शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

पंडितारमा बाई : नवजागरणकालीन स्त्री-अस्मिता की मुखर अभिव्यक्ति

 

पंडिता रमा बाई  के लेखन को भारतीय नवजागरण का एक सशक्त स्त्री-स्वर माना जा सकता है। उनका जीवन अत्यन्त सक्रिय रहा, जिसका एक बड़ा हिस्सा नारी जागरण, सामाजिक-धार्मिक जकड़बंदियों से उसकी मुक्ति और इन सभी के निमित्त स्त्री-शिक्षा के प्रसार के प्रति समर्पित रहा। उन्होंने स्वयं स्त्रियों की मुक्ति के लिए प्रयास ही नहीं किये बल्कि उन्हें अपनी मुक्ति के लिये प्रोत्साहित और प्रशिक्षित भी किया। वे एक ही साथ स्त्री-मुक्ति के आंदोलन की कार्यकर्त्री, नेतृत्वकर्त्री और गुरु तीनों थीं। अपने वैदुष्य और तर्क-शक्ति के कारण वे बंगाल में अपने समकालीन चिन्तकों और सुधारकों के बीच रमा बाई  सरस्वतीऔर महाराष्ट्र के प्रबोधनकालीन विचारकों के बीच पंडितारमा बाई  के नाम से जानी जानी गईं। तत्कालीन समाज में होने वाले बदलावों के नब्ज को पहचानने की क्षमता के साथ ही उनमें गहन परम्परा-बोध और विवेकसम्मत आधुनिक अन्तर्दृष्टि दोनों अपने समन्वित रूप में उपस्थित थे। इन्हीं के सहारे वे नवजागरणकालीन सामाजिक सन्दर्भों और उनमें होने वाले नए परिवर्तनों के कमजोर और सशक्त पहलुओं को देख-परख कर उनके बीच भारतीय स्त्री के लिए एक मजबूत जगह तलाश रहीं थीं। यही कारण है कि वर्तमान स्त्री-अस्मिता को अभिव्यक्त करने वाली अनेक-अनेक आवाजों के बीच भी उस अकेली आवाज की अनुगूज सुन पाना आज भी सहज है।
पंडिता रमा बाई  के एक हाथ में भारतीय ज्ञान की परम्परा थी तो दूसरे में पश्चिम का ज्ञान-विज्ञान। इसके अलवा उनके पास भारत की लम्बी पदयात्राओं से अर्जित अनुभव भी था और युरोप-अमेरिका की यात्राओं से अर्जित पश्चिमी जीवनपद्धति का बोध भी। इस तरह उनका चिन्तन परम्परा, आधुनिकता तथा अनुभव के एक मजबूत त्रिक् के आधार पर टिका था। अदालत द्वारा रुख्माबाई के विरुद्ध और उसके पति के पक्ष में सुनाए गए फैसले पर टिप्पणी करते हुए, रमा बाई  ने लिखा था- हम ब्रिटिश सरकार को एक असहाय स्त्री की रक्षा नहीं करने का दोष नहीं दे सकते, क्योंकि वह तो मात्र भारत के पुरुषों के साथ की गई संधियों को ही पूरा कर रही है। मुक्तिदाता के वाक्य कितने सत्य हैं,‘तुम एक साथ ईश्वर और धनकुबेर दोनों को खुश नहीं रख सकते।क्या प्राचीन संस्थाओं के सिद्धान्तों एवं ताकतों के विरोध में जाकर इंग्लैंड एक असहाय औरत की सहायता करेगा ? धनकुबेर इससे निश्चय ही अप्रसन्न हो जएगा तथा भारत में ब्रिटिश शासन और लाभ खतरे में प जाएगा।1जाहिर है कि रमा बाई  परंपरा की जटिलता और साम्राज्यवाद की नीतियों तथा इन दोनों के बीच की दुरभिसंधियों को उनके यथार्थ रूप में समझ रहीं थीं। रजनी पामदत्त ने भी इसकी ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है- भारतीय समाज के पीछे की ये बुराइया केवल साम्राज्यवादी शासन से व्युत्पन्न नहीं  हुईं, बल्कि वे भारत के इतिहास-प्रसिद्ध अतीत से भी विरासत में मिली हैं।...जहा तक साम्राज्यवाद की बात है, वह अपनी भूमिका और अपने सामजिक आधार की मूलप्रकृति के अनुसार बुराइयों को जारी रखने और यहा तक कि उन्हें बढ़ावा देने के लिए विवश होता है।2ऐसीस्थिति में रमा बाई  का संघर्ष केवल परंपरागत रूढियों सामाजिक संकीर्णताओं और पितृसत्तात्मक समाज की पुरुषवादी व्यवस्था के साथ ही नहीं, बल्कि उन ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों से भी था, जो खुद को कायम रखने के लिए रूढ़िवादियों के साथ खड़ी थीं।
      पंडिता रमा बाई  उनींसवीं सदी के भारतीय समाज की उपज थीं जहा स्त्रिया दोयम दर्जे की हैसियत रखती थीं। बचपन में पिता, युवावस्था में पति और बृद्धावस्था में पुत्रों द्वारा रक्षणीय मानी जाती थीं।3 उनकी सामाजिक स्थिति धरोहरया सम्पत्तिमात्र से अधिक न थी। परिवार के लिए वे मर्यादा की वस्तुथीं, लेकिन परिवार के भीतर या बाहर उनका अपना कोई वजूद नहीं था। रमा बाई  के ही शब्दों में, “ची जाति की स्त्री के लिए विवाह वेद पाठ के उच्चारण के साथ किया जाने वाला एक मात्र संस्कार है। यह धारणा है कि यह पाठ उस व्यक्ति के सम्मान में बोले जा रहे हैं जिससे स्त्री शादी कर रही है। बिना पवित्र सिद्धान्तों के कोई सिद्धान्त स्त्री के लिए नहीं हैं। अबसे लकी उस व्यक्ति की है, वह (स्त्री) न केवल उसकी सम्पत्ति है अपितु निकटतम रिश्तेदार भी।...अब से वह एक प्रकार से निर्वैयक्तिक वस्तु हो जाती है ( जिसका अपना व्यक्तित्व नहीं होता)। वह कोई गुण या योग्यता नहीं रख सकती।4 यहाँ दो शब्द- सम्पत्तिऔर निर्वैयक्तिक वस्तुतत्कालीन सामाज व्यवस्था में स्त्री की अवस्था का बोध कराने के लिए पर्याप्त हैं। राजा राममोहन राय ने तो अपने समय के बंगाल में विवाह के लिए स्त्रियों के परिजनों द्वारा धन लेकर कन्या के विक्रय का भी उल्लेख किया है और साथ ही यह भी जोड़ा है कि लड़किया परिवार में आमदनी का जरिया थीं।5 इस तथ्य को उपर्युक्त उद्धरण के साथ जो दिया जाय तो इस बात में संदेह नहीं  रह जाता कि भारतीय समाज में उस समय स्त्री का व्यक्ति के रूप में कोई वजूद या अधिकार नहीं था। उन्नीसवीं सदी में ही नहीं, कालिदास के समय में भी लकी पितृकुल के लिए पराया धन ही मानी जाती थी। शकुन्तला को विदा करते हुए महर्षि कण्व कहते हैं-

