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शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 25 मई 2017

मातृ दिवस

                    'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । मेरी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहीर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा दिया । उन्होने मेरे भविष्य के लिए बहुत कम वय में मुझे अपने से दूर जाने दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'


सोमवार, 4 जुलाई 2016

भारतीयता: पहचान के कुछ सूत्र

राजीवरंजन
जब भारतीय साहित्य की बात होती है, तो प्राय: यह कहा जाता है, “भारतीय साहित्य एक है जो विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता है।” यही बात संस्कृति के संबंध में भी दोहराई जाती है, “भारतीय संस्कृति तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक है।” अब सवाल यह उठता है कि इस एकता का अधार क्या है? और दूसरा सवाल यह भी कि आखिर इन भिन्नताओं के बावजूद यह ‘भारतीय’ क्यों है ? तात्पर्य यह कि आखिर ‘भारतीयता’ क्या है? ये सवाल अलग अलग नहीं हैं, एक ही सवाल के हिस्से हैं और परस्पर पूरक भी। हमें सबसे पहले भिन्नता के बावजूद एकता के सवाल पर विचार करना चाहिए । बिना इसे समझे अन्य पक्षों की सम्यक समझ संभव नहीं है क्योंकि यही इस 'महाभारतीय संस्कृति' (भारतीय संस्कृति में निहित बहुलता को रेंखांकित करने के लिए इसे महाभारतीय संस्कृति भी कहा जाता है) का प्राण-भूत तत्त्व है और इस तथ्य का सबसे लोकप्रिय उदाहरण है, महाभारत जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि धर्म सदैव अविरोधी होता है—
धर्मः यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः सत्य विक्रमः॥
—महाभारत
धर्म’ का अर्थ रिलीजन या मजहब नहीं। यदि ऐसा होता तो निश्चित तौर पर धर्म से पूर्व कोई विशेषण जरूर प्रयुक्त होता, जैसा कि इस्लाम, यहूदी या ईसाई के साथ है, लेकिन ऐसा नहीं है। कई बार यह भ्रम भी होता है कि धर्म का अर्थ ही सनातन धर्म है जिसे बाद में हिन्दू धर्म कहा गया। लेकिन यह सच नहीं है। मनु और बुद्ध दोनों ने सनातन धर्म का प्रयोग किया और अपने-अपने धार्मिक मतों को सनातन धर्म कहा है। यदि आज की मान्यता पर चलें तो ये दोनों ‘परस्पर विरोधी धर्म’ आपस में सनातन की पदवी पाने के लिए लड़ रहे थे। यह भी हो सकता है कि वे आपसी गठबंधन द्वारा किसी पूर्व प्रचलित धर्म को अपदस्थ कर रहे थे। यदि ऐसा नहीं है, तो दो ‘धुर विरोधी’ गुट किसी मिस्टर सनातन कुमार के मंच पर इकट्ठे खडे होकर क्यों भाषण दे रहे थे ? मजे की बात यह की दोनों एक ही बात एक ही अंदाज़ में कह रहे थे-
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियं।
प्रियंच नानृतंब्रूयादेष धर्म सनातनः॥
-    मनु स्मृति
न हि बेरेनि बेरानि समन्तीध कुदाचन।
अवेरेन हि समंतीध एसो धम्मो सनन्तनो॥
-    धम्मपद

