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शनिवार, 8 जुलाई 2023

रोहिणी

 रोहिणी बीत गई . कल मृगशिरा का अगमन हो गया . भयंकर ताप से तपने वाली नक्षत्र . बाबा कहते थे इसका तपना अच्छा है यह जितना तपेगी उतना ही अगली फसल के लिए अच्छा होगा. पर हमारी पीढी तो बस इतना जानती है ' उफ्फ इतनी गर्मी! इतनी तपन!" टीवी और मोबाइल के स्क्रीन पर चमकता तापमान देखकर कुछ एसी का तापमान एक प्वाइंट और कम कर लेते हैं तो कुछ कोल्ड ड्रिक या आइस्क्रीम की दो नई बोतल या बार के जुगाड में लग जाते हैं. नक्षत्रों के चक्कर में हमें क्यों उलझना? महानगर की सुविधा सम्पन्न जिंदगी में क्या हमारे लिए मृगशिरा क्या अर्द्रा ? सब बराबर .

याद भी कहाँ रहती हैं ये सारी. सत्ताइसों नक्षत्रों का नाम याद रखने वाली पीढी शायद अब गांव-गिरांव में भी कम बची होगी . किसानी भी पहले सी कहाँ रही ? हम सिंचाई की सुविधाओं से लैस, नई-नई तकनीक ग्रीन हाऊस और पोलीहाउस की खेती की ओर बढते हुए जमाने के लोग हम लोग भला क्या जानें इन नक्षत्रों का मोल . घाघ और भड्डरी का हम नई पीढी वालों को क्या पता ? आखिर योग के योगा और ध्यान के मेडिटेशन संस्करण की तरह इनका कोई विदेशी संस्करण भी तो नहीं आया अब तक. आता तो लोग योगा ट्रेनर की तरह नक्षत्रा ट्रेनर लगा लेते . वह नक्षत्र के अनुसार हेल्दी डाइट चर्ट, ड्रिंक और वर्काउट चार्ट बना कर देता . पर अफसोस पश्चिम वाले इधर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं .
सच कहूँ तो मुझे भी नक्षत्र दो-चार ही याद रहती हैं . एक रोहिणी, दूसरी आर्द्रा और तीसरी हस्ति .
रोहिणी इसलिए कि इस नक्षत्र में हमारे बगीचे का सबसे सुस्वादु आम रोहिनियवा की पीतम्बरी आभा पेड के श्याम-हरित गात को ढंक लेती थी. मुझे लगता है बिहारी जरूर कभी ऐसे ही किसी आम के पेड के नीचे से गुजरे होंगे और तभी उनके मुँह से बरबस यह दोहा फूट पडा होगा:
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ |
जा तन की झाईं परे, स्याम हरित-दुति होई ||
बाबा की समहुत की थाली में दधि, अक्षत और गुड के साथ इस आम की उपस्थिति अनिवार्य थी. रोली का काम खेत की मिट्टी करती थी . ग्रीष्म के ताप से तपी हुई मिट्टी से ज्यादा शुभ, शुद्ध या सात्विक दूसरा क्या होगा भला ?

अर्द्रा में भींगा मन

 आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:

आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पर अपने पूर्वांचल के गंगा मैदान में तो उनके कदम अक्सर आर्द्रा में ही पड़ते हैं। मृगशिरा के ताप से ताई हुई धरती पर वर्षा की पहली बूंदें अक्सर आर्द्रा में ही पड़ती हैं और उसकी सोंधी महक चारों ओर बिखर जाती है। समूची प्रकृति जीवन गंध से मह महा उठाती है और धरती की कुक्षी में सोए हुए बीज सहसा उसकी गोद में मुस्कुराने लगते हैं। यह मृगशिरा की लपटों से धरती के उद्धार की नक्षत्र है, जो प्रकृति में जीवन रस का संचार करती है। यह तृण-तरु सबको जीवन देती है, सबको आनंद और सुख बांटती है चाहे अपनी अकड़ में तना हुआ ताड़ हो या कहीं भी पसर जाने वाली लथेर दूब। अपन भी इस दूसरी कोटि में आते हैं सो हम भी जी भरकर पसरने का आनंद लूटते हैं।
इस के प्रिय होने का मेरे लिए एक अन्य कारण भी है। इस ऋतु का स्वागत हमारे घरों में खीर से होता है और विदाई पकवानों से। पुराने समय में बेटियों को अपने मायके से तीज की तरह ही आर्द्रा की बहँगी की भी प्रतीक्षा रहती थी। मुझ जैसे पेटू और रस लोभी व्यक्ति के लिए और क्या चाहिए? पावस और पायस की इतनी अच्छी संगति भला और कहां मिलेगी ? शायद इसी लिए नियति ने मुझे जन्म भी इसी अवधि में दिया। फिर पेटूपन और रसलोलुप होने में मेरा क्या दोष?

