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शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

मधुवन तुम कत रहत हरे


ताजे चुए हुए महुए से सुंदर मुझे कोई फूल नहीं लगता
; जूही रातरानी या हर्सिंगार का झरना भी नहीं । महुआ रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श पाँचों से से लबा-लब भरा है । किसी प्रेमी के सरस हृदय की तरह यह सहज ही निचुड जाता है और अपनी पोर-पोर, बल्कि  अपने रूपाकार को भी घुला देता है।  महुआ स्वभावतः मधुर ही नहीं मदिर भी है।  इसके बाग से गुजरते हुए गंध यदि माथे में चढ जाय तो नशा-सा तारी हो जाता है। बसंत की खुमारी का सारा कारोबार महुए के फूलों और आम की बौर ने सम्भाल रखा है। हो भी क्यों न मधुमास का जिम्मा मधूक न ले तो भला और कौन लेगा? महुए के फूल चैत्र-बैशाख में खिलते और टपकते हैं। यह वातावरण में अपूर्व मिठास का समय है। पूरा बाग ही मिठास से चिट-चिटा उठता है। आम की बौर और महुए की संगति में माधुर्य में मत्त बाग से गुजरते हुए मन अपने पुरनियों की तरह स्वतः बोल उठता है :

आपस्तस्तंभिरे चास्य समुद्र मभियास्यतः।

पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्।।

अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्धन्त्यन्नानि चिंतया।

सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु।।

          आज नागर जीवन जीते हुए यह अनुमान भी लगभग असम्भव है कि आम की बौर और पत्तों पर जमी हुई मधुआकी मिठास से बच्चों की जीभ किसी जमने में कितनी परिचित थी। अब तो आम-महुए के बागों में दिन-दिन भर भटकने वाली पीढी लगभग दुनिया से बिदा हो गई और साथ ही वे बाग भी जिनकी सघन छाया में गर्मियों की दोपहर गांव के बडे-बुढे बछे आसरा पाते थे। उसी पीढी के एक भोजपुरी गीत में नायिका के लाल-लाल होठों से टपकते माधुर्य से आम्र मंजरी से ट्पकते हुए रस की तुलना की गई है[1] लोकगीत ही क्यों शिष्ट काव्य भी इसपर मुग्ध है । यहाँ तक कि दरबारी कहा जाने वाला रीति काव्य भी  इसके माधुर्य को अनदेखा नहीं कर सका है । और तो और आलोचकों से कठिन काव्य के  प्रेत और हृदय हीन कवि की उपाधि प्राप्त केशव दास भी इससे अछूते नहीं। सखी नयिका से कहती है कि जब से नायक तेरे होठों का किसी प्रकार धृष्टता करके थोड़ा सा रस ले गए हैं तब से छुहारा, अनार, अंगूर नहीं खाते । मक्खन की चाह भी छोड़ दी है। ऊख और शहद की भी निंदा करते हैं ।  उन्होंने तो उसी दिन से पृथ्वी के मीठे पदार्थों को छोड़ दिया है। सुधा को भी उन्होंने मधुरों की श्रेणी से हटा दिया है ।[2] बिहारी और देव के यहाँ तो कई प्रसंग मिलते हैं। लेकिन जितना सुंदर चित्रण गाथा सप्तशतीमें हाल ने किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है: अग्घाइ छिवइ चुम्बइ ठेवइ हिअअम्मि जणिअ रोमंचो ।

जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअ पुफ्फं ॥



[1] लाले लाले ओठवा से चूए ला ललैया हो कि रस चुए ला

जैसे अमवा के मोजरा से रस चुए ला

[2] खारिक खात न दारयौंइ दाख न माखनहूँ सहुँ मेटी इठाई ।

केसव ऊख महूखहु दूखत आई हों तो पहँ छाँडि जिठाई

तो रदनच्छद को रस रंचक चाखि गए करि केहूँ ढिठाई ।

ता दिन तें उन राखी उठाइ समेत सुधा बसुधा की मिठाई ॥

 

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

कदंब और कृष्ण


कृष्ण स्वयं माधुर्य रुप हैं। उनका सौंदर्य और सम्मोहन अद्वितीय है, लेकिन उनकी की सौन्दर्य दृष्टि उससे भी अनूठी है। कहां कृष्ण का कोमल मधुर व्यक्तित्व और कहां कदंब के वृक्ष पर वंशी बजाना, करील के वन में विहार और कुब्जा का वरण। तीनों ही उनके व्यक्तित्व से बेमेल जान पड़ते हैं, लेकिन यह मेल बिठा लेना ही कृष्णत्व है। उनका पूरा व्यक्तित्व ही विरुद्धों का अद्भुत सामंजस्य है। राम आदर्श या मर्यादा की लीक से रंच मात्र नहीं डुलते लेकिन कृष्ण अपनी मर्यादाएं और प्रतिमान स्वयं गढ़ते हैं और उसे समाज के लिए प्रतिमान बना देते हैं । सहज इतने की भारतीय देव समूह में अकेले शिव ही इनके गोतिया नजर आते हैं। 
    यह महूए, आम और जामुन के निझा जाने के बाद कदंब के फलने की ऋतु है। प्रकृति की रीति भी अद्भुत है। महुए की मादक मिठास के बाद आम की कुछ खट्टेपन वाली मिठास,जामुन की कसैली मिठास से होते हुए कदम के कसैलेपन पर आ टिकती है। जीवन की यात्रा भी भला इससे अलग कहां है? मेरे बचपन में गांव में केवल एक कदम्ब का पेड़ था। विद्यालय के दिनों स्कूल बंक करने वाले या एकाध कालांशों के लिए कक्षा से गायब होने वाले विद्यार्थियों का आरामगाह। वहां से लौटते हुए वे कदंब के फल ले आते और एक पुड़िया स्याही के भाव में हमें बेच देते। यही उनका 'बिजनेस ब्लास्टर' था। 
बड़े होकर कदंब की कृष्ण से यारी का पता विद्यापति के मार्फत चला । तबसे कदंब की याद आते ही कृष्ण और विद्यापति दोनों स्मृति में एक साथ कौंध उठते हैं: 
नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।

मेरा मन भले गंगातीरी हो पर तन तो अब अपना भी यमुना तीरी हो चला है। राधा की तरह की अनुरक्ति या निष्ठा अपने भीतर नहीं और न हमारी यमुना ही कृष्ण की यमुना है जो इसका तीर देख उनकी सहज याद आ जाय। कभी-कभी लगता है कालिया नाग कृष्ण से पराजित हो खांडव वन में अपने मित्र तक्षक के यहां आ बसा था। सो अपने हिस्से की यमुना कुछ वैसी ही है काली और विषाक्त। पांडवों ने भले ही खांडवप्रस्थ का नाम बदल कर इंद्रप्रस्थ कर डाला हो लेकिन गुण अभी भी यथावत है। राज्य और नगर का नाम बदलने से प्रजा थोड़े बदल जाती है, वह तो पूरे गुण-धर्म के साथ वैसी ही रह जाती है। फिर आजादी के बाद तो देश की जनता ने चुन-चुन कर सारे तक्षक, सारे कालिया, सारे वासुकि इस खांडवप्रस्थ में भेज दिए हैं। विडंबना यह है कि अब न कृष्ण हैं न अर्जुन और न जन्मेजय। इनसे मुक्ति कैसे मिले?