कुबेरनाथ राय खांटी भारतीय चिंतक रहे हैं। उनके लेखन और मानसिक संस्कार दोनों में भारतीयता कूट-कूट कर भरी हुई है। लेकिन वे आधुनिक विश्व-चिंतन से न तो अनाभिज्ञ रह रहे हैं और न ही तटस्थ हैं। उन्होंने अपने आलेख का पहला उद्देश्य 'हिन्दुस्तानी मन को आधुनिक विश्व-चिंतन से लेकर बाबा की चित्तवृत्ति तक' का विस्तार बताया है। यह काम उन्होंने अपनी भाषा में लिखा है। इसकी अहासा आशिक कृतियों में होमर, वर्जिल, शेक्सपियर द्वारा लिखे गए निबन्धों µ 'होमरः आत्मकथ्य', 'निसंह-द्वार का कवि प्रेत'; संस्करण , कवि-प्रेत ने कहाः शेक्सपियर' ; त्रि 'रस-आलेख' में संग्रहालयीताद्ध µ में उन्होंने दिया था। वे इन निबंधों में उस जमीन की तलाश करते दिखाई देते हैं, जिस पर आधुनिक विश्व-चिंतन ने आकार दिया है। 'विषाद-योग' में इस पक्ष का पूर्ण विकास है। उन्होंने आधुनिक विश्व-चिंतन पर दस निबन्ध लिखे हैं। इनमें समाजवाद, साध्यवाद और व्यवहारवाद पर विचार हैं। 'कामू, सात्र, हरवर्ट मैक्यूज़ आदि पर उन्होंने स्वतंत्र निबन्ध भी लिखे हैं। इन निबन्धों में उद्देश्य उनके तथ्यात्मक गुरु या विश्लेषण से भिन्न है। भारतीय मानस की प्रति-अनुकूलता और वर्तमान की प्रति-अनुकूलता के सिद्धांतों पर नजर रखी जा रही है।
गांधी-दर्शन कुबेरनाथ राय के लेखन की चौथी दिशा है। यद्यपि जगह-जगह उन्होंने गांधी से असहमतियां भी व्यक्त की गई हैं, तथापि , गांधी जी की मान्यताओं को स्वीकार भी करते हैं। उनका मानना है कि सत्य और अहिंसा का गांधी सूत्र भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व है। इसमें एक का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है और दूसरे का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है। ये दोनों समन्वित रूप से भारतीयता की स्थापना रचित हैं। गांधी ने इन दोनों को ग्रहण करके अपने युगीन आविष्कार के संग्रहालय अभय को जोड़ा है। इसलिए वे उन्हें असली भारतीय मानते हैं। वे उनकी सौन्दर्य दृष्टि और साहित्य दृष्टि के कायल थे। वे इस स्तर पर उन्हें बौळ और जैन दर्शनों के निकट मानते थे। उनका था गांधीजी की सौन्दर्य दृष्टि का सूत्र बौतों के 'शीलगंधो अनुत्तरो' का अनुकरणीय सूत्र के और भी करीब है। वे इसे 'शातं सहजं सुंदरम्' के सूत्र द्वारा परिभाषित करते हैं। उन्होंने गांधीजी के केंद्र में पूरी तरह से एक पुस्तक 'पत्र: मणिपुतुल के नाम' लिखी है। इस पुस्तक का पहला निबन्ध 'पाँत का आखिरी आदमी' आधुनिक युवा पीढ़ी को मूर्ति और बेरोजगारी की समस्या पर केन्द्रित है। उन्होंने गांधी की आर्थिक-दृष्टि के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है-''भारतीय परंपरा का अनुष्ठान करते हुए गांधी जी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना की है जो शास्त्र में सही अर्थों की श्रावक पूर्णता प्रदान करता है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार का अवदमन या दमनकारी कार्यकर्ता हो , अपना या किसी और का , वह अहिंसा नहीं है।'' ; मेराल: पृष्ठ , 68 द्ध उन्होंने इस पुस्तक से भिन्न गांधी-दर्शन पर अनेक फुटकर निबन्ध लिखे हैं। इनमें से 'मेराल' में 'गांधी की मुक्ति' और 'चिन्मय भारत' का 'गांधी चिंतन का महायान' प्रमुख हैं।