प्रकृति रही दुर्जेय

 जीवन हमेशा उत्तान होकर नहीं चलता। जब-तब जहां-तहां करवटीयाता रहता है। अगर ऐसा न हो तो अच्छे खासे आदमी का हाजमा खराब हो जाय। लेकिन जब वह बात बे बात करवटियाया ही रहे तो गंभीर समस्या हो सकती है। पिछले कुछ सालों से मौसम भी ऐसे ही लगातार करवटिया रहा है। प्रकृति भयंकर पीड़ा में है। वह बेचैन है, पर हमें क्या? अब तो मनुष्य की घुटती हुई सांसे भी हमें बेचैन नहीं करती। हम उसके भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं। पहले प्रकृति हमारी अदम्य इच्छाओं की पूर्ति का टूल थी अब मनुष्य स्वयं उसका टूल है। कृत्रिम सूरज और कृत्रिम बरसात तक हम पहुंच चुके हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स मनुष्य बुद्धि और क्रिया के विकल्प बन चुके हैं। आर्टिफिशियल जीवन और सामाजिकता तो पहले ही जी रहे हैं।


शोध बता रहे हैं कि भूगर्भ के असीमित जल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आ रहा है। इस लिए किउम्मीद है हम जल्द ही नई धरती भी बना लेंगे। लेकिन यह सब कब तक चलेगा? मनुष्य के अंत या धरती के अंत तक ? क्या तब भी कोई मनु कामायनी के मनु की तरह अपनी जाति और संस्कृति के विनाश पर इस तरह विलाप करता हुआ मिलेगा :

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित

हम सब थे भूले मद में;

भोले थे, हाँ तिरते केवल,

सब विलासिता के नद में।

शुक्रवार, 1 जून 2018

बावड़ी की आत्मकथा





बहुत पुरानी दोस्ती थी। सदियों की। पीढ़ियों से। पीढ़ियाँ! मेरी नहीं उनकी। न जात न पाँत । न छूआ-छूत। न मान –अपमान। सब अपने थे। भैया-चाचा, बहन, बुआ, बेटी। कोई पराया नहीं न कोई अनचीन्हा। आदमी तो आदमी पशु-पारानी, चिरई-चुरुंग सबके लिए खुले थे अपने दरवाजे। घना बगीचा । महुआ और आम की घनी डालियाँ और उनकी छाया में बसा अपना बसेरा। कब से था? किसी को याद नहीं। मुझे भी नहीं । कहाँ तक याद करूँ— इतिहास अपना या गाँव का?


हाँ, याद है कुछ तो यह मकान जो तब कच्चा था, मिट्टी और खपरइलों से बना। मिट्टी की भीत, लकड़ी का ठाट और फिर मिट्टी छोप कर ऊपर से खपराइलों की पाँत बिछ गई थी। कोई सौ साल पहले की बात है। कुछ लोग आए थे तब। कुर्ते-धोती और झोले में एक अधेड़ मास्टर, गाँव के मुखिया और कोई साहब; शायद डिप्टी साहब। मौका मुआइना और फिर बच्चों की चहल-पहल। बच्चों की स्कूल खुला था तब, दक्खिन की दांती (किनारे) पर। सरकारी स्कूल था। ठीक वहीं, जहां आम और महुए के कुछ पुराने पेड़ उकठकर गिर गए थे और जगह खाली हो गई थी। रौनक भर गई थी मेरे जेहन में। हाँ, पेड़ों के पत्तों की खुसुरफुसुर, तालियों की मद्धम आवाज और नए-नए किल्लों की मीठी खिलखिलाहट की जगह ले ली थी बच्चों की धमा-चौकड़ी, उछल-कूद और खिलखिलाहट की मीठी आवाजों ने। कभी पहाड़ों की सामूहिक आवाज, कभी गिनतियों का समवेत स्वर तो कभी अंत्याक्षरी, खोखो कबड्डी और गिल्ली डंडा। एक अपूर्व लय थी जिसेमे खोकर दशकों का फासला भी कम लगता है अभी। बच्चे झुक कर कभी मुझसे दवात में पानी भरते तो कभी अनजाने खड़िया या स्याही घोल देते। मेरे इतने बड़े पाट में भला दो बूंद का क्या असर? मैंने बदरंग होने को बुरा नहीं माना कभी। सच कहूँ ? बच्चों ने भी बुरा नहीं माना कभी, जब बरसात में हुलस कर मेरा पानी उनके रास्ते पर आ जाता । वे बिना गीले-शिकवे के अपने कपड़े ऊपर की ओर खिसकाकर पार कर जाते और मैंने भी इसका हमेशा खयाल रखा कि कोई बच्चा मेरे पानी में डूबे नहीं। अच्छा यारना था अपना। पानी में कंकड़ी फेंक मेरे भीतर लहरें उठाना और कागज की नाव बहाना उनका प्रिय शगल था । अपना भी तो अच्छा मनोरंजन था । हम दोनों खेलते रहे। पीढ़ियाँ गुजरती रहीं। पेड़ तो कुछ उकठे और कुछ काटकर खेत बना दिए गए, पर मैं ज्यों की त्यों। बरसात में हुलासकर स्कूल के आँगन में और गर्मी में सिमटकर अपनी ताली में। अपने नए दोस्तों की किलकारियों में पत्तों के खिलखिलाहट और तालियाँ बजाकर नाचना कब का बिसर गया । हाँ, वह ठंडी छाँह कभी-कभी जरूर याद आती जब सूरज की तपन से मेरे कंठ सूखने लगते और लगता हलक से प्राण ही निकाल जाएंगे। लगता काश कि वे पुराने दोस्त होते, सारी तपन झेलकर वे मुझे अपनी ठंडी छाँव दे देते । 