इन दोनों के लिए धर्म जीवन के प्रति एक दृष्टि थी। एक ऐसी दृष्टि जो व्यावहारिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण थी, मानवीय थी इसलिए सनातन थी। मानवीयता ही इस सनातनता की सबसे बडी कसौटी थी। ऐसे में, सनातन का अर्थ है, वह धर्म जो निरन्तर काल से या अनन्त काल से चला आ रहा है और मनुष्य के लिए हितकर है। ‘सनातन’ अपने-आप में बड़ा गतिशील शब्द है क्योंकि इसमें केवल निरंतरता और प्राचीनता का नहीं बल्कि निरन्तर नये होते चलने या विकसित होते चलने का अर्थ भी निहित है। इसीलिए बुद्ध और मनु को विरोधी नहीं हैं, बल्कि धर्म-चिंतन की एक सनातन चलने वाली प्रक्रिया का एक पड़ाव मानता हूँ। दोनों ही सनातन धर्म के विकसनशील चिंतन की दो स्थितियाँ है, एक दूसरे से द्वंद्वात्मक नहीं बल्कि पूर्वापर क्रम में जुड़ी हुई। इन दोनों को समानांतर रखकर द्वंवात्मकता में देखना आधुनिक चिंतनशैली की देन है। भारतीय आर्ष-परंपरा इस द्वंद्वात्मकता में विश्वास नहीं करती। वह युग्म में विश्वास करती है। वह विरोध नहीं, अविरोध में विश्वास करती है और इसी लिए धर्म को अविरोधी मानती है। जो विरोधी है, द्वंद्व मूलक है, परस्पर संघर्ष उत्पन्न करता है वह अधर्म है और ऐसा करने वाला अधर्मी। यही नहीं जहाँ विरोध होगा वहाँ सनातनता का वास भला कैसे हो सकता है, सनातनता की कल्पना तो अविरोध मूलकता में ही संभव है। अतः जो अविरोधी है, वही सनातन है और वही धर्म भी। यह तथ्य है और इसे पुरानी पीढ़ी बहुत मजबूती से पकड़े हुए थी। देश की स्वतंत्रता कुछ ही पहले इकबाल जब यह लिख रहे थे कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’,  तब उनके भीतर से वही परंपरागत भारतीयता बोल रही थी। हाँ बाद में वही धार्मिक आधार पाकिस्तान के प्रस्तावकों में से एक बने और भारत-पाकिस्तान का बँटवारा हुआ। तब उनके परंपरागत बोध के ऊपर उस आधुनिक मन ने कुंडली जमा ली थी, जो धर्म को अस्वीकार कर उसकी जगह मूल्य (Value) को ला बिठाता है।
आज हम धर्म की जगह संस्कृति, मूल्य या जीवन-दर्शन जो कह लें, पर इसका पुराना शब्द अपनी भारतीय शब्दावली में ‘धर्म’ ही रहा है। संस्कृति और मूल्य नए हैं और अंग्रेजी के Culture  तथा Value के सगोत्रीय यानी गोतिया। सगोत्रीय की तुलना में उसका भोजपुरी संस्करण गोतिया कल्चर और संस्कृति के रिश्ते को समझने के लिए अधिक सटीक है। मैं इन्हें समानार्थी या अनुवाद की श्रेणी में इसलिए नहीं रखता क्योंकि भाषा शब्द-समूह या संरचना(structure) मात्र नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक परिघटना है। शब्दों के भी अपने संस्कार होते हैं। एक बहुप्रचलित उदाहरण लें तो भारतीय पारिवारिक संबंधों के हिंदी में नाम और यूरोपीय पारिवारिक संबन्धों के अंग्रेजी नामों में भिन्नता की बात कर सकते हैं जो भारतीय भाषा और भारतीय सामाजिक संबंधों दोनों की संपन्नता के उदाहरण हैं; साथ ही सांस्कृतिक संपन्नता के भी। संस्कृति शब्द और व्याकरण दोनों को प्रभावित करती है। एक जमाने में भारत में संस्कृत का व्यवहार होता था, जो श्लिष्टयोगात्मक भाषा थी। उत्तरोत्तर प्राकृत, पालि, अपभंश, और हिन्दी तक आते-आते यह संरचना बदल गई। परसर्गों का विकास हुआ और पद और प्रत्यय अलग होते गए। ऐसा क्यों हुआ इसकी सही और सटीक जानकारी तो समाज-भाषाविज्ञानी ही दे सकते हैं, लेकिन मेरा अनुमान है कि समाज की जरूरतें बदलीं, हम संस्कृति के नए सोपान चढ़ते गए और क्रमशः भाषा के व्यहृत रूप में भी बदलाव आता गया। शब्दों ने अपने अर्थ भी बदले; कुछ का अर्थ-संकोच हुआ और कुछ का विस्तार। कुछ शब्दों ने तो अपने आपको पूर्णतः बदल लिया। स्वयंसंस्कृतिका ही बात करें, इसका आरंभिक प्रयोग आद्यतन प्रयोग से सर्वथा भिन्न है। ऐतरेय ब्राह्मण में एक अंश आता है- ‘आत्मसंस्कृतिवाशिल्पानि। छन्दोमयं वा। एतर्यजमानआत्मानंसंस्कुरुते। यह भारतीय साहित्य में संस्कृति पद का संभवतः पहला प्रयोग है। यहाँ संस्कृति का प्रयोग संस्कार के संदर्भ में हुआ है और इस संस्कार के माध्यम है शिल्प। छंद एक शिल्प है और इसलिए साहित्य या काव्य भी एक कला है, जो आत्म-संस्कृति के लिए रचा जाता है। ये स्थापनाएँ निश्चित तौर पर आदिम या कबालाई जीवन से बहुत आगे बढ़े हुए समाज के चिंतन की उपज है, जहाँ काव्य और शिल्प को जीवन के संस्कार का  माध्यम माना जाता हो।

