, नवजीवित जातिवाद, चुनाव की राजनीति- इन चार रास्तों से चार चोर शनैः-शनैः कालक्रम से, छद्म वेश में घुसे गाँवों में।…..गाँव बेपहचान हो गया । उसकी सामजिक एकता, पारस्परिक राह-रस्म। भाईचारा और भोज-भात की अन्यतम विशेषताएँ तथा ग्राम-भाव के केंद्रीय तत्व-स्वरूप सांस्कृतिक परंपराएँ सब कुछ घिस-पिट बदरंग हो समाप्तप्राय हैं।” ये नब्बे के बाद के गाँव है । नब्बे यानी भूमंडलीकरण का दौर और नब्बे के गाँव यानी भूमंडलीकरण के बाद के गाँव । इसकी आशंका विवेकी राय ने लगभग डेढ़ दशक पहले ही व्यक्त कर दी थी; जबकि हिंदी लेखकों के लिए भूमंडलीकरण शब्द बिल्कुल अनजान था, स्वयं विवेकी राय के लिए भी। जुलूस रुका है (1977 ई.) के अपने एक निबंध ‘सावधान ! गाँव में शहर आ पहुँचा’ में उन्होंने इस संभावना पर बहुत विस्तार से लिखा है ।
गाँवों के संबंध में यह धारणा है कि ये एक खास आर्थिक अवस्था की देन हैं और उसमें बदलाव के साथ उनका अंत एक अनिवार्यता है । ये आर्थिक पिछड़ेपन के साथ ही सामजिक और सांस्कृतिक पिछ्ड़ेपन की पहचान हैं । विवेकी राय ने अपने समूचे लेखन में इसका प्रतिवाद किया है । वे बार-बार हमें आगाह करते हैं कि ये गाँव ही भारत की सांस्कृतिक पीठिका हैं । बिना इसके हमारी सांस्कृतिक पहचान की ऊँची-से-ऊँची मीनार भी एक झटके में भरभरा कर ढह जाएगी और हम तमाशबीन की तरह उसे देखते रह जाएँगे । जिसे हम भारतीय संस्कृति या भारतीयता कहते हैं, वह भारत के गाँवों में बसती है; न कि नगरीय जीवन में । नगरीय जीवन तो उसका ‘शोरूम’ है, जिसमें उसकी सजी-सँवरी आकृतियाँ मिल सकती हैं, लेकिन उसे रचने वाले कारखाने नहीं । ये कारखाने तो उन किसानों के घरों में हैं,जिन्होंने भारत के इस विशाल सांस्कृतिक वृक्ष को अपने श्रम-स्वेद से सींचा है । उसकी सारी सौम्यता, सारी आत्मीयता, बहुलता और सृजनशीलता इन्हीं गाँवो की देन है । जिस संस्कृति की ऊँची मीनार पर खड़े हो कर हमारे कवि और शायर उसका जय-गीत गाते हैं — ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’; गाँव ही उस मीनार के आधार हैं और उस अमिट हस्ती को अंकित करने वाली सतह भी उन्हीं की पंकिल मिट्टी से बनी है । अन्यथा शहर के भंगुर शील-बोध, अस्थिर नैतिकता और गहमागहमी वाले जीवन परिदृश्य में भला वह अमिट कैसे रह पाती ? ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को पल भर में जमींदोज कर बिना मोह-छोह वहाँ एक दूसरी इमारत तान देने वाला शहर, भला इस संस्कृति की भीत को कब तक लीप-पोत सकता था और कबतक इसके छान-छप्पर साज-सँभाल कर उसे बचा सकता था । उसमें न इतना धैर्य है और न फुरसत । यह काम तो गाँव और गँवई मनुष्य ही कर सकता है जिसे माटी से मोह है और जो अपनी धरती, अपने पूर्वज और अपने पास-पड़ोस से एक रागात्मक रिश्ता रखता आया है, उसे अपने जीवन और अपनी स्मृतियों में सदियों-सहस्राब्दियों सँजोता आया है । भारत के स्थापत्य की नुमाइश देखनी हो तो शहर जाइए, लेकिन अगर उसके कला-दृष्टि, जीवन-दृष्टि और मूल्यों को समझना हो तो आपको हमारे गाँवों में आना होगा । इस तथ्य को समझने की जितनी गहरी अंतर्दृष्टि विवेकी राय के पास थी, उतनी शायद ही हिंदी के किसी अन्य समकालीन लेखक के पास रही हो । उन्होंने लिखा भी है—“बेचारा गाँव न नगर बन सका और न ही गाँव रह सका । नगर का हर धक्का कुछ न कुछ तोड़ जाता है । लड़ाई भोले भाव और चकन्नेपन की है । गाँव एक राग है, एक कल्पना है, एक विस्तार है और सहजता है…’’ संक्षेप में कहें तो संस्कृति का आधान है । गाँवों को देखने की उनकी यह दृष्टि अद्वितीय थी ।
