इस बहुरूपिया समय में हम एकरूपता के आदी होगए हैं। आम खाना है तो लंगड़ा दशहरी मलदहिया केसर जैसे दो चार नाम, पार्टी करनी है तो कुछ फास्टफुड या मटन-चिकन पनीर जैसा कुछ। एक आयोजन और दूसरे आयोजन के व्यंजनों में बहुत फर्क नहीं। यहां विवाह हो या मृत्युभोज कोई फर्क नहीं। देश भर के होटलों के मेन्यू देख जाइए रेट को छोड़कर सबकुछ एक दूसरे से कॉपी किया हुआ। कहीं बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। व्यस्त भागम भाग की जीवन चर्या में ब्रेड सैंडविच जैसी चीजें स्थाई रूप से घर कर गईं हैं। यहां तक की किसी के घर जाना है तो काजू और मेवा की मिठाइयां स्टेटस सिंबल बन गई हैं। लोकल या लोक के नाम पर भी सिंबल सेट हो गए हैं। जैसे हर बिहारी जन्म से मृत्यु तक सिर्फ बाटी चोखा खाता है और पंजाबी मक्के दी रोटी सरसों दा साग। राजस्थानी नास्ते से लेकर रात को सोने तक सिर्फ दाल बाटी चूरमा खाता है और साउथ इंडियन डोसा और इडली। हम अपने स्थानीय खान पान से बाहर निकल देश दुनिया के खान पान से परिचित हो रहे हैं यह अच्छा है, लेकिन खाद्य संस्कृति का एक प्रतिनिधित्व सेट करना और आयोजनों में एक खास भोजन को अनिवार्य कर देना हमारे जीवन में एकरसता के साथ हमारी सोच के एकरूपता की ओर झुकते चले जाने की निशानी है। ये हालत शहरों ही नहीं गांवों के भी हैं। गांव के छोटे मोटे हाटों और नुक्कड़ों पर भी 'चौमिंग'(स्थानीय उच्चारण) और बर्गर के ठेले इठलाते न नजर आजाएंगे और शहरों में उसके बगल में मोमोज के काउंटर
शनिवार, 8 जुलाई 2023
बहुरूपिया समय
शुक्रवार, 1 मई 2020
शिक्षा में नई संभावनाओं का प्रयोगिक दौर
बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं । विवशता में ही सही सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा की लिए पहल की है । सामाजिक माध्यम और मीडिया मे यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है ? निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं , लेकिन सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी; जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति मे बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी। जिस तरह से आधुनिक शिक्षा ने शिक्षा को एक बंद दरवाजे से खुले दरवाजे की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएँ पैदा की हैं ।
दुनिया के लिए ऑनलाइन या मुक्त शिक्षा-व्यवस्था कोई नई बात नहीं हैं, अमेरिका और यूरोपीय देशों में इसका चलन ज़ोरों पर रहा है । हमारे यहाँ भी सरकारी योजना के स्तर पर इस क्षेत्र में तेजी से काम हो रहे हैं । यू जी सी, एन. सी. आर. टी. की ई- पाठशाला, मूक्स, योजना के साथ मुक्त विद्यालयीय शिक्षा संस्थान की स्वयं, इग्नू की ज्ञानवाणी आदि इसी ही कोशिशे हैं, किन्तु इनके व्यावहारिक रूप में आने में कुछ चुनौतियाँ अभी से महसूस की जाने लगी हैं । इसमें जिस चुनौती को सबसे पहले रेखांकित किया जाता है, वह शिक्षक की सीमित भूमिका और छात्र-शिक्षक संवाद की कमी ।
अस्सी के दशक के बाद दुनिया में शिक्षण के जो नए पैटर्न स्वीकृत हुए हैं, उनमें बहुलांश शिक्षाल की भूमिका को सीमित करने के ही पक्ष में हैं । शिक्षक को सर्कस का रिंग मास्टर न होकर फेसेलिटेटर की भूमिका में होना चाहिए, इससे विद्यार्थी का सीखना अधिक सहज और प्रभावी होगा । यह स्वीकृत तथ्य है । इसलिए शिक्षक की भूमिका का सीमित होना नारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू है । रही बात ‘सीमित’ का अर्थ शिक्षा क्षेत्र में शिक्षकों की संखा में कटौती के अर्थ में तो शिक्षा का पहला उद्देश्य रोजगार देना नहीं शिक्षा को प्रभावी और बेहतर बनाना है ।
दूसरी बात शिक्षक-छात्र के आमने सामने संवाद की कमी केवल ऑनलाइन शिक्षण का दोष नहीं बल्कि भारतीय शिख्स्स पद्धति का भी सबसे बड़ा दोष है । विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा का व्यावहारिक प्रारूप शिक्षक केन्द्रित है, न कि विद्यार्थी केन्द्रित । शिक्षक अपनी रुचि, ज्ञान और क्षमता के भीतर संबंधित विषय पढ़ा और लिखा देता है, विद्यार्थी उसे प्रायः स्वीकार कर लेता है और याद करके परीक्षा में उसे लिख देता है । इसके विपरीत ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी के पास बहुत सारे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामाग्री और संदर्भ होंगे, जिससे वह स्वयं को समृद्ध के शिक्षक से अपने सवालों और समस्याओं और संवाद कर सकेगा । इसमें शिक्षक रिंगमास्टर के बजाय सहभागी या सहयोगी की भूमिका में होगा ।
शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली ‘चौहद्दी’ तक आयी है तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढेगी ही और बढी भी है । किंतु या चौहद्दी तोडना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है । गूगल, विकिपीडीया, स्वयं, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला,मूक्स आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं,किंतु इनकी मूलभूत दो दिक्कते हैं; पहली प्रामाणिकता और दूसरी गम्भीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लोगोँ से है और दूसरे का संस्थानों से। पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है, तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है । प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोडने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं और उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है । यह अरुचि और उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं ।
यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो, पर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची हैं कि कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं । इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं, जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है ? कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं और प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है । ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है ? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ है तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों ?
परंपरागत शिक्षण की भी यह समस्या है कि वे विद्यार्थी को चुनने और निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता । शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है प्रायः उसी परिसर के संसाधनों, पुस्तकालय शिक्षक आदि का उपयोग कर पाता है । कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में इतने समृद्धि नहीं हैं कि वे विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं । विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तकों सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है, जिसमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती है । उनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय प्राया नहीं दिखाई देता । शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनःस्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच वे विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं । इस समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डब्लपर और फ़ेलो की संख्या बढ़ाई जाय और ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाय ।
यह माध्यम किसी एक परिसर, वहाँ के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा तथा किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा । विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्रियों की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा और शिक्षा को सब्जेक्टिव से ओब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा । तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ओब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा, अन्यथा यह ओजेक्टिव प्रश्न पूछने की रश्मअदायगी तक ही सीमित रहेगी । जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है, सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते । खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा ।
शिक्षण की संस्थानिक शिक्षण की एक सीमा यह भी है कि वाह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराइए जाती है विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते वह एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है, जिसमें विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं ऑनलाइन शिक्षा की तुलना में अधिक मानी जा सकती हैं, किन्तु उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है, जिससे उसकी सामाजिक सच्चाईयों से काटने की संभावना भी रहती है । ऐसे में वह उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा ।