यूं ही क्रम चलता रहा। अपनापा बढ़ता रहा। बगल में एक और स्कूल खुला— प्राइवेट। थोड़ी दूर था, लेकिन उसकी नियत में शुरू से मैं उसके करीब नहीं, बल्कि उसके जड़ में थी। गाँव का हर ताल, पोखर, बंजर जमीन उसकी नीयत की जड़ में ही थे मेरे तरह। सरकार भी बादल चुकी थी और व्यवस्था भी। न मुखिया थे और न गाँव में लाज-लिहाज की पुरानी रवायतें। गाँव बादल रहा था। प्रधान बादल रहे थे, हर साल। किनारे के स्कूल में चुनाव होते। हो-हल्ला, मार-पीट, तू-तू मैं-मैं। बिलकुल पसंद नहीं था मुझे। कहाँ तो बच्चों की किलकारियाँ और कहाँ यह षडमंडल ? हाँ, यह भी पता था कि उन्हें भी नहीं पसंद थी मैं। बस वक्त की घात में बैठे थे। मुखियाई की तरह परधानी परंपरागत नहीं थी। एक अनुकूल प्रधान और फिर मेरा वजूद.. 


मेरे तमाम गोतिया बिला चुकीं थे वर्तमान की खपराइलों में। जिनके खेत और दुआर उनके पास थे उन्होने उढ़ा दी थी चादर और ब्याह ले गए थे अपने खेतों और द्वारों के साथ; वैसे ही जैसे बड़ें भाइयों की बेवाओं को उढ़ा देते थे चादर अंधेरे कमरे में सिंदूर डाल, बिना उनकी मर्जी पूछे। नेउरी गडही, पउदर, पोतनहर, पुरनकी बौली सब। धीरे-धीरे खसरा खतौनी से भी हटा दिये गए उनके नाम और उनकी जगह दर्ज हो गए किसी अ राय, ब पांडे, स श्रीवास्तव, द कुर्मी और य पासवान के नाम। गाँव भला करता भी क्या ? भाई या पड़ोसन की बेवा जो ठहरी किसी इस-उस के घर बैठ जाए उससे तो अच्छा है कि नाक बच गई। भाई ने ही रख ली। लाठी-डंडा, मान-मानव्वल, सुलह-सपाटा और भोज-भात। बस बात खतम। सब भूल गए उनके नाम, उनके परे रूप-रंग और यादों की कौन कहे। मैं अकेले देखती रही गाँव के इस छोर पर क्योंकि गाँव से थोड़ी दूर थी और बाबू-बाबुयान के खेतों से भी। उसमें भी तुर्रा यह कि गाँव के रामलीला मैदान से सटी; कभी रामलीला में गंगा का रोल कर लेती तो कभी समुद्र का। यही था रक्षा कवच मेरा, वरना पूरनका पोखरा की बावन बिधे जमीन को लील गए लोग तो भला मुझ बावड़ी की बिसात ही क्या?