अंग्रेजी का शब्द ‘कल्चर’ कृषि से जुडा है और संस्कृति निर्माण से। अगर समाज के ऐतिहासिक विकास के लिहाज़ से देखें और संस्कृति की कल्चर से तुलना करें तो जाहिर है हम उनसे जेठे ठहरते हैं। यह आत्म गौरव और आत्म-श्लाघा की बात नहीं, बल्कि शब्दों में निहित यथार्थ का उद्घाटन है। इतिहास के अनुसार शिल्प का विकास कृषि के बाद की अर्थात विकसित अवस्था है। पश्चिम का बर्बर जर्मन समुदाय जब कृषि के क्षेत्र से जुडा वह युरोप के लिए सांस्कृतिक विकास का समय था पर भारतीय समाज ने शिल्प के विकास से संस्कृति को जोडा। जाहिर है, हमारे लिए संस्कृति के मूल्यमान उंचे रहे हैं। इतिहास के विद्यार्थियों को कम से कम यह मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि सिन्धु-घाटी सभ्यता नगर सभ्यता थी और नगर-सभ्यता व्यापार से जुडी है। निश्चित तौर पर तब तक शिल्प का विकास हो चुका था, बल्कि वह अपने विकास की एक अच्छी अवस्था में था। इस तथ्य की पुष्टि उस नगर के खंडहरों और अवषेशों से होती है। भवन निर्माण कला, नगर की सुनियोजित बसावट और प्रस्तर मूर्तियों के निर्माण के जो अवशेष वहां मिले हैं, वे उसकी शिल्पगत विकास की स्थिति के गवाह हैं। अतः यह केवल शब्दों के अन्तर या केवल भौगोलिक या भाषायी भिन्नता का मामला नहीं, बल्कि मन-मिजाज अन्तर की पहचान कराता है। यह मानसिक संपन्नता और बौद्धिक विकास का अंतर है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि बाहरी सम्पन्नता या आर्थिक विकास मनुष्य को भौतिक समृद्धि तो देती है, लेकिन आत्म-संस्कार के लिए यह कभी-भी कोई शर्त नहीं रही है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पन्न दिखने वाला व्यक्ति सुसंस्कृत भी हो। युरोप में औद्योगिक विकास के साथ समृद्धि की एक गगनचुम्बी लहर उठी और उसकी सभ्यता का विश्वव्यापी विस्तार भी हुआ, किंतु औपनिवेशिक शोषण और नरसंहारों से लेकर विश्वयुद्धों की निर्मम दास्तानें उसके सांस्कृतिक औदात्य पर कलंक हैं और ठीक उसी के समानांतर महात्मागांधी के नेतृत्व में सत्य और अहिंसा का आधार लेकर चलने वाला भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन संपूर्ण मानव-संस्कृति की एक अनमोल निधि है। यह इसलिए संभव हुआ कि सम्पन्नता  की दृष्टि से पीचे छूटता हुआ भारत आधुनिक सभ्यता के पैमाने पर भले युरोप से पिछड़ने लगा हो उसके अपने आत्म-संस्कार (आत्मिक मूलाधार ) अब भी दृढ़ थे। सत्य और अहिंसा हमारे भीतर संस्कार रूप में पहले से स्थित थे। गांधी ने बस उसे आवाज देकर सजग भर दिया था— हमें अपनी उस शक्ति का प्रतिभिज्ञान करा दिया था जिसके अभाव में हम अर्द्ध-निद्रा में झूल रहे थे। 

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

धर्मो यो बाधते धर्मः

'पंथ-निरपेक्षता' भारतीय संविधान की मूल आत्मा(प्रस्तावना का हिस्सा) है। यह भारतीय मनोरचना का स्वाभाविक तत्व है, इसका विकास भारतीय संस्कृति (संस्कृति भी गढ़ा हुआ नया शब्द है; भारतीय संदर्भ में इसके लिए धर्म ही सटीक शब्द है) के साथ-साथ सहज रूप में हुआ। अतः इसका विरोध भारतीयता का विरोध है। 'धर्म-निरपेक्षता' और 'सांप्रायिकता' दोनों नयी अवधारणाएँ हैं और दोनों साथ-साथ फलती-फूलती रही हैं। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरी हैं। भारत में सांप्रदायिकता के अस्तित्व का सबसे बड़ा कारण है, 'धर्म' को संस्कृति से 'रिप्लेस' कर 'संप्रदाय' से उसका तुक मिला देना। यह घाल-मेल ब्रिटिश औपनिवेशिक और पौर्वात्यवादी इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से किया और हमारा बौद्धिक समाज उसे लगातार ढोये जा रहा है। यही कारण है कि एक आम भारतीय (जो मूलतः अ-सांप्रदायिक है) 'धर्म-निरपेक्षता' की अवधारणा को पचा नहीं पता। राजनीतिक शक्तियां इसीका फयदा उठाती हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि 'सांप्रदायिकता' और 'धर्मनिरपेक्षता' दोनों की प्रसव-भूमि शिक्षित मध्यवर्ग ही है, जिसका तेजी से विस्तार हो रहा है और इसलिए हमें भारत में सांप्रदायिकता एक बड़ी समस्या नजर आने लगी है।