अर्थो हि कन्या परकीयएव तामद्यसम्प्रेष्य परिग्रहीतुः।

जातोममायं विशदः प्रकामं प्रत्यर्पित न्यास इवान्तरात्मा।।

अर्थात् कन्या वस्तुतः दूसरे की सम्पत्ति होती है। आज उस कन्या (शकुन्तला) को उसके पति के पास भेजकर मेरा अन्तर्मन उसी प्रकार प्रसन्न हो गया है जैसे किसी की धरोहर को उसे (न्यासकर्ता) को सौंप देने वाले व्यक्ति का होता है।
      भारतीय समाज की यह मनोरचना सहस्राब्दियों से चली आ रही है। पंडिता रमा बाई  विवाह को स्त्री के बंधन का एक कारण मानती हैं। उन्हीं के शब्दों में,“हिन्दू स्त्री के जीवन का स्वर्णयुग बचपन ही होता है। वह अन्दर बाहर जाने के लिए आजाद होती है। जाति या अन्य सामाजिक बन्धनों का कोई भार नहीं होता।... वह चार साल के घोड़॓ के बच्चे से थोड़ी सी भिन्न होती है, जिसके दिन पूर्णतः आजादी से बीतते हैं। तब देखिए, अचानक शादी के बंधन की घोषणा होती है तथा जुआ हमेशा के लिए उसकी गर्दन पर डाल दिया जाता है।7 रमा बाई  के इस कथन की तुलना मेरी वोल्स्टन क्राफ़्ट के इस कथन से की जा सकती है- जिस लकी के उत्साह को अकर्मण्यता की सीलन न लगी हो या जिसकी निष्पाप्ता को झूठी लज्जा का ग्रहण नहीं लगा हो वह हमेशा ही अलमस्त रहेगी।8 पहले उद्धरण में विवाह को बंधन का कारण और स्त्री स्वतन्त्रता में बाधक माना गया है और दूसरे में लज्जा को। ध्यातव्य है पहले उद्धरण का सन्दर्भ भारतीय है और दूसरे का यूरोपीय, लेकिन दोनों में ही स्त्री की एक सी स्थिति का जिक्र हैं। जर्मेन ग्रीयर यह स्वीकार करती हैं कि स्त्रिया इस तरह के बंधन को बिना प्रतिरोध के और पूरा पूरा स्वीकार नहीं करती हैं- अगर मैं इंगित करूं कि लकियां अपने संस्कृतीकरण को पूरा-पूरा, बिना प्रतिरोध के स्वीकार कर लेती हैं तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। जितना दबाव माएँलड़कियों पर साफ़-सुथरा और नज़र चोर होने पर डालती हैं, उससे लड़कियों का प्रतिरोध भी कुछ कम नहीं होता।9 लेकिन उन्नीसवीं सदी के भारतीय समाज में इस तरह के प्रतिरोध का कोई अवसर नहीं था। कमलकुमार मजूमदार के बंगला उपन्यास अन्तर्जली यात्राका कथानक इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसका दूसरा उदाहरण भारतेंदु युग की एक हिन्दी लेखिका मल्लिका कीचन्द्रप्रभावा पूर्णप्रकाश शीर्षक लघु उपन्यासिका में देखा जा सकता है, जिसमें इस स्थिति का प्रतिवाद किया गया है।10
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’(मनुस्मृति) और जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’(बाल्मीकि रामायण)के उच्चादर्शों की घोषणा के बावजूद भारतीय समाज-विधान में स्त्री अपनी निम्नतम् अवस्था के लिए विवश है। पंडिता रमा बाई  ने इस तथ्य को हिन्दू-समाज की धार्मिक संरचना और भारत के सामाजिक संगठन के संदर्भ में बार-बार और अलग-अलग ढंग से रेखांकित किया है। इस संदर्भ में उन्होंने यह माना है कि इस स्थिति के लिए प्राचीन संस्कृत साहित्य, शास्त्र और विधि-ग्रंथ उस सीमा तक जिम्मेदार नहीं रहे हैं जितनी वर्तमान पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था और कर्मकाण्डीय पौरोहित्य। इस बात की पुष्टि में उन्होंने अपनी पुस्तक हाई कास्ट वुमनमें प्राचीन संस्कृत साहित्य, शास्त्रीय मतों और वैदिक संदर्भों से प्रमाण भी उद्धृत किए हैं। सती-प्रथा के संबंध  में उन्होंने लिखा कि सती की चिता में विधवाओं का आत्मदाह ऐसी प्रथा है जो स्पष्टतः मनु की आचार संहिता के संकलन के बाद पुरोहितों द्वारा ईजाद की गई। अपस्तम्ब,अश्वलायन तथा दूसरे धर्मसूत्र, जो मनु से पहले के हैं इस नियम का उल्लेख नहीं करते और न मनु-संहिता ही।11 बंगला नवजागरण के अग्रदूत माने जाने वाले राजा राममोहन राय भी सती-प्रथा का विरोध करते हुए लगभग ऐसी ही बात कहते हैं। फ़िर भी, रमा बाई  ने इन ग्रंथों को स्त्री-अधिकारों का पवित्र घोषणा-पत्र नहीं माना। उन्होंने इनके उन पक्षों की तार्किक ढंग से आलोचना भी की है जहा वे स्त्री के हितों में बाधक की भूमिका में हैं। उन्होंने मनु-स्मृति,संहिताओं और शास्त्रों के स्त्री-संबन्धी विचारों को उद्धृत करते हुए लिखा- ऐसा अविश्वास और सामान्य स्त्रियों की प्रकृति और चरित्र का इतना निम्न मूल्यांकन ही भारत में स्त्रियों को अलग रखने के रिवाज की ज है।....लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ऐसे विवाद छठवीं सदी से ही अस्तित्व में हैं। सभी पुरुषों को नियम द्वारा आदेश दिया गया कि वे घरेलू स्त्री को सभी स्वतन्त्रताओं से वंचित कर दें।12 अपने मत के साक्ष्य में प्राचीन साहित्य और शास्त्र से प्रमाण देना और आवश्यक होने पर उन्हीं शास्त्रों के मतों की आलोचना करना यह सिद्ध करता है कि उनका स्त्री-पराधीनताके प्रति प्रतिवादी स्वर तर्क-सम्मत और वस्तुनिष्ठ चेतना से सम्पन्न था, केवल भावुक प्रतिवाद नहीं। प्राचीन साहित्य एवं शास्त्रों के प्रमाणों का तर्क सम्मत प्रयोग और उनकी विवेक-सम्मत आलोचना रमा बाई  की विशिष्टता है। इस संबंध में एक दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण है, वह है भारतीय मानस पर धर्म और शास्त्र का प्रभाव। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने लिखा है- यदि केवल युक्ति को आधार माना जाय तो इस देश के लोग कभी इसे कर्म के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इस प्रकार के विषय के लिए इस देश में शास्त्र ही प्रमाण माना जाता है...।13 यह मान्यता केवल एक विचारक या चिन्तक की नहीं,बल्कि पूरी नवजागरणकालीन चेतना के ऊपर छाया हुआ एक सार्वभौम विचार था- भारतीय जनता को धर्म से अलग करना संभव नहीं था। इसलिएए नवजागरण की सबल अन्तर्धाराओं में धर्म के भीतर रह्कर ही उसकी आलोचना हुई।14 यही नहीं बाद के लेखकों और विचारकों में भी ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएँगे। जयशंकर प्रसाद के ध्रुव-स्वामिनीनाटक का अन्तिम अंश हिन्दी समाज का सबसे परिचित उदाहरण माना जा सकता है। इसीलिए भारतीय नवजागरण में धर्म और शास्त्र के प्रश्न की उपस्थिति बराबर दिखाई पती है। पंडिता रमा बाई  भी इससे मुक्त नहीं थीं।
