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शनिवार, 8 जुलाई 2023

बहुरूपिया समय

इस बहुरूपिया समय में हम एकरूपता के आदी होगए हैं। आम खाना है तो लंगड़ा दशहरी मलदहिया केसर जैसे दो चार नाम, पार्टी करनी है तो कुछ फास्टफुड या मटन-चिकन पनीर जैसा कुछ। एक आयोजन और दूसरे आयोजन के व्यंजनों में बहुत फर्क नहीं। यहां विवाह हो या मृत्युभोज कोई फर्क नहीं। देश भर के होटलों के मेन्यू देख जाइए रेट को छोड़कर सबकुछ एक दूसरे से कॉपी किया हुआ। कहीं बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। व्यस्त भागम भाग की जीवन चर्या में ब्रेड सैंडविच जैसी चीजें स्थाई रूप से घर कर गईं हैं। यहां तक की किसी के घर जाना है तो काजू और मेवा की मिठाइयां स्टेटस सिंबल बन गई हैं। लोकल या लोक के नाम पर भी सिंबल सेट हो गए हैं। जैसे हर बिहारी जन्म से मृत्यु तक सिर्फ बाटी चोखा खाता है और पंजाबी मक्के दी रोटी सरसों दा साग। राजस्थानी नास्ते से लेकर रात को सोने तक सिर्फ दाल बाटी चूरमा खाता है और साउथ इंडियन डोसा और इडली। हम अपने स्थानीय खान पान से बाहर निकल देश दुनिया के खान पान से परिचित हो रहे हैं यह अच्छा है, लेकिन खाद्य संस्कृति का एक प्रतिनिधित्व सेट करना और आयोजनों में एक खास भोजन को अनिवार्य कर देना हमारे जीवन में एकरसता के साथ हमारी सोच के एकरूपता की ओर झुकते चले जाने की निशानी है। ये हालत शहरों ही नहीं गांवों के भी हैं। गांव के छोटे मोटे हाटों और नुक्कड़ों पर भी 'चौमिंग'(स्थानीय उच्चारण) और बर्गर के ठेले इठलाते न नजर आजाएंगे और शहरों में उसके बगल में मोमोज के काउंटर

स्थानीय व्यंजन प्रायः गायब नजर आएंगे। समोसे, छोले और गोलगप्पों ने अब भी कुछ हद तक मोर्चा संभाल रखा है। हालांकि हेल्थ कंसस लोग इनसे दूर ही रहते हैं। जब हमारा स्वाद - बोध और हमारी जीवनचर्या एकरूप हो रही है तो भला संस्कृति- बोध विचार और राजनीति एक ध्रुवीय हो तो इसमें आश्चर्य कैसा ? यदि हमें बाहरी एक ध्रुवीयता से उबारना है तो हमें शुरुआत यहां से करनी होगी।

शुक्रवार, 1 मई 2020

शिक्षा में नई संभावनाओं का प्रयोगिक दौर


बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं । विवशता में ही सही सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा की लिए पहल की है । सामाजिक माध्यम और मीडिया मे यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है ?  निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं लेकिन सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी; जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति मे बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी। जिस तरह से आधुनिक शिक्षा ने शिक्षा को एक बंद दरवाजे से खुले दरवाजे की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएँ पैदा की हैं ।

दुनिया के लिए ऑनलाइन या मुक्त शिक्षा-व्यवस्था कोई नई बात नहीं हैं, अमेरिका और यूरोपीय देशों में इसका चलन ज़ोरों पर रहा है । हमारे यहाँ भी सरकारी योजना के स्तर पर इस क्षेत्र में तेजी से काम हो रहे हैं । यू जी सी, एन. सी. आर. टी.  की ई- पाठशाला, मूक्स, योजना के साथ मुक्त विद्यालयीय शिक्षा संस्थान की स्वयं, इग्नू की ज्ञानवाणी आदि इसी ही कोशिशे हैं, किन्तु इनके व्यावहारिक रूप में आने में कुछ चुनौतियाँ अभी से महसूस की जाने लगी हैं । इसमें जिस चुनौती को सबसे पहले रेखांकित किया जाता है, वह शिक्षक की सीमित भूमिका और छात्र-शिक्षक संवाद की कमी ।

 अस्सी के दशक के बाद दुनिया में शिक्षण के जो नए पैटर्न स्वीकृत हुए हैं, उनमें बहुलांश शिक्षाल की भूमिका को सीमित करने के ही पक्ष में हैं । शिक्षक को सर्कस का रिंग मास्टर  न होकर फेसेलिटेटर की भूमिका में होना चाहिए, इससे विद्यार्थी का सीखना अधिक सहज और प्रभावी होगा । यह स्वीकृत तथ्य है । इसलिए शिक्षक की भूमिका का सीमित होना नारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू है । रही बात सीमित का अर्थ शिक्षा क्षेत्र में शिक्षकों की संखा में कटौती के अर्थ में तो शिक्षा का पहला उद्देश्य रोजगार देना नहीं शिक्षा को प्रभावी और बेहतर बनाना है ।

दूसरी बात शिक्षक-छात्र के आमने सामने संवाद की कमी केवल ऑनलाइन शिक्षण का दोष नहीं बल्कि भारतीय शिख्स्स पद्धति का भी सबसे बड़ा दोष है । विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा का व्यावहारिक प्रारूप शिक्षक केन्द्रित है, न कि विद्यार्थी केन्द्रित । शिक्षक अपनी रुचि, ज्ञान और क्षमता के भीतर संबंधित विषय पढ़ा और लिखा देता है, विद्यार्थी उसे प्रायः स्वीकार कर लेता है और याद करके परीक्षा में उसे लिख देता है । इसके विपरीत ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी के पास बहुत सारे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामाग्री और संदर्भ होंगे, जिससे वह स्वयं को समृद्ध के शिक्षक से अपने सवालों और समस्याओं और संवाद कर सकेगा । इसमें शिक्षक रिंगमास्टर के बजाय सहभागी या सहयोगी की भूमिका में होगा ।

शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली चौहद्दीतक आयी है तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढेगी ही और बढी भी है । किंतु या चौहद्दी तोडना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है । गूगल, विकिपीडीया, स्वयं, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला,मूक्स आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं,किंतु इनकी मूलभूत दो दिक्कते हैं; पहली प्रामाणिकता और दूसरी गम्भीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लोगोँ से है और दूसरे का संस्थानों से। पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है, तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है । प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोडने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं और उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है । यह अरुचि और  उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं । 

यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो, पर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची हैं कि कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं । इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं, जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है ? कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं और प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है । ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है ? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ है तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों ?