गाँवों से विवेकी राय का रागात्मक संबंध कुछ वैसा ही था जैसा कि एक प्रिय का अपनी प्रेयसी या प्रेयसी का अपने प्रिय के साथ होता है । इसलिए गाँवों को देखते समय उनकी चितवन स्वतः स्नेहिल हो उठती है । उनका सारा प्रेम, दुलार, ममत्व और अनन्यासक्ति उनकी दृष्टि में झलकने लगता है। उनकी चितवन प्रेम से कहीं-कहीं इतनी बोझिल हो उठती है कि आलोचकों कई बार यह भ्रम होता है कि विवेकी राय गाँव की ओर से (उसके नकारात्मक पक्षों की ओर से ) आँखें बंद कर चुके हैं । लेकिन नहीं, यह आकलन गलत है । उन्हें अपनी इस प्रेयसी के नाज-नखरों का भी अहसास है । वे यह भी जानते हैं कि ये नखरे जिद्द बनकर एक परिवार (गाँव) में अलग्योझा करा देंगे, उसे कंगाली, बेहाली और भुखमरी के कगार पर ला खड़ा करेंगे और तब उसकी सहानुभूति जताते हुए उसे अकेला और कमजोर पा उसी का गोतिया (नया शहर) उसका घर-दुआर, जमीन-जायदाद और इज्जत-मर्जाद सब हजम कर जएगा । इसलिए वे आगह करते चलते हैं— “गाँवों में बैर, विरोध, हिंसा, बिखराव, वैमनस्य, अराजकता,तनाव और अलगाव ऐसा बढ़ा कि सही अर्थों में वह जंगल हो गया है । मनुष्य जंगली जानवरों की भाँति एक दूसरे पर घात लगाए गुमसुम गुर्राते ऐसे मरे-मरे जीते हैं कि उनके देश, समाज, नैतिकता, मानवता और यहाँ तक कि आनंद उल्लास और सहकार-सहयोग की सुख-भागिता के लिए भी कोई कोना बचा नहीं होता है ।… गाँव के भीतर से उसका देवत्व उजड़ गया है ।” इसलिए यह सोचना कि गाँव के प्रति प्रेम ने उन्हें दृष्टिहीन कर दिया है; गलत है । वे एक मर्मभेदी दृष्टि वाले लेखक थे और उन्हें गाँवों के मर्म की पहचान बहुत गहरी थी।
विवेकी राय का मन एक भारतीय किसान का मन है— सहज और उत्फुल्ल । वह रहस्य, गोपन, दुराव-छिपाव की ‘एम्बीगुइटी’ नहीं जानता । उसका जो भी दुःख-सुख है उसे साहित्य के खुले सिवान में बैठकर वह कहीं-भी, कभी-भी और किसी से भी बाँट लेता है । वह यह नहीं देखाता— आलोचना के खुले खेत में खड़ा है, कहानी की रंग-बिरंगी फुलवारी में बैठा है, गर्मी की दुपहरिया खटिया डाले उपन्यास के घने बगीचे में ऊँघ रहा है, डायरी की छोटी बावड़ी में अपना पैर पखार रहा है या निबंध की प्रशस्त ‘छवर’ पर सिर पर विचारों का बोझ लेकर चल रहा है; उसे तो बस एक श्रोता चाहिए । वह अपना सब कुछ खोल कर रख देगा— अपना अनुभव, अपना मर्म, अपनी हँसी, खुशी, दुःख, नाराजगी, रुचि-अरुचि – सब । विवेकी राय में बतरस का लोभ अपने अन्य सहयात्रियों से अधिक है । अपने निबंधों में वे विचार और चिंतन की ओर बढ़ते हुए अचानक कब छवर पर खड़े होकर गाँव के किसी खेतिहर से बतियाने लगते हैं, पता ही नहीं चलता—
“नशों में सुर्ती श्रेष्ठ है, क्यों महेश बाबू ?” मैंने पूछा । महेश बाबू मौन हो गये । क्षण भर सोचकर बोले:
“नशे सब खराब हैं मास्टर! तुम्हें क्या बताना है । यही कहो कि एक गंदी लत पड़ गयी, अब जब तक मर नहीं जाते गले पड़ी रहेगी ।”
“मेरे कहने का मतलब था,” मैंने झेंपते हुए कहा, जैसे किसी प्रकार बात जारी रखनी थी,“कि कम नुकसान करती है।”