रमा बाई  ने ऊपर उद्धृत किए गए दो अंशों में दो महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, इनमें से पहले का संबंध  सतीप्रथा से है और दूसरे का स्त्रियों के प्रति अविश्वासऔर उनके चरित्र एवं प्रकृति के निम्न कोटि से मूल्यांकनसे। इन दोनों के संबंध में रमा बाई ने विस्तार से चर्चा का है। उन्होंने लिखा है- हिन्दुओं के मध्य से एक पुरुष- राजा राममोहन राय ने इस प्रथा (सतीप्रथा) के खिलाफ़ आवाज उठाई तथा यह घोषित किया कि यह वेदों द्वारा स्वीकृत नहीं है.....वह सरकार द्वारा उसे समाप्त कराने में सफ़ल हो गए।15 इससे यह स्पष्ट होता है कि रमा बाई के समय तक सतीप्रथा  प्रायः समाप्तहो गई थी। फ़िर भी उन्होंने सतीप्रथा के पीछे के जिन दो कारणों का उल्लेख किया है, वे महत्वपूर्ण है। पहला कारण उन्होंने पुरोहित्वादी व्यवस्था को बताया है- पुरोहितों और अन्य साथियों ने स्वर्ग के विचार को जिस तरह रंगीन एवं सभी प्रकार के आनन्द से युक्त जगह बताया कि बेचारी विधवाएँ अपने पति के साथ उस जगह को पाने के लिए अधीर हो उठीं।16 यहाँ ऐसा लगता है कि विधवाएँ स्वेच्छा से और खुशी-खुशी बलिदान के भाव से जल मरती थीं। जबकि, राममोहन राय ने इसे स्वैच्छिक कृत्य न मानकर विधवाओं की हत्या का सुनियोजित प्रयास कहा है।17 रमा बाई ने दूसरा कारण यह माना है कि वैधव्य के बाद विधवा जीवन की दुर्गति और कष्टों के चलते स्त्री तत्काल आग की लपटों में क्षणिक कष्ट को बेहतर समझते हुए खुद को समर्पित करना उचित समझती है।18 यहाँ भी सती प्रथा को एक स्वैच्छिक प्रक्रिया ही माना गया है, लेकिन उसके प्रेरक के रूप में वैधव्य जन्य कष्टों का उल्लेख है। सतीप्रथा की समाप्ति को अपर्याप्त मानते हुए देरेजियो ने हिन्दू विधवा की जो स्थिति बंगाल में बताई थी, वह भी इसकी प्रेरक शक्ति होने की पर्याप्त क्षमता रखती है- वे विधवाएँ जो सती होने से इन्कार करती हैं ..... घरेलू जीवन में उनका स्थान नितान्त अपमान जनक और निकृष्ट होता है। उन्हें उतने से ज्यादा भोजन एकदम नहीं दिया जाता जिससे महज उनका जीवन रक्षण हो सके।उन्हें नंगी जमीन पर सोना पड़ता है और परिवार के कनिष्ठतम् व्यक्ति का रुतबा भी उनसे ऊपर होता है।19 लगभग इसी तरह का जिक्र महाराष्ट्र के संदर्भ में ज्योति बा फूले ने भी किया है- वह अपने सारे आभूषण उतार देती हैं। उनके निकट सम्बन्धी बलात उसका सिर मुडवा देते हैं । उसे न भर पेट भोजन मिलता है न तन ढकने को कपडॆ मिलते हैं।....यहाँ तक कि उसके साथ एक अपराधी या पशु जैसा व्यवहार किया जाता है।20 रमा बाई ने विधवा जीवन के कष्टों का जो उल्लेख किया है, उनका कुछ संकेत यहाँ मिल जाता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि सती-प्रथाऔर विधवा-दुर्दशाकेवल ब्राह्मणों और ऊची जातियों की समस्या थी लेकिन रमा बाई ने लिखा है कि दक्षिण के ब्राह्मणों में हर पखवाडे सभी विधवाओं के सिर नियमित रूप से मुडवाए जाते हैं, कुछ नीची जातियों ने भी विधवाओं के सिर मुडवाने की प्रथा को स्वीकार कर लिया है तथा अपने ऊचि जाति के भाइयों की नकल उतारकर वे खुद को गौरवान्वित महसूस करते है।21 इसका तात्पर्य यह है कि रजत के. रे शेखर वन्द्योपाध्याय ने जिस तरह ब्राह्मणेत्तर और नीची कही जानेवाली जातियों तक में सती प्रथा का विस्तार माना है, उसी तरह रमा बाई ने विधवा की दुर्दशा का। अन्यत्र उन्होंने विधवाओं की स्थिति की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि विधवा को मनहूसकहा जाता है। रांडवह नाम है, जिसके द्वारा विधवा सामन्यतः जानी जाती है। यह शब्द चरित्रहीन लड़की या वेश्या की संतान के लिए प्रयुक्त होता है।22
सती-प्रथाऔर विधवा-दुर्दशाके साथ ही बालविवाह, बहुविवाह और बेमेल विवाह पर भी रमा बाई ने अपने विचार रखे है। उन्होंने लिखा है- पूर्वी भारत के ब्राह्मण अपनी गरीबी के बावजूद कई सौ वर्षों से भ्रांत धारणाओं को सफ़लता पूर्वक निभाते आ रहे हैं। वे ऐसा बहुविवाह के रिवाज का फ़ायदा उठा कर कर चुके हैं। ऊँचे  गोत्र का ब्राह्मण दस, ग्यारह, बीस, देढ़ सौ लड़कियों तक से शादी करेगा। वह इसे व्यवसाय बनाता है।23 ऐसी स्थिति में बेमेल विवाहों की संख्या बढना तय  है और साथ ही विधवाओं की भी। राजा राममोहन राय ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है- कुलीन ब्राह्मण दस-बीस-तीस लड़कियां तक व्याह लाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि बंगाल में आत्महत्या करने वाली स्त्रियों की संख्या अन्य ब्रिटिश प्रान्तो की तुलना में १० गुनी है।24 बात एकदम स्पष्ट है कि राम मोहन राय और रमा बाई के अलग-अल्ग देश-काल के होने के बावजूद स्थितियों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं दिखाई पडता।
पंडिता रमा बाई के कई समकालीनों ने विधवाओं के विवाहों पर जोर दिया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में विधवा पुनर्विवाह के प्रचार के लिए आंदोलन किया। महाराष्ट्र में भी उस तरह के आंदोलन हुए। सरकारी स्तर पर १८५६ ई. में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली लेकिन इन सबके बावजूद रमाबाई इन प्रयासों से संतुष्ट नहीं थीं। उनके अनुसार, “सुधारकों का एक वर्ग यह सोचता है कि वे पुनर्विवाह व्यवस्था की स्थापना कर विधवाओं की स्थिति को सुधार सकेंगे। इस व्यवस्था को निश्चित ही बाल-विधवाओं की हित में शुरु करना चाहिये, जो आगे की उम्र में शादी को इच्छुक हैं लेकिन इसी तरह यह याद रखना चाहिये कि यह प्रयास उनकी स्थितियों को सुधारने के लिए अपर्याप्त है।25 विवाह को एक बंधनमानना और विधवा पुनर्विवाहको अपर्याप्तमानना दोनों ही एक दूसरे से जुडे तथ्य हैं। दूसरी बात यह है कि पुनर्विवाह का विकल्प पुरुष-वर्ग की सलाह थी, जो पूर्ण्तः सहानुभूतिपर आधारित थी । अतः इस संदर्भ में जान स्टूवर्ट मिल का यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उनके बारे में हासिल करते हैं, भले ही वह उनकी संचित संभावनाऒं के बारे में न हो कर सिर्फ़ उनके भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो; तब तक अधूरा और उथला रहेगा, जबतक कि स्त्रियाँ स्वयं वह सब कुछ नहीं  बता देतीं, जो उनके पास बताने के लिए है।26 लूसी कैरोल ने विधवा पुनर्विवावाह से संबंधित एक और समस्या की ओर ध्यान दिलाया है- १८५६ का कनून लागू होने से देश भर में उन जातियों की स्त्रियों को काफ़ी नुकसान पहुंचा जिनकी प्रथाएँ द्विजों से अलग थीं। उन्हें अब मृत पति की संपत्ति से वंचित रखे जाने के फ़ैसले होने लगे।27 इसी कारण  रमा बाई स्त्री की मुक्ति के व्यापक संदर्भों की बात कर रही थीं।