प्राइवेट स्कूल वालों की नज़र पारखी थी। कागज-पत्तर पर तो पहले ही सारा बचा खुचा बंजर, ग्रामसमाज और तालाब-बावड़ी स्कूल की जद में ले चुके थे, बारी थी वास्तविक कब्जे की। पहले मेरे बरसाती पानी के विस्तार को रोका गया स्कूल की सड़क बनी। कोफ्त तो खूब हुई मुझे रोई भी। जिन बच्चों को दसकों से कोई परेशानी नहीं हुई मुझसे। मुझे भी बरसात के दिनों में उनके छोटे-छोटे कोमल पाँवों को धोकर उससे कहीं ज्यादा सुख मिलता, जितना रामलीला में गंगा बनकर राम के खुरदुरे पैरों को धोने में मिल सकता था। उन्हीं के नाम पर मुझे घेर दिया गया। मेरा आँचल मुझसे छीन लिया गया । यह बात भी लगभग दो दशक पुरानी हुई, सो घाव धीरे-धीरे सूख चला था। पर, अब नजर मेरी पूरी देह पर थी। 




मिट्टी खोदने, डालने और बराबर करने वाली मशीनों की भीड़, लोगों का हल्ला। कुछ उत्सुक आँखें, कुछ विरोध भरी और डराती-धमकाती तथा कुछ डर-सहमकर पीछे हटतीं। शायद यह पहला अवसर था कि चादर गुपचुप नहीं ओढ़ाई गई। पूरे साजोसामान से लैस अमले आमने सामने। एक ओर स्कूल की बढ़ते हुए पंजे थे, तो दूसरी ओर मेरी गर्दन को मुट्ठियों में जकड़कर मेरा दम घोंट देने की रामलीला समिति चाहत। इन दोनों के बीच निस्सहाय मैं। बहुत देर तक एक छोर पर स्कूल के बोर्ड और दूसरे छोर पर समिति के बोर्ड का गाड़ना देखती रही और खंती हर बार हल्की आवाज के साथ मेरे कलेजे को गहरे तक कुरेदती रही और अंत में ठीक वहीं, जहां स्कूल के बच्चे कभी अपनी दावतों को पानी में डुबोकर स्याही और खड़िया का रंग घोल जाते तो कभी अपनी छोटी कागज की नाव पानी में डालकर उसे दूर तक जाता हुआ देखकर किलकारी भरते और कभी मिट्टी में सने अपने नन्हें पाँव पानी में दाल हिला-हिलाकर अपने पैर साफ करते, आज मिट्टी का पहला रोड़ा गिरा जो मेरी सांस की नली में अटक गया। मै छटपटाती रही और मेरे ऊपर उनके अधिकार की चादर फैलती रही, धीरे-धीरे सब मिटता रहा। अपनत्व, याराना, पीढ़ियों और सदियों के संबंध, उन नन्हें पावों के निशान, आँचल में सिमटी कागज की कश्तियाँ सब दफन होते रहे। एक किनारे खड़ा पुराना स्कूल और दूसरे किनारे खड़ा अकेला महुए का पेड़ मूक साखी बन देखते रहे । मिट्टी के ढेले गिरते रहे मशीने चलतीं रहीं। लोग फावड़े से जमीन बराबर करते रहे और ठाकुर द्वारे के लाउडीस्पीकर से उद्घोषणा होती रही, “ग्रामवासी कृपया ध्यान दें उत्तर के पोखरे में खुदाई कर उसे और गहरा करने के लिए काम चालू है, कृपया अधिक से अधिक संख्या में पहुँचकर श्रमदान करने का कष्ट करें। पोखरे की खुदाई पुण्य का काम है आप अपना अमूल्य श्रमदान करके पुण्य का लाभ लें। पोखरे के भीटे पर बैठा ग्रामप्रधान ग्राम विकास अधिकारी के साथ हर गाँव में पोखरे खुदवाने के सरकारी आदेश और हाजिरी रजिस्टर लेकर पोखरे खुदवाने में लगाने वाली लागत का हिसाब-किताब करता रहा और गाँव के दक्खिन मेरी सांस घुटती रही।