“कम नुकसान करती है? कौन कहता है? देखो!” और खड़े हो कर महेश बाबू ने मेरे सामने मुंह बा दिया । बोले “देखो! अगले चार दांत सुर्ती की वलिवेदी पर चढ़ गये । धन की बरबादी अलग, समय की बरबादी अलग, गन्दी आदत अलग ।”
“जब ऐसा है तो क्यों खाते हैं?” मेरे मुंह से निकल गया ।
“और यही सवाल मैं भी पूछता हूं…..मैं तो गृहस्थ हूं मूर्ख हूं….तुम मास्टर….गुरु….होकर क्यों खाते हो? बोलो जवाब दो।”
विवेकी राय इसतरह के संवादों का जगह-जगह प्रयोग किया है । ये संवाद इतने सहज और चुटीले हैं कि इनसे निबंध जैसी चिंतन-प्रधान विधा में भी रोचकता पैदा हो जाती है । यूँ तो, ललित निबंध विधा ही संवादाश्रयी विधा है । बिना ‘मैं’ के उसका काम ही नहीं चलता । चाहे आचार्य द्विवेदी हों, पंडित विद्यानिवास मिश्र हों या कुबेरनाथ राय— सबने इस संवाद को माध्यम बनाया है, लेकिन विवेकी राय के यहाँ इस तरह के संवादों की भरमार है । इस विधा के वे इसलिए भी विशिष्ट लेखक रहे कि उन्होंने अपने ‘मैं’ को न आचार्य द्विवेदी की तरह विद्वान गपोड़ बनाया, न तो पंडित मिश्र की तरह एक विचारक मनुष्य न ही, कुबेरनाथ राय की तरह तर्कशील और विवेकी मनुष्य के रूप में गढ़ा; उन्होंने अपने ‘मैं’ को अपने परिवेश में सहज छोड़ दिया । वह बस गाँव, घर, दुःख-सुख और आस-पड़ोस की बात बतियाता है । पर, है बड़ा बातूनी । कब अपनी बातों में बाँधे-बाँधे शहर के एक शिक्षित-मानस, सभ्य, संभ्रांत और सुसंस्कृत नागर को भी गाँव के धुरियाए छान-छप्परों के बीच ला खड़ा कर देगा, कह पाना मुश्किल है । नागरिक बोध से सर्वथा दूर ठेठ करइल के सोनवानी गाँव की मिट्टी कब उसके कदमों को बाँध लेगी यह समझना मुश्किल है । करइल की इस मिट्टी की पकड़ बहुत मजबूत होती है, यह बात बरसात के मौसम में सोनवानी की मिट्टी पर पैर रखने वाला ही समझ सकता है । विवेकी राय का मन इसी मिट्टी के रस से पुष्ट हुआ था । इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि उनमें पाठक को बाँध लेने की अनूठी क्षमता थी ।
आज, जबकि विवेकी राय एक व्यक्ति के रूप में हमारे सामने नहीं हैं; उनसे संवाद का एकमात्र जरिया उनका लेखन ही है । उससे बतियाते हुए मुझे अब भी उनके सहज, मृदु और आत्मीय व्यक्तित्व का स्मरण हो आता है । उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि किसी पंक्ति के बीच में ही वे खिलखिला कर हँस पड़ेगें । उनकी यह सहजता उनकी गँवई मनोभूमि की देन थी। साहित्य में भी वे हमेशा किसान रहे और जीवन में भी। पेशे से अध्यापक जरूर रहे । वहाँ भी वे खाँटी गँवई मास्टर ही रहे— मनबोध मास्टर । एक किसान, एक मास्टर और एक लेखक तीनों ही भूमिकाओं में उनकी मनोभूमि की निर्मिति ठेठ भारतीय थी । एक विशिष्ट अर्थ में वे भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा की अमूल्य थाती हैं । जब गाँव अतीत की गर्भ में समा चुके होंगे, मॉल और मल्टीप्लेक्स की चमकदमक के बीच गाँव का आदमी पूरी तरह खो चुका होगा, पश्चिम की भंगुर नैतिकता और अस्थिर शील-बोध हमारे शहरों से होते हुए हमारे गावों ( तब की मलिन बस्तियों) को लील चुका होगा; तब भी भारतीय गाँव, भारतीय शील-बोध और भारतीयता की संहिता विवेकी राय का साहित्य हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक होगा ।