शनिवार, 30 अगस्त 2014

लौट के बुद्धू घर को आए

बुद्धू हमारे गांव के पुराने रहवासी हैं। माना कि गांव के खसरा खतौनी में उनका कहीं कोई नाम नहीं, लेकिन इस बात की परवाह भी किसे है, न खुद बुद्धु को और न गांव के मुखिया-परधान को। बुद्धू कब पैदा हुए और उनके मां-बाप कौन थे किसी को पता नहीं। गांव के पुरनिया कहते हैं कि वे लोमश मार्कंदेय के सहोदर भ्राता हैं और तबसे आज तक जिए जा रहे हैं। इसी किंवदन्ती के आधार पर कुछ लोग उन्हें कैथी के मार्कंदेय धाम के निवासी भी मनते हैं, जो बाद में इस गांव में आ बसे। लोग मानते हैं, मानते रहें। मैं नहीं मानता। मैं तो उन्हें इसी गांव का मानता हूं। जब वे इस गांव की कई पीढियों के साथ जिए, रहे और अब भी रहते चले आ रहे हैं तो उन्हें यहां का मानने में भला आपत्ति भी क्या हो सकती है। इस गांव की तमाम पीढींया बुद्धु के देखते-देखते ही जन्मीं पलीं और काल के गाल में समा गईं। पर बुद्धु अब भी गबरू जवान हैं। सांड की तरह मजबूत डील-डौल और शेर की तरह मस्त चाल। हो भी क्यों न, उन्हें फ़िकर ही क्या है?जहां पांव ठिठक गए वहां खा लिया। जहां चारपाई मिलि ओठंग लिये। किसी ने कुछ कहा तो सुना दिया— ‘बुद्धू न किसी के राज्य में रहता है न किसी का दिया खाता है।’ फ़िर किसी ने कुछ अण्ट-सण्ट बोला तो बांह चढाके खड़े हो गए और तब सामने वाला खिसकने में ही भलाई  समझता है।
‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम।’ ये रही बुद्धू की प्रिय भजन जिसे स्प्तम स्वर में गा-गा कर पूरे गांव को सुनाते हैं । अगर कोई टोक दे तो ट्का सा जवाब “खुद तो कलियुग के कुटिल कीट बने घूमते हो और मैन राम का नाम जप रहा हूम तो उसमें भी बधा। हे राम घोर कलियुग आ गया है।’ इस भजन से उन्हें खुद तो कलियुग से मुक्ति मिली नहीं गांव के कुछ कुलों का उद्धार जरूर हो गया जिनके युवा उत्तराधिकारियों ने बुद्धू को अपना गुरू मान लिया। इस गांव के लगभग सारे निठल्ले बुद्धू के कनफ़ुंकिया चेले हैं। अंटी, बंटी, ही नहीं रामदास, परशुराम शरण और मुख्तार सहेब, मौलवी साहेब, बी.डी.ओ. साहेब डिप्टी साहेब सब के सब । चेलहाई में जाति-धर्म का भला कैसा बंधन ? जब ‘सबै धेनु गोपाल की’ तब सभी कनफुंकिया चेले बुद्धू के कैसे नहीं हो सकते। सुना है एक बार त्रेता में जब टोला-पडोसा के राक्षरों ने इस गांव के एक अवघड़ साधू को पूजा-पाठ में बिघ्न डाला तब उन्होंने ही उसे ‘सबके दाता राम’ का मंत्र दिया था और साधू भागा-भागा अयोध्या गयया था और राम लक्ष्मण को राजा दशरथ से उधार मांग लाया था और तब तड़का का बध इस गांव के ठीक दक्षिण में बकुलों से भरे तालाब (बक सर) में छिप कर किया गया था। बाकी की कथा तो आप को मालुम ही है।
 उनके जिवन में खास था तो बस एक घर, जो उन्हें नहीं छोडता था। वे जमाने से उसे पकड़े बैठे थे या वह उन्हें कहना असान नहीं। पर इतना तो निश्छित था दिन भर बुद्धु जहां रह ले जहां रम लें लेकिन शाम ढलते-ढलते बुद्धु वापिस घर जरूर लौट आते। एकाध दफ़ा जब वे नहीं लौटे, तो गांव में उनके मरने-बिलाने की अफ़वाह भी आई, लेकिन घूम फ़िर कर बुद्धु पुनः वापिस। सो गांव के बडे बूढों में यह कहावत ही चल पड़ी कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’।


अंश.....