परंपरागत शिक्षण की भी यह समस्या है कि वे विद्यार्थी को चुनने और निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता । शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है प्रायः उसी परिसर के संसाधनों, पुस्तकालय शिक्षक आदि का उपयोग कर पाता है । कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में इतने समृद्धि नहीं हैं कि वे विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं । विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तकों सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है, जिसमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती है । उनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय प्राया नहीं दिखाई  देता । शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनःस्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच वे विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं । इस समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डब्लपर और फ़ेलो की संख्या बढ़ाई जाय और ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाय । 

यह माध्यम किसी एक परिसर, वहाँ के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा तथा किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा ।  विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्रियों की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा और शिक्षा को सब्जेक्टिव से ओब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा । तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ओब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा, अन्यथा यह ओजेक्टिव प्रश्न पूछने की रश्मअदायगी तक ही सीमित रहेगी । जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है, सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा  प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते । खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा । 

शिक्षण की संस्थानिक शिक्षण की  एक सीमा यह भी है कि  वाह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराइए जाती है विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते  वह एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है, जिसमें विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं  ऑनलाइन शिक्षा की तुलना में अधिक मानी जा सकती हैं, किन्तु उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है, जिससे उसकी सामाजिक सच्चाईयों से काटने की संभावना भी रहती है । ऐसे में वह उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा ।

शर्त यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा विवशता के पर्याय के रूप में न लेकर एक नई चुनौती या सम्भावना के रूप में लिया जाए, क्योंकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है । शिक्षण संस्थान केवल रोजी-रोटी देने के जरिया भर नहीं हैं और आज नहीं कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा, जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी । अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे ही और शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी ।  इसका लाभ सीधे-सीधे शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा ।

 

शुक्रवार, 1 जून 2018

बावड़ी की आत्मकथा





बहुत पुरानी दोस्ती थी। सदियों की। पीढ़ियों से। पीढ़ियाँ! मेरी नहीं उनकी। न जात न पाँत । न छूआ-छूत। न मान –अपमान। सब अपने थे। भैया-चाचा, बहन, बुआ, बेटी। कोई पराया नहीं न कोई अनचीन्हा। आदमी तो आदमी पशु-पारानी, चिरई-चुरुंग सबके लिए खुले थे अपने दरवाजे। घना बगीचा । महुआ और आम की घनी डालियाँ और उनकी छाया में बसा अपना बसेरा। कब से था? किसी को याद नहीं। मुझे भी नहीं । कहाँ तक याद करूँ— इतिहास अपना या गाँव का?


हाँ, याद है कुछ तो यह मकान जो तब कच्चा था, मिट्टी और खपरइलों से बना। मिट्टी की भीत, लकड़ी का ठाट और फिर मिट्टी छोप कर ऊपर से खपराइलों की पाँत बिछ गई थी। कोई सौ साल पहले की बात है। कुछ लोग आए थे तब। कुर्ते-धोती और झोले में एक अधेड़ मास्टर, गाँव के मुखिया और कोई साहब; शायद डिप्टी साहब। मौका मुआइना और फिर बच्चों की चहल-पहल। बच्चों की स्कूल खुला था तब, दक्खिन की दांती (किनारे) पर। सरकारी स्कूल था। ठीक वहीं, जहां आम और महुए के कुछ पुराने पेड़ उकठकर गिर गए थे और जगह खाली हो गई थी। रौनक भर गई थी मेरे जेहन में। हाँ, पेड़ों के पत्तों की खुसुरफुसुर, तालियों की मद्धम आवाज और नए-नए किल्लों की मीठी खिलखिलाहट की जगह ले ली थी बच्चों की धमा-चौकड़ी, उछल-कूद और खिलखिलाहट की मीठी आवाजों ने। कभी पहाड़ों की सामूहिक आवाज, कभी गिनतियों का समवेत स्वर तो कभी अंत्याक्षरी, खोखो कबड्डी और गिल्ली डंडा। एक अपूर्व लय थी जिसेमे खोकर दशकों का फासला भी कम लगता है अभी। बच्चे झुक कर कभी मुझसे दवात में पानी भरते तो कभी अनजाने खड़िया या स्याही घोल देते। मेरे इतने बड़े पाट में भला दो बूंद का क्या असर? मैंने बदरंग होने को बुरा नहीं माना कभी। सच कहूँ ? बच्चों ने भी बुरा नहीं माना कभी, जब बरसात में हुलस कर मेरा पानी उनके रास्ते पर आ जाता । वे बिना गीले-शिकवे के अपने कपड़े ऊपर की ओर खिसकाकर पार कर जाते और मैंने भी इसका हमेशा खयाल रखा कि कोई बच्चा मेरे पानी में डूबे नहीं। अच्छा यारना था अपना। पानी में कंकड़ी फेंक मेरे भीतर लहरें उठाना और कागज की नाव बहाना उनका प्रिय शगल था । अपना भी तो अच्छा मनोरंजन था । हम दोनों खेलते रहे। पीढ़ियाँ गुजरती रहीं। पेड़ तो कुछ उकठे और कुछ काटकर खेत बना दिए गए, पर मैं ज्यों की त्यों। बरसात में हुलासकर स्कूल के आँगन में और गर्मी में सिमटकर अपनी ताली में। अपने नए दोस्तों की किलकारियों में पत्तों के खिलखिलाहट और तालियाँ बजाकर नाचना कब का बिसर गया । हाँ, वह ठंडी छाँह कभी-कभी जरूर याद आती जब सूरज की तपन से मेरे कंठ सूखने लगते और लगता हलक से प्राण ही निकाल जाएंगे। लगता काश कि वे पुराने दोस्त होते, सारी तपन झेलकर वे मुझे अपनी ठंडी छाँव दे देते । 


यूं ही क्रम चलता रहा। अपनापा बढ़ता रहा। बगल में एक और स्कूल खुला— प्राइवेट। थोड़ी दूर था, लेकिन उसकी नियत में शुरू से मैं उसके करीब नहीं, बल्कि उसके जड़ में थी। गाँव का हर ताल, पोखर, बंजर जमीन उसकी नीयत की जड़ में ही थे मेरे तरह। सरकार भी बादल चुकी थी और व्यवस्था भी। न मुखिया थे और न गाँव में लाज-लिहाज की पुरानी रवायतें। गाँव बादल रहा था। प्रधान बादल रहे थे, हर साल। किनारे के स्कूल में चुनाव होते। हो-हल्ला, मार-पीट, तू-तू मैं-मैं। बिलकुल पसंद नहीं था मुझे। कहाँ तो बच्चों की किलकारियाँ और कहाँ यह षडमंडल ? हाँ, यह भी पता था कि उन्हें भी नहीं पसंद थी मैं। बस वक्त की घात में बैठे थे। मुखियाई की तरह परधानी परंपरागत नहीं थी। एक अनुकूल प्रधान और फिर मेरा वजूद.. 