उन्नीसवीं सदी की स्त्री को समाज में दोयम दर्जे की स्थिति प्राप्त थी। आज की स्थिति भी बहुत उत्साहप्रद नहीं है। स्त्री उन तमाम अधिकारों से आज भी महरूम है जो पुरुष समुदाय को सहज ही प्राप्त है उसके लिए अब भी तमाम तरह की बंदिशें हैं । उन्हें तर्क द्वारा सही ठहराने की कोशिशें भी की जाती हैं। राजा राम मोहन राय ने सती-प्रथा के समर्थकों के एक ऐसे ही कुतर्क का उल्लेख किया है- स्त्री-जाति जन्म से ही मन्द-बुद्धि होती है, स्त्री संकल्प-हीन, विश्वास न करने योग्य, कामनाओं से सहज वशीभूत होनेवाली तथा पवीत्र ज्ञान से शून्य होती है।28 राजाराम मोहन राय ने इस आरोप का तर्क सहित विरोध किया- स्त्रियों पर जो लांछन तुमने लगाए हैं, वे उनकी  प्रकृति में जन्म से नहीं  होते। अतः केवल संदेह के आधार पर उन्हें मृत्यु की ओर धकेलना पाप है। उनके चरित्र पर लांछन लगाकर आपलोगों ने निश्चित रूप से हिन्दू समाज के सकक्ष उन्हें हीन और दुष्ट प्रमाणित करने में सफ़लता प्राप्त की है, जबकि जीने के लिए उन्हें निरंतर कष्ट सहन करना पडता है।29 रमा बाई ने इसी बात को इस तरह कहा- कुछ लोगों का कहना है कि स्त्रियाँ अबोध, अल्प-ज्ञानी तथा पराधीन होती हैं इसी लिए वे नहीं जानतीं कि उन्नति और ज्ञान प्राप्त करने के कौन से रास्ते हैं , ऐसी स्थिति में वे कर ही क्या सकती हैं? लेकिन अच्छी तरह से परिवार-विमर्श करने से यह ज्ञात होता है कि ऐसे संदेहों के लिए कोई जगह नहीं है।30 राममोहनराय अपने ही समुदाय(पुरुषों) को सम्बोधित कर रहे थे अतः उनके प्रतिवाद में स्त्रियों के प्रति एक दया और पश्चाताप का भाव था। रमा बाई में ऐसा कत्तई नहीं था। वहाँ प्रतिवाद है लेकिन दया, पश्चाताप या आत्म ग्लानि नहीं। इसलिए वे कहीं अधिक दृढता से कह सकीं, ‘ऐसे संदेहों की कोई जगह नहीं है।यहीं वे अपने समय और पूर्ववर्ती तमाम समाज सुधारकों से अलग दिखतीं हैं वे सीधे स्त्रीको संबोधित करती थीं, जबकी प्रायः सुधारकों का सम्बोधन पुरुष समुदाय के प्रति होता था। वे पुरुषों से स्त्री के उद्धारकी बात करते थे। जबकि रमाबाई ने जागरण’‘उत्थानऔर प्रेरणाके लिए सीधे सामान्य स्त्रियों से उनकी भाषा में बात की- उनकी बात की।
राजा राममोहन राय, ईश्वारचन्द्र विद्यासागर, राना डे, ज्योति बा फुले- जैसे नवजागणकालीन चिन्तकों के यहाँ स्त्री-प्रश्न सहानुभूतिपूर्ण स्त्री-दृष्टिका परिणाम था, जबकि रमाबाई की आवाज उन स्थितियों से स्वयं जूझती हुई स्त्री का स्वर था। उन्होंने स्त्री-प्रश्नसे जुडे तमाम पहलुओं को अपने स्वयं के जीवन में और निकट सम्बन्धियों के साथ घटित होते देखा था इस लिए उनका स्वर अत्यन्त आत्मीय और सहज है। उन्होंने जिस तरह खुल कर स्त्रियों का आह्वान किया, वह एक पुरुष के लिए सम्भव नहीं था। बुनियादमें उन्होंने लिखा है-अधिकतर महिलाएँ यह कहती हैं कि उनके मन में उन्नति करने की अभिलाषा है, परन्तु अवसर के अभाव में वे इस दिशा में कुछ नहीं कर पातीं। वे पुरुषों पर निभर हैं।....लेकिन आत्म-सुधार का मामला केवल अपने पर निर्भर रहता है। ईश्वर ने मनुष्य में बडा बनने की अभिलाषा दी है तो उसे पूर्ण करने की क्षमता भी दी है। आत्म-सुधार के सभी उपाय प्रायः मनुष्य के कर्मों पर निर्भर करते हैं, न कि दूसरी चीजों पर।....यदि स्त्रियाँ ऐसा करें तो वह भी थोडे समय में ही प्रगति कर जाएँगी।31 रमाबाई जिस गुरुभाव से यह सहज आत्मीय संवाद स्त्रियों से करती हैं, वह पूरे नवजागरणकाल में दुर्लभ है।
रमाबाई केवल उपदेशों, भाषणों और उद्बोधनों तक सीमित नहीं थीं, स्त्री-मुक्ति की व्याव्हारिक कार्य-योजना और उसके सक्रिय रुपांतरण सॆ भी वे शिद्द्त के साथ जुडीं थीं। १३ दिसम्बर, १८८७ को उन्होंने रमाबाई एसोसिएशनकी स्थापना की। शारदा सदन’ (१८८९ ई.), ‘अनाथ बालिकाश्रम’ (जून १८९६ ई.), और कृपा सदनकी स्थापना में भी उनका सक्रिय एवं रचनात्मक योगदान रहा। उनहोंने विधवाश्रम खोला, अनाथ बालिकाश्रम खोला और पथ-भ्रष्ट स्त्रियों के लिए उद्धार-आश्रम भी चलाया। इन सबके लिए वे रूढिवादियों की ही नहीं, बल्कि अपने समकालीन सुधारवादियों के आलोचना की भी शिकार हुईं, परन्तु वे विचलित नहीं हुईं और स्त्रियों के विकास एवं उनको शिक्षित और आत्म निर्भर बनानने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील और प्रतिबद्ध रहीं। उनका जीवन वर्जीनिया वुल्फ़ के इस कथन का मुर्तिमान रूप रहा है कि आप चाहें तो पुस्तकालयों में ताले डाल दें, लेकिन मेरे मस्तिष्क की स्वतंत्रता पर पाबन्दी लगाने के लिए न कोई दरवाजा है न ताला और कुंडी।32 उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने के लिए विद्यालय खोले, उनका संचालन किया और शिक्षिका के रूप में अध्यापन भी किया। द हाई कास्ट वुमनमें उन्होंने स्त्रितों के सामाजिक उन्ननयन पर जोर दिया है और शिक्षा के प्रसार तथा आत्मनिभरता के रास्ते बताए। नारी-जाति के अभ्युत्थान के संदर्भ में उन्होंने लिखा- यदि हमें दीन स्त्री-जाति के उत्थान के उपाय करने हैं तो उसकी बुनियाद है- आत्म-निर्भरता। प्रत्येक स्त्री के हृदय में यह भावना पनपनी चाहिए। यदि सभी स्त्रियाँ अपनी उन्नति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर ध्यान दें, उन्हें हटाने का निरन्तर प्रयास करें तो वे भी समाज में वही ऊँचा दर्जा पा लेंगी जो पुरुषों का है।33 यहाँ वे समकालीन सुधारकों की तुलना में स्त्री की अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्रता- पुरुषों की बराबरी की बात कर रही हैं, जो सामन्यतः पुरुष सुधारकों के लेखन में नहीं दिखता।
रमा बाई ने स्त्री की मुक्ति और आत्म निर्भरता को संदर्भ-निरपेक्ष नहीं माना, बल्कि इसे राष्ट्रीय उत्थान और साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता से मुक्ति जैसे व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखा। ब्रिटेन और अमेरिका में प्रवास के बावजूद, ‘रमाबाई एसोसिएशनको अमेरिका से मिलने वाले वाले आर्थिक सहयोग के बावजूद और ब्रिटिश नागरिकों से संबंध और सहकार के होते हुए भी वे भारत में साम्राज्यवादी सत्ता के चरित्र को भली-भांति समझती थीं, तभी तो उन्होंने यह लिखा है- वे हमारे देश पर शासन करते हैं, हमारी सम्पत्ति, हमारे जीवन और हमारे देश की छब्बीस करोड जनता के आत्म-सम्मान पर राज करते हैं। मुट्ठि भर अंग्रेजों ने भारत में राजकुमारों से लेकर कंगालों तक सभी लोगों को अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है।34 उनके अनुसार, युरोप की इस ताकत के मूल में स्त्री-पुरुष-समानता है। अतः उन्होंने भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग को बेहद जरूरी माना यह सहयोग-भाव सशक्त पुरुष और अशक्त स्त्री के बीच संभव नहीं है अतः स्त्रियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा- विदेशी लोग हमपर इसलिए शासन कर पाते हैं क्योंकि हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं और क्षुद्र जीव की तरह छोटी से छोटी बात के लिए उनका मुँह ताकते हैं।३५ उन्होंने आगे लिखा है- उन्हें (विदेशी लोगों को) यदि अवसर मिल जाय, वे हमारे सिर पर लात मारने में तनिक संकोच नहीं करेंगे।36 विदेशी सत्ता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ रमा बाई ने यह आवाज उस समय उठाई जब हिन्दी के कवि और लेखक अपनी बात दृढ़ता से कह पाने का नैतिक बल नहीं जुटा पा रहे थे। उनकी स्थिति सीधे-सीधे आवाज उठा पाने की नहीं थी। भारतेन्दु युगीन कवि और लेखक प्रताप नारायण मिश्र की इन पंक्तियों में तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों की इस झिझक की झलक देखी जा सकती है-