शर्त यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा विवशता के पर्याय के रूप में न लेकर एक नई चुनौती या सम्भावना के रूप में लिया जाए, क्योंकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है । शिक्षण संस्थान केवल रोजी-रोटी देने के जरिया भर नहीं हैं और आज नहीं कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा, जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी । अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे ही और शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी । इसका लाभ सीधे-सीधे शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा ।
शुक्रवार, 1 जून 2018
बावड़ी की आत्मकथा
रविवार, 13 मई 2018
'माँ' दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है
'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस के दिन फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहिर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ, जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा कर अल्पवयस में ही घर से सैकड़ों मील दूर जाने दिया दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी ।
अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
रिश्ते शब्दों से नहीं बयान होते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं। शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं।
भारतीय परंपरा में जो भी पोषक और धारक है, वह माँ है । हम धरती की गोद में पैदा होते, खेलते और जीते हैं । वह अतः हमें धारण करती है । उसकी नदियां, उसके वृक्ष, उसकी हवा, उसके जल, उसके फल, उसकी गायें सब हमारे लिए हैं, वे हमें पोषण देते हैं और प्राण-रक्षा करते हैं । इसलिए वह पोषक है । इसीलिए उसके जिक्र के साथ ही ‘माताभूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ का घोष करने वाला हमारा आदिम ऋषि आज भी कहीं न कहीं किसी मन कोने में जाग उठता है।
धरती के उलट आकाश पिता है । वह रोशनी दिखाता है, वह मार्ग प्रशस्त करता है, वह हमें जल (जीवन) देता है, लेकिन उसकी रोशनी का संरक्षण, उसके जल का धारण और उसके मार्ग का आधार धरती है । उसके बिना उसका तेज व्यर्ध है, उसका जीवनांश निराधार है और उसका सारा प्रशस्ता-भाव अर्थहीन है । संभावत: इसीलिए भारतीय परंपरा में धरती अधिक पूज्य है । लोक परम्पराओं में उसके पूजन के अनेक स्थानीय त्यौहार और अवसर हैं तथा शास्त्रीय परंपरा में जलपूरित घट उसी का प्रतीक है । यह सारा कुछ उस मातृत्व के पूज्य और सम्मान्य भाव की ही अभिव्यक्ति है।
मंगलवार, 1 मई 2018
हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय
गुरुवार, 4 जनवरी 2018
भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास
सोमवार, 25 दिसंबर 2017
दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती
इसलिए जहां-तहां तिक्त और कठोर व्यवस्थाओं की बात करता है । यह तिक्तता और कठोरता ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता की गवाह और उसे बचाने की चाहत रखने वालों की असहायता को व्यक्त करती है। यादी उसका ईमानदार पाठ किया जाय तो इसतरह के रूढ़िवादी वर्ग की असफलता उसमें साफ महसूस की जा सकती है, जो वर्णव्यस्था को बल-पूर्वक लागू करना चाहता है ।जब ऐसा नहीं कर पाता तो वह जातियों की व्यवस्था देता है; उदाहरण के लिए क्षत्रिय और शूद्र के सम्मिलन से नाई जाति और ऐसी ही तमाम जातियाँ । मनु शुद्धतावादी हैं जरूर, लेकिन यह शुद्धता समाज में नहीं है, इस बात का भी प्रमाण उनके लिखे से हमें मिलता है । यह बात उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि मनु ने क्या व्यसथा दी है । वह व्यसथा मनु द्वारा रचा गया उनका एक आदर्श है, न कि सामाजिक यथार्थ । सामाजिक यथार्थ तो वह है जिसके समानान्तर मनु इसकी रचना कराते हैं और वह यथार्थ है सांजीक शिथिलता ।
मनु स्मृति या महाभारत एक ही समय की रचनाएँ हैं, यह तथ्य प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता पर एक बात प्रामाणिक रूप से कहीं जा सकती है कि दोनों के रचना काल में वर्णशंकरता थी।शांति पर्व में युद्धधिष्ठिर भीष्म से शिक्षा लेने जाते हैं तो भीष्म उनसे यह पूछते हैं कि आप किसी के वर्ण का निर्णय कैसे करेंगे? युधिष्ठिर का सीधा जवाब है कि उसके गुणों से क्योंकि सभी वर्णों में वर्ण शंकर हैं । इसी तरह मनु भी समूची जाति-व्यवस्था की बात करने के बाद हथियार डालते हुए से कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि जाति और कूल से हीं हो और कर्म से उत्तम तो उसे उसके कर्म से जानाना चाहिए ।