मेरे तमाम गोतिया बिला चुकीं थे वर्तमान की खपराइलों में। जिनके खेत और दुआर उनके पास थे उन्होने उढ़ा दी थी चादर और ब्याह ले गए थे अपने खेतों और द्वारों के साथ; वैसे ही जैसे बड़ें भाइयों की बेवाओं को उढ़ा देते थे चादर अंधेरे कमरे में सिंदूर डाल, बिना उनकी मर्जी पूछे। नेउरी गडही, पउदर, पोतनहर, पुरनकी बौली सब। धीरे-धीरे खसरा खतौनी से भी हटा दिये गए उनके नाम और उनकी जगह दर्ज हो गए किसी अ राय, ब पांडे, स श्रीवास्तव, द कुर्मी और य पासवान के नाम। गाँव भला करता भी क्या ? भाई या पड़ोसन की बेवा जो ठहरी किसी इस-उस के घर बैठ जाए उससे तो अच्छा है कि नाक बच गई। भाई ने ही रख ली। लाठी-डंडा, मान-मानव्वल, सुलह-सपाटा और भोज-भात। बस बात खतम। सब भूल गए उनके नाम, उनके परे रूप-रंग और यादों की कौन कहे। मैं अकेले देखती रही गाँव के इस छोर पर क्योंकि गाँव से थोड़ी दूर थी और बाबू-बाबुयान के खेतों से भी। उसमें भी तुर्रा यह कि गाँव के रामलीला मैदान से सटी; कभी रामलीला में गंगा का रोल कर लेती तो कभी समुद्र का। यही था रक्षा कवच मेरा, वरना पूरनका पोखरा की बावन बिधे जमीन को लील गए लोग तो भला मुझ बावड़ी की बिसात ही क्या?


प्राइवेट स्कूल वालों की नज़र पारखी थी। कागज-पत्तर पर तो पहले ही सारा बचा खुचा बंजर, ग्रामसमाज और तालाब-बावड़ी स्कूल की जद में ले चुके थे, बारी थी वास्तविक कब्जे की। पहले मेरे बरसाती पानी के विस्तार को रोका गया स्कूल की सड़क बनी। कोफ्त तो खूब हुई मुझे रोई भी। जिन बच्चों को दसकों से कोई परेशानी नहीं हुई मुझसे। मुझे भी बरसात के दिनों में उनके छोटे-छोटे कोमल पाँवों को धोकर उससे कहीं ज्यादा सुख मिलता, जितना रामलीला में गंगा बनकर राम के खुरदुरे पैरों को धोने में मिल सकता था। उन्हीं के नाम पर मुझे घेर दिया गया। मेरा आँचल मुझसे छीन लिया गया । यह बात भी लगभग दो दशक पुरानी हुई, सो घाव धीरे-धीरे सूख चला था। पर, अब नजर मेरी पूरी देह पर थी। 




मिट्टी खोदने, डालने और बराबर करने वाली मशीनों की भीड़, लोगों का हल्ला। कुछ उत्सुक आँखें, कुछ विरोध भरी और डराती-धमकाती तथा कुछ डर-सहमकर पीछे हटतीं। शायद यह पहला अवसर था कि चादर गुपचुप नहीं ओढ़ाई गई। पूरे साजोसामान से लैस अमले आमने सामने। एक ओर स्कूल की बढ़ते हुए पंजे थे, तो दूसरी ओर मेरी गर्दन को मुट्ठियों में जकड़कर मेरा दम घोंट देने की रामलीला समिति चाहत। इन दोनों के बीच निस्सहाय मैं। बहुत देर तक एक छोर पर स्कूल के बोर्ड और दूसरे छोर पर समिति के बोर्ड का गाड़ना देखती रही और खंती हर बार हल्की आवाज के साथ मेरे कलेजे को गहरे तक कुरेदती रही और अंत में ठीक वहीं, जहां स्कूल के बच्चे कभी अपनी दावतों को पानी में डुबोकर स्याही और खड़िया का रंग घोल जाते तो कभी अपनी छोटी कागज की नाव पानी में डालकर उसे दूर तक जाता हुआ देखकर किलकारी भरते और कभी मिट्टी में सने अपने नन्हें पाँव पानी में दाल हिला-हिलाकर अपने पैर साफ करते, आज मिट्टी का पहला रोड़ा गिरा जो मेरी सांस की नली में अटक गया। मै छटपटाती रही और मेरे ऊपर उनके अधिकार की चादर फैलती रही, धीरे-धीरे सब मिटता रहा। अपनत्व, याराना, पीढ़ियों और सदियों के संबंध, उन नन्हें पावों के निशान, आँचल में सिमटी कागज की कश्तियाँ सब दफन होते रहे। एक किनारे खड़ा पुराना स्कूल और दूसरे किनारे खड़ा अकेला महुए का पेड़ मूक साखी बन देखते रहे । मिट्टी के ढेले गिरते रहे मशीने चलतीं रहीं। लोग फावड़े से जमीन बराबर करते रहे और ठाकुर द्वारे के लाउडीस्पीकर से उद्घोषणा होती रही, “ग्रामवासी कृपया ध्यान दें उत्तर के पोखरे में खुदाई कर उसे और गहरा करने के लिए काम चालू है, कृपया अधिक से अधिक संख्या में पहुँचकर श्रमदान करने का कष्ट करें। पोखरे की खुदाई पुण्य का काम है आप अपना अमूल्य श्रमदान करके पुण्य का लाभ लें। पोखरे के भीटे पर बैठा ग्रामप्रधान ग्राम विकास अधिकारी के साथ हर गाँव में पोखरे खुदवाने के सरकारी आदेश और हाजिरी रजिस्टर लेकर पोखरे खुदवाने में लगाने वाली लागत का हिसाब-किताब करता रहा और गाँव के दक्खिन मेरी सांस घुटती रही।




अब मेरे ऊपर भी एक चादर ओढा दी गई है, जिसपर साप्ताहिक हाट लगती है, दशहरे का मेला लगता है और दिन-ब-दिन समिति की आय बढ़ रही है और पुण्य भी। गाँव के लोग खुश हैं जमीन स्कूल मैनेजर के हाथ जाने से बच गई और गाँव की जमीन है गाँव के काम आएगी। धरम-करम भी कोई चीज होती है आखिर ! मैं भी बेवा नहीं, सधवा हूँ । अपने पति के नाम से जानी जाती हूँ । मेरी नई पहचान है—‘रामलीला मैदान’ रामलीला समिति, ग्रामसभा, क। अपने इस नए पते के साथ मैं अब भी जिंदा हूँ । मैं अब भी साँस ले रही हूँ और अब भी जी खोल कर बोलना-बतियाना चाहती हूँ । हिलना-मिलना और दुःख-सुख का हिसा बांटना चाहती हूँ । पर, अफसोस अभी मैं इतिहास नहीं हूँ, न पुरातत्वविदों की रुचि का विषय । कल जब तुम भी नहीं होगे, शायद यह गाँव यह पाठशाला भी नहीं होगी, तब शायद कोई खंती, कोई फावड़ा या कोई मशीन मेरे भीतर छिपे इतिहास और स्मृतियों को खोद रही होगी । दुर्भाग्य, तब मेरी स्मृतियों की भाषा समझने वाला कोई न होगा, मेरे आँचल में छुपी कागज की नावों का अर्थ और मिट्टी और शीशे की उन दवातों का इतिहास कार्बन डेटिंग से निकाला जाएगा, उन बच्चों के पाँवों के निशान तो तभी खो चुके जब मेरे वक्ष पर लहराते जल को तुम्हारी मिट्टी ने सोख लिया । लेकिन, तब भी तुम्हारा इतिहास मुझसे ही लिखा जाएगा, जब तुम खुद नहीं होगे । इसलिए मैं अब भी जीना चाहती हूँ ताकि भविष्य को तुम्हारे वजूद की गवाही दे सकूँ ।