अब मेरे ऊपर भी एक चादर ओढा दी गई है, जिसपर साप्ताहिक हाट लगती है, दशहरे का मेला लगता है और दिन-ब-दिन समिति की आय बढ़ रही है और पुण्य भी। गाँव के लोग खुश हैं जमीन स्कूल मैनेजर के हाथ जाने से बच गई और गाँव की जमीन है गाँव के काम आएगी। धरम-करम भी कोई चीज होती है आखिर ! मैं भी बेवा नहीं, सधवा हूँ । अपने पति के नाम से जानी जाती हूँ । मेरी नई पहचान है—‘रामलीला मैदान’ रामलीला समिति, ग्रामसभा, क। अपने इस नए पते के साथ मैं अब भी जिंदा हूँ । मैं अब भी साँस ले रही हूँ और अब भी जी खोल कर बोलना-बतियाना चाहती हूँ । हिलना-मिलना और दुःख-सुख का हिसा बांटना चाहती हूँ । पर, अफसोस अभी मैं इतिहास नहीं हूँ, न पुरातत्वविदों की रुचि का विषय । कल जब तुम भी नहीं होगे, शायद यह गाँव यह पाठशाला भी नहीं होगी, तब शायद कोई खंती, कोई फावड़ा या कोई मशीन मेरे भीतर छिपे इतिहास और स्मृतियों को खोद रही होगी । दुर्भाग्य, तब मेरी स्मृतियों की भाषा समझने वाला कोई न होगा, मेरे आँचल में छुपी कागज की नावों का अर्थ और मिट्टी और शीशे की उन दवातों का इतिहास कार्बन डेटिंग से निकाला जाएगा, उन बच्चों के पाँवों के निशान तो तभी खो चुके जब मेरे वक्ष पर लहराते जल को तुम्हारी मिट्टी ने सोख लिया । लेकिन, तब भी तुम्हारा इतिहास मुझसे ही लिखा जाएगा, जब तुम खुद नहीं होगे । इसलिए मैं अब भी जीना चाहती हूँ ताकि भविष्य को तुम्हारे वजूद की गवाही दे सकूँ ।

मंगलवार, 1 मई 2018

हमारे सांस्कृतिक ककहरे के 'क' हैं जलाशय




बचपन में जब हिंदी  की वर्णमाला सीख रहा था तब यह सवाल कई बार ज़हन में उठा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘आ’ ‘इ’ या ‘उ’ से बारहखड़ी की शुरुआत की जाय तो क्या होगा? बात तो ठीक भी थी, क्रम बदलने से भाषा का भला बिगड़ता भी क्या? हां स्कूल या घर में डांट ज़रूर पड़ती, शायद अध्यापक की छड़ी की मार भी। यह डर ही था जिसके कारण इस कल्पना को मूर्त रूप न दे सका। आगे जब व्याकरण और भाषा विज्ञान पढ़ा तब भी यही बात आई।



हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार पाणिनी के माहेश्वर सूत्र, जो भगवान शंकर के डमरू से निकली 14 ध्वनियां मानी जाती हैं वो भी ‘अ इ उ ण’ से ही शुरू होती है। आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि बिना ‘अ’ की सहायता के हिंदी के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि ‘अ’ सभी स्वरों में सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए हिंदी वर्णमाला का पहला वर्ण है।



मानव ने जब अपनी सभ्यता की शुरुआत की तो उसके पास जो सबसे ज़रूरी चीज थी जल। चाहे सिंधु सभ्यता हो अथवा नील नदी या दजला-फरात की या कोई अन्य सभ्यता उसका विकास नदी के तट पर हुआ जिसकी वजह थी जल की उपलब्धता। शायद इसलिए ही ये नदियां इन संस्कृतियों के लिए पूजनीय भी थीं। सिंधु और नील के पूजा के प्राचीन प्रमाण तो मिलते ही हैं, गंगा और नर्मदा आज भी भारत में पूजनीय हैं। उन्हें मान माना जाता है। क्यों किसी रूढ़ि के कारण नहीं, अपने सांस्कृतिक महत्त्व और अपनी उपादेयता के कारण।



पौराणिक कथाओं में भी जलाशय का महत्त्व इस बात से पता चलता है कि कालीदास ने शकुंतला की विदाई प्रसंग में कण्व ऋषि द्वारा किसी प्रिय जन को जलाशय के पास छोड़ने का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि जलाशय शुभता के प्रतीक हैं और इनका दर्शन मात्र शुभ होता है। इसीलिए हमारे घरों में यात्रा से निकलते समय जलपूरित पात्र रखने का चलन भी है। इसका संदर्भ अभिज्ञानशकुंतलम के चतुर्थ अंक में भी है , जब शकुंतला विदा होती है तो पिता कण्व उसे छोड़ने जलाशय तक आते हैं । 



लगभग दो-तीन पीढ़ी पहले तक जलाशयों को खुदवाना लोककल्याण का काम था। ये जलाशय हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम थे और हम उनपर आश्रित थे। इतना ही नहीं हमारे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक काम भी इनके तट पर संपन्न होते थे। पूर्वजों का तर्पण हो या बच्चे का मुंडन दोनों ही जलाशय पर ही सम्पन्न होते थे। ये चलन भी हमारे देश और हमारी संस्कृति में जल के महत्त्व को दिखाता है।



