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शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

मित्रता

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जयंती पर विशेष)


ब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता निर्भर हो जाती है; क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते है जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे-चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऎसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऎसे लोगों का साथ करना और बुरा है जो हमारी ही बात को ऊपर रखते है; क्योकिं ऎसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरूषों को प्राय: विवेक से कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरूष प्राय: विवेक से कम काम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण-दोषों को कितना परख लेते है, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रक्रति आदि का कुछ भी विचार और अनुसन्धान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते है। हम लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या हैं, तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नही सूझती कि यह ऎसा साधन है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है- "विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।" विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुण्ता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमतला होती है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरूष को करना चाहिए।
 
          छात्रावास में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता ह्रदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बन्धन होते हैं, उसमें न तो उतनी उमंग रह्ती हैं, न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मनन करने वाला आनन्द होता है, जो ह्रदय को बेधने वाली ईर्ष्या होती है, वह और कहां? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। ह्रदय के कैसे-कैसे उदगार निकलते है। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखायी पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएं मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। 'सहपाठी की मित्रता' इस उक्ति में ह्रदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरूष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से द्रढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूं कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटो में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रक्रति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है। पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बाते चाहिए। मित्र केवल उसे नही कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करे, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें. जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जायें, पर भीतर-ही-भीतर घ्रणा करते रहे? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभुति होनी चाहिए- ऎसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नही है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रूचि के हो। इसी प्रकार प्रक्रति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रक्रति के मनुष्यों मेम बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रक्रति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी. पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नही हैं कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते है, जो गुण हममें नहीं है हम चाह्ते है कि कोई ऎसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफ़ुल्लित चित्त का साथ ढूंढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुंह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।
 
        मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है-"उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का काम कर जाओ।" यह कर्त्तव्य उस से पूरा होगा जो द्रढ़-चित और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऎसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए। जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध ह्रदय के हो। म्रदुल और पुरूषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।


 
         जो बात ऊपर मित्रों के सम्बनध में कही गयी है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऎसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हो, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करनें मे कुछ सहायता दे सकते हो, यद्यपि उतनी नही जितनी गहरे गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख, और ग हमारे लिए कुछ कर सकते है, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते है, न सहानुभुति द्वारा हमें ढाढ़ास बंधा सकते है, हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखें। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियां सजाना सजाना नही है। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नही है। कोई भी युवा पुरूष ऎसे अनेक युवा पुरूषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में आयेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऎसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवंश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों मेम से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, गलियों में ठठ्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़आते चलते हैं। ऎसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर है। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति बाले कवि हुए हैं और न संसार में सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए है। उनके लिए न तो बड़े-बड़े बीर अदभुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऎसे विचार छोड़ गये हैं जिनसे मनुष्य जाति के ह्रदय में सात्विकता की उमंगे उठती हैं। उनके लिए फ़ूल-पत्तियों मेम कोई सौन्दर्य नहीं। झरनोम के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त साहर तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरूषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य से सच्ची प्रीति का सुख और कोमल ह्रदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका ह्रदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऎसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऎसा होगा जो तरस न खायेगा? उसे ऎसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।
 
मकदूनिया का बादशाह डमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच इसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुंचा तब डेमेट्रियस ने कहा-ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।" पिता ने कहा-'हां! ठीक है वह दरवाजे पर मुझे मिला था।'
 
         कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सदव्रत्ति का ही नाश नही करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी।
 
            इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहां वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऎसे होते हैं जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऎसी-ऎसी बातें कही जाती है जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऎसे प्रभाव पड़ते है जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते है, कि भद्दे व फ़ूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं. उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नही एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते वे बार-बार ह्रदय में उठती हैं और बेधती है। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऎसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फ़ूहड़ बातों से तुम्हें हंसाना चाहे। सावधान रहो ऎसा ना हो कि पहले-पहले तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऎसा हुआ, फ़िर ऎसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऎसा प्रभाव पड़ेगा कि ऎसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे। नहीं, ऎसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है। तब फ़िर यह नहीं देखता कि वह कहां और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभयस्त होते-होते तुम्हारी घ्रणा कम हो जायेगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़्ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायेगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: ह्रदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-
 
काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की, लागिहै, पै लागिहै।'

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

कदंब और कृष्ण


कृष्ण स्वयं माधुर्य रुप हैं। उनका सौंदर्य और सम्मोहन अद्वितीय है, लेकिन उनकी की सौन्दर्य दृष्टि उससे भी अनूठी है। कहां कृष्ण का कोमल मधुर व्यक्तित्व और कहां कदंब के वृक्ष पर वंशी बजाना, करील के वन में विहार और कुब्जा का वरण। तीनों ही उनके व्यक्तित्व से बेमेल जान पड़ते हैं, लेकिन यह मेल बिठा लेना ही कृष्णत्व है। उनका पूरा व्यक्तित्व ही विरुद्धों का अद्भुत सामंजस्य है। राम आदर्श या मर्यादा की लीक से रंच मात्र नहीं डुलते लेकिन कृष्ण अपनी मर्यादाएं और प्रतिमान स्वयं गढ़ते हैं और उसे समाज के लिए प्रतिमान बना देते हैं । सहज इतने की भारतीय देव समूह में अकेले शिव ही इनके गोतिया नजर आते हैं। 
    यह महूए, आम और जामुन के निझा जाने के बाद कदंब के फलने की ऋतु है। प्रकृति की रीति भी अद्भुत है। महुए की मादक मिठास के बाद आम की कुछ खट्टेपन वाली मिठास,जामुन की कसैली मिठास से होते हुए कदम के कसैलेपन पर आ टिकती है। जीवन की यात्रा भी भला इससे अलग कहां है? मेरे बचपन में गांव में केवल एक कदम्ब का पेड़ था। विद्यालय के दिनों स्कूल बंक करने वाले या एकाध कालांशों के लिए कक्षा से गायब होने वाले विद्यार्थियों का आरामगाह। वहां से लौटते हुए वे कदंब के फल ले आते और एक पुड़िया स्याही के भाव में हमें बेच देते। यही उनका 'बिजनेस ब्लास्टर' था। 
बड़े होकर कदंब की कृष्ण से यारी का पता विद्यापति के मार्फत चला । तबसे कदंब की याद आते ही कृष्ण और विद्यापति दोनों स्मृति में एक साथ कौंध उठते हैं: 
नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।

मेरा मन भले गंगातीरी हो पर तन तो अब अपना भी यमुना तीरी हो चला है। राधा की तरह की अनुरक्ति या निष्ठा अपने भीतर नहीं और न हमारी यमुना ही कृष्ण की यमुना है जो इसका तीर देख उनकी सहज याद आ जाय। कभी-कभी लगता है कालिया नाग कृष्ण से पराजित हो खांडव वन में अपने मित्र तक्षक के यहां आ बसा था। सो अपने हिस्से की यमुना कुछ वैसी ही है काली और विषाक्त। पांडवों ने भले ही खांडवप्रस्थ का नाम बदल कर इंद्रप्रस्थ कर डाला हो लेकिन गुण अभी भी यथावत है। राज्य और नगर का नाम बदलने से प्रजा थोड़े बदल जाती है, वह तो पूरे गुण-धर्म के साथ वैसी ही रह जाती है। फिर आजादी के बाद तो देश की जनता ने चुन-चुन कर सारे तक्षक, सारे कालिया, सारे वासुकि इस खांडवप्रस्थ में भेज दिए हैं। विडंबना यह है कि अब न कृष्ण हैं न अर्जुन और न जन्मेजय। इनसे मुक्ति कैसे मिले?

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

संस्कृति : कर्ता का विधान

 संस्कृति :  कर्ता का विधान


संस्कृति की अनेक अर्थ-छायाएं हैं। इसकी मूर्तन-अमूर्तन, व्यापक-अतिव्यापक, स्थूल-सूक्ष्म अनेक परिभाषाएं की गई हैं। दुनिया का आधुनिक चिंतन जितना अधिक इस एक अवधारणात्मक पद से टकराता रहा है, उतना शायद किसी दूसरे सवाल से नहीं टकराया। और, इन बहसों में तमाम आधुनिक चिंतनों की तरह यहाँ भी केंद्र में रहा है ‘मनुष्य’ ही। चाहे वह इहलौकिक धारणाओं से प्रेरित हो या आध्यात्मिक। परंपरागत भारतीय चिंतन आध्यात्मिक था, अतः उसके लिए संस्कृति की समझ भी आध्यात्मिक थी। यह आम धारणा है जो सही तो है, किन्तु सीमित संदर्भों में ही। कोई भी देश, संस्कृति या व्यक्ति-मात्र एकांतिक रूप से आध्यात्मिक नहीं हो सकता, उसे अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही होगी। ठीक इसी तरह केवल भौतिक भी नहीं हुआ जा सकता। भौतिकता का अतिरेक व्यभिचारी-स्वैराचारी ही नहीं, बल्कि अनुभूति-शून्य जड़िमा के गड्ढे में धकेलने वाला है। यदि कोई कहता है कि उसे प्रचलित आध्यात्मिक मूल्यों-मान्यताओं में विश्वास नहीं तो यह माना जा सकता है, पर यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह अध्यात्म शून्य है। अपनी भौतिक सीमाओं से परे जाकर आत्म-विस्तार ही मनुष्यता की पहली शर्त है। पर, यह उसकी भौतिक जरूरतों से प्रेरित हो यह आवश्यक नहीं है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर मनुष्य को कर्ता मानकर कर चलते हैं, क्योंकि पद की मूल धातु है ‘कृ’ जिसका अर्थ है करना। यहाँ हमें अपने उस पुरनिया को भी जरूर याद करना चाहिए, जिन्होंने ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में संस्कृति का प्रयोग इस रूप में किया है— ‘आत्मानं संस्कृतिर्वावशिल्पानि छंदोमयं वा। एतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते’। यहाँ संस्कृति, शिल्प, छंदादि का ‘वा’ (या) के साथ अर्थात् वैकल्पिक पद के रूप में प्रयोग हुआ है। अतः छंद शिल्पादि अभ्यास से अर्जित होते हैं, उसी प्रकार संस्कृति भी अभ्यास द्वारा अर्जित होती है। इस दृष्टि से भी मनुष्य कर्ता ही ठहरता है।

घोर नियतिवादी से नियतिवादी व्यक्ति भी स्वयं के कर्तृत्व के प्रति अहं भाव को त्याग नहीं सकता क्योंकि यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है । फिर संस्कृति को वह अपने इस अहं से मुक्त भला कैसे रख सकता है ? दुनिया के तमाम देशों के बीच आज संस्कृति के नाम पर जो संघर्ष चल रहे हैं, वे उसकी इसी अहम्मन्यता के परिणाम हैं। परंपरागत भारतीय मन आज भी इस ‘पद’ को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि इसे राजनीतिक मुहावरे के रूप में लेता है। दुर्भाग्यवश इस पद का राजनीतिकरण भी कुछ ज्यादा ही हुआ। कभी जन-संस्कृति, कभी लोक-संस्कृति तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर। अब तो इसका सही मेल भी इन राजनीतिक पदावलियों के साथ ही बैठता है। हम जैसे गँवई लोग तो अब भी ‘धरम’ ही ‘निबाहते’ हैं। सुसंस्कृत’ आचरण नहीं करते। शायद इसी लिए हमारी यारी भी संस्कृति से अधिक अपने धरम-करम से है।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

रोशनी की प्रजाएँ


                                                                                                                            कुबेरनाथ राय 

दीपावली अर्थात नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चन्द्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अन्धकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चन्द्र और अग्नि का प्रतिनिधि बन कर हमारे घरों में रोज अपनी देवोपम भूमिका निभाता है। उसकी देह भले ही पार्थिव धातु की हो, परन्तु है वह वस्तुत: रोशनी की प्रजा। प्रजा से हमारा तात्पर्य सन्तान से है और गांव-गांव, नगर-नगर अपनी देदीप्यमान भूमिका में प्रतिष्ठित असंख्य दीप-शिखाएं उस रोशनी की असंख्य प्रजाएं हैं, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों में निहित व्यापक देवशक्ति के रूप में सृष्टि की प्रथम उषा के साथ सक्रिय हैं। रोशनी एक भगवती शक्ति है। इसका संस्कृत रूप है ‘रोचना’। ईरानी ‘रोशनी’ और संस्कृत ‘रोचना’ के मूल में ही हिंदी आर्य-ध्वनिखंड है, जो मूलत: दीप्ति या द्युति से जुड़ा है। रोशनी के भगवती-शक्ति होने के कारण ही ‘ललितासहस्रनाम’ में देवी का एक नाम ‘रोचना’ भी है। स्वयं में ‘देवी’ शब्द का अर्थ ही होता है ‘देदीप्यमान’।

 

  भारतीय मन नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। इसी से यहां पर नारी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के साथ ‘देवी’ शब्द जोड़ने की प्रथा है। आजकल अवश्य नई पीढ़ी की लड़कियां अब अपने नाम के आगे देवी शब्द लगाना नहीं पसन्द करतीं। परन्तु है यह बड़ा ही अर्थ-गम्भीर और महिमामय शब्द। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय कन्या ही देदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। वस्तुत: भारतीय मन रोशनी या द्युति से बड़े ही घनिष्ठ भाव से जुड़ा है। रोशनी या द्युति देवता है, जीवन, प्राण, शक्ति और चेतना का प्रतीक है। इसके प्रतिकूल अन्धकार आसुरी है, तामसिक है, मृत्यु-रूप है और चैतन्यविहीन जड़ता का, अगति का और अधोगति का प्रतीक है। रोशनी के ही परिवेश में मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ और समुचित विकास होता है, क्योंकि रोशनी के संदर्भ में दुराव-छिपाव और ग्लानि का कोई स्थान नहीं। फलत: कहीं कोई अवदमन नहीं, कहीं कोई आत्मक्षय नहीं। 

इसके विपरीत अन्धकार छिपाव, दुराव, संशय, कुटिलता, कपट और व्यभिचार का सहज परिवेश रचता है। क्रूरता इसके भीतर अपने नख-दन्त निरन्तर रगड़ कर तीक्ष्णतर करती रहती है। अशुभ और अशोभन इसकी शाखा-दर-शाखा पर घोंसले बांध कर उल्टे पांव लटके हैं और निरन्तर अमंगल ध्वनि द्वारा संकेत देते रहते हैं। वैसे तो मनुष्य मात्र ही रोशनी में एक दिव्यबोध का अनुभव करता है, परन्तु हिन्दुस्तानी जाति ने अपनी दैनिक प्रार्थना ‘गायत्री’ से लेकर अपने पारस्परिक सम्बोधन ‘जी’ तक सर्वत्र ही एक रोशनी अर्थात ‘तेज’ तत्व को विशेष महत्व दिया है। ‘जी’ की बात लें। उत्तर भारत में श्रद्धा और प्रेम के साथ किसी का नामोच्चरण करते हुए ‘जी’ लगा दिया जाता है। रामजी, कृष्णजी, हनुमानजी से लेकर गांधाजी, नेहरूजी तक सभी के साथ ‘जी’ है। यह ‘जी’ भी अप्रत्यक्ष रूप से रोशनी का ही सगोत्र शब्द है।

पहले मेरी धारणा थी कि यह ‘जीव’ का रूपान्तर है और भारतीय दृष्टि में हम सब प्रत्येक ‘जीवात्मा’ हैं। परन्तु बाद में मैंने धारणा का संशोधन किया, तब इस शब्द का असली रहस्य पकड़ में आया। ‘देव’ और ‘जी’ दोनों ही संस्कृत के ‘द्यु’ से जुड़े हैं। संस्कृत ‘द्यु’, द्युति, ज्योति, दिव, देव और प्राकृत ‘जी’ आदि सारे शब्दों के मूल में ‘द्यु’ ध्वनिखण्ड का मूल प्रारूप निहित है। और ये सारे शब्द ज्योति या प्रकाश से जुड़े हैं। मध्य एशिया की शकार्य बोलियों के प्रभाव से यह ‘जी’ शब्द आया होगा, क्योंकि मध्य एशिया तथा यवन अंचलों में ‘द’ का ‘ज’ में रूपान्तर हो जाता है। संस्कृत में भी सन्धि करते समय ‘द’ का ‘ज’ हो जाता है, अत: द और ज मूलत: एक ही ध्वनियां हैं। किसी आर्यभाषा में ‘द’ चला तो किसी में ‘ज’। जैसे द्युपितर (संस्कृत) का लाटीनी रूप ‘ज्यूपितर’ है। द्यौस का ‘जेउस’ है। शायद यवन भाषा के प्रभाव से ही भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति को ‘जीव’ (जे उसका विकृत रूप) कहा जाता है। 

अत: किसी कारणवश देव का देऊ, जेऊ, फिर ‘जू’ और ‘जी’ हो गया है। पुरानी हिन्दी में, राजस्थानी में ‘जू’ ही चलता है ‘जी’ नहीं। उत्तर भारतीय-भाषा और संस्कृति पर उत्तरकुरु की आर्य संस्कृति तथा कालान्तर की शक संस्कृति का प्रभाव बड़ा सघन पड़ा है और इन्हीं अंचलों में ‘जी’ या ‘जू’ चलता है, जहां यह प्रभाव विशिष्ट रहा है। असम-बंगाल में अब भी ‘देव’ चलता है। द्युति और ज्योति का अर्थ एक ही है। हमारे दैनिक जीवन में ‘जी’ का प्रयोग आर्य भावधारा में प्रतिष्ठित ‘देवता’ और द्यु तत्व यानी रोशनी के प्रति पक्षधरता का एक अच्छा सबूत है। वैसे मैं मानता हूं कि पूर्णांश भारतीय संस्कृति में केवल तेज द्युति का ही महत्व नहीं। एक और तत्व है, जो समान रूप से महत्वपूर्ण है। वह है ‘मधु’ या ‘रस’। इस मधु या सोमतत्व का मौलिक स्रोत आर्येतर अधिक है, आर्य कम। तो भी दोनों महत्वपूर्ण माने गए हैं। वैदिक भाषा में इन्हें ही अग्नि (तेज) और सोम (मधु) कहा गया है। उत्तर वैदिक काल का आर्य सांस्कृतिक-दृष्टि से विमिश्र आर्य है और इस विमिश्रता का प्रवेश उसके भीतर भारत में प्रवेश करने के पूर्व ही हो गया था।

अत: ऋग्वैदिक युग से ही भारतीय आर्य अग्नि और सोम के युग्म को सृष्टि-विकास की मूल शक्ति मानता है। परन्तु वैदिक सृष्टि-विद्या में अग्नि-सोम के द्वैत का मूल ‘उत्स’ माना गया है सविता को, जो तेज और मधु दोनों का दाता है। वस्तुत: सबसे ऊपर स्थिर द्यु-लोक में जो सविता है, वही अन्तरिक्ष में इन्द्र (आदित्य) और सोम है और वही पृथ्वी पर अग्नि है। मूल है एक ही देवता, जो द्यु का अधिदेवता है। भारतीय संस्कृति के तीन प्रधान पर्व इन देवताओं से अलग-अलग जुड़े हैं। विजयादशमी सविता का पर्व है तो दीपावली अग्नि अर्थात पार्थिव तेज का, जिसका लघुतम और सामान्यतम प्रतीक है रोशनी का नन्हा बच्चा यानी दीपक। तीसरा पर्व है होली का वसन्तोत्सव, जो स्पष्टतया सोम-प्रधान है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीपावली का त्योहार भारतीय मनोभूमि से अत्यन्त घनिष्ठ भाव से जुड़ा है, क्योंकि प्रकाश, द्युति या रोशनी से भारतीयता का गर्भनालगत सम्बन्ध है। यही नहीं, प्रत्येक दीपक या बत्ती भारतीय जीवन आदि-साधना और केन्द्रीय पुरुषार्थ ‘क्रतु’ अर्थात यज्ञ का प्रतीक है। दीपक के लिए दो शब्द चलते हैं। एक तो है दीप या दीया, जो दीपक का ही रूपान्तर है। दूसरा बत्ती है। असमिया भाषा में यह बंती हो जाता है। बत्ती शब्द वर्तिका से निकला है। वर्तिका अर्थात बाती। यह वर्तिका तिलतिल करके जलती है, तब कहीं ज्योतिशिखा का जन्म होता है। प्रकाश बन जाना, उजाला फैलाना, घर-आंगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना अपने ‘सम्पूर्ण’ का त्याग किए, बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह सम्भव नहीं। आत्मदान जितना ही सर्वात्मक होगा, उतना ही प्रकाश प्रखर और विस्तृत होगा।

हम कहते हैं कि दीपावली के पर्व में केन्द्रीय महत्व दीप या ज्योतिर्मयी वर्तिका का ही है। यही ऐसा है तो इस त्योहार की आकृति-प्रकृति में विशुद्ध यज्ञ-भाव, आत्मदान, क्रतु का ही मौलिक महत्व है। तब इसे ज्ञान, चैतन्य और सतोगुण का त्योहार मानना चाहिए। ‘सदा दीपावली सन्त घर’ जैसी कहावतें इसी सन्दर्भ में तात्पर्यपूर्ण हो सकती हैं। सन्त का व्यक्तित्व ही क्योंकि साक्षात दीपावली होता है, उसकी आत्मा का चेतन प्रकाश उसके रोम-रोम में नित्य दीपशिखा की ही तरह जलता है। हम सभी जानते हैं कि सारा उत्तर भारत इसे ‘अर्थ’ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पांत अर्थ-गरिमा की द्योतक है। क्या यह सब धन-सम्पत्ति का गौरव-गान है! भारतीय संस्कृति के बारे में अल्प समझ-बूझ रखने वाला भी इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेगा।


  ऐसा कहना ही रोशनी की असंख्य प्रजाओं का अपमान है। भारत का गरीब से गरीब आदमी भी, जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म-बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाजे के सामने इस दिन जरूर रखता है। उन दीपकों में उसका अहंकार नहीं, उसकी श्रद्धा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्धा उसके अन्तर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्धा धर्मबोध और पवित्रबोध से जुड़ी है, अत: यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है। इसे हम अहंकार का प्रदर्शन या उस अदेवता की मात्र चापलूसी कह कर टाल नहीं सकते, जिसका कि नाम ही है चंचल और जिसका वाहन है रात्रिचर पक्षी उलूक। तब यहां लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा क्यों की गई है? इसका उत्तर दीपावली की रात्रि-शेष में प्रात: से पूर्व असंख्य मातृकण्ठों से निकले उद्घोष में खोजा जा सकता है। यह उद्घोष है : ‘ईश्वर का प्रवेश हो, दारिद्र दूर हो’ (ईस्सर पइसे, दलिद्दर निकसे)। अर्थात दैन्य, ग्लानि, दारिद्र को भगा कर उसके स्थान पर जिस लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा का स्वप्न भारतवर्ष देखता है, वह है ‘ईश्वरीय लक्ष्मी’। लक्ष्मी (धन) सच्चे पुरुषार्थ द्वारा अजिर्त हो कर ही ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वह विष्णु भगवान की माधवी है।


(मराल)

शुक्रवार, 1 जून 2018

बावड़ी की आत्मकथा





बहुत पुरानी दोस्ती थी। सदियों की। पीढ़ियों से। पीढ़ियाँ! मेरी नहीं उनकी। न जात न पाँत । न छूआ-छूत। न मान –अपमान। सब अपने थे। भैया-चाचा, बहन, बुआ, बेटी। कोई पराया नहीं न कोई अनचीन्हा। आदमी तो आदमी पशु-पारानी, चिरई-चुरुंग सबके लिए खुले थे अपने दरवाजे। घना बगीचा । महुआ और आम की घनी डालियाँ और उनकी छाया में बसा अपना बसेरा। कब से था? किसी को याद नहीं। मुझे भी नहीं । कहाँ तक याद करूँ— इतिहास अपना या गाँव का?


हाँ, याद है कुछ तो यह मकान जो तब कच्चा था, मिट्टी और खपरइलों से बना। मिट्टी की भीत, लकड़ी का ठाट और फिर मिट्टी छोप कर ऊपर से खपराइलों की पाँत बिछ गई थी। कोई सौ साल पहले की बात है। कुछ लोग आए थे तब। कुर्ते-धोती और झोले में एक अधेड़ मास्टर, गाँव के मुखिया और कोई साहब; शायद डिप्टी साहब। मौका मुआइना और फिर बच्चों की चहल-पहल। बच्चों की स्कूल खुला था तब, दक्खिन की दांती (किनारे) पर। सरकारी स्कूल था। ठीक वहीं, जहां आम और महुए के कुछ पुराने पेड़ उकठकर गिर गए थे और जगह खाली हो गई थी। रौनक भर गई थी मेरे जेहन में। हाँ, पेड़ों के पत्तों की खुसुरफुसुर, तालियों की मद्धम आवाज और नए-नए किल्लों की मीठी खिलखिलाहट की जगह ले ली थी बच्चों की धमा-चौकड़ी, उछल-कूद और खिलखिलाहट की मीठी आवाजों ने। कभी पहाड़ों की सामूहिक आवाज, कभी गिनतियों का समवेत स्वर तो कभी अंत्याक्षरी, खोखो कबड्डी और गिल्ली डंडा। एक अपूर्व लय थी जिसेमे खोकर दशकों का फासला भी कम लगता है अभी। बच्चे झुक कर कभी मुझसे दवात में पानी भरते तो कभी अनजाने खड़िया या स्याही घोल देते। मेरे इतने बड़े पाट में भला दो बूंद का क्या असर? मैंने बदरंग होने को बुरा नहीं माना कभी। सच कहूँ ? बच्चों ने भी बुरा नहीं माना कभी, जब बरसात में हुलस कर मेरा पानी उनके रास्ते पर आ जाता । वे बिना गीले-शिकवे के अपने कपड़े ऊपर की ओर खिसकाकर पार कर जाते और मैंने भी इसका हमेशा खयाल रखा कि कोई बच्चा मेरे पानी में डूबे नहीं। अच्छा यारना था अपना। पानी में कंकड़ी फेंक मेरे भीतर लहरें उठाना और कागज की नाव बहाना उनका प्रिय शगल था । अपना भी तो अच्छा मनोरंजन था । हम दोनों खेलते रहे। पीढ़ियाँ गुजरती रहीं। पेड़ तो कुछ उकठे और कुछ काटकर खेत बना दिए गए, पर मैं ज्यों की त्यों। बरसात में हुलासकर स्कूल के आँगन में और गर्मी में सिमटकर अपनी ताली में। अपने नए दोस्तों की किलकारियों में पत्तों के खिलखिलाहट और तालियाँ बजाकर नाचना कब का बिसर गया । हाँ, वह ठंडी छाँह कभी-कभी जरूर याद आती जब सूरज की तपन से मेरे कंठ सूखने लगते और लगता हलक से प्राण ही निकाल जाएंगे। लगता काश कि वे पुराने दोस्त होते, सारी तपन झेलकर वे मुझे अपनी ठंडी छाँव दे देते । 


यूं ही क्रम चलता रहा। अपनापा बढ़ता रहा। बगल में एक और स्कूल खुला— प्राइवेट। थोड़ी दूर था, लेकिन उसकी नियत में शुरू से मैं उसके करीब नहीं, बल्कि उसके जड़ में थी। गाँव का हर ताल, पोखर, बंजर जमीन उसकी नीयत की जड़ में ही थे मेरे तरह। सरकार भी बादल चुकी थी और व्यवस्था भी। न मुखिया थे और न गाँव में लाज-लिहाज की पुरानी रवायतें। गाँव बादल रहा था। प्रधान बादल रहे थे, हर साल। किनारे के स्कूल में चुनाव होते। हो-हल्ला, मार-पीट, तू-तू मैं-मैं। बिलकुल पसंद नहीं था मुझे। कहाँ तो बच्चों की किलकारियाँ और कहाँ यह षडमंडल ? हाँ, यह भी पता था कि उन्हें भी नहीं पसंद थी मैं। बस वक्त की घात में बैठे थे। मुखियाई की तरह परधानी परंपरागत नहीं थी। एक अनुकूल प्रधान और फिर मेरा वजूद.. 


मेरे तमाम गोतिया बिला चुकीं थे वर्तमान की खपराइलों में। जिनके खेत और दुआर उनके पास थे उन्होने उढ़ा दी थी चादर और ब्याह ले गए थे अपने खेतों और द्वारों के साथ; वैसे ही जैसे बड़ें भाइयों की बेवाओं को उढ़ा देते थे चादर अंधेरे कमरे में सिंदूर डाल, बिना उनकी मर्जी पूछे। नेउरी गडही, पउदर, पोतनहर, पुरनकी बौली सब। धीरे-धीरे खसरा खतौनी से भी हटा दिये गए उनके नाम और उनकी जगह दर्ज हो गए किसी अ राय, ब पांडे, स श्रीवास्तव, द कुर्मी और य पासवान के नाम। गाँव भला करता भी क्या ? भाई या पड़ोसन की बेवा जो ठहरी किसी इस-उस के घर बैठ जाए उससे तो अच्छा है कि नाक बच गई। भाई ने ही रख ली। लाठी-डंडा, मान-मानव्वल, सुलह-सपाटा और भोज-भात। बस बात खतम। सब भूल गए उनके नाम, उनके परे रूप-रंग और यादों की कौन कहे। मैं अकेले देखती रही गाँव के इस छोर पर क्योंकि गाँव से थोड़ी दूर थी और बाबू-बाबुयान के खेतों से भी। उसमें भी तुर्रा यह कि गाँव के रामलीला मैदान से सटी; कभी रामलीला में गंगा का रोल कर लेती तो कभी समुद्र का। यही था रक्षा कवच मेरा, वरना पूरनका पोखरा की बावन बिधे जमीन को लील गए लोग तो भला मुझ बावड़ी की बिसात ही क्या?


प्राइवेट स्कूल वालों की नज़र पारखी थी। कागज-पत्तर पर तो पहले ही सारा बचा खुचा बंजर, ग्रामसमाज और तालाब-बावड़ी स्कूल की जद में ले चुके थे, बारी थी वास्तविक कब्जे की। पहले मेरे बरसाती पानी के विस्तार को रोका गया स्कूल की सड़क बनी। कोफ्त तो खूब हुई मुझे रोई भी। जिन बच्चों को दसकों से कोई परेशानी नहीं हुई मुझसे। मुझे भी बरसात के दिनों में उनके छोटे-छोटे कोमल पाँवों को धोकर उससे कहीं ज्यादा सुख मिलता, जितना रामलीला में गंगा बनकर राम के खुरदुरे पैरों को धोने में मिल सकता था। उन्हीं के नाम पर मुझे घेर दिया गया। मेरा आँचल मुझसे छीन लिया गया । यह बात भी लगभग दो दशक पुरानी हुई, सो घाव धीरे-धीरे सूख चला था। पर, अब नजर मेरी पूरी देह पर थी। 




मिट्टी खोदने, डालने और बराबर करने वाली मशीनों की भीड़, लोगों का हल्ला। कुछ उत्सुक आँखें, कुछ विरोध भरी और डराती-धमकाती तथा कुछ डर-सहमकर पीछे हटतीं। शायद यह पहला अवसर था कि चादर गुपचुप नहीं ओढ़ाई गई। पूरे साजोसामान से लैस अमले आमने सामने। एक ओर स्कूल की बढ़ते हुए पंजे थे, तो दूसरी ओर मेरी गर्दन को मुट्ठियों में जकड़कर मेरा दम घोंट देने की रामलीला समिति चाहत। इन दोनों के बीच निस्सहाय मैं। बहुत देर तक एक छोर पर स्कूल के बोर्ड और दूसरे छोर पर समिति के बोर्ड का गाड़ना देखती रही और खंती हर बार हल्की आवाज के साथ मेरे कलेजे को गहरे तक कुरेदती रही और अंत में ठीक वहीं, जहां स्कूल के बच्चे कभी अपनी दावतों को पानी में डुबोकर स्याही और खड़िया का रंग घोल जाते तो कभी अपनी छोटी कागज की नाव पानी में डालकर उसे दूर तक जाता हुआ देखकर किलकारी भरते और कभी मिट्टी में सने अपने नन्हें पाँव पानी में दाल हिला-हिलाकर अपने पैर साफ करते, आज मिट्टी का पहला रोड़ा गिरा जो मेरी सांस की नली में अटक गया। मै छटपटाती रही और मेरे ऊपर उनके अधिकार की चादर फैलती रही, धीरे-धीरे सब मिटता रहा। अपनत्व, याराना, पीढ़ियों और सदियों के संबंध, उन नन्हें पावों के निशान, आँचल में सिमटी कागज की कश्तियाँ सब दफन होते रहे। एक किनारे खड़ा पुराना स्कूल और दूसरे किनारे खड़ा अकेला महुए का पेड़ मूक साखी बन देखते रहे । मिट्टी के ढेले गिरते रहे मशीने चलतीं रहीं। लोग फावड़े से जमीन बराबर करते रहे और ठाकुर द्वारे के लाउडीस्पीकर से उद्घोषणा होती रही, “ग्रामवासी कृपया ध्यान दें उत्तर के पोखरे में खुदाई कर उसे और गहरा करने के लिए काम चालू है, कृपया अधिक से अधिक संख्या में पहुँचकर श्रमदान करने का कष्ट करें। पोखरे की खुदाई पुण्य का काम है आप अपना अमूल्य श्रमदान करके पुण्य का लाभ लें। पोखरे के भीटे पर बैठा ग्रामप्रधान ग्राम विकास अधिकारी के साथ हर गाँव में पोखरे खुदवाने के सरकारी आदेश और हाजिरी रजिस्टर लेकर पोखरे खुदवाने में लगाने वाली लागत का हिसाब-किताब करता रहा और गाँव के दक्खिन मेरी सांस घुटती रही।




अब मेरे ऊपर भी एक चादर ओढा दी गई है, जिसपर साप्ताहिक हाट लगती है, दशहरे का मेला लगता है और दिन-ब-दिन समिति की आय बढ़ रही है और पुण्य भी। गाँव के लोग खुश हैं जमीन स्कूल मैनेजर के हाथ जाने से बच गई और गाँव की जमीन है गाँव के काम आएगी। धरम-करम भी कोई चीज होती है आखिर ! मैं भी बेवा नहीं, सधवा हूँ । अपने पति के नाम से जानी जाती हूँ । मेरी नई पहचान है—‘रामलीला मैदान’ रामलीला समिति, ग्रामसभा, क। अपने इस नए पते के साथ मैं अब भी जिंदा हूँ । मैं अब भी साँस ले रही हूँ और अब भी जी खोल कर बोलना-बतियाना चाहती हूँ । हिलना-मिलना और दुःख-सुख का हिसा बांटना चाहती हूँ । पर, अफसोस अभी मैं इतिहास नहीं हूँ, न पुरातत्वविदों की रुचि का विषय । कल जब तुम भी नहीं होगे, शायद यह गाँव यह पाठशाला भी नहीं होगी, तब शायद कोई खंती, कोई फावड़ा या कोई मशीन मेरे भीतर छिपे इतिहास और स्मृतियों को खोद रही होगी । दुर्भाग्य, तब मेरी स्मृतियों की भाषा समझने वाला कोई न होगा, मेरे आँचल में छुपी कागज की नावों का अर्थ और मिट्टी और शीशे की उन दवातों का इतिहास कार्बन डेटिंग से निकाला जाएगा, उन बच्चों के पाँवों के निशान तो तभी खो चुके जब मेरे वक्ष पर लहराते जल को तुम्हारी मिट्टी ने सोख लिया । लेकिन, तब भी तुम्हारा इतिहास मुझसे ही लिखा जाएगा, जब तुम खुद नहीं होगे । इसलिए मैं अब भी जीना चाहती हूँ ताकि भविष्य को तुम्हारे वजूद की गवाही दे सकूँ ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं । 

सोमवार, 5 जून 2017

पर्यावरण, संस्कृति और हम

·       राजीवरंजन


आज पर्यावरण दिवस है । दुनिया भर के लोगों का एक साथ मानव और प्रकृति के रिश्ते को याद करने का दिन। संसाधनों को भावी पीढ़ी के लिए बचाने के लिए आह्वान करने का दिन । हमारे देश-गाँव के तमाम लोगों को इसके बारे में अब भी बहुत पता नहीं है । वे नहीं जानते की यह पर्यावरण दिवस क्या है ? मीडिया के खबरों से जानते भी हैं तो हद से हद उसे पढ़कर भूल जाते हैं। यह एक सच बात है। इसमें न उनका दोष है, न मीडिया का और न 5 जून को पर्यावरण दिवस घोषित करने वाले और मानाने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ का। फिर, किसका दोष है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है, लेकिन इसका उत्तर बहुत जटिल है जो कहने या बताने से कहीं अधिक महसूस करने से पाया पाया जा सकता है।
                सदियों पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस करोड़ देवताओं में सब हैं वर्षा के देवता मेघवान, परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संताने हैं, जिसके साथ क्रीडा कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाय तो क्या यह कल्पना प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति नहीं है ? निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएं थीं और उन सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया, वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएं टूट चुकी हैं, तब हम चाहें तो  उसे ही पदार्थ कह लें। यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य  रहा है; उन्होंने पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची सृष्टि पंचतात्विक है, मानुष्य भी और पेड़-पौधे भी। अगर दायरा थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या का था। वहाँ पाँच नहीं केवल चार तत्त्वों की बात की गई है; पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि। आकाश उनके चिंतन में अनुपस्थित है। यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी और भारतीय खगोलविद बराहमिहिर ने यूनानियों को उनके खगोलीय ध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है। फिर भी, आकाश को अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या ये संदर्भ में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ?  निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है। प्रकृति और मनुष्य के बीच का अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है। बाकी, अनुभूतियाँ तो सब में होती हैं। मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है।
                हमारी परंपरा और संस्कृति में यह समझ बहुत गहरी रही है। भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व, अर्थात उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ईशावस्य उपनिषद का पहला मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है— इस पृथ्वी पर जो भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है। इसलिए हमें त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो। त्याग पूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके प्राप्य का त्याग हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव।  दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है। एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के संबंध में लिखा है। उन्होंने हिंदस्वराज में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी भूख होती थी , लेकिन अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह भी मनुष्य में बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी। गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है। गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और  मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है। सच कहा जाय तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी। संभव है उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें अपनी उस लोभवृत्ति और हिंसावृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंक लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव उपस्थित रहता है।
                भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी इस साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है— ‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यती। यह देवस्यकाव्यं है क्या ? प्रकृति। उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिये हैं। यह आश्चर्य नहीं कि भारत के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा सकती हो। चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट, तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास, सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल। सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं तो इनके युग भी तो अलग हैं और हर युग की अलग संवेदना होती है, यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में यह उक्ति आश्चर्यजन नहीं लगती कि कविता आदिम मानुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की दूरी बढ़ी है। आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं। यह गद्यात्मकता कविता की तुलना में आसान-सी दिखती है, पर है नहीं। इसने निरंतर मनुष्य को  उसकी सहजात वृत्तियों की अभिव्यक्ति से उसे रोका है। यह सच है कि हम बोलते गद्य में हैं, कविता में नहीं। लेकिन, हमारी मूल वृत्ति लयात्मक है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है। यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के किसी हिस्से  में अकेले गुनगुनाते हुए देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है जो नगरीय जीवन में थोड़ी मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं। आधुनिक शिक्षा के तमाम नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है।  उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना अधिक आसान होगा। आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य (रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए  शिक्षा में आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात करते हैं— संगीत और व्यायाम। व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत ही एकदम निर्थक हो। अपनी सार्थकाता के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या कविता का यादश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि लयात्मकता तथा मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य  दोनों ही मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं। इन दोनों से दूरी मनुष्य को कृत्रिम बनाती है।
                 जैसे ऊपर से सपाट और निर्लिप्त सा दिखने वाला मनुष्य भीतर से उतना ही जटिल और कृत्रिम होता है, उसी तरह गद्य भी ऊपरी आवरण में सपाट और सरल होते हुए भी अपनी बुनावट में तमाम जटिलताओं को समेटे रहता है और इसीलिए आधुनिक जटिल मनुष्य के लिए यह माध्यम अधिक प्रिय रहा है। कविता में वह अपने को छिपा नहीं सकता, लेकिन गद्य में भाषा के आवरण के भीतर वह अपने को समूचे रचना कर्म में छिपाए रख सकता है। कथनी और करनी के भीतर के अभेद की जितनी सटीक अभिव्यक्ति कविता में होती है, गद्य में बिलकुल नहीं हो सकती। इसीलिए यह प्रकृत नहीं है और जो प्राकृत नहीं है, वह प्रकृति के साथ तादात्म्य की अभिव्यक्ति भाला कैसे करेगा? इसीलिए कविता से दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रकृति से भी हमारी दूरी निरंतर बढ़ती गई। आज फिक्सन का युग है। कविता ही क्यों नाटक, निबंध आदि गद्य की तमाम विधाएँ भी हाशिये की ओर खिसक रही हैं। दरअसल एक छद्म की सृष्टि जितनी आसानी से फिक्सन में संभव है, उतनी दूसरी किसी गद्य विधा में भी नहीं।  यह बात अलग है कि अपने उदय के साथ ही कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति का जिस तरह का दावा किया, वह न भूतो न भविष्यति है। यथार्थ की वारिस होने का दावा करने वाली यह विधा वस्तुतः यथार्थ के ऊपरी आवरण में उलझी रह जाती है और उसकी भीतरी परतों तक उतर ही नहीं पाती। इस आंतरिक यथार्थ की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति या तो काव्य और सबसे अधिक गीतिकाव्य में संभव है, या फिर नाटकों में और ये दोनों ही आदिम विधाएँ हैं। आदिम जीवन का अर्थ केवल पिछड़ा जीवन नहीं होता, वह मानव जीवन की सहजता की भी पहचान है। इसीलिए गद्यकारों की तुलना में कवियों के यहाँ प्रकृति के प्रति आत्मीयता और लगाव अधिक दिखाई देते हैं। कवि इन्हीं अर्थों में कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू है। संस्कृत साहित्य में गद्य और पद्य दोनों को काव्य और दोनों के रचने वाले को कवि कहते थे, पर यहाँ कवि का सीमित अर्थ ही लिया जा रहा है; क्योंकि हिंदी गद्य संस्कृत गद्य से अपनी बनावट और संवेदना से पर्याप्त दूर है।
                प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह एकात्म, ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान, दर्शन या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही विकसित और पुष्ट हुआ है और दार्शनिकों, कवियों और चिंतकों ने वहीं से उपजीव्य ग्रहण किया इसलिए वे उसके कर्जदार हैं। हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं। लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं। वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और पीपल, बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं। ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले बच्चे के लिए वह बट दादा है,  सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़ पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रश्म है पित्तर नेवतल अर्थात पितर-गण को निमंत्रण।  तिलक के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य रश्में होती हैं जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं। इन अनुष्ठानों में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है।  यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है जो अब अवशेष मात्र बनकर महिला संगीत के शार्टकट फार्म और मेंहदी की नव-आयातित सेलिब्रेशन संस्कृति के हवाले हो चली है ।  

                आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते में तेजी से गिरावट आई है। इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और और प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है। अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय हो गई है। ये दिल मांगे मोर के फलसफे वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या जरूरत। हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं की इन पर्वतीय अंचलों, समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं, हम अपनी ही आबो हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका  दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है की पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है। इसलिए इनके बिना पर्यावरण सुरक्षा एक मोहक स्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। 

गुरुवार, 25 मई 2017

देखि दुपहरी जेठ की छाहों चाहत छाँह


मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछा
टिकोरों की आस में पूरी दुपहिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली है, कुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहे? शहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गांव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँह' की कल्पना कर रहे थे, वह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है, और उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ता नृत्य कर रही हैं, गोया यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकर, कोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैं, हमारी अबाध आकांक्षाएँ
       हम असभ्य थे, वनचर थे, खाद्यसंग्रही थे, हमने आग की खोज नहीं की थी; तब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने उमग कर हमें दिया, हमने अपना पेट भरने को फल मांगे इसने अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं,  हमने तन ढंकने को वस्त्र माँगा, इसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दिया, ये स्वतः उसके पात्र बन गए- खुद अपना तन हमारे लिए समर्पित कर दिया। जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए लकड़ी दी, पत्ते दिए । और-तो-और, मानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान है जब पहले-पहल इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजा काटे हैं। यहाँ तक कि विकास के सारे महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हु। चेतना, कला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली पहचान, हवा में लहराते पत्तों के संगीत, हवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटकर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात सत्त्ता में आस्था —यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा। यह अनायास नहीं की दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन का गुरुत्व सिद्धांत दोनों की प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं।
       इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक रहा और हमेशा हाथ फैलाए वह वृक्षों के सामने खड़ा रहा है। वृक्ष ही क्यों, समूची प्रकृति उसके तृण-तृण और रोम-रोम के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है। अपनी सारी उपलब्धियाँ, सारा सभ्यता-व्यापर और सारा ज्ञान-विज्ञान सामने रखकर भी, वह हमेशा अदना ही रहा। यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को अदना ही पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी बाँहों वाला बौना मैं, बड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर बाँह करके हंसी का पात्र ही बनूँगा'पर, यह आत्मदैन्य कालीदास जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव था; हम जैसे रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनाई' तो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे। पेड़ों को कौन कहे, पूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम (अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास है, मनुष्य । इसलिए वह प्रकृति से श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनाकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता है । सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएं प्रस्तुत करती है और मनुष्य इनका कुशल दोहन करता है। इसक्रम में, कुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई यह हम नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँ, सारी चिंताएँ और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते रहे, हम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखा, कोई सहचर या कोई मित्र भी है; मनुष्य धरती की संतान है, वह इसी की धूल-माटी में पल-सनकर बड़ा हुआ है—ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके थे। परिणाम, प्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी में सिमटता गया और हम अपनी विजय का उत्सव मनाते रहे ।

       निश्चित रूप से आरंभ में मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता इतना सरल, इतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था । मनुष्य लेता तब भी था और अब भी है, लेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य मिलते रहे हैं, वे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं हैं, बल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं । भारत को ही लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहीं, अपनी पोषक-वृत्ति के कारण उपास्य हैं, श्रेष्ठ हैं या माँ हैं । इसी तरह पीपल देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की रक्षा का हेतु बन जाता था ।  आज हम वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हैं और उन पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानते, लेकिन उसके भीतर निहित प्रकृति के प्रति सम्मान-भाव हमारे लिए आज भी उतना ही अनिवार्य है, जितना तब था । सच कहूँ, मेरा मन आज भी गर्मी की तपती दोपहर में रोहीनयवा आम या नयका पोखरा के उचे भीटे की उस गूलर के नीचे बिलम जाता है, जहां कभी गाँव के बच्चे गूर-गोटी और बाघ-बकरी खेला कराते थे और चरवाहे गमछा बिछाकर उसकी छाँव में लेते गलचौर कराते थे । वह गूलर आज भी है, लेकिन पूरी दुपहरिया उदास बैठी गाँव की ओर ताकता रहता है; कोई बच्चा, कोई गवैया, कोई किस्सा-गो उसकी छाँव में बैठ दुपहरिया मनसायन नहीं करता । रोहिनियावा आम की कंचन आभा अब धूप के तेज को चुनौती नहीं देती और न ही अब उसे पकाकर टपकने में वह आनंद आता है, जो टकटकी लगाए देखने वाली दो चार-छह जोड़ी आँखों की उत्सुकता देखकर होता है । अब वह सूखे पत्तों में बेमन ढुलक जाता है । उसके साथी कटहरियावा, ठोरहवा, मिठका, करुयसना, सेनुरियावा सिरफलियावा आदि की गाछें तो जाने कब की ढुलक गईं, पर जाने यह किसकी प्रतीक्षा में अब भी खड़ा है, अब भी बसंत आते महमहा उठता है और रोहिणी नक्षत्र के आते-आते पूरी गांछ पियारा उठती है । बाबा के जमाने में समाहूत के दिन इस आम का विशेष सम्मान था । दही, अक्षत, रोली, समहूती लाठी और कुदाल के साथ-साथ एक कटोरे या थाली में चौके पर यह आ बिराजता था । अब बाबा तो नहीं रहे, लेकिन यह आम अब भी है और हर रोहिणी नक्षत्र में इसके हरे-हरे पत्तों के बीच से चमकती बाबा की स्मृति झांक उठती है ।