लौट के बुद्धू घर को आए

बुद्धू हमारे गांव के पुराने रहवासी हैं। माना कि गांव के खसरा खतौनी में उनका कहीं कोई नाम नहीं, लेकिन इस बात की परवाह भी किसे है, न खुद बुद्धु को और न गांव के मुखिया-परधान को। बुद्धू कब पैदा हुए और उनके मां-बाप कौन थे किसी को पता नहीं। गांव के पुरनिया कहते हैं कि वे लोमश मार्कंदेय के सहोदर भ्राता हैं और तबसे आज तक जिए जा रहे हैं। इसी किंवदन्ती के आधार पर कुछ लोग उन्हें कैथी के मार्कंदेय धाम के निवासी भी मनते हैं, जो बाद में इस गांव में आ बसे। लोग मानते हैं, मानते रहें। मैं नहीं मानता। मैं तो उन्हें इसी गांव का मानता हूं। जब वे इस गांव की कई पीढियों के साथ जिए, रहे और अब भी रहते चले आ रहे हैं तो उन्हें यहां का मानने में भला आपत्ति भी क्या हो सकती है। इस गांव की तमाम पीढींया बुद्धु के देखते-देखते ही जन्मीं पलीं और काल के गाल में समा गईं। पर बुद्धु अब भी गबरू जवान हैं। सांड की तरह मजबूत डील-डौल और शेर की तरह मस्त चाल। हो भी क्यों न, उन्हें फ़िकर ही क्या है?जहां पांव ठिठक गए वहां खा लिया। जहां चारपाई मिलि ओठंग लिये। किसी ने कुछ कहा तो सुना दिया— ‘बुद्धू न किसी के राज्य में रहता है न किसी का दिया खाता है।’ फ़िर किसी ने कुछ अण्ट-सण्ट बोला तो बांह चढाके खड़े हो गए और तब सामने वाला खिसकने में ही भलाई  समझता है।
‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम।’ ये रही बुद्धू की प्रिय भजन जिसे स्प्तम स्वर में गा-गा कर पूरे गांव को सुनाते हैं । अगर कोई टोक दे तो ट्का सा जवाब “खुद तो कलियुग के कुटिल कीट बने घूमते हो और मैन राम का नाम जप रहा हूम तो उसमें भी बधा। हे राम घोर कलियुग आ गया है।’ इस भजन से उन्हें खुद तो कलियुग से मुक्ति मिली नहीं गांव के कुछ कुलों का उद्धार जरूर हो गया जिनके युवा उत्तराधिकारियों ने बुद्धू को अपना गुरू मान लिया। इस गांव के लगभग सारे निठल्ले बुद्धू के कनफ़ुंकिया चेले हैं। अंटी, बंटी, ही नहीं रामदास, परशुराम शरण और मुख्तार सहेब, मौलवी साहेब, बी.डी.ओ. साहेब डिप्टी साहेब सब के सब । चेलहाई में जाति-धर्म का भला कैसा बंधन ? जब ‘सबै धेनु गोपाल की’ तब सभी कनफुंकिया चेले बुद्धू के कैसे नहीं हो सकते। सुना है एक बार त्रेता में जब टोला-पडोसा के राक्षरों ने इस गांव के एक अवघड़ साधू को पूजा-पाठ में बिघ्न डाला तब उन्होंने ही उसे ‘सबके दाता राम’ का मंत्र दिया था और साधू भागा-भागा अयोध्या गयया था और राम लक्ष्मण को राजा दशरथ से उधार मांग लाया था और तब तड़का का बध इस गांव के ठीक दक्षिण में बकुलों से भरे तालाब (बक सर) में छिप कर किया गया था। बाकी की कथा तो आप को मालुम ही है।
 उनके जिवन में खास था तो बस एक घर, जो उन्हें नहीं छोडता था। वे जमाने से उसे पकड़े बैठे थे या वह उन्हें कहना असान नहीं। पर इतना तो निश्छित था दिन भर बुद्धु जहां रह ले जहां रम लें लेकिन शाम ढलते-ढलते बुद्धु वापिस घर जरूर लौट आते। एकाध दफ़ा जब वे नहीं लौटे, तो गांव में उनके मरने-बिलाने की अफ़वाह भी आई, लेकिन घूम फ़िर कर बुद्धु पुनः वापिस। सो गांव के बडे बूढों में यह कहावत ही चल पड़ी कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’।


अंश.....

रविवार, 17 नवंबर 2013

बदमाश



वह बेजुबां  नहीं 
हिल रही थी उसकी जीभ
वह चुप है 
क्योंकि नहीं चाहता 
बोलना 

वह नहीं है गरीब 
ढकी है उसकी देह 
कपडे से, 
ये बात और-
नहीं है तहजीब
लपेटे है  लुंगी
फटी-मैली 
अपने तन पर
बजाय पहने के 
सलीके से ,

और भूखा .. 
बिलकुल ग़लत
खर रहा था घास
कल ही
पिछवाड़े मेरे बंगले के 
है शाकाहारी जो,

बेहद बदमाश .. 
कुंकियता रहा फिर भी
दरवाजे पर मेरे
पहरेदारी में लग गई
ठण्ड 
नाहक मेरे डौगी को। 



बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

संवेदना

संवेदना


कितना बेजान है
वह सच
जिसे सुन अब
नहीं होती उत्तेजना
न मातम
न कोई आह

मर जाना किसी का
किसी का मारा जाना सरेआम
किसी को कर देना घर्षित
सरे-राह
दिन दहाड़े ही लूट लेना
किसी बेबस गरीब को

नहीं सुनाता  कोई भी
चीख आह या कराह
चोट खाये मन कि
नहीं देखता सैलाब
आंसुओं कि
तड़प या बेचैनी

तय होता सब
बस एक  कद से
कौन है खास कितना
या
कितना आम

उदासी , गमगीन माहौल
आंसुओं में डूबा सैलाब
विरोध में उठे हाथ
कितने हैं
कितनी संवेदनाएं
और बुझे हुए चेहरे--
अनुभूतियों में वेदना की
कितने हैं

सब होता तय
सब पूर्व नियोजित
टी आर पी कि होड़ में
सब कुछ बस
आयोजित-प्रायोजित

अपनी तो बस
जुड़ आती एक शाम
खाते में और उदासी के।

……............................................ उन बेगुनाहों के लिए, जो पटना में शहंशाह के दिग्विजय- रथ के पहियों से कुचल गए

शनिवार, 21 सितंबर 2013

देहरी


झुक जाता सिर
रखता हूँ जब भी कदम 
देहरी पर 

मां का दुलार 
दादी की नाम आंखे
बाबा के उठे हुए हाथ
आ टिकते सब
बस एक देहरी पर

चल-चलाई आँखों से
विदा करती मां
वापसी की उम्मीद में

हुलास पड़ते ठिठके कदम
लौटते हुए देहरी पर

यह कोई हिस्सा नहीं
घर के भूगोल का
वजूद मेरा
मेरे होने का
मेरे घर का
सब कुछ टिका है
बस एक देहरी पर .