रविवार, 13 मई 2018

'माँ' दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है



'मातृ दिवसइस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस के दिन फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं हैजिससे जाहिर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ, जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा कर अल्पवयस में ही घर से सैकड़ों मील दूर जाने दिया दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा हैपहले भी और अब भी । 
अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'
 हमारी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन ! इतना अहंकार अपने उसी वजूद पर, जिसे स्वयं उसी ने सिरजा, रचा और आकार दिया— ‘माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं ।’ अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप’ कविता के ये शब्द मुझे माँ से अपने रिश्ते को व्यक्त करने के लिए सबसे सटीक शब्द लगते हैं । पर यह हमारी अहमन्यता ही है कि हम अपने जीवन के व्यस्ततम वर्षों में उसके लिए एक दिन नियत कर उसके प्रति अपने दायित्व की इतिश्री समझ लें । वस्तुतः वह ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ है भी नहीं । जीवन के अंतिम पड़ाव तक, जब घर के सारे पुरुष सारे संबंध अपने वय की विवशता में पारिवारिक दायित्वों से विरत हो अगली पीढ़ी की तरफ उम्मीद के साथ आँख उठा कर देखने लगते हैं, तब भी वह मान ही है जो अपनी संतान के लिए कभी नहीं थकती । हारी-बीमारी ही नहीं नाउम्मीदी की तमाम रातों में जब आप अकेले कमरे की चक्कर लगा रहे होते हैं तो वह माँ ही है जो रात भर जाग कर हमारेके सोने की प्रतीक्षा करती है और जब आप बिस्तर पर धारक जाते हैं तो वह अपनी बूढ़ी निःशक्त अंगुलिया आपके बालों में डालकर आपके भीतर की उम्मीद को जगाती है जिलाती है । वह मृत्यु की चौखट पर पहुँचने-पहुँचने तक अपनी संतान के हित और शुभ के लिए घिसटती रहती है । निश्चित तौर पर सुविधा सम्पन्न परिवारों की बात थोड़ी अलग हो सकती है, पर भारत की बहुलांश जनसंख्या सुविधा हीं, वंचित या अल्पवञ्चित है । इसलिए खा-अधाकर मचिया पर बैठ पंखा झलती हुई बूढ़ी माएँ हमारी पिछली पीढ़ियों का स्वप्न जरूर रही हैं, यथार्थ नहीं । अधिकांश माएँ मृत्यु की चौखट तक अपनी संतानों के लिए खटते और घिसटते हुए ही इस दुनिया विदा होती हैं और हम संताने हमेशा उनसे इसी उम्मीद में बंधे रहते हैं—

फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

संतान की यह उम्मीद और उसके अक्षुण्ण और अनाहत व्यक्तित्व का संस्कार ही हर माँ की नियति है । चाहे वह घूरहू-कतवारू की माँ हो या सर्वसुविधासम्पन्न किसी अभिजात कुल की माँ । वह आजीवन सजग और सचेष्ट रूप से अपनी इसी ज़िम्मेदारी के निर्वहन में रत रहती है । तब भला वह हमारी ज़िम्मेदारी या दायित्व कैसे हो सकती है, जिसके लिए हम जीवन भर जिमीदारी या दायित्व रहे । यह बात अलग है कि उसने कभी इस बोध के साथ इस रिश्ते को जिया ही नहीं । उसके जीवन में इन शब्दों को गढ़ने या रचने की फुर्सत ही कब रही ? वह तो हम हैं जो उसी की रची हुई बुद्धि के बल पर इन शब्दों से खेलना सीख गए हैं, अन्यथा वह हमेशा खुद के लिए जीती रही और उस खुद का अविभाज्य हिस्सा, बल्कि सर्वांश हम सन्तानें थीं। उसकी हँसी-खुशी, सुख-दुख हमसे अलग हुआ ही नहीं, फिर भी उसे हमेशा यह सालता रहा, हमने अपने बच्चों के लिए किया ही क्या, जबकि दूसरी माएँ बहुत कुछ करती रहीं हैं। हम समर्थ ही नहीं थे । उसकी यह समर्थता और सबकरके भी अपने को न करने वाला समझना काश हम संतानों ने भी उससे सीख लिया होता । तब हम उसे ज़िम्मेदारी या दायित्व की तरह नहीं, बल्कि अपने उसे वजूद की तरह स्वीकार करते हुए सहज रूप से जीना सीख पाते; उसे अपने जीवन का सर्वांश भले न बनाते, एक अविभाज्य हिस्से की तरह उसकी जिंदगी को जी पाते । और, तब हम उस अहमन्यता और कर्ता भाव से कुछ मुक्त हो पाते, जो ‘दायित्व’ या ‘ज़िम्मेदारी’ शब्द के प्रयोग में है । 
रिश्ते शब्दों से नहीं बयान होते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं। शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं।  
माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी । 
भारतीय परंपरा में जो भी पोषक और धारक है, वह माँ है । हम धरती की गोद में पैदा होते, खेलते और जीते हैं । वह अतः हमें धारण करती है । उसकी नदियां, उसके वृक्ष, उसकी हवा, उसके जल, उसके फल, उसकी गायें सब हमारे लिए हैं, वे हमें पोषण देते हैं और प्राण-रक्षा करते हैं । इसलिए वह पोषक है । इसीलिए उसके जिक्र के साथ ही  माताभूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: का घोष करने वाला हमारा आदिम ऋषि आज भी कहीं न कहीं किसी मन कोने में जाग उठता है।   
धरती ही क्यों ? नदी भी स्रोतस्विनी है, पयस्विनी है, जीवन दायनी है, हमारी फसलों हमारे फलों और हमारी गायों में ‘रस’ भरने वाली रसवंती है, इसलिए वह भी हमारे प्राणों को धारण करने और पोषण देने वाली है और वह भी माँ है । भारतीय कला और साहित्य का एक प्राचीन प्रतीक है जिसपर आधुनिक मन इसपर असहमत है, भ्रांत है और उसका मातृत्व संदेह के घेरे में है, फिर भी भारत का बहुलांश उसे मातृवत ही मानता है (कभी-कभी धर्मांधता या रूढ़ि के रूप में भी सही ) वह है ‘गो’ । पुरानी आत्मवादी शब्दावली में कहें तो वह हमारे शरीर को आत्मा और प्राण-तत्त्व को धारण करने की क्षमता देती है और आधुनिक शब्दावली में कहें तो उसके दूध में पूर्ण आहार की वह पोषकता है, जो एक शिशु को एक माँ से मिलता है । यही क्यों इन सबकी समेकित ‘अभिव्यक्ति’ प्रकृति भी मातृ-स्वरूप है । भारतीय चिंतन, कला या साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति जिस भी रूप में हुई है, उसे मातृका या माँ की संज्ञा ही दी गई है । चाहे वह आदिम कल्पना की सप्त मातृकाओं की पाषाण पिंडियाँ हों या शक्ति-स्वरूपा दुर्गा, काली आदि रक्षक और धारक देवियाँ या विश्व को पोषण देने वाली अन्नपूर्णा, पार्वती और लक्ष्मी । ये उत्तर वैदिक देवियाँ ही क्यों ? ठेठ वैदिककाल की ‘वाक्’ भी पोषण, रक्षण और धारण के गुणों से समन्वित है और इसीलिए उत्तर-वैदिक काल में वाणी भी माँ ही मानी गई और उसकी अधिष्ठात्री सरस्वती भी । 
धरती के उलट आकाश पिता है । वह रोशनी दिखाता है, वह मार्ग प्रशस्त करता है, वह हमें जल (जीवन) देता है, लेकिन उसकी रोशनी का संरक्षण, उसके जल का धारण और उसके मार्ग का आधार धरती है । उसके बिना उसका तेज व्यर्ध है, उसका जीवनांश निराधार है और उसका सारा प्रशस्ता-भाव अर्थहीन है । संभावत: इसीलिए भारतीय परंपरा में धरती अधिक पूज्य है । लोक परम्पराओं में उसके पूजन के अनेक स्थानीय त्यौहार और अवसर हैं तथा शास्त्रीय परंपरा में जलपूरित घट उसी का प्रतीक है । यह सारा कुछ उस मातृत्व के पूज्य और सम्मान्य भाव की ही अभिव्यक्ति है। 
फिर भी, जीवन और व्यवहार के धरातल पर हमारे परिवारों की सबसे उपेक्षित और नगण्य स्थिति माँ की ही है । वह स्त्री है । अपने घर के प्रत्येक पुरुष से वय और रिश्ते में भले ही बड़ी हो पर अपने अधिकार और जीवन स्तर में सबसे बाद में आती है । यह सच है । वह मातृ-दिवस की तरह ही सर्वथा नैपथ्य में ही सिमटी रहती है और उसे तभी याद किया जाता है जब कि उसकी हमें कोई जरूरत हो । ठीक वैसे ही जैसे टूटते और बिखरते परिवारों तथा हाशिये पर खिसकते वृद्धों वाले समाज हमें खुद को सभ्य और मानवीय दिखाने के लिए मातृ या पितृ दिवस की हमें और ‘सेलिब्रेशन’ का रूप देकर कमाना हमारे बाजार की जरूरत है । दरअसल जरूरत से अधिक के लिए हमारे पास रिश्तों के कोई अवकाश नहीं है और बाजार हमारी इन जरूरतों को भुनाना बखूबी जनता है । देश-विदेश की तमाम ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियाँ हफ्तों से मातृदिवस को बेच रही हैं । 



मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय




बचपन में जब हिंदी  की वर्णमाला सीख रहा था तब यह सवाल कई बार ज़हन में उठा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘आ’ ‘इ’ या ‘उ’ से बारहखड़ी की शुरुआत की जाय तो क्या होगा? बात तो ठीक भी थी, क्रम बदलने से भाषा का भला बिगड़ता भी क्या? हां स्कूल या घर में डांट ज़रूर पड़ती, शायद अध्यापक की छड़ी की मार भी। यह डर ही था जिसके कारण इस कल्पना को मूर्त रूप न दे सका। आगे जब व्याकरण और भाषा विज्ञान पढ़ा तब भी यही बात आई।



हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार पाणिनी के माहेश्वर सूत्र, जो भगवान शंकर के डमरू से निकली 14 ध्वनियां मानी जाती हैं वो भी ‘अ इ उ ण’ से ही शुरू होती है। आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि बिना ‘अ’ की सहायता के हिंदी के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि ‘अ’ सभी स्वरों में सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए हिंदी वर्णमाला का पहला वर्ण है।



मानव ने जब अपनी सभ्यता की शुरुआत की तो उसके पास जो सबसे ज़रूरी चीज थी जल। चाहे सिंधु सभ्यता हो अथवा नील नदी या दजला-फरात की या कोई अन्य सभ्यता उसका विकास नदी के तट पर हुआ जिसकी वजह थी जल की उपलब्धता। शायद इसलिए ही ये नदियां इन संस्कृतियों के लिए पूजनीय भी थीं। सिंधु और नील के पूजा के प्राचीन प्रमाण तो मिलते ही हैं, गंगा और नर्मदा आज भी भारत में पूजनीय हैं। उन्हें मान माना जाता है। क्यों किसी रूढ़ि के कारण नहीं, अपने सांस्कृतिक महत्त्व और अपनी उपादेयता के कारण।



पौराणिक कथाओं में भी जलाशय का महत्त्व इस बात से पता चलता है कि कालीदास ने शकुंतला की विदाई प्रसंग में कण्व ऋषि द्वारा किसी प्रिय जन को जलाशय के पास छोड़ने का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि जलाशय शुभता के प्रतीक हैं और इनका दर्शन मात्र शुभ होता है। इसीलिए हमारे घरों में यात्रा से निकलते समय जलपूरित पात्र रखने का चलन भी है। इसका संदर्भ अभिज्ञानशकुंतलम के चतुर्थ अंक में भी है , जब शकुंतला विदा होती है तो पिता कण्व उसे छोड़ने जलाशय तक आते हैं । 



लगभग दो-तीन पीढ़ी पहले तक जलाशयों को खुदवाना लोककल्याण का काम था। ये जलाशय हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम थे और हम उनपर आश्रित थे। इतना ही नहीं हमारे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक काम भी इनके तट पर संपन्न होते थे। पूर्वजों का तर्पण हो या बच्चे का मुंडन दोनों ही जलाशय पर ही सम्पन्न होते थे। ये चलन भी हमारे देश और हमारी संस्कृति में जल के महत्त्व को दिखाता है।



जलाशय एक सांस्कृतिक घटक के रूप में  महत्त्वपूर्ण भी रहा है और हमारे समाज में उनकी भूमिका वही रही है, जो नागरी वर्णमाला में ‘अ’ की है। इसलिए हम जलाशयों को मानवीय संस्कृति का ‘अ’कार कह सकते हैं।