जलाशय एक सांस्कृतिक घटक के रूप में  महत्त्वपूर्ण भी रहा है और हमारे समाज में उनकी भूमिका वही रही है, जो नागरी वर्णमाला में ‘अ’ की है। इसलिए हम जलाशयों को मानवीय संस्कृति का ‘अ’कार कह सकते हैं।



लेकिन, स्वतंत्र भारत में जिस तरह जल के नए स्रोतों का विकास हुआ और उनका प्रयोग बढ़ा, हमने उन जलाशयों की उपेक्षा आरंभ कर दी और क्रमशः वे हमारे लिए महतत्वहीन हो गए। कुएं-तालाब भी धीरे-धीरे मृतप्राय हो गएं और हम उन्हें भूलते गए। भोजपुरी भाषा (चाहें तो बोली कह लें) में एक कहावत है ‘घर के पुरनिया के झापीं में बंद करके रखे के चाहीं।’ अर्थ यह कि हमें घर के बुज़ुर्ग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जाने कब उनका अनुभव हमारे काम आ जाए और हम मुश्किल से मुश्किल संकट से निकल जाएं।



यह बात शब्दशः जलाशयों पर भी लागू होती है। ये भी हमारे लिए संजीवनी शक्ति की भूमिका में आ सकते हैं। अपनी इसी समझ के कारण तालाब किसी की व्यक्तिगत संपत्ति ना होकर हमारे समूचे गांव या मुहल्ले के होते थे। हर कोई उसके मरम्मत वगैरह में बराबर सहभागी होता था। अब जबकी तालाबों का संरक्षण गांव की सार्वजनिक भूमिका के बजाय ग्रामसमाज और उसके सरकारी बजट के दायरे में आ गया है तो फंड, उपेक्षा और भ्रष्टाचार के कारण ये तेज़ी से उपेक्षित होकर धीरे धीरे हमारे खेतों, घरों या किसी अन्य स्ट्रक्चर में समाते जा रहे हैं। यह स्थिति दिन ब दिन भयावह होती जा रही है।



बुंदेलखंड, विदर्भ से लेकर उन क्षेत्रों में भी सोखे की खबरे आ रही हैं जहां जल संरक्षण के इन स्रोतों के कारण परंपरागत सूखे के दिनों में भी फसलें उगाना संभव था। अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत और स्थानीय प्रयासों से इनके संरक्षण और विस्तार के उपाय हो रहे हैं, पर ये अभी बहुत छोटे स्तर पर ही चल रहे हैं। पिछले दिनों जब ये खबरें आईं कि सरकारी प्रयासों से इनकी संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, मेरा ध्यान अचानक अपने गांव के इन परंपरागत स्रोतों की ओर चला गया और मैंने पाया कि पिछले दस सालों में हमारे गांव में जलाशयों की संख्या लगभग 1/10 रह गई है। इनमें से कुछ सूखकर किसी के खेत बाग या घर के दायरे में आ मिले और कुछ जो बच रहे थे वे सरकारी अनदेखी की वजह से सूखते गए। इस तरह गांव की परिधि बनाने वाले जलाशय गांव के भौतिक विस्तार की भेंट चढ़ गए।



इस तरह इन सांस्कृतिक इकाइयों का मारना हमारे लिए खतरनाक है। इनके बिना भारतीय संस्कृति या मानवीय संस्कृति की कल्पना वैसे ही असंभव है, जैसे अ के बिना व्यंजन वर्णों का उच्चारण। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक व्याकरण को बचाने के लिए जलाशयों का संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा निकट अतीत में मानव संस्कृति का निष्प्राण होना सुनिश्चित सत्य है।



https://www.youthkiawaaz.com/2017/10/dying-water-sources-is-a-huge-worry/

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं । 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

