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रविवार, 15 सितंबर 2024

हिंदी की जय जय


आओ बच्चों सुनो कहानी 
बात नहीं है बहुत पुरानी l
अंग्रेजों का बड़ा तमाशा 
गिट फिट गिट पिट उनकी भाषा ll

बात-बात पर हमें डराते 
अंग्रेजी का धौंस जमाते 
काले गोरे का भेद बताते 
हम सबको नीचा दिखलाते  ll

जाग गई जनता दीवानी 
लिख कर रख दी नई कहानी 
जन जन में जब क्रांति जगाया 
अंग्रेजों को मार भगाया ll

अब तो भाषा की थी बारी 
हिंदी बनी उसकी अधिकारी 
सैंतालिस आजादी पाई
फिर उनचास में हिंदी आई ll

बंटा  रेवाड़ी और बताशा 
खड़ा हुआ फिर नया तमाशा 
दासी निकली बड़ी सयानी 
 खड़ी रह गई फिर से रानी l

हिंदी को वनवास दिलाई 
अंग्रेजी ने चाबी पाई 
रानी बनी रही अंग्रेजी 
देखो भाई उसकी तेजी ll 

जनता की फिर शामत आई 
शुरू हो गई जेब भराई 
लूट-लूट कर हो गए लाल 
अंग्रेजी के सभी दलाल l

सत्ता मद में चूर हो गए 
न्याय नीति से दूर हो गए 
ये काले अंग्रेज देश के 
गोरों से भी क्रूर हो हो गए l

लंबी गाड़ी ऊंचा बंगला 
अध्यक्ष है देखो अगला 
हिंदी की दुकान से सजाकर
बैठा है वह पान चबा कर l
हिंदी को गाली दे देकर 
पढ़ता अंग्रेजी में पेपर
योगदान अपना गिनवाकर
मना रहा फॉटीन सितंबर l

विद्वत्ता की धाक जमाई
ताली सबने खूब बजाई l
काट रहे हैं खूब मलाई 
हिंदी की जय -जय है भाई l

शनिवार, 14 सितंबर 2024

का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ

हिंदी दिवस पर हिंदी के संवैधानिक अधिकार, अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्वीकृति-अस्वीकृति के साथ अंग्रेजी के पैरोकारों की चर्चा खूब होती है। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद पैदा किए गए सवाल हैं। हिंदी का संघर्ष और इसका विरोध उससे अधिक पुराना है। आजादी के बाद हिंदी हिंदुस्तानी का झगड़ा और इससे भी पहले भारतेंदु के दौर के हिंदी-उर्दू का विवाद भी बहु उल्लिखित है। लेकिन सूफी कवि नूर मोहम्मद की चर्चा थोड़ी कम होती है, जिन्होंने हिंदी में सूफी काव्य को समृद्ध किया। उनके सहधर्मियों ने उनके हिंदी प्रेम को हिंदू हो जाने के रुप में प्रचारित किया और उन्होंने जवाब दिया:

जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

नूर मुहम्मद किसके सवालों से अपना बचाव कर रहे थे और किसके दबाव में 'अनुराग बांसुरी' में ऐसी बातें लिख रहे थे कि 

निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात। 
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥

सांप्रदायिकता हमारे देश में अभी नई नई नवेली आयी है और हमारे देश की गंगा जमुनी तहजीब को नष्ट कर रही है। आज से ठीक 200 साल पहले नूर मुहम्मद के सामने जो खडे थे या जो नूर मुहम्मद यहां स्वयं लिख रहे थे तो वे कौन थे? 

बात हिंदी की स्थिति और संघर्ष की हो तो भारतेंदु और आजादी की ही नहीं उनसे पहले के संघर्ष को भी याद करना चाहिए। इसके सांप्रदायिकता विरोधी चरित्र को भी याद करना चाहिए। हिंदी का महत्व राजभाषा घोषित होने में नहीं, उसके जनभाषा के रुप में कई सदियों से भारतीयों के मन मस्तिष्क पर राज करने वाली भाषा होने में है। यह अपने आरंभ से ही सत्ता नहीं संघर्ष की भाषा रही है। इसका महत्व ऑफिस में बैठा वेतन जीवी कर्मचारी न कभी समझ सका है और न समझ सकेगा।

बुधवार, 27 सितंबर 2023

हिंदी एक औघड़ भाषा

हिंदी एक औघड़ भाषा है। इसीलिए इसको लोक में जो अहमियत मिली वह सत्ता या संस्थानों में नहीं मिली। बिना सत्ता सहयोग के आधुनिक हिंदी के सौ साल उसके राजभाषा बनाने के 75 सालों से ज्यादा समृद्ध हैं। उसके गठन और गढ़न से लेकर साहित्य - संस्कार तक की दृष्टि से जितना तेज उस एक शताब्दी में रहा, वह इधर के वर्षों में नहीं दिखता। हिंदी के प्रचार प्रसार में लगी पुरानी संस्थाएं मरणासन्न हैं नई तो जन्मजात पक्षपात/पक्षाघात का शिकार हो गईं हैं। जब तक इन संस्थाओं में लोक की भूमिका या सहायोग रहा प्राणवान रहीं, बाद  में सरकारी अनुदानों का दीमक इन्हें चाटता गया। बाद की सस्थाएँ तो खड़ी ही दीमकों की बांबी पर हुईं सो उन्होंने उन्हें जड़ जमाने या हरियराने ही नहीं दिया। उसकी संकल्पनाओं और भूमिकाओं के बीच नियुक्त अधिकारियों के स्वार्थ, लोलुपता और संस्थागत भ्रष्टाचार की तिहरी दीवारें खड़ी हो गईं। दुर्भाग्य का आलम यह है कि हिन्दी की संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे अधिकारी हिंदी में सहज संवाद में भी अक्षम हैं। विवशता में बचकाना तोतलेपन में बोले गए उनके वाक्य सरकारी हिंदी की समृद्धि का नमूना है। यदि बंगाल में हिंदी पढ़ाने वाले के लिए बंगला, उड़ीसा में उड़िया, गुजरात में गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य है तो हिंदी की केंद्रीय और महत्वपूर्ण संस्थाओं में नियुक्ति के लिए हिंदी की दक्षता का परीक्षण अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता है या नियुक्ति के साथ कार्यकारी दक्षता हासिल करने की समय सीमा अनिवार्य क्यों नहीं की जाती? यह सही है कि सरकारी तंत्र से हिंदी के लिए आंदोलन की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन कम से कम राजभाषा के नाम पर मसखरेबाजी तो नहीं की जानी चहिए। हिंदी केवल रोजी रोटी की भाषा नहीं भारतीय भाषाओं की लोकतांत्रिक प्रतिनिधि है। राजनीतिक कारणों से राजभाषा के रुप में इसके प्रयोग का विरोध कुछ क्षेत्रों में भले होता रहा हो, उन क्षेत्रों क्षेत्रों में भी हिंदी का प्रयोग का चलन इधर तेजी से बढ़ा है।