लेकिन, स्वतंत्र भारत में जिस तरह जल के नए स्रोतों का विकास हुआ और उनका प्रयोग बढ़ा, हमने उन जलाशयों की उपेक्षा आरंभ कर दी और क्रमशः वे हमारे लिए महतत्वहीन हो गए। कुएं-तालाब भी धीरे-धीरे मृतप्राय हो गएं और हम उन्हें भूलते गए। भोजपुरी भाषा (चाहें तो बोली कह लें) में एक कहावत है ‘घर के पुरनिया के झापीं में बंद करके रखे के चाहीं।’ अर्थ यह कि हमें घर के बुज़ुर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जाने कब उनका अनुभव हमारे काम आ जाए और हम मुश्किल से मुश्किल संकट से निकल जाएं।



यह बात शब्दशः जलाशयों पर भी लागू होती है। ये भी हमारे लिए संजीवनी शक्ति की भूमिका में आ सकते हैं। अपनी इसी समझ के कारण तालाब किसी की व्यक्तिगत संपत्ति ना होकर हमारे समूचे गांव या मुहल्ले के होते थे। हर कोई उसके मरम्मत वगैरह में बराबर सहभागी होता था। अब जबकी तालाबों का संरक्षण गांव की सार्वजनिक भूमिका के बजाय ग्रामसमाज और उसके सरकारी बजट के दायरे में आ गया है तो फंड, उपेक्षा और भ्रष्टाचार के कारण ये तेज़ी से उपेक्षित होकर धीरे धीरे हमारे खेतों, घरों या किसी अन्य स्ट्रक्चर में समाते जा रहे हैं। यह स्थिति दिन ब दिन भयावह होती जा रही है।



बुंदेलखंड, विदर्भ से लेकर उन क्षेत्रों में भी सोखे की खबरे आ रही हैं जहां जल संरक्षण के इन स्रोतों के कारण परंपरागत सूखे के दिनों में भी फसलें उगाना संभव था। अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत और स्थानीय प्रयासों से इनके संरक्षण और विस्तार के उपाय हो रहे हैं, पर ये अभी बहुत छोटे स्तर पर ही चल रहे हैं। पिछले दिनों जब ये खबरें आईं कि सरकारी प्रयासों से इनकी संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, मेरा ध्यान अचानक अपने गांव के इन परंपरागत स्रोतों की ओर चला गया और मैंने पाया कि पिछले दस सालों में हमारे गांव में जलाशयों की संख्या लगभग 1/10 रह गई है। इनमें से कुछ सूखकर किसी के खेत बाग या घर के दायरे में आ मिले और कुछ जो बच रहे थे वे सरकारी अनदेखी की वजह से सूखते गए। इस तरह गांव की परिधि बनाने वाले जलाशय गांव के भौतिक विस्तार की भेंट चढ़ गए।



इस तरह इन सांस्कृतिक इकाइयों का मारना हमारे लिए खतरनाक है। इनके बिना भारतीय संस्कृति या मानवीय संस्कृति की कल्पना वैसे ही असंभव है, जैसे अ के बिना व्यंजन वर्णों का उच्चारण। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक व्याकरण को बचाने के लिए जलाशयों का संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा निकट अतीत में मानव संस्कृति का निष्प्राण होना सुनिश्चित सत्य है।



https://www.youthkiawaaz.com/2017/10/dying-water-sources-is-a-huge-worry/

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास

मध्यकाल में केशवदास नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए । उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं । अपने समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई। वे राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था कि भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था कहीं-न- कहीं उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को अस्वीकार करता है । कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी जुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं।
          कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है । यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है । पुराने जमाने के राजा,सामंत या दरबारी ही नहीं आधुनिक युग के धनाड्य, पूंजीपति, नेता और अधिकारी भी ऐसा ही व्यवहार कराते हैं । कभी संस्कृत या फारसी की जो स्थिति थी वही आज अङ्ग्रेज़ी की है । यह वर्ग सामान्य जनता से अपने को अलगाने और जन सामान्य पर अपना रोब गाँठने के हथियार के रूप में भाषा का इस्तेमाल करता है और एन-केन प्रकार से भाषा के आधार पर अपना वर्चस्व कायम रखने की हर संभव कोशिश में लगा रहता है। उयाके लिए भाषा जीवन और अनुभूति का सवाल नहीं होती, बल्कि सामाजिक वर्चस्व का एक मजबूत हथियार होती है । दुर्भाग्य यह रहा कि हमारे देश की आजादी के बाद भाषा के सवाल को हल करने की ज़िम्मेदारी इसी अभिजात वर्ग के हाथों में थी; चाहे वे राजनैतिक और प्रशासनिक दुनिया के लोग हों या अकादमिक दुनिया के लोग। वे अङ्ग्रेज़ी पढे-लिखे लोग थे। जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि अङ्ग्रेज़ी उनके लिए सुविधा की भाषा थी, गलत है। अङ्ग्रेज़ी उनके लिए वर्चस्व की भाषा थी। वे अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए  अङ्ग्रेज़ी के प्रभुत्व को कायम रखना चाहते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह अंतरराष्ट्रीय संवाद की भाषा है और दुनिया के ज्ञान का साहित्य इसी भाषा में रचा गया है। उससे परिचित होने के लिए हमें अङ्ग्रेज़ी का बोध होना जरूरी है।  पर, क्या यह सही नहीं है कि कुछ सदियों पुरानी इस भाषा ने दुनिया की सभी भाषाओं पर वर्चस्व अनायास केवल हथियार के बलपर हासिल नहीं किया, बल्कि  उसके लिए खून-पसीना भी बहाया, खाक भी छानी । अरबिक, ग्रीक और संस्कृत माध्यमों में उपलब्ध ज्ञान के पुराने साहित्य का उल्था भी किया । दर्शन, भूगोल और विज्ञान आदि के जर्मन और फ्रांसीसी विद्वानों के विचारों को भी अपनी भाषा में सुलभ बनाया । जाहीर है ऐसा करने वाले समाज के विशिष्ट और सुविधा सम्पन्न लोग ही थे । भारतीय अभिजात वर्ग के लोगों की तरह । यदि ये लोग भी दुनिया के इस साहित्य के ज्ञान को अपने व्यक्तिगत या वर्गीय वर्चस्व का माध्यम बनाए रखना चाहते तो अवश्य अपनी अनुवाद नहीं करते। यह समझना आसान है कि भारतीयों की तरह अन्य भाषाओं के टर्मो के अनुवाद करने में उन्हें मुश्किल आई होगी और उन्हें लोकप्रिय बनाना भी बहुत आसान नहीं रहा होगा। लेकिन, यह काम केवल इस लिए हो सका कि वे अपनी भाषा से प्रेम कराते थे । उन्हें उसकी पहचान की चिंता थी या अपने अतिलघु इतिहास के बावजूद समझ सकते थे कि उनकी सांस्कृतिक पहचान उनकी भाषाई अस्मिता से अनिवार्यतः जुड़ी है और भाषिक समृद्धि ही उन्हें सांस्कृतिक पहचान देगी, वर्ना ग्रीक और रोमन संस्कृतियों के सामने उनकी शिशु-संस्कृति का भला क्या वजूद ? अपनी इस पहचान की चिंता, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से लगाव ही उन्हें वैश्विक स्तर पर भाषाई वर्चस्व देने में कामयाब हुआ।
          भारत की स्थिति इसके ठीक उलट है। यहाँ हमारे अपने पुराने सांस्कृतिक इतिहास पर सीना फूलाने की पर्याप्त सुविधा है, ब्रिटेन की तरह हम सांस्कृतिक रूप से फकीर नहीं हैं । हमारा अभिजात वर्ग इसे जनता है और जब-तब अपने सीने चौड़े करके इसका दंभ भी भरता है, लेकिन बात जब उस सांस्कृतिक पहचान को नयापन देने की होती है, तो वह आधुनिक विश्वभाषा औरहमें  ज्ञान-विज्ञान की शरण में जा खड़ा होता है और इनकी दुहाई देता हुआ यह दावा करता है कि भारतीय भाषाओं में इस तरह का ज्ञान अनुपलब्ध है। इसलिए हमें अनिवार्यतः अङ्ग्रेज़ी की शरण में जाना होगा। गोया भाषा ज्ञान का माध्यम न हो, स्वयं ही ज्ञान का सृजन करती हो और अङ्ग्रेज़ी अपने जन्म के साथ ही सारा ज्ञान-संभार लेकर पैदा हुई हो। आधुनिक भारतीय भाषाएँ एक समृद्ध सांस्कृतिक उत्तराधिकार के बावजूद आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से कंगाल हैं, यह बात हमें स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं, लेकिन मुझे आपत्ति इस बात पर है कि इतना सांस्कृतिक उत्तराधिकार, इतनी विभिन्नता और इतना भाषाई वैविध्य होने के बावजूद हमारी कोई भी भाषा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने में सक्षम क्यों नहीं हुई? भाषाई राजनीति के कारण? नहीं, यह भाषाई वर्चस्व बनाए रखने का एक हथियार-भर है। इसमें भाषा को समझ, बोध या राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न से जोड़ने के बजाय भावनात्मक उबाल को बढ़ाने के एक जरिया के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, ताकि ये प्रश्न उसके भाप में सहज ही उड़ा दिए जाएँ ।