भाषानाटकम्


प्रथमोध्यायः 

नटी : हे स्वामी! इधर पार्श्व में क्या हो रहा है ?
नट:  हे सखी इधर (मुखर्जी नगर में ) हिन्दी को लेकर संघ लोक सेवा आयोग की नीतियों की विरुद्ध  आंदोलन हो रहा है …
नटी : यह आंदोलन क्या होता है, प्रिय!
नट : प्रिये ! यह नए युग का यज्ञ है।
नटी : फिर, तो इसमें यजमान पुरोहित भी होंगे ?
नट : तुमने ठीक समझा । वह जो शित-केशी सौम्य मुख वाले सज्जन सबके माध्य में बे स्थित हैं, वे  हीं पुरोहित हैं ।
नटी : और आचार्य ?
नट : वह सामने स्थित प्रौढ़ सज्जन जो धान की हरित बालियों की बीच झरंगा क़ी पकी हुई पिंगल  बाली कि तरह शोभा पा रहे  हैं, वही इस यज्ञ की आचार्य हैं ।
नटी : इसके यजमान कौन हैं ?
नट : बेरोजगारी रूपी कीड़े द्वारा चाल दिए गए जड़ो वाले निरस वॄक्ष की चाल कि तरह शुष्क चेहरे वाले वे युवा ही उसके यजमान हैँ।
नटी : हे प्राणनाथ! इस यज्ञ का उद्देश्य क्या है ?
नट : हे भ्रामरी की तरह मधुर गुंजार करने वाली मेरी प्राण प्रिये ! यह अधुनिक राज सूय यज्ञ है ।
नटी: इसके सम्बन्ध में सुनकर मुझे उत्सुकता  हो रही है, मुझपर अनुग्रह करके इसकी संबन्ध में विस्तार से बताएँ ।
नट : यदि तुम इतनी उत्सुक हों तो सुनो..........

(नेपथ्य से)
यह आंदोलन अपना हित साधन करने का रास्ता है । इसका किसी भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं । कुछ बुद्धिजीवी भी उसके साथ साथ हैं और स्टैटस बता रहे हैं की कुछ अध्यापक भी । पर, मुझे तो नहीं लगता कि ये कोई बहुत मह्त्वपूर्ण है क्योंकि ये सत्ता-व्यवस्था  में घुसने की होडा-होड़ी भर है। न तो इसका हिन्दी से कोई लेना देना है न हिन्दी भाषियों से।  यदि यह तथ्य है कि नई पद्धति लागू होने से पहले हिन्दी-भाषी और हिंदी माध्यम के छात्र अधिकारी बनाते रहे हैं तो यह भी तथ्य हैं की उन्होंने हिंदी भाषा के विकास में धेले भर का योगदान नहीं दिया । और मेरा यह भी दावा है की कल व्यवस्था के अंग बन जाएंगे तो वही करेंगे जो आज व्यवस्था कर रही  है। हिन्दी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों पर लाठीयां बरसाएंगे ।
            रही बात गुरुजनों की तो पहले अकादमिक जगत में अंग्ऱेज़ी की बरचस्व को तोड़ कर दिखाएँ और पश्चिम (यूरोप और अमेरिका) के आतंक से निजात पा लें, तो हिंदी क्या भारत की हर भाषा खुद-ब-खुद अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ सथान पा लेगी। अन्यथा भाषा की राजनीति  में सर  फोड़ौव्वल  के अलावा कुछ नहीं  मिलने वाला

(एक पागल  का बड़बड़ाते  हुए तेजी से  प्रवेश।  एक अदृश्य (दैवीय) स्तम्भ में बंधी स्त्री के पास आकर ठहर जाता है और अबतक मौन साक्षी की तरह सारे उपक्रम क़ो निहारने वाली वह स्त्री आचनक बोल उठती है)

स्त्री  : हा हन्त !
मुझे राजनीति की शामिधा और क्षेत्रवाद के घी  की सम्मिलित अग्नि में जाला कर  भष्म करने की निमित्त इतना कपटाचार ? ओह, स्वार्थ-सिद्ध आवाहन मन्त्रों को सुनकर यह अग्नि  अपनी लाल लाल जिह्वा कितनी तेजी से लपलपा रही हैं , लगता है, यह दुष्ट अग्नि यज्ञ की पूर्णाहुति से पूर्व ही बालि-पशु के रूप में यूप से बंधी हुई मुझे इस शाल-स्तम्भ के  साथ ही जला देगी ।
(इस तरह कहती हुई वह स्त्री अचानक आग के घेरे में आजाती है ओर उसे बचाने की उपक्रम में पागल भी उस आग में कूद  जाता है।)

समवेत स्वर में : हे पाठक गण ! अग्नि देव हमारे द्वारा श्रद्धा पूर्वक दी गयी यह जोडा बलि स्वीकार  करे और इससे प्रसन्न होकर वह हमारी आपकी और सभी अभिजात जनों की प्रिय आंग्ला भाषा नाम्नी सभ्य, सुसंस्कृत और और सभी कार्यों में दक्ष कन्या क़ो स्वस्थ और समृद्ध बनाएं तथा सौंदर्य एवं लावण्य युक्त करे। वह वैसे ही हम सभी को प्रिया हो, जैसे द्रोपदी अपने पांचो पतियों की प्रीया थी ।



                             इति श्री भाषा नाटकस्य प्रथमो अध्यायः । 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

लौट के बुद्धू घर को आए

बुद्धू हमारे गांव के पुराने रहवासी हैं। माना कि गांव के खसरा खतौनी में उनका कहीं कोई नाम नहीं, लेकिन इस बात की परवाह भी किसे है, न खुद बुद्धु को और न गांव के मुखिया-परधान को। बुद्धू कब पैदा हुए और उनके मां-बाप कौन थे किसी को पता नहीं। गांव के पुरनिया कहते हैं कि वे लोमश मार्कंदेय के सहोदर भ्राता हैं और तबसे आज तक जिए जा रहे हैं। इसी किंवदन्ती के आधार पर कुछ लोग उन्हें कैथी के मार्कंदेय धाम के निवासी भी मनते हैं, जो बाद में इस गांव में आ बसे। लोग मानते हैं, मानते रहें। मैं नहीं मानता। मैं तो उन्हें इसी गांव का मानता हूं। जब वे इस गांव की कई पीढियों के साथ जिए, रहे और अब भी रहते चले आ रहे हैं तो उन्हें यहां का मानने में भला आपत्ति भी क्या हो सकती है। इस गांव की तमाम पीढींया बुद्धु के देखते-देखते ही जन्मीं पलीं और काल के गाल में समा गईं। पर बुद्धु अब भी गबरू जवान हैं। सांड की तरह मजबूत डील-डौल और शेर की तरह मस्त चाल। हो भी क्यों न, उन्हें फ़िकर ही क्या है?जहां पांव ठिठक गए वहां खा लिया। जहां चारपाई मिलि ओठंग लिये। किसी ने कुछ कहा तो सुना दिया— ‘बुद्धू न किसी के राज्य में रहता है न किसी का दिया खाता है।’ फ़िर किसी ने कुछ अण्ट-सण्ट बोला तो बांह चढाके खड़े हो गए और तब सामने वाला खिसकने में ही भलाई  समझता है।
‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम।’ ये रही बुद्धू की प्रिय भजन जिसे स्प्तम स्वर में गा-गा कर पूरे गांव को सुनाते हैं । अगर कोई टोक दे तो ट्का सा जवाब “खुद तो कलियुग के कुटिल कीट बने घूमते हो और मैन राम का नाम जप रहा हूम तो उसमें भी बधा। हे राम घोर कलियुग आ गया है।’ इस भजन से उन्हें खुद तो कलियुग से मुक्ति मिली नहीं गांव के कुछ कुलों का उद्धार जरूर हो गया जिनके युवा उत्तराधिकारियों ने बुद्धू को अपना गुरू मान लिया। इस गांव के लगभग सारे निठल्ले बुद्धू के कनफ़ुंकिया चेले हैं। अंटी, बंटी, ही नहीं रामदास, परशुराम शरण और मुख्तार सहेब, मौलवी साहेब, बी.डी.ओ. साहेब डिप्टी साहेब सब के सब । चेलहाई में जाति-धर्म का भला कैसा बंधन ? जब ‘सबै धेनु गोपाल की’ तब सभी कनफुंकिया चेले बुद्धू के कैसे नहीं हो सकते। सुना है एक बार त्रेता में जब टोला-पडोसा के राक्षरों ने इस गांव के एक अवघड़ साधू को पूजा-पाठ में बिघ्न डाला तब उन्होंने ही उसे ‘सबके दाता राम’ का मंत्र दिया था और साधू भागा-भागा अयोध्या गयया था और राम लक्ष्मण को राजा दशरथ से उधार मांग लाया था और तब तड़का का बध इस गांव के ठीक दक्षिण में बकुलों से भरे तालाब (बक सर) में छिप कर किया गया था। बाकी की कथा तो आप को मालुम ही है।
 उनके जिवन में खास था तो बस एक घर, जो उन्हें नहीं छोडता था। वे जमाने से उसे पकड़े बैठे थे या वह उन्हें कहना असान नहीं। पर इतना तो निश्छित था दिन भर बुद्धु जहां रह ले जहां रम लें लेकिन शाम ढलते-ढलते बुद्धु वापिस घर जरूर लौट आते। एकाध दफ़ा जब वे नहीं लौटे, तो गांव में उनके मरने-बिलाने की अफ़वाह भी आई, लेकिन घूम फ़िर कर बुद्धु पुनः वापिस। सो गांव के बडे बूढों में यह कहावत ही चल पड़ी कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’।


अंश.....