ऐसे अगनित दुःख नित सहत रहत दिन राति।
तेहिं भारत दीन गति, कही कौन विधि जाति॥
महरानी विक्टोरिया यद्यपि महा दयाल ।
चाहत कियो प्रजान को पुत्र सरिस प्रतिपाल॥
-प्रताप नारायण मिश्र
ऐसे दौर में रमा बाई का साम्राज्यवाद विरोध उनके साहस की मिशाल है। वे विदेशी सत्ता की सीधे-सीधे आलोचना कर रही थीं। वस्तुतः वे स्त्रियों को केवल शिक्षा और आत्म निर्भरता का संदेश ही नहीं दे रहीं थीं, बल्कि उन्हें राजनैतिक चेतना-संपन्न भी बना रही थीं। वे उनकी मात्र सामाजिक-आर्थिक मुक्ति से संतुष्ट नहीं थीं बल्कि उनकी राजनैतिक मुक्ति की भी समर्थक थीं। उन्हें इस बात का बोध था कि उनकी तत्कालीन स्त्री पराधीनता केवल आन्तरिक नहीं बल्कि बाहरी भी है- वह केवल पुरुष वर्चस्ववादी समाज-व्यवस्था की पराधीनता से व्याकुल नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी सत्ता की पराधीनता में भी पिसी जा रही है। वे यह महसूस कर रही थीं कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में वंचितों के प्रति साम्राज्यवाद समर्थकों की सहानुभूति ऊपरी प्रदर्शन मात्र है। जो बात अम्बेडकर ने दलित वर्ग के अखिल भारतीय अधिवेशन(सन् १९३०) में अपने अध्यक्षीय भाषण में कही थी – “मुझे आशंका है कि ब्रिटिश सरकार हमारी दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों का विज्ञापन इसलिए नहीं करती कि वह इन्हें दूर करना चाहती है, बल्कि इसलिए करती है ताकि इसको वह भारत की राजनैतिक प्रगति को खींचकर पीछे ले जाने का बहाना बना सके।37 वही बात रमा बाई उससे बहुत पहले महसूस कर चुकी थीं। इस तरह वे स्त्री-मुक्ति आंदोलन की नेतृत्वकर्त्री ही नहीं, राष्ट्रीय जागरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी हैं। उक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने स्त्री समुदाय का आह्वान करते हुए लिखा- यदि हर समझदार और सात्विक स्त्री मेरी बात को मान ले और कहे कि चाहे अन्य स्त्री यह करे न करे लेकिन वह स्वयं अपना तथा अप्ने परिवार की अन्य महिला सदस्यों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगी तो इससे लगातार पिछड़ रहा नारी समुदाय तथा देश दोनों ही उन्नति करेंगे।38 स्त्री-मुक्ति और राष्ट्र-मुक्ति की कामना से समन्वित उनका यह आह्वान नवाजागरण की चेतना का ही एक हिस्सा है, जिसने व्यक्तिको महत्वपूर्ण माना। उनके इस स्वर की अनुगूंज रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता में भी सुनी जा सकती है-
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे,
यदि तोर  डाक शुने केउना आशे, तबे एकला चलो रे
-रवीन्द्रनाथठाकुर
रमाबाई का व्यक्तित्व रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस कविता और उनके अपने वक्तव्य की जीवन्त मिसाल है। तमाम विरोधों और असहमतियों के बावजूद वे स्त्री की मुक्ति के लिए अकेले संघर्ष करती रहीं। उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया और स्वयं उसपर चलते हुए, दूसरों को उसपर चलने का संदेश दिया। अपने जीवन और आंदोलन के तमाम मोर्चों पर अकेले पड़ जाने के बावजूद उन्होंने लक्ष्य तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश की। अकेली होते हुए भी उनकी आवाज सदियों तक हजार-हजार कण्ठों से प्रतिध्वनित होती रहेगी।
संदर्भ:
1.   रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-72
2.   पामदत्त,रजनी आज का भारत, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण-1977,पृष्ठ-38
3.   पंडिता रमा बाई ने अपनी पुस्तक हिन्दू स्त्री का जीवनमें इसे इस तरह उद्धृतत किया है- स्त्री की रक्षा बचपन में पिता करता है, युवावस्था में पति करता है और वृद्धावस्था में पुत्र करते हैं: स्त्री स्वतंत्र रूप से रहने योग्य नहीं है।
4.   रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-55
5.   बंगाल में जो नीची श्रेणी के ब्राह्मण हैं और जिनकी संख्या बहुत अधिक है और जो ऊंची श्रेणी के कायस्थ हैं, वे अपनी बेटी या बहन को इस तरह ब्याहते हैं कि उससे उनको काफ़ी आमदनी होती है, बहन या बेटी आमदनी का जरिया बनती है....अक्सर उन्हें ऐसे लिगों से ब्याह देते हैं जो सबसे अधिक धन दे सकें।
-    राममोहन राय, उद्धृत; राम विलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-319
6.   कालिदास, अभिज्ञान शाकुन्तलम्,4/22
7.   रामाबाई, पंडिता,(अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-57
8.   क्राफ़्ट, मेरी वौल्स्टन, (उद्दृत) जर्मेन ग्रीयर, बधिया स्त्री, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2008, पृष्ठ-75
9.   वही,७५
10.  देखें, कमलकुमार मजूमदार, अन्तर्जली यात्रा, साहित्य अकादेमी,संस्करण-2006
तथा                           
चन्द्रप्रभा वा पूर्ण प्रकाश,नागरी प्रचारिणी पत्रिका,
11.  रामाबाई, पंडिता (अनुवादक-शम्भू जोशी) हिन्दू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन,संस्करण-2006,पृष्ठ-75
12.  वही,६३
13.  विद्यासागर, ईश्वरचन्द्र विधवा विवाह (सम्पादक) शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-97
14.  वही,25
15.  रामाबाई, पंडिता, वही,78
16.  वही,76
17.  शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-२००६, पृष्ठ-76
18.  रामाबाई, पंडिता, वही,76
19.  देरेजियो, हिन्दू विधवा, (सं.) शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-२००६, पृष्ठ-76
20.  ज्योति बा फ़ूले, बैधव्य, वही,786
21.  रामाबाई, पंडिता, वही,79-80
22.  वही,80
23.  वही,46
24.  राय, राजा राममोहन, दि इंग्लिश वर्क्स आफ़ राजा राम मोहन राय,पृष्ठ-379
25.  रामाबाई, पंडिता, वही,84
26.  ग्रीयर जर्मेन, बधिया स्त्री, पृष्ठ-15
27.  तलवार, वीर भारत, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-186
28.  शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-54
29.  वही,54-55
30.  वही,849
31.  वही,849
32.  वुल्फ़, बर्जीनिया अपना कमरा,पृष्ठ-13
33.  शम्भूनाथ, सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ-842
34.  वही,843
35.  वही,847
36.  वही,847
37.  पामदत्त,रजनी आज का भारत, मैकमिलन प्रकाशन, संस्करण-1977,पृष्ठ-56
38.  वही,843
साभार : नामिका , वाराणसी, जनवरी-दिसंबर, 2016 

