गुरुवार, 5 सितंबर 2013

खुला-खुला-सा कुछ

खुला-खुला-सा कुछ


खुली हवा के लिए 
बैठीं हैं औरतें
खिडकियों पर 
ढांपे हुए मुंह

ले रही हैं खुली धूप
आंगन में घर के

खुलासे के लिए
बातों की
खड़ी हैं
लगे हुए ओट
किवाड़ की

कानों में खुसुर-फुसुर
कहनी हैं बातें
खोलकर कर अपना मन

मर्दाने दालान की ओर
टिकी हुई ऑंखें
रह जातीं खुलीं-खुलीं

खुला-खुला-सा सबकुछ है

चाहती हैं फिर क्यों
औरतें
हो अपने भी जीवन में
खुला-खुला-सा कुछ ।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

वक्त

वक्त

सुनाता रहा बोलना
शब्द-प्रतिशब्द
टटोलता रहा आहट
हर एक पद-चाप की
झांकता रहा
हर नीम अँधेरे कोने में
पर
वक्त फिसलता रहा
धीरे-धीरे
बिना किसी शब्द
बिना आहट
बिना पहचान .

सच




सच !
तुम तनहा हो कितने ?
तुम्हें नहीं आते वादे 
सुन्दर भविष्य के 
बाँचने हाथों की लकीरें 
दिखने जादू-तमाशे 
या फिर
गाजे-बाजे
झंडे-पताके के बीच
दिखाना अपना खुशदिल मुस्कुराता चेहरा?

सच !
तुम हो कितने उदास
नहीं खेल सकते तुम
भावनाओं से लोगों की
दुखों से नहीं कर सकते चुहल
औरों के,
क्या सचमुच
नहीं मुस्कुरा सकते तुम
किसी के आंसुओं के बदले ?

सच!
कितने उपेक्षित हो तुम
क्या है तुम्हारा जाति-गोत्र-शील
क्यों नहीं झूमते
डाल गलबहियाँ
साथ अपने गोतियों के ?

बोलो तो
कब तक रहोगे चुप
बांधे लाल रिबन
मुंह पर ?

आओ बैठो
करें बातें
कुछ अपने मन की
कुछ तुम्हारे.

भाई सच !
मैं भी हूँ
तनहा
उदास
उपेक्षित
तुम्हारी तरह
पर अब
नहीं रहा जाता चुप
दम साधे.

अब बोलना ही होगा
मुझे
तुम्हें
और उन्हें
जो रहते आये हैं चुप
सदियों से .

बुधवार, 16 जनवरी 2013

घरौंदे


लड़कियाँ बनती हैं घरौंदे
रखती हैं
एक अदद चूल्हा
मिट्टी का,
लकड़ियाँ , चारपाई
छोटे छोटे बर्तन-भाड़े
फूस और मिट्टी के
देखती है स्वप्न
रचने का अपना घर ,
लड़कियाँ बनती हैं पुतली
जोड़-गांठ कर फटे-पुराने कपडे
सजाती हैं उसे गहनों से
बनती हैं दुल्लहन
रचती हैं ब्याह--
स्वप्न भविष्य का
लडके बाराती बनते हैं
खाते हैं महुए के पत्तलों में
भांति भांति के व्यंजन
बिदा करते हैं दुल्हन
बर्तन-भाड़ों के साथ

लड़कियाँ अगोरती हैं
खाली घर ओसारे
आंगन में चारपाई से सर टिका
सो रहती हैं जैसे सोईं हों मांएं
बाद बेटी की बिदाई के.

पगडंडियाँ

संवदिया के युवा कविता विशेषांक में प्रकाशित मेरी कविता ............ 

पगडंडियाँ 

(1)
पगडंडियों से 
सड-कों की ओर
भाग रहा सरपट ,
भागना सड-कों की ओर
शुरुआत
भागने की गाँव से शहर
बसने की नया गाँव शहरों में
न पगडंडियाँ
न सड़कें
न सुथरी हवा
पतली गलियां
बजबजाती नालियां
नालियों में रेंगते
'बच्चे शहर के' A

(2)
पगडंडियाँ
जाती हैं गाँव
हरे-भरे खेतों के बीच से,
साँझ की मीठी हवा में
ठहर जाते बोझिल कदम
पगडंडियों से जाते-जाते घर
कोई एक झोंका हवा का
बांध लेता बढे हुए कदमों को
जगा देता चाह विलमकर सुस्ताने की
तब याद आता घर
चल पड़ते कदम
घर की ओर पगडंडियों से

(3)
पगडंडियाँ
जाती हैं खेतों की ओर
घरों से - गाँव से ,
चरती हैं गाएँ
पगडंडियों के अगल-बगल
झुकी है चनरी घसियारिन
तय करती रिश्ते खुरपी के घास से
तय करते रिश्ते तो आदित महराज भी
तिथि और वर देख पतरों से
पुराना है लेकिन उससे कहीं
रिश्ता चनरी का घास से

(4)
पगडंडियाँ
रोकती हैं
घेतरी हैं
बांध लेती हैं
घुमावदार मोड़ों में ,
कहतीं -
ठहर जाओ
जाते-जाते दूर पगडंडियों से,
आओ
बैठो
सुस्ता लो
पी-लो
घूंट- दो घूँट पानी
लेकर कुँए से
चूस लो दो गन्ने
नहीं बोलेगा कोई
मैं हूँ न A

लौटे थे बहुत दिन बाद
फिर कहाँ ?

रुको न , पल दो पलA
कहाँ-कहाँ भटकोगे
धुप में - लू में ?

लो अच्छा,
ले-लो टिकोरे दो-चार
उखड लो थान-दो थान पुदीना
कम आएंगें
हरी-बीमारी में
वहां नहीं होगा कोई अपना A

सुनते जाओ
कथा एक राहगीर की
गया पर लौटा नहीं
लौटेगा अब क्या ...
लौटे नहीं अब तक वे
पठाया था सनेसा
जिन-जिन से लौटने का .

(5)
लो,
लौट आया
उन्हीं पगडंडियों पर
फिर से ,
खोजता नए छोर
कटान-दिशाएँ ,
कितने घुमाव
कितने मोड़
कितनी गुँथी हैं ये पगडंडियाँ...
क्या नहीं जाता कोई रास्ता
सीधे
सडकों से गाँव की ओर ?