ताजे चुए हुए महुए से सुंदर मुझे कोई फूल नहीं लगता; जूही रातरानी या हर्सिंगार का झरना भी नहीं । महुआ रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श पाँचों से से लबा-लब भरा है । किसी प्रेमी के सरस हृदय की तरह यह सहज ही निचुड जाता है और अपनी पोर-पोर, बल्कि अपने रूपाकार को भी घुला देता है। महुआ स्वभावतः मधुर ही नहीं मदिर भी है। इसके बाग से गुजरते हुए गंध यदि माथे में चढ जाय तो नशा-सा तारी हो जाता है। बसंत की खुमारी का सारा कारोबार महुए के फूलों और आम की बौर ने सम्भाल रखा है। हो भी क्यों न मधुमास का जिम्मा मधूक न ले तो भला और कौन लेगा? महुए के फूल चैत्र-बैशाख में खिलते और टपकते हैं। यह वातावरण में अपूर्व मिठास का समय है। पूरा बाग ही मिठास से चिट-चिटा उठता है। आम की बौर और महुए की संगति में माधुर्य में मत्त बाग से गुजरते हुए मन अपने पुरनियों की तरह स्वतः बोल उठता है :
आपस्तस्तंभिरे चास्य समुद्र
मभियास्यतः।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च
नाभवत्।।
अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्धन्त्यन्नानि
चिंतया।
सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके
मधु।।
आज नागर जीवन जीते हुए यह अनुमान
भी लगभग असम्भव है कि आम की बौर और पत्तों पर जमी हुई ‘मधुआ’ की मिठास से बच्चों की जीभ किसी
जमने में कितनी परिचित थी। अब तो आम-महुए के बागों में दिन-दिन भर भटकने वाली पीढी
लगभग दुनिया से बिदा हो गई और साथ ही वे बाग भी जिनकी सघन छाया में गर्मियों की
दोपहर गांव के बडे-बुढे बछे आसरा पाते थे। उसी पीढी के एक भोजपुरी गीत में नायिका
के लाल-लाल होठों से टपकते माधुर्य से आम्र मंजरी से ट्पकते हुए रस की तुलना की गई
है[1]। लोकगीत ही क्यों शिष्ट
काव्य भी इसपर मुग्ध है । यहाँ तक कि दरबारी कहा जाने वाला रीति काव्य भी इसके माधुर्य को अनदेखा नहीं कर सका है । और तो
और आलोचकों से ‘कठिन काव्य के प्रेत’ और ‘हृदय हीन कवि की उपाधि प्राप्त केशव दास भी इससे अछूते नहीं। सखी नयिका से
कहती है कि जब से नायक तेरे होठों का किसी प्रकार धृष्टता करके थोड़ा सा रस ले गए
हैं तब से छुहारा, अनार, अंगूर नहीं खाते । मक्खन की चाह भी छोड़ दी है। ऊख और शहद
की भी निंदा करते हैं । उन्होंने तो उसी दिन से पृथ्वी के
मीठे पदार्थों को छोड़ दिया है। सुधा को भी उन्होंने मधुरों की श्रेणी से हटा दिया
है ।[2] बिहारी और देव के यहाँ तो कई
प्रसंग मिलते हैं। लेकिन जितना सुंदर चित्रण ‘गाथा सप्तशती’ में हाल ने किया है वह अन्यत्र
दुर्लभ है: अग्घाइ छिवइ चुम्बइ ठेवइ हिअअम्मि जणिअ रोमंचो ।
जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअ पुफ्फं ॥