सोमवार, 4 जुलाई 2016

भारतीयता: पहचान के कुछ सूत्र

राजीवरंजन
जब भारतीय साहित्य की बात होती है, तो प्राय: यह कहा जाता है, “भारतीय साहित्य एक है जो विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता है।” यही बात संस्कृति के संबंध में भी दोहराई जाती है, “भारतीय संस्कृति तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक है।” अब सवाल यह उठता है कि इस एकता का अधार क्या है? और दूसरा सवाल यह भी कि आखिर इन भिन्नताओं के बावजूद यह ‘भारतीय’ क्यों है ? तात्पर्य यह कि आखिर ‘भारतीयता’ क्या है? ये सवाल अलग अलग नहीं हैं, एक ही सवाल के हिस्से हैं और परस्पर पूरक भी। हमें सबसे पहले भिन्नता के बावजूद एकता के सवाल पर विचार करना चाहिए । बिना इसे समझे अन्य पक्षों की सम्यक समझ संभव नहीं है क्योंकि यही इस 'महाभारतीय संस्कृति' (भारतीय संस्कृति में निहित बहुलता को रेंखांकित करने के लिए इसे महाभारतीय संस्कृति भी कहा जाता है) का प्राण-भूत तत्त्व है और इस तथ्य का सबसे लोकप्रिय उदाहरण है, महाभारत जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि धर्म सदैव अविरोधी होता है—
धर्मः यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः सत्य विक्रमः॥
—महाभारत
धर्म’ का अर्थ रिलीजन या मजहब नहीं। यदि ऐसा होता तो निश्चित तौर पर धर्म से पूर्व कोई विशेषण जरूर प्रयुक्त होता, जैसा कि इस्लाम, यहूदी या ईसाई के साथ है, लेकिन ऐसा नहीं है। कई बार यह भ्रम भी होता है कि धर्म का अर्थ ही सनातन धर्म है जिसे बाद में हिन्दू धर्म कहा गया। लेकिन यह सच नहीं है। मनु और बुद्ध दोनों ने सनातन धर्म का प्रयोग किया और अपने-अपने धार्मिक मतों को सनातन धर्म कहा है। यदि आज की मान्यता पर चलें तो ये दोनों ‘परस्पर विरोधी धर्म’ आपस में सनातन की पदवी पाने के लिए लड़ रहे थे। यह भी हो सकता है कि वे आपसी गठबंधन द्वारा किसी पूर्व प्रचलित धर्म को अपदस्थ कर रहे थे। यदि ऐसा नहीं है, तो दो ‘धुर विरोधी’ गुट किसी मिस्टर सनातन कुमार के मंच पर इकट्ठे खडे होकर क्यों भाषण दे रहे थे ? मजे की बात यह की दोनों एक ही बात एक ही अंदाज़ में कह रहे थे-
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियं।
प्रियंच नानृतंब्रूयादेष धर्म सनातनः॥
-    मनु स्मृति
न हि बेरेनि बेरानि समन्तीध कुदाचन।
अवेरेन हि समंतीध एसो धम्मो सनन्तनो॥
-    धम्मपद

