सोमवार, 30 जुलाई 2012

इतिहास


इतिहास कोई कब्र नहीं
जहाँ दफन है एक ठहरा हुआ समय .
इतिहास न कोई स्मारक
ना खँडहर.
वह जिन्दा है,
साँस ले रहा है,
मेरे  भीतर सदियों से .
कभी लम्बी उसांसें
कभी आहें तीखी वेदना भरी
कभी हांफता हुआ
निकल जाता बहुत दूर
और कभी अहिस्ते से सहला जाता
पास आकर अपनी ठंडी सांसों से...
इतिहास मेरे भीतर खेल रहा है
रचा रहा है मुझे
मेरे समय को.

रविवार, 1 जुलाई 2012

औरत


मूंज की चटाई पर लेटा
लगा रहा सुट्टा बीड़ी का
अधबुढ-जवान...

कुतिया अभी कल ही
ब्याई है
कई रंग के पिल्ले-
धूप सेंक रहे हैं सब
आंगन में पुआल पर...

गाय भूसा खाकर पागुर कर रही है...

अभी आकर
घर के भीतर से लौट गया है
पडोस का बच्चा...

चल रहे हैं सब
अपनी-अपनी गति से
जरूरत के मुताबिक अपनी-अपनी

'डोल रही है बिना मतलब
घर के इस छोर से उस छोर तक'
वह
घर की अकेली औरत.

गुरुवार, 21 जून 2012

वह चेहरा


जिन्दग़ी के हर मोड़ पर
ठहर कर खोजता हूं
वह चेहरा 
छोड़ आया जिसे
बहुत पहले
बहुत पीछे
बहुत दूर

खोजने की जिद्द में उसे
खोता हूं खुद को ही हर दफ़े
निकल जाता बहुत दूर अपने से...


हर दफ़े खोता हूं
भीड़ में
उस-जैसे अनेक-अनेक चेहरों की...

हर दफ़े
अनपाया-अनचीन्हा रह जाता 

खोया हुआ भीड़ में
वह चेहरा
अपना ही .

रविवार, 9 जनवरी 2011

कबूतर

मैं नभचारी
मैं उन्मुक्त
पर दरख्तों की टहनियों पर नहीं बसता
नहीं बनाता आशियाने अपने लिए
मुझे तलाश रहती है
रोशनदनों, झरोखों और मुरेडों की नक्काशीदार
अब भी.
अब भी लगाता हूं चक्कर
बीरान खण्डहरों की
जहां बची है थोडी सी जगह
मेरे लिये
थोडी सी आस
गुजारने कि रात
सहने कि शीत-घाम-वर्षा.
जो अनुपयोगी हैं
तुम्हारे लिए अब.

आखिर
समय कि पीठ पर पैर रख कर गुजरना ही तो सीखा है
अब तक तुमने
और मैंने
मुड-मुड के देखना
आवाज देना वक्त को __ गुटुरगूं-गुटुरगूं.
तभी तो तुम ठहरे मनुष्य
और मैं कबूतर.

शनिवार, 8 जनवरी 2011

भाई गिरगिट

भाई गिरगिट !
मैंने सुना है तुम रंग बदलते हो
परिस्थितियों के अनुकूल.
पर पता है
आजकल परिस्थितियाँ बदली जारही हैं
रंगों के अनुकूल.
तुम नहीं कर पाये ऐसा
सिर हिलाते रहे
सत्ता कि हाँ मेंहँ मिलाते रहे
पर तुम्हारी दुम--
जड थी
पर हमने
सिर और दुम दोनों
हिलाने की कला सीख ली है साथ-साथ.
मेरे भाई तभी तो तुम गिरगिट ठहरे
और हम मनुष्य.