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मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय




बचपन में जब हिंदी  की वर्णमाला सीख रहा था तब यह सवाल कई बार ज़हन में उठा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘आ’ ‘इ’ या ‘उ’ से बारहखड़ी की शुरुआत की जाय तो क्या होगा? बात तो ठीक भी थी, क्रम बदलने से भाषा का भला बिगड़ता भी क्या? हां स्कूल या घर में डांट ज़रूर पड़ती, शायद अध्यापक की छड़ी की मार भी। यह डर ही था जिसके कारण इस कल्पना को मूर्त रूप न दे सका। आगे जब व्याकरण और भाषा विज्ञान पढ़ा तब भी यही बात आई।



हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार पाणिनी के माहेश्वर सूत्र, जो भगवान शंकर के डमरू से निकली 14 ध्वनियां मानी जाती हैं वो भी ‘अ इ उ ण’ से ही शुरू होती है। आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि बिना ‘अ’ की सहायता के हिंदी के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि ‘अ’ सभी स्वरों में सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए हिंदी वर्णमाला का पहला वर्ण है।



मानव ने जब अपनी सभ्यता की शुरुआत की तो उसके पास जो सबसे ज़रूरी चीज थी जल। चाहे सिंधु सभ्यता हो अथवा नील नदी या दजला-फरात की या कोई अन्य सभ्यता उसका विकास नदी के तट पर हुआ जिसकी वजह थी जल की उपलब्धता। शायद इसलिए ही ये नदियां इन संस्कृतियों के लिए पूजनीय भी थीं। सिंधु और नील के पूजा के प्राचीन प्रमाण तो मिलते ही हैं, गंगा और नर्मदा आज भी भारत में पूजनीय हैं। उन्हें मान माना जाता है। क्यों किसी रूढ़ि के कारण नहीं, अपने सांस्कृतिक महत्त्व और अपनी उपादेयता के कारण।



पौराणिक कथाओं में भी जलाशय का महत्त्व इस बात से पता चलता है कि कालीदास ने शकुंतला की विदाई प्रसंग में कण्व ऋषि द्वारा किसी प्रिय जन को जलाशय के पास छोड़ने का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि जलाशय शुभता के प्रतीक हैं और इनका दर्शन मात्र शुभ होता है। इसीलिए हमारे घरों में यात्रा से निकलते समय जलपूरित पात्र रखने का चलन भी है। इसका संदर्भ अभिज्ञानशकुंतलम के चतुर्थ अंक में भी है , जब शकुंतला विदा होती है तो पिता कण्व उसे छोड़ने जलाशय तक आते हैं । 



लगभग दो-तीन पीढ़ी पहले तक जलाशयों को खुदवाना लोककल्याण का काम था। ये जलाशय हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम थे और हम उनपर आश्रित थे। इतना ही नहीं हमारे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक काम भी इनके तट पर संपन्न होते थे। पूर्वजों का तर्पण हो या बच्चे का मुंडन दोनों ही जलाशय पर ही सम्पन्न होते थे। ये चलन भी हमारे देश और हमारी संस्कृति में जल के महत्त्व को दिखाता है।



जलाशय एक सांस्कृतिक घटक के रूप में  महत्त्वपूर्ण भी रहा है और हमारे समाज में उनकी भूमिका वही रही है, जो नागरी वर्णमाला में ‘अ’ की है। इसलिए हम जलाशयों को मानवीय संस्कृति का ‘अ’कार कह सकते हैं।



लेकिन, स्वतंत्र भारत में जिस तरह जल के नए स्रोतों का विकास हुआ और उनका प्रयोग बढ़ा, हमने उन जलाशयों की उपेक्षा आरंभ कर दी और क्रमशः वे हमारे लिए महतत्वहीन हो गए। कुएं-तालाब भी धीरे-धीरे मृतप्राय हो गएं और हम उन्हें भूलते गए। भोजपुरी भाषा (चाहें तो बोली कह लें) में एक कहावत है ‘घर के पुरनिया के झापीं में बंद करके रखे के चाहीं।’ अर्थ यह कि हमें घर के बुज़ुर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जाने कब उनका अनुभव हमारे काम आ जाए और हम मुश्किल से मुश्किल संकट से निकल जाएं।



यह बात शब्दशः जलाशयों पर भी लागू होती है। ये भी हमारे लिए संजीवनी शक्ति की भूमिका में आ सकते हैं। अपनी इसी समझ के कारण तालाब किसी की व्यक्तिगत संपत्ति ना होकर हमारे समूचे गांव या मुहल्ले के होते थे। हर कोई उसके मरम्मत वगैरह में बराबर सहभागी होता था। अब जबकी तालाबों का संरक्षण गांव की सार्वजनिक भूमिका के बजाय ग्रामसमाज और उसके सरकारी बजट के दायरे में आ गया है तो फंड, उपेक्षा और भ्रष्टाचार के कारण ये तेज़ी से उपेक्षित होकर धीरे धीरे हमारे खेतों, घरों या किसी अन्य स्ट्रक्चर में समाते जा रहे हैं। यह स्थिति दिन ब दिन भयावह होती जा रही है।



बुंदेलखंड, विदर्भ से लेकर उन क्षेत्रों में भी सोखे की खबरे आ रही हैं जहां जल संरक्षण के इन स्रोतों के कारण परंपरागत सूखे के दिनों में भी फसलें उगाना संभव था। अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत और स्थानीय प्रयासों से इनके संरक्षण और विस्तार के उपाय हो रहे हैं, पर ये अभी बहुत छोटे स्तर पर ही चल रहे हैं। पिछले दिनों जब ये खबरें आईं कि सरकारी प्रयासों से इनकी संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, मेरा ध्यान अचानक अपने गांव के इन परंपरागत स्रोतों की ओर चला गया और मैंने पाया कि पिछले दस सालों में हमारे गांव में जलाशयों की संख्या लगभग 1/10 रह गई है। इनमें से कुछ सूखकर किसी के खेत बाग या घर के दायरे में आ मिले और कुछ जो बच रहे थे वे सरकारी अनदेखी की वजह से सूखते गए। इस तरह गांव की परिधि बनाने वाले जलाशय गांव के भौतिक विस्तार की भेंट चढ़ गए।



इस तरह इन सांस्कृतिक इकाइयों का मारना हमारे लिए खतरनाक है। इनके बिना भारतीय संस्कृति या मानवीय संस्कृति की कल्पना वैसे ही असंभव है, जैसे अ के बिना व्यंजन वर्णों का उच्चारण। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक व्याकरण को बचाने के लिए जलाशयों का संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा निकट अतीत में मानव संस्कृति का निष्प्राण होना सुनिश्चित सत्य है।



https://www.youthkiawaaz.com/2017/10/dying-water-sources-is-a-huge-worry/