इन दोनों के लिए धर्म जीवन के प्रति एक दृष्टि थी। एक ऐसी दृष्टि जो व्यावहारिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण थी, मानवीय थी इसलिए सनातन थी। मानवीयता ही इस सनातनता की सबसे बडी कसौटी थी। ऐसे में, सनातन का अर्थ है, वह धर्म जो निरन्तर काल से या अनन्त काल से चला आ रहा है और मनुष्य के लिए हितकर है। ‘सनातन’ अपने-आप में बड़ा गतिशील शब्द है क्योंकि इसमें केवल निरंतरता और प्राचीनता का नहीं बल्कि निरन्तर नये होते चलने या विकसित होते चलने का अर्थ भी निहित है। इसीलिए बुद्ध और मनु को विरोधी नहीं हैं, बल्कि धर्म-चिंतन की एक सनातन चलने वाली प्रक्रिया का एक पड़ाव मानता हूँ। दोनों ही सनातन धर्म के विकसनशील चिंतन की दो स्थितियाँ है, एक दूसरे से द्वंद्वात्मक नहीं बल्कि पूर्वापर क्रम में जुड़ी हुई। इन दोनों को समानांतर रखकर द्वंवात्मकता में देखना आधुनिक चिंतनशैली की देन है। भारतीय आर्ष-परंपरा इस द्वंद्वात्मकता में विश्वास नहीं करती। वह युग्म में विश्वास करती है। वह विरोध नहीं, अविरोध में विश्वास करती है और इसी लिए धर्म को अविरोधी मानती है। जो विरोधी है, द्वंद्व मूलक है, परस्पर संघर्ष उत्पन्न करता है वह अधर्म है और ऐसा करने वाला अधर्मी। यही नहीं जहाँ विरोध होगा वहाँ सनातनता का वास भला कैसे हो सकता है, सनातनता की कल्पना तो अविरोध मूलकता में ही संभव है। अतः जो अविरोधी है, वही सनातन है और वही धर्म भी। यह तथ्य है और इसे पुरानी पीढ़ी बहुत मजबूती से पकड़े हुए थी। देश की स्वतंत्रता कुछ ही पहले इकबाल जब यह लिख रहे थे कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’,  तब उनके भीतर से वही परंपरागत भारतीयता बोल रही थी। हाँ बाद में वही धार्मिक आधार पाकिस्तान के प्रस्तावकों में से एक बने और भारत-पाकिस्तान का बँटवारा हुआ। तब उनके परंपरागत बोध के ऊपर उस आधुनिक मन ने कुंडली जमा ली थी, जो धर्म को अस्वीकार कर उसकी जगह मूल्य (Value) को ला बिठाता है।
आज हम धर्म की जगह संस्कृति, मूल्य या जीवन-दर्शन जो कह लें, पर इसका पुराना शब्द अपनी भारतीय शब्दावली में ‘धर्म’ ही रहा है। संस्कृति और मूल्य नए हैं और अंग्रेजी के Culture  तथा Value के सगोत्रीय यानी गोतिया। सगोत्रीय की तुलना में उसका भोजपुरी संस्करण गोतिया कल्चर और संस्कृति के रिश्ते को समझने के लिए अधिक सटीक है। मैं इन्हें समानार्थी या अनुवाद की श्रेणी में इसलिए नहीं रखता क्योंकि भाषा शब्द-समूह या संरचना(structure) मात्र नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक परिघटना है। शब्दों के भी अपने संस्कार होते हैं। एक बहुप्रचलित उदाहरण लें तो भारतीय पारिवारिक संबंधों के हिंदी में नाम और यूरोपीय पारिवारिक संबन्धों के अंग्रेजी नामों में भिन्नता की बात कर सकते हैं जो भारतीय भाषा और भारतीय सामाजिक संबंधों दोनों की संपन्नता के उदाहरण हैं; साथ ही सांस्कृतिक संपन्नता के भी। संस्कृति शब्द और व्याकरण दोनों को प्रभावित करती है। एक जमाने में भारत में संस्कृत का व्यवहार होता था, जो श्लिष्टयोगात्मक भाषा थी। उत्तरोत्तर प्राकृत, पालि, अपभंश, और हिन्दी तक आते-आते यह संरचना बदल गई। परसर्गों का विकास हुआ और पद और प्रत्यय अलग होते गए। ऐसा क्यों हुआ इसकी सही और सटीक जानकारी तो समाज-भाषाविज्ञानी ही दे सकते हैं, लेकिन मेरा अनुमान है कि समाज की जरूरतें बदलीं, हम संस्कृति के नए सोपान चढ़ते गए और क्रमशः भाषा के व्यहृत रूप में भी बदलाव आता गया। शब्दों ने अपने अर्थ भी बदले; कुछ का अर्थ-संकोच हुआ और कुछ का विस्तार। कुछ शब्दों ने तो अपने आपको पूर्णतः बदल लिया। स्वयंसंस्कृतिका ही बात करें, इसका आरंभिक प्रयोग आद्यतन प्रयोग से सर्वथा भिन्न है। ऐतरेय ब्राह्मण में एक अंश आता है- ‘आत्मसंस्कृतिवाशिल्पानि। छन्दोमयं वा। एतर्यजमानआत्मानंसंस्कुरुते। यह भारतीय साहित्य में संस्कृति पद का संभवतः पहला प्रयोग है। यहाँ संस्कृति का प्रयोग संस्कार के संदर्भ में हुआ है और इस संस्कार के माध्यम है शिल्प। छंद एक शिल्प है और इसलिए साहित्य या काव्य भी एक कला है, जो आत्म-संस्कृति के लिए रचा जाता है। ये स्थापनाएँ निश्चित तौर पर आदिम या कबालाई जीवन से बहुत आगे बढ़े हुए समाज के चिंतन की उपज है, जहाँ काव्य और शिल्प को जीवन के संस्कार का  माध्यम माना जाता हो।

अंग्रेजी का शब्द ‘कल्चर’ कृषि से जुडा है और संस्कृति निर्माण से। अगर समाज के ऐतिहासिक विकास के लिहाज़ से देखें और संस्कृति की कल्चर से तुलना करें तो जाहिर है हम उनसे जेठे ठहरते हैं। यह आत्म गौरव और आत्म-श्लाघा की बात नहीं, बल्कि शब्दों में निहित यथार्थ का उद्घाटन है। इतिहास के अनुसार शिल्प का विकास कृषि के बाद की अर्थात विकसित अवस्था है। पश्चिम का बर्बर जर्मन समुदाय जब कृषि के क्षेत्र से जुडा वह युरोप के लिए सांस्कृतिक विकास का समय था पर भारतीय समाज ने शिल्प के विकास से संस्कृति को जोडा। जाहिर है, हमारे लिए संस्कृति के मूल्यमान उंचे रहे हैं। इतिहास के विद्यार्थियों को कम से कम यह मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि सिन्धु-घाटी सभ्यता नगर सभ्यता थी और नगर-सभ्यता व्यापार से जुडी है। निश्चित तौर पर तब तक शिल्प का विकास हो चुका था, बल्कि वह अपने विकास की एक अच्छी अवस्था में था। इस तथ्य की पुष्टि उस नगर के खंडहरों और अवषेशों से होती है। भवन निर्माण कला, नगर की सुनियोजित बसावट और प्रस्तर मूर्तियों के निर्माण के जो अवशेष वहां मिले हैं, वे उसकी शिल्पगत विकास की स्थिति के गवाह हैं। अतः यह केवल शब्दों के अन्तर या केवल भौगोलिक या भाषायी भिन्नता का मामला नहीं, बल्कि मन-मिजाज अन्तर की पहचान कराता है। यह मानसिक संपन्नता और बौद्धिक विकास का अंतर है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि बाहरी सम्पन्नता या आर्थिक विकास मनुष्य को भौतिक समृद्धि तो देती है, लेकिन आत्म-संस्कार के लिए यह कभी-भी कोई शर्त नहीं रही है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पन्न दिखने वाला व्यक्ति सुसंस्कृत भी हो। युरोप में औद्योगिक विकास के साथ समृद्धि की एक गगनचुम्बी लहर उठी और उसकी सभ्यता का विश्वव्यापी विस्तार भी हुआ, किंतु औपनिवेशिक शोषण और नरसंहारों से लेकर विश्वयुद्धों की निर्मम दास्तानें उसके सांस्कृतिक औदात्य पर कलंक हैं और ठीक उसी के समानांतर महात्मागांधी के नेतृत्व में सत्य और अहिंसा का आधार लेकर चलने वाला भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन संपूर्ण मानव-संस्कृति की एक अनमोल निधि है। यह इसलिए संभव हुआ कि सम्पन्नता  की दृष्टि से पीचे छूटता हुआ भारत आधुनिक सभ्यता के पैमाने पर भले युरोप से पिछड़ने लगा हो उसके अपने आत्म-संस्कार (आत्मिक मूलाधार ) अब भी दृढ़ थे। सत्य और अहिंसा हमारे भीतर संस्कार रूप में पहले से स्थित थे। गांधी ने बस उसे आवाज देकर सजग भर दिया था— हमें अपनी उस शक्ति का प्रतिभिज्ञान करा दिया था जिसके अभाव में हम अर्द्ध-निद्रा में झूल रहे थे। 

