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बुधवार, 15 मार्च 2023

मंदिर-मंदिर प्रति कर सोधा : यूरोपीय चर्चवाद और भारतीय धर्म-संस्थान


जिस मध्यकाल में धर्म के नाम पर मठवाद पूरे यूरोप को अंधकार की ओर धकेल रहा था, उसी समय धर्म का आलंबन लेकर ही अल्वार संत सामाजिक मुक्ति और समानता का संदेश दे रहे थे।

 

शंकराचार्य अद्वैतवेदांत की मशाल लेकर पूरे भारत को जागा रहे थे और धर्म पीठों की स्थापना कर रहे थे।  रामानुज, रामानन्द, बल्लभ, नामदेव, नानक, दादू, रैदास, चैतन्य देव और शंकरदेव देश के कोने-कोने में इसी अछूत 'धर्म’ का निदर्शन करा रहे थे। यदि यूरोप के नकल पर पूरे मध्यकाल को अंधकार युग के अंधकूप में धकेल दिया जाए तो यह इस पूरी परंपरा को नकार देने की मूर्खता होगी।

हर्षवर्धन के अवसान के बाद उत्तर भारत में एक केन्द्रीय सत्ता का अभाव जरूर हुआ और राज-सत्ता विभिन्न सामंतों में विभाजित हो गई। राजनीतिक तौर पर भले इसका लाभ विदेशी आक्रान्ताओं को मिला हो, लोक मानस का चेतना प्रवाह अखंड रहा। संस्कृत साहित्य और साहित्य-चिंतन से लेकर दर्शन और कला का विकास और विस्तार अनवरत जारी रहा। इसका कारण यह था कि भारत की उस उस तरह कि एक केन्द्रीय सत्ता कभी नहीं रही, हालांकि यूनानी नगर राज्यों की तरह अत्यंत छोटे और परस्पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार वाले राज्य भी नहीं रहे। ध्यान से देखा जाए तो भारत में युद्ध केंद्रित महत्वपूर्ण वीर-काव्यों की रचना चौहान वंश के पतन के बाद होती है। उसमें भी प्रायः शृंगार का भरपूर छौंका है। इससे पता चलता है कि साम्राज्य-विस्तार या युयुत्सा की प्रवृत्ति यहाँ यवनों और म्लेच्छों की तुलना में काम पायी जाती है। समुद्र-गुप्त का दिग्विजय और उनकी उत्खाद प्रतिच्छेद तथा वैवाहिक सबंध आधारित साम्राज्य संयोजन इसका उदाहरण है। महाभारत में विदुर ने कहा है : 

भारत में सत्ता बहुकेंद्रीय रही है, हाँ बोध या मानस सत्ता का केंद्र अवश्य एक रहा है 'भारत'। इसलिए भारतीय इतिहास का अर्थ उत्तर भारत या केन्द्रीय भारत का इतिहास नहीं, बल्कि दक्षिण भारत की समृद्ध विरासत का इतिहास भी है।

 

इसे इतिहासकारों द्वारा उतना महत्व नहीं दिया गया तो उसके भी अनेक कारण थे। उत्तर-दक्षिण के बीच फाँक, मंदिरों की प्रतिगामी भूमिका दिखाना और कुछ हद तक मध्यकाल इतिहासकारों का मुस्लिम समाज से होना भी था, जिनके लिए मध्यकाल के इतिहास का अर्थ उनके कुनवे का इतिहास रहा है। 

 

मध्यकाल के एक प्रख्यात इतिहासकार इरफान हबीब भक्ति आंदोलन को इस्लाम के आगमन और  केवल तकली-कमानी की ताल पर नाचा देते हैं। यदि उनके पूर्वजों द्वारा तकली कामायनी मात्र को भारत लाने से शिल्पी जातियों का उद्धार और उनके भीतर का आत्मगौरव पूरे के पूरे भक्ति मूवमेंट का बीज बन सकता है तो दक्षिण भारत के कला और स्थापत्य के केंद्र मंदिरों के निर्माण और विकास से शिल्पी जातियों का कितना विकास हुआ होगा, समझ सकते हैं।

 

दक्षिण के मंदिर भी केवल जाति, सत्ता और असामानता के केंद्र न थे, वे कला, शिक्षा, संगीत, वास्तु और स्थापत्य के संरक्षक और विस्तारक भी थे। भारतीय इतिहास और समाज का ककहरा जानने वाला भी यह जनता है कि कला, शिल्प, संगीत, वास्तु और स्थापत्य का संबंध भारतीय जाति और वर्ण-व्यवस्था के अनुसार किसकी वृत्ति का आधार रहा है।  तो मंदिरों के निर्माण, विकास और उनके द्वारा कला-स्थापत्य के प्रश्रय और प्रसार द्वारा कितनी बड़ी सामाजिक क्रांति हुई होगी समझा जा सकता है और यह क्रांति निश्चित तौर पर संस्कृति-कर्म नहीं बल्कि धार्मिक सदेच्छा से प्रेरित थी।