ठेठ नवजागरण का दौर ही देखें तो दक्षिण से उत्तर तक अनेक निचली कही जाने वाली जातियों ने अपना जाति उन्नयन और वर्ण उन्नयन किया है ।बंगाल और बिहार की कायस्थ जाति कभी शूद्र मानी जाती थी, नवजागरणके दौर में इसने अपना उन्नयन कर क्षत्रियत्व का दावा पेश किया । इसी तरह बिहार उत्तरप्रदेश की एक जाति भूमिहार जो वर्ण व्यस्था की दृष्टि से कहीं भी उल्लखित नहीं होते, लेकिन इसी दौर में उसने भी अपने ब्राह्मणत्व का दावा पेश किया । दक्षिण भारत कुछ जातियों में आधे लोग जो सशक्त थे ब्राह्मणत्व के उच्च सोपान पर जा पहुंचे और दूसरे शूद्र बने रहे ।
स्वयं ज्योति बा फुले क्षत्रियत्व का दावा पेश करते हैं और उनके अनुयायियों का एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश में क्षत्रिय के रूप में स्वीकृति पाने में सफल भी रहा । गुजरात के पाटीदार अभी हाल ही में चर्चा में थे ।
मुझे लगता है कि शायद गीता के बाद आज का युवा जिस एक ग्रंथ को सबसे ज्यादा जानता है तो वह है मनुस्मृति । भले पढ़ा है या नहीं। बल्कि, व्यक्तिगत तौर पर मेरा तो दावा यह है कि वह गीता से भी अधिक उसका नाम जानता है, खासकर सोशल मीडिया के दौर में । जहां सारा ज्ञान यहीं से प्राप्त होता है । इसका श्रेय भी यूरोप और उसकी आँख को ही है । उसने नए ज्ञानानुशशनों के उदय के साथ हम सभी को ‘स्पेशलाइज्ड’ कर दिया और ज्ञान की अखंड सत्ता जिसे बौद्ध जीवन-दर्शन ‘सम्यक’ कहता है, के लिए स्पेस लगभग खत्म हो गया । हमारे जीवन और ज्ञान की एक सीमा है और उसमें रहते हुए हम उतना ही पढ़-समझ सकते है, जितना कि हमारी सामनी जरूरत है। इसके अतिरिक्त जो भी है, उसे हम स्केन्द्री सोर्स से जानने के लिए बाध्य हैं।
आजादी के बाद के राजनीतिक-परिदृश्य ने इस समूची समझ को और अधिक जटिल बनाया। जाति और उपजातियों में बनते हुए समाज को नए सिरे से वर्गीकृत कर नए तरह की वर्णव्यवस्था गढ़ी जो अधिकांशतः सुविधानुकूल और सोद्देश्य थी, खासकर पिछड़ी जातियों के मामले में।सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के औचित्य से जो नई व्यस्था तैयार की गई उसकी विडम्बना ही यही थी कि वह केवल पूर्वानुमानों, आग्रहों और राजनीतिक हितों पर आधारित थी । इस प्रक्रिया ने जातियों के ध्रुवीकरण को और तेज किया । जो जातियाँ राजनाइटिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से सशक्त होकर भी इस व्यवस्था की लाभ पाने वाली जातियाँ बनीं, उन्होने अपने वर्ग का झण्डा उठा कर नेतरितत्व ही नहीं किया उसकी आड़ में अपने हित का साधन भी किया । अपने ही वर्ग के भीतर की जातियों के विकास की शर्त पर अपना विकास किया।
वर्ण और जाति निश्चित तौर पर एक लचीली व्यवस्था के रूप में समाज में विद्यमान थे। उनमें अंतरण की छूट सामान्यतः नहीं थी, लेकिन जतियों की जातियाँ वर्णान्तरित हुईं । इसका कारण यह था कि व्यक्तिगत रूप से भले अंतरण आसान नहीं रहा हो, पर सामूहिक अंतरण की प्रक्रियाँ चलती रही हैं ।अनेक ग्रन्थों में ब्रात्य कही जाने वाली जाति दूसरे अनेक ग्रन्थों में क्षत्रियादि जातियों में शामिल हैं। यदि रगुवंशम के रघु-दिग्विजय और महाभारत के युद्ध के राजाओं के परिचय की तुलना की जाय तो यह बात बहुत साफ हो सकती है । यही नहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी जात्यांतरण का उदाहरण अनेकशः उपलब्ध है और इसके लिए संघर्ष की गाथाएँ भी। इन्हें समझने के लिए जरूरी है कि केवल पुस्तकों के सुविधाजनक पाठ न किए जाएँ, उनके अंतरपाठीय संदर्भों से भी गुजारा जाय और उन्हें एक सही ऐतिहासिक पाठ का रूप दिया जाय, अन्यथा हमारी पीढ़ियाँ खुद को एक कलंकित इतिहास की संतानों के रूप में ही देखेंगी। यह उनके इतिहास से मोहभंग का कारण होगा । दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती ।
शनिवार, 21 अक्टूबर 2017
जिजीविशेच्छरदंशतः
गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017
माटी की सन्तानें
कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, ‘बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह।’ कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।