शुक्रवार, 3 जून 2016

फागुन

लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक,सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग
        फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है।  इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,/पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार/ जिसे पूरा पकड़ पाया नहीं—/ किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता/ तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता ?’ और न ही इस सृजन के लिए किसी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।
        सारे परिवेश में एक अद्भुत उमंग है। सारी प्रकृति भँग की तरंग में झूम रही है; नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय,उचित-अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। तृण, तरु, लता, गुल्म, पशु, पक्षी, मनुज सब अपनी-अपनी मौज में हैं और बिना ढोल-मजीरे के ही, फाग गाए जा रहे हैं। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। सब मिलकर एक ऐसे महाफाग की सृष्टि कर रहे हैं, जिसकी ताल पर कोई अवघड़ देवता अनादि काल से नृत्य कर रहा है। इस सृष्टि का सारा कार-बार सृजन-लय और उन्मीलन-निमीलन इसीकी नृत्य-भंगिमाएँ हैं। कबीरा, जोगीड़ा और फगुआ सब उसी अवघड़ की महिमा के गान हैं। इसीलिए समाज के लिए जो असंगत, अस्वीकृत, अश्लील और अशोभन है, वह सब यहाँ लोक-स्वीकार्य, श्लील और शुभ हो जाता है। यह अवघड़ ही इस परमाप्रकृति का सनातन प्रेमी है और प्रकृति का सारा शृंगार-पटार— किसलय, कोंचे, बौर और पुष्प अपने इस प्रियत्म को ही रिझाने के उपादान हैं। यह अवघड़ देवता ही 'पुरुष और प्रकृति' के युग्म का 'पुरुष', 'शिव और शक्ति' के युग्म का 'शिव' तथा अमिताभ बुद्ध और प्रज्ञा-पारमिता के युग्म का शिव है, जो इस नवयौवना प्रकृति के साथ ........... (दाम्पत्य-भाव) में स्थित होकर नई सृष्टि की रचना करता है। यह अनायास नहीं कि पौराणिक आख्यानों में भी फागुन की महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख है। यह किसी ऐसे ही आदिम लोक-कल्पना को शास्त्र-सम्मत ठहराने का उपक्रम है। परंपरागत हिंदू-मानस के लिए बिना दांपत्य के प्रेम की कल्पना अग्राह्य है। वह राधा-कृष्ण के लुका-छिपी वाले प्रेम को ईश्वरीय लीला मानकर एक हद तक भले सहन कर ले, लेकिन बिना विवाह के नव-सृजन (संतान-उत्पत्ति) उसके लिए असह्य है। हाँ, यह बात अलग है कि उसे बूढ़े शिव और नवयौवना पार्वती के बेमेल विवाह में उतनी असंगति नहीं दिखती। वैसे भी, जब फागुन में बुढ़वा देवर लागे’, तो इस बेमेल विवाह की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती?
        फागुन की हवा एक अल्हड़ बालिका की तरह बिना किसी अवरोध के पूरे गाँव में कुँलाचें भर रही है। वह कभी गेहूँ की बालियों को झकझोर देती है तो कभी आम, महुए या पीपल की डाली को और कभी अरहर या सरसों के पौधे को हल्की सी चपत लगा कर दूर भाग जाती है। उसके लिये अपने घर-आँगन और पड़ोसी के दुआर-बथान में कोई अंतर नहीं। हर एक घर, हर एक आँगन उसका अपना है। वह कहीं भी बिलम कर सुहता लेती है, बिना किसी सोच-संकोच के। सारी सरेह (खेत) उसके छोटे-छोटे कदमों के ताल पर थिरक उठी है। चतुर्दिक ऊल्लास की आभा फूट रही है। बुढ़ा से बूढ़ा वृक्ष भी पुलकित हो उठा है। उसके जीर्ण पत्रहीन शरीर से भी नए-नए किल्ले फूट पड़े हैं। फिर युवा, किशोर और बाल वृक्षों का कहना ही क्या? सब मगन हैं। पीपल ताली बजा-बजाकर नाच रहा है, आम और महुए  उसकी संगत कर रहे हैं। पाकड़ लाल-लाल चुनर पहन इधर उधर मटक रही है। बेला और चम्पा इत्रदान लिए खड़ी हैं। रातरानी और हरसिंगार फूलों से होली खेल रहे हैं। अमलतास के हाथ में पीला गुलाल है, तो पलाश के हाथ में लाल रंग की पिचकारी। प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर फागुन उतर आया है।
        रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा),............  सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा,ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं।
        प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं अतिथि देवो भव की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह सत्यं वद् धर्मं चर में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ?दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।
         दिशा-कुदिशा का बोध मानवीय मस्तिष्क की उपज है। सबको जात-कुजात के खानों में बाँट कर देखना मनुष्य की फितरत है। ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब का भेद मनव-मन की कल्पनाएँ हैँ। जाति, धर्म, वर्ण, गोत्र, आदि के तमाम भेद-उपभेद तो मनुष्य ने गढ़े है। यहाँ हर ओछा से ओछा मनुष्य अपने से भी तुच्छ दो-एक आदमी तलाश लेता है। भला प्रकृति का इससे क्या वास्ता ? वह इन बँटवारों को नहीं मानती। वह दिशा-कुदिशा का भेद नहीं करती। वह पुरवा, पछुआ, उतरहिया और दखिनहिया उसके लिए सब समान हैं। वह माँ है, सब उसके प्रिय हैं। वह ममतामयी और समदर्शिणी है, वह सबको समान प्रेम करती है। वह हम हैं जो उसे भोग्य-भोजक भाव से देखते हैं, उसके प्रेम पर अपना एक छ्त्र राज्य समझते हैं, उसकी सारी सम्पत्ति, उसका सारा स्नेह, सारा संचित कोश अकेले-अकेले हजम कर जाना चाहते हैं। उसे राष्ट्र और राज्य की चौहद्दियों में बाँधकर उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। उसका दिया सारा दूध,सारा मधु, सारा जल, सारा अन्न अकेले-अकेले हथिया लेना चाहते हैं। हम मनुष्य महुए, आम, पीपल और पलाश की तरह सहज रूप से अपने स्वाद और रुचि के अनुरूप महाभोज का आनंद नहीं ले सकते। हमें अपने मन-भोगमें कंकड़ी दिखने लगी और दूसरे के पत्तल का रूखा-सूखा भी छप्पन भोग लगने लगा है, उसे भी हड़प जाना चाहते हैं। हमारी लिप्सा करोड़-करोड़ मुख हैं, जिससे वह सबकुछ लील जाना चाहती है। वह खाद्य और अखाद्य के बोध से रहित है। तरु, पादप, जीव, जंतु, कंकड़-पत्थर और यहाँ तक कि मनुष्य भी उसके लिए अभक्ष्य नहीं। हमारी ऐषणा हिंसा-अहिंसा की सीमाओं से परे जा रही है। उसके सामने गला काट प्रतियोगिता जैसे मुहावरे आउटडेटेड हो चुके हैं। सच कहें तो अब हमें उन मुहावरों और प्रतीकों की भाषा से कोई वास्ता नहीं। अब हम सीधे और सपाट शब्दों में मनुष्य के अंत’, इतिहास का अंत और विचार का अंत की बातें कर रहे हैं। हमारा कोई अतीत नहीं, हमारा कोई वर्तमान नहीं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भविष्य भी नहीं। हमने इन सबकी खुले बाजार नीलामी कर दी है। यह बाजार ही हमारा नियामक है। वह चाहे तो मुझे, आपको, हम सबको टके के बल पर खरीद सकता है और न चाहे तो आप कूड़े के ढेर में निबटाए जाने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है। हमारी हवा, हमारा पानी, हमारी जमीन, उसके भीतर और बाहर बिखरे असंख्य रत्न और धातु ही नहीं, हमारी गरीबी, हमारी बेकारी और हमारी भूख-प्यास सब बिकाऊ है। सरेआम चौराहे पर नीलाम हो रही हैं और हम अपने कलेजे पर हाथ रखे डालर, रूबल और पौंड के उतार-चढ़ाव नाप रहे हैं। ऐसे में फगुनहटा के बयार की फुदक पर सम्मोहित होने के बजाय संसेक्स की उछालों के साथ हमारे उछलने भला कौन सा आश्चर्य है? 

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