                   विडंबना यह है कि यह शाजिश भाषा-निरपेक्ष है। इसमें क्या हिन्दी, क्या बंगला, क्या तमिल— सभी भाषाओं के अभिजातवर्गीय लोग शामिल हैं जो समाज पर भाषा के सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए भाषाई आंदोलन भुस के पुतले साबित हुए हैं । हाँ इन्होंने इन वर्चस्ववादियों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक ज्ञान को पहुँचने से रोकने के लिए एक सेफ़्टी वाल्व जरूर दे दिया है । भसहा दिवस माने और सरकारी आयोजनों में आपनी जैसा फैसी बहाने से अधिक जरूरी है इन सेफ़्टीवाल्वों के चरित्र का उदघाटन और ज्ञान के साहित्य की भारतीय भाषाओं में सुलभता को सुनिश्चित करना। इस विश्वहिंदी दिवस पर यह संकल्प ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी । 

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती


भारत में जातिगत विद्वेष के आधार पुराने हैं, न केवल विभिन्न वर्णों के भीतर बल्कि एक ही वर्ण के भीतर भी । वस्तुतः जातियों का उदय ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता के कारण हुई । सच तो यह है कि न तो जाति और न ही वर्ण कभी स्थिर रहे हैं । इसके प्रमाण तैतरीय उपनिषद, महाभारत-संहिता के शांति-पर्व, मनुस्मृति आदि तमाम पुराने ग्रन्थों में बिखरे पड़े हैं । पूरी मनुस्मृति को अगर अच्छी तरह पढ़ा जाय तो हम पाते हैं कि उसमें एक छटपटाहट है, न कि व्यवस्था का पालन कराने का बल। मनु ने जिस तरह जाति और वर्ण की पूरी व्यवस्था रची है, वह मार्गदर्शक कम पीड़ा-व्यंजक अधिक है । इसमें एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा और छटपटाहट है, जो असफल है। जो कुछ सहेजना और बचाना चाहता है, लेकिन असफल है । 
इसलिए जहां-तहां तिक्त और कठोर व्यवस्थाओं की बात करता है । यह तिक्तता और कठोरता ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता की गवाह और उसे बचाने की चाहत रखने वालों की असहायता को व्यक्त करती है। यादी उसका ईमानदार पाठ किया जाय तो इसतरह के रूढ़िवादी वर्ग की असफलता उसमें साफ महसूस की जा सकती है, जो वर्णव्यस्था को बल-पूर्वक लागू करना चाहता है । 
जब ऐसा नहीं कर पाता तो वह जातियों की व्यवस्था देता है; उदाहरण के लिए क्षत्रिय और शूद्र के सम्मिलन से नाई जाति और ऐसी ही तमाम जातियाँ । मनु शुद्धतावादी हैं जरूर, लेकिन यह शुद्धता समाज में नहीं है, इस बात का भी प्रमाण उनके लिखे से हमें मिलता है । यह बात उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि मनु ने क्या व्यसथा दी है । वह व्यसथा मनु द्वारा रचा गया उनका एक आदर्श है, न कि सामाजिक यथार्थ । सामाजिक यथार्थ तो वह है जिसके समानान्तर मनु इसकी रचना कराते हैं और वह यथार्थ है सांजीक शिथिलता ।
       मनु स्मृति या महाभारत एक ही समय की रचनाएँ हैं, यह तथ्य प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता पर एक बात प्रामाणिक रूप से कहीं जा सकती है कि दोनों के रचना काल में वर्णशंकरता थी। 
शांति पर्व में युद्धधिष्ठिर भीष्म से शिक्षा लेने जाते हैं तो भीष्म उनसे यह पूछते हैं कि आप किसी के वर्ण का निर्णय कैसे करेंगे? युधिष्ठिर का सीधा जवाब है कि उसके गुणों से क्योंकि सभी वर्णों में वर्ण शंकर हैं । इसी तरह मनु भी समूची जाति-व्यवस्था की बात करने के बाद हथियार डालते हुए से कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि जाति और कूल से हीं हो और कर्म से उत्तम तो उसे उसके कर्म से जानाना चाहिए ।
       सवाल यह है कि हम इतिहास का पाठ केवल उसके नकारात्मक पक्षों को उभारने और टकराव पैदा करने के लिए ही क्यों करते हैं, उस समय के उस सच को तलाशने की कोशिश क्यों नहीं करते जो हमारे लिए अधिक प्रासंगिक हैं। उन कृतियों को छोड़ दें तो 
ठेठ नवजागरण का दौर ही देखें तो दक्षिण से उत्तर तक अनेक निचली कही जाने वाली जातियों ने अपना जाति उन्नयन और वर्ण उन्नयन किया है । 
बंगाल और बिहार की कायस्थ जाति कभी शूद्र मानी जाती थी, नवजागरणके दौर में इसने अपना उन्नयन कर क्षत्रियत्व का दावा पेश किया । इसी तरह बिहार उत्तरप्रदेश की एक जाति भूमिहार जो वर्ण व्यस्था की दृष्टि से कहीं भी उल्लखित नहीं होते, लेकिन इसी दौर में उसने भी अपने ब्राह्मणत्व का दावा पेश किया । दक्षिण भारत कुछ जातियों में आधे लोग जो सशक्त थे ब्राह्मणत्व के उच्च सोपान पर जा पहुंचे और दूसरे शूद्र बने रहे । 
स्वयं ज्योति बा फुले क्षत्रियत्व का दावा पेश करते हैं और उनके अनुयायियों का एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश में क्षत्रिय के रूप में स्वीकृति पाने में सफल भी रहा । गुजरात के पाटीदार अभी हाल ही में चर्चा में थे ।
    समाज जाति और वर्ण की लौह शृंखला में न पहले जकड़ा था और न अब जकड़ा जा सकता है। उसका लचीलापन और नमनीयता पहले भी उसका प्रांतत्त्व थी और अब भी है । हाँ ऐठने वाले तब भी थे अब भी हैं। मनुओं की जमात हर समय में पायी जाती रही है । दुर्भाग्य वश इस प्रवृत्ति को अधिक बढ़ावा ब्रिटिश काल में तब मिला जब मनुस्मृति को द जेन्दू लॉज के नाम से अनूदित कर हिन्दू धर्म और समाज का एक मात्र नियामक ग्रंथ बना दिया गया, अन्यथा प्रमाण तो याज्ञवल्क्य स्मृति और वृहस्पति संहिता के भी मिलते हैं, जो हिन्दू समाज संहिता के ग्रंथ थे। इसके साथ ही यह मान लिया गया कि हिन्दुत्व/ भारतीयता का सीधा अर्थ है जाति व्यवस्था । जो गलत था । और इस भ्रम का प्रचार आरत ही नहीं पूरी दुनिया में यूरोप के ज्ञानिजनों द्वारा फैलाया गाया। एक दौर में भारत पूरे यूरोप के लिए एक अजायब घर था । जहां वे तमाशा देखने आते थे । इसलिए संपेरे, जादूगर, पोंगा पंथी पंडितों और जाति-पांति के अंबार ही उन्हें दिख सकते थे । दुभाग्य से हमने आधुनिक काल में अपने समाज को देखने की आँख भी वहीं से पाई । इसलिए हमें भी वही दिखा ।
       
मुझे लगता है कि शायद गीता के बाद आज का युवा जिस एक ग्रंथ को सबसे ज्यादा जानता है तो वह है मनुस्मृति । भले पढ़ा है या नहीं। बल्कि, व्यक्तिगत तौर पर मेरा तो दावा यह है कि वह गीता से भी अधिक उसका नाम जानता है, खासकर सोशल मीडिया के दौर में । जहां सारा ज्ञान यहीं से प्राप्त होता है । इसका श्रेय भी यूरोप और उसकी आँख को ही है । उसने नए ज्ञानानुशशनों के उदय के साथ हम सभी को स्पेशलाइज्ड कर दिया और ज्ञान की अखंड सत्ता जिसे बौद्ध जीवन-दर्शन सम्यक कहता है, के लिए स्पेस लगभग खत्म हो गया । हमारे जीवन और ज्ञान की एक सीमा है और उसमें रहते हुए हम उतना ही पढ़-समझ सकते है, जितना कि हमारी सामनी जरूरत है। इसके अतिरिक्त जो भी है, उसे हम स्केन्द्री सोर्स से जानने के लिए बाध्य हैं। 
       
आजादी के बाद के राजनीतिक-परिदृश्य ने इस समूची समझ को और अधिक जटिल बनाया। जाति और उपजातियों में बनते हुए समाज को नए सिरे से वर्गीकृत कर नए तरह की वर्णव्यवस्था गढ़ी जो अधिकांशतः सुविधानुकूल और सोद्देश्य थी, खासकर पिछड़ी जातियों के मामले में। 
सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के औचित्य से जो नई व्यस्था तैयार की गई उसकी विडम्बना ही यही थी कि वह केवल पूर्वानुमानों, आग्रहों और राजनीतिक हितों पर आधारित थी । इस प्रक्रिया ने जातियों के ध्रुवीकरण को और तेज किया । जो जातियाँ राजनाइटिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से सशक्त होकर भी इस व्यवस्था की लाभ पाने वाली जातियाँ बनीं, उन्होने अपने वर्ग का झण्डा उठा कर नेतरितत्व ही नहीं किया उसकी आड़ में अपने हित का साधन भी किया । अपने ही वर्ग के भीतर की जातियों के विकास की शर्त पर अपना विकास किया।
       वर्ण और जाति निश्चित तौर पर एक लचीली व्यवस्था के रूप में समाज में विद्यमान थे। उनमें अंतरण की छूट सामान्यतः नहीं थी, लेकिन जतियों की जातियाँ वर्णान्तरित हुईं । इसका कारण यह था कि व्यक्तिगत रूप से भले अंतरण आसान नहीं रहा हो, पर सामूहिक अंतरण की प्रक्रियाँ चलती रही हैं । 
अनेक ग्रन्थों में ब्रात्य कही जाने वाली जाति दूसरे अनेक ग्रन्थों में क्षत्रियादि जातियों में शामिल हैं। यदि रगुवंशम के रघु-दिग्विजय और महाभारत के युद्ध के राजाओं के परिचय की तुलना की जाय तो यह बात बहुत साफ हो सकती है । यही नहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी जात्यांतरण का उदाहरण अनेकशः उपलब्ध है और इसके लिए संघर्ष की गाथाएँ भी। इन्हें समझने के लिए जरूरी है कि केवल पुस्तकों के सुविधाजनक पाठ न किए जाएँ, उनके अंतरपाठीय संदर्भों से भी गुजारा जाय और उन्हें एक सही ऐतिहासिक पाठ का रूप दिया जाय, अन्यथा हमारी पीढ़ियाँ खुद को एक कलंकित इतिहास की संतानों के रूप में ही देखेंगी। यह उनके इतिहास से मोहभंग का कारण होगा । दुनिया की कोई भी इतिहासहीन जाति कभी सांस्कृतिक रूप से निरुज नहीं हो सकती ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं ।