दीपावली मुझे चंदेव बाबा के आंगन में पहुंचा देती है। जहां घुरली, घंटी, भोंभा, जाँत और तरह तरह के खिलौनों से भरी एक दूसरी ही दुनिया होती थी। दिवाली पर जब किसी मुहल्ले में भोंभे की आवाज सुन पड़ती तो हम अपने दरवाजे पर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगते। स्कूल से आने के बाद आस पास के घरों में ताक झांक कर आते कि अभी तक उनके घर दिए आए या नहीं। एकाध बार गांव में कहीं मिल जाने पर उनसे भी जल्दी अपने घर आने की गुजारिश कर आते। जब वे दरवाजे पर आते तो अपना ध्यान उनकी टोकरी के बजाय उनके साथ वाले की टोकरी पर होता। वे जब तक दिवाली का दिया और गोधन की घुरली गिनकर देते तब तक अपना ध्यान उसी ओर लगा रहता। अंत में इन खिलौनों की बारी आती। तब गांवों के किसान परिवार में आतिशबाजी का चलन उतना नहीं था। कुछ बनिए और सुनारों के घरों में जरुर खूब पटाखे चलते थे। मिट्टी के खिलौने, मिठाइययों के अलावा दिवाली पर जो नयी बात होती, वह नए धान का चिउड़ा। उसकी मिठास और सोंधापन पैकेट बंद पोहे और मशीन से कूटे गए चिउड़ा में भला कहां। तब चिउड़ा कूटना, धान कूटना, जांत पीसना सामूहिक और समाजिक क्रियाएं होती थीं। उसी तरह गोवर्धन पूजा और पिंडिया जैसे दीपावली से जुड़े त्यौहार भी। शहरों में सामाजिकता प्रदर्शन की चीज रही है और गांवों में जरूरत। जैसे-जैसे जरूरत बदल रही है गांवों की सामाजिकता भी बदल रही है। चाक मिट्टी के बर्तन और उनसे जुड़े लोगों की अगली पीढ़ियों के हाथों में हुनर नहीं तसला और फावड़ा है, वे शहर के किसी मोड़ पर दिहाड़ी के लिए जुटे हैं। गुजर तब भी मुश्किल थी और अब भी मुश्किल है। तब कम से कम उनके पास हुनर तो था, अब तो वे भी भीड़ का हिस्सा हैं।
'उत्तम खेती मद्धम बान अधम चाकरी भीख निदान' वाली उस पीढ़ी की जीवन शैली को जी पाना हमारी पीढ़ी के लिए असंभव है। अभावों और सीमित संसाधनों के बावजूद आत्मनिर्भरता की जो ठसक उनके पास थी, वह रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकने वाले हम प्रवासियों को कहां नसीब ? गांव की नई पीढ़ी के हाथ से तो मिट्टी के खिलौने ही छुटे यहां तो मिट्टी ही छूट गई। आसमान में त्रिशंकु